एक थी तरु / भाग 34 / प्रतिभा सक्सेना
इतनी सहन शक्ति कहाँ से आ जाती है इन्सान में?
तरु बहुत छोटी थी, तब याद करती थी-सी। ए। एन। कैन, कैन माने सकना।
उसकी समझ में नहीं आता था’सकना’ क्या होता है।
तरु और उसी के बराबर का -मोहन, पड़ोस के पोस्ट-मास्टर का बेटा। दोनो बैठे मीनिंग रट रहे हैं। रटते-रटते तरु चुप हो गई।
"याद करो तरु, नहीं तो डाँट पड़ेगी।”
फिर वे शुरू हो जाते हैं -सी। ए। एन। कैन, कैन माने सकना।
"मोहन, ये सकना क्या होता है?”
"ये तो हमें भी नहीं मालूम।”
मैन, रैट, कैट, फैट सब समझ मे आते हैं, पर कैन का सकना क्या होता है, दोंनो मे से किसी को नहीं मालूम। बस रटे जा रहे हैं
'सकना’ क्या होता है, यह जानने की उम्र तब उनकी थी भी नहीं।
बड़ा होकर इन्सान जब घबराता है, सोचता है नहीं, नहीं कर सकता। तब कोई अदृष्ट व्यंग्य से हँस पडता है
, 'नहीं सकता क्या, यही करना होगा!’
और तब सकना का अर्थ समझ में आने लगता है।
विपिन के बारे में सोच कर वह दहल उठती है।
यह क्या हो गया, जिसकी कल्पना भी नहीं की थी!
लिली ने किसी का क्या बिगाड़ा था? वह बेचारी तो क्या चल रहा है यह भी नहीं जानती थी।
विपिन के भीतर प्रचण्ड दावाग्नि धधक उठी है।
लवलीन का ध्यान आता है तो पागल सा हो उठता है।
रात-रात भर चक्कर काटता है, बाल नोचता है, सिर पटकता है, चिल्लाता है,”उसने क्या बिगाड़ा था उनका? उसने क्या किया था?
पहले ही घबराती थी वह इस सब के बीच में थी ही कहाँ?’
फिर रोने लगता है बुदबुदाने लगता है,”--क्या-क्या अत्याचार किये होंगे तुझ पर? --सिर्फ मेरी वजह से --मुझे एक बार बतला दे लिली ---मैं एक-एक से बदला लूँगा। तड़पा-तड़पा कर मारूँगा। ---एक बार बता जा लिली, बस एक बार --।”
पर उसकी लिली कहाँ है इस दुनिया में?
विपिन के सिर पर वार कर, वे लोग लिली को उठा ले गये थे। उसके बाद वह नहीं मिली। दो दिन बाद नहर के किनारे उसकी लाश मिली -नग्न, वीभत्स!
बदला किस-किस से लोगे विपिन, यहाँ तो सारी व्यवस्था एक सी है ?
तरु के मन में प्रश्न ही प्रश्न चीख़ते हैं।
वह हर बार धीरज देना चाहती है, वह कुछ नहीं समझता।
लोग आते हैं पूछते हैं -वह लाल आँखें किये देखता रहता है।
तरु अपने घर ले आई उसे। यत्नपूर्वक रखा, पर मौका पाते ही विपिन ग़ायब हो गया।
असित दौड-धूप कर रहे हैं, तरल बहुत उद्विग्न है। सब जगह हल्ला मचा है।
पत्रकार हर तरफ विरोध कर रहे हैं, अखबारों मे अपीलों पर अपीलें निकल रही हैं प्रदर्शन हो रहे हैं, पुलिस दौड़ रही है, और सरकार निष्पक्ष पूरी जाँच का आश्वासन दे रही है।
पर कुछ होगा क्या?
हल्ला मचानेवाले कुछ कर पायेंगे?
एक और घर बनते-बनते बिग़ड गया। लवलीन मार डाली गई। विपिन विक्षिप्त सा घूम रहा है।
दोष किसका है?
अतीत की स्मृतियाँ तरु को बहा ले गईं। विपिन को भूली कभी नहीं थी। पर आज उसके लिये मन में सोया मोह उमड़ पडा है।
बुआ कहता था विपिन!
कितना अपनापन पाया था -कितनी सहज सहानुभूति और निश्छल प्रेम ! कितना विश्वास करता था, कितना महत्व देता था मुँह से निकली एक-एक बात को! तरु को लग रहा है -मैंने ही उसे झोंक दिया जलते अंगारों में।
क्या ज़रूरत थी आदर्शवाद की पट्टी पढ़ाने की?
और वह भी जब यह पता हो कि उसे इस घोर भ्रष्टता के संजाल में जीना है? पैने नखों और विषैले दाँतों वाले पशुओं के बीच एक अकेला आदमी कैसे जी पायेगा अपने सिद्धान्तों को ले कर?
उसके विश्वास का क्या प्रतिफल दिया मैंने?
