एक थी तरु / भाग 36 / प्रतिभा सक्सेना
कभी-कभी जब कुछ करने को नहीं होता मन जाने किन पुरानी गलियों में भटक जाता है। एक से एक बे-मेल स्मृतियाँ, कोई तुक नहीं जिनका आज के जीवन से, अनायास जाग उठती हैं।
एक हरषू था। आज सड़क पर जाते एक लड़के को देख कर लगा वही जा रहा है। नहीं वह कहाँ। दस साल पहले की बात है अब कहाँ वह नितांत अनुभवहीन, दुनिया भर की उत्सुकता आँखों में समेटे लजाता-सा युवक।
समय के साथ अधेड़ तो हो गया होगा ही और परिस्थितियाँ ऐसी कि और दस साल बड़ा लगता हो तो ताज्जुब नहीं। ,
वही हरषू जिसने अपनी चाची से कहा था, ’चाची, ये तरु बी। ए। का फ़ारम भऱ रही है। ये पढ़ेगी इम्तहान में बैठेगी।’
उसकी आँखों में ईर्ष्या की कौंध देखी थी तरु ने।
वह लड़का था। उसे लगता होगा ज़रूरत उसे अधिक है पढ़ने की, बढ़ने की आगे का रास्ता बनाने की और तरु तो लड़की है शादी हो जायेगी क्या करेगी डिग्री का?
पर उसे कोई सुविधा नहीं मिली आगे पढ़ना एक सपना बन कर रह गया। चाचा इतना खर्चा क्यों करेंगे उस पर। दसवीं पास कर रह जायेगा।
हाँ, मैं लड़की हूँ।
-पर मैं। मैं। नहीं पढ़ती तो?
कैसा होता जीवन। बिलकुल परवश। कुछ नहीं कर पाती। कहीं ब्याह दी जाती -घुट जाती बिलकुल। कुंठित, वर्जित, विवश,
जैसे अम्माँ! कितनी बेबस थीं वे! बेबस कोई होता नहीं बना दिया जाता है -शुरू से, कि स्वतंत्र व्यक्तित्व विकस ही न पाये, जैसा चलाया जाय बस उतना ही। सारी ऊर्जा घुट-घुट कर नकारात्मक हो जाय चाहे। हताशा का ओर-छोर नहीं, उबरने का कहीं रास्ता नहीं।
दोष उन स्त्रियों का नहीं जिनकी क्षमताओं को नकार दिया सबने, अपने ही खाँचों में फ़िट करने के लिये। बस गृहस्थी की गाड़ी घसीटते उसी लीक पर चलना है तुम्हें। ऊपर से अपेक्षा कि सहज-समान्य बनी रहो। जिनके लिये सारे रास्ते बंद हो। , कैसा लगता होगा उन्हें?। अम्माँ की तरह!
अम्माँ की यादें ऐसी मनस्थिति के साथ लगी चली आती हैं।
उनकी की मृत्यु से कुछ सप्ताह पहले तरु भाई के घर गई थी। उसे लग रहा था भाभी पर बहुत बोझ पड़ गया है, कुछ सहायता पहुँचा सके और अम्माँ के साथ कुछ दिन बिता ले।
उस दिन कामवाली नहीं आई थी। झाडू-पोंछा, चौका-बर्तन सब पड़ा हुआ था। रीना वैसे ही व्यस्त है, चलो मैं ही करवा दूँ -सोचा तरु ने और लग गई।
चौके में झाडू लगाते समय पटे के नीचे ढँका कुकर का पुराना एल्यूमीनियम का डिब्बा झाडू के धक्के से बाहर खिसक आया।
'अरे, ये कल सुबहवाले कढ़ी-चावल यहाँ किसने मिला कर रखे हैं? कुत्ते को डालने के लिये रख दिये होंगे', तरु ने सोच लिया। उसने डब्बा वहीं खिसका दिया।
बाद में जब नहाकर निकली तो देखा अम्माँ घिसटती हुई चौके में पहुँच गई हैं और और पटे के नीचे से वे बासे कढ़ी-चावल निकाल कर वहीं जमीन पर बैठ कर खाने लगी हैं।
'अरे अम्माँ, ये क्या खा रही हो?’
'अमाया ऐ---बअ जाआ ऐ, वो अहीं अक ऐती हैं ---।’
अम्माँ अब रुक-रुक कर ऐसे ही बोल पाती हैं। सुबह से उनने कुछ खाया नहीं था।
पूछने पर रीना ने कहा था ये कुछ समझती नहीं, इन्हें कैसे खिलाना-रखना है मुझे पता है। नहीं तो पेट खराब हो जाये तो कौन समेटता फिरेगा!
स्तब्ध तरु देख रही है, जिसे देख कर ही खाने की इच्छा खत्म हो जाये, कितनी भूख के बाद वह गले से उतरता होगा!
कितना तरसी होंगी ये, कैसे गु़ज़रे होंगे इनके दिन। कितनी शौकीन थीं स्वादिष्ट चीजें बनाने की -खाने और खिलाने की!
शाम को तरु ने अपनी लाई मिठाई में से दो पीस फ्रिज में से निकाले और लाकर अम्माँ को पकड़ा दिये।
रीनी ने खाते देख लिया, बोली, ’दीदी, हमारा इतना बस नहीं कि इतना सब इन्हें खिलायें। बेकार आदतें बिगा़ड रही हो।’
क्या कमी है इस घर में? क्या नहीं बनता यहाँ? पर हाँ, घर तुम्हारा है मैं कौन होती हूँ किसी से कुछ कहने-करनेवाली!
यहाँ तो शुरू से ही यह चल रहा है। कभी कोई बात होने पर रीना फट् से कहती है, ’इनने हमें क्या दिया?’
ठीक है, इस दुनिया में अपनापन, लिहाज, संबंध सब खोखले शब्द हैं। पहले इस हाथ से ले ले तब उसी हिसाब से उस हाथ से दे।
यहाँ किसी से कुछ कहना बेकार है, तरु जानती है नहीं तो बहुत कुछ सुनने को मिल जायेगा। शादी के पहले इन के पति ने जो कमाई की थी उसे किस-किस पर कितना खर्च किया, इन्हें तो इसका भी हिसाब रखना है और जितना हो सके उसे बराबर कर लेना है।
उस दिन सबके साथ खाने बैठ कर तरु उन कौरों को कड़वे