वह और उसकी लिली। एक दूसरे के अनुरूप, एक दूसरे के पूरक। कितना शान्त, संतुष्ट जीवन जी रहे थे! तरु को सब याद आ रहा है -
उसने विपिन से कहा था,”तुम पत्रकार हो। तुम अनुचित को संकेतित नहीं करोगे, अन्याय के विरोध में खड़े नहीं होगे, तो और कौन होगा? इस महाभारत के संजय हो तुम! निष्पक्ष, निर्द्वंद्व, सत्यान्वेशी। पत्रकार बन कर वरदान मिला है तुम्हें, सजग दृष्टा और समर के साक्षी होने का। अपना कर्तव्य करो विपिन। बड़ा दायित्व है तुम्हारे ऊपर!”
"पर, बुआजी, सब एक से हैं। हम कुछ करेंगे, तो हमारा ही पत्ता काट देंगे।”
"नहीं विपिन, सत्य और न्याय का मूल्य कभी कम नहीं होता। आज के युग में तो और भी नहीं, क्यों कि, ये इतने दुर्लभ हैं। ये छोटे-छोटे टुटपुँजिये लोग उन्हें अपने अधिकार में कर लें, और समाज का सबसे जाग्रत वर्ग, तुम पत्रकार लोग, चुप बैठे देखते रहो तो देश का क्या बनेगा? मैनें तो ऐसे पत्रकार देखे हैं, जो जान जोखिम में डाल कर झूठ का पर्दा फाश करते हैं। वही सच्ची पत्रकारिता है। पत्रकार जैसा सत्य की तह तक पहुँच जानेवाला प्रबुद्ध ही जब विवेकहीन और पथ-भ्रष्ट हो जायेगा, तो वही होगा जो आज हमारे देश मे हो रहा है।”
और आज विपिन सिर पर पट्टियाँ बाँधे पागल-सा घूम रहा है, भ्रष्टाचार का पर्दापाश करने की कीमत चुका रहा है। उसकी प्रिया को गुण्डों ने उड़ाया, दरिन्दे बन कर नोच-नोच कर मार डाला। उसका अजन्मी सन्तान को गर्भ में ही रौंद दिया।
विपिन चिल्लाता है,”मेरी लिली, मेरे कारण तुझे लूटा गया, तुझे नोचा-खसोटा गया। ओ, मेरे बच्चे मैंने तुझे देखा भी नहीं। --उस अजन्मे को दाँव पर लगा दिया मैंने।”
तरु का मन लगातार धिक्कार रहा है, ’मैंने ही आग सुलगाई थी। एक सुखी परिवार को झोंक दिया उसमें। सब नष्ट कर दिया। मैंने किया यह, मैं ने। उन लोगों को झोंक दिया हवन-कुण्ड में और आराम से घर बैठी ताप रही हूँ।’
दर्द करते सिर को वह हाथ से दबाती है।
ओह, क्या करूँ मैं? --वह कहाँ भटक रहा होगा!
न स्वयं चैन लेती हूँ, न दूसरों को लेने देती हूँ।
चार दिन बाद असित विपिन को लेकर लौटे।
"ये, तुम्हारा भतीजा। वहाँ स्टेशन पर बैठा था। मुझे भी नहीं पहचाना। बड़ी मुश्किल से लाया हूँ।”
तरु को देख विपिन की आँखों पहचान उभरी, अचानक वह सीने पर हाथ दबा कर झुक गया।
"क्या हुआ विपिन? क्या हुआ तुम्हें?”
तरु ने उसे लिटा दिया। तकिया सिर के नीचे लगाया और हाथ सीधा करने लगी तो हाथ झटक दिया उसने। दर्द के मारे कराह उठा।
हाथों पर इंजेक्शन के निशान हैं। बार-बार बेहोश हो जाता है। बड़ी मुश्किल से एक गिलास दूध पिला पाई। तब तक असित डॉक्टर को ले आये।
'ये बाँह पर किसका इंजेक्शन दिया है, बड़ी सूजन है?”
"विपिन बोलो, इन्जेक्शन किसने लगाया?”
बड़ी कोशिशों के बाद, टूटे-उखड़े शब्दों मे उसने जो बताया उससे पता लगा उसे पकड़ ले गये थे, कार में डाल कर ले गये थे। कमरे में बन्द कर दिया, फिर इन्जेक्नश लगाये, बडा दर्द--आह।
विपिन का चेहरा ज़र्द होता जा रहा है। अटक-अटक कर शब्द मुँह से निकलते हैं।
"वो कौन थे?”
"वो पाँच --।”
तरु बार-बार सजग कर पूछती है,”नाम बताओ, कौन थे?”
डॉक्टर ने रोक दिया,”अभी मत पूछिये, उत्तेजित हो जायेंगे।”
बाद में भी तरु धीरे-धीरे निकलवाने की कोशिश करती रही।
" विपिन, इन्जेक्शन किसने लगाया?”
"उनने। उनने--कह रहे थे --कह रहे थे --।”
साँस धीरे-धीरे चल रही है।
"इन्हें अस्पताल ले चलिये।”डॉक्टर ने कहा।
डॉक्टरों ने जाँच की। कितनी सुइयां भोंकी हैं। शरीर के साथ दिमाग पर भी असर है।
तरु रो रही है बराबर। असित चुप हैं। एस। पी को, निशान्त के सम्पादक को फ़ोन किये जाते हैं। बहुत लोग इकट्ठा हैं। भीड उत्तेजित है।
सब आये और सब चले गये। केस सी। आई। डी को सौंप दिया गया।
कुछ हो पायेगा?
जहाँ हर चीज पैसे और प्रभाव से तोली जाती हो, वहाँ न्याय कौन करेगा?
जो लोग मिलने आते हैं, विपिन से खोद-खोद कर पूछने का प्रयत्न करते हैं।
तरु बार-बार रोकती है,”स्वस्थ हो लेने दीजिये। अभी उत्तेजित होना नुक्सानदेह है।”
बेसुधी मे वह’लिली, लिली’ चीखता है। उसकी हालत गंभीर है। सीने मे दर्द, सिर में चक्कर, बार-बार बेहोशी। मुँह से कुछ शब्द निकलते हैं --एम्बेसेडर कार, अँधेरा। , हाय, मार डाला , भयानक यातना। कुछ कागजों पर जबरन हस्ताक्षर भी कराये हैं।
कौन हैं यह सब करनेवाले?
शान्ति -व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदार पुलिस? जनता का पैसा लूटनेवाला ठेकेदार? गुण्डों के सरदार, हमारे नेता?
कोई अकेला नहीं, सब मिले-जुले हैं।
अकेला है विपिन!
बस। जो सच का साथ दे रहा है!
डॉक्टरों ने व्यवस्था कर दी है, रात को आराम से सोयेगा विपिन।
तरु का मन उसे कटघरे में खडा कर उत्तर माँगना शुरू कर देता है
। बहुत दुःसह होती है वह स्थिति!
तुम्हें क्या पडी थी?
अब उसे कौन सम्हालेगा?
वह तुम्हारा अपना होता, तो भी तुम ऐसा ही कर पातीं?
अपना कोई होता?
तरु के मुँह पर थप्पड़ सा पडा। विपिन कितना अपना है कैसे बतायेगी? जिसे कोई नहीं समझ सकता कैसे समझाये वह?
और। ग़लत को सही कैसे कह पाती?
किसी भी कीमत पर। चाहे वह स्वयं हो, असित हो, बेटी हो, बेटा हो? और तब तो अन्दाज भी नहीं था कि इतना कुछ हो जायेगा। अपने पराये की क्या परिभाषा है? मन को चीर कर तो नहीं दिखाया जा सकता।
भीतर ही भीतर एक अँधड़ सा चल रहा है। दिमाग ठिकाने नहीं रहता।
सब्जी छौंकने बैठी थी। चूल्हे पर कढाही रख कर तेल की बोतल उठा लाई और गर्म कढाही पर उँडेल दी।
एकदम खूब जोर से उछलती लपट और मिट्टी के तेल का तेज़ भभका!
फ़ौरन पीछे हटी तरु। बोतल दूर हटा दी उसने।
ओफ़, क्या हो गया है मुझे? कडुये तेल और मिट्टी के तेल की पहचान नहीं रही?
जलते-जलते बच गई, साड़ी भी सिन्थेटिक। कुछ हो जाता तो?
लोग दस तरह की बातें करते। कोई कहता -सुसाइड। कोई कहता हत्या।
और मेरी बच्ची? कौन सम्हालता उसे?
नहीं -नहीं ! कोई बच्चा ऐसे न जिये जैसे असित या। बस आगे नहीं सोच पाती।
इन लोगों को मँझधार में छोड़़ कर कहीं शान्ति नहीं पा सकती तरल -मरने बाद भी नहीं!
अस्पताल और घर दोनों के बीच चक्कर काट रही है। -
लोग आते हैं, जाते हैं। तरह-तरह के लोग। बातें ही बातें!
कब तक? कैसे?
चंचल से काफी मदद मिलने लगी है, पर उसे भी कालेज जाना, अपनी पढ़ाई। असित का सहयोग मिल रहा है। पर उनका अपना काम भी तो है। तरु को मना नहीं करते, रोकते नहीं, खुद भी जितना हो सकता है कर देते हैं।
विपिन कभी थोड़ा सँभलता है, तो कभी एकदम उन्मत्त हो उठता है। तब उसे नियंत्रण मे रखना मुश्किल हो जाता है।
सिर का घाव भर आया है, स्वास्थ्य पहले ले ठीक है, जीवन खतरे ले बाहर हो गया है, पर मन और मस्तिष्क में संतुलन नहीं आया।
तरु के मन में निरंतर एक मंथन चलता है -भीतर ही भीतर कुछ उमड़ता घुमड़ता अपने साथ बहा ले जाता है। क्या होगा विपिन का? इन अपराधियों को कौन दण्डित करेगा?
अपराधी?
हाँ, अपराधी।
मन के दर्पण में उसे अपना ही चेहरा दिखाई देने लगा है-पर दर्पण चटका हुआ है।
चेहरा एक नहीं अनेक हैं -आधे-अधूरे। विद्रूप करते से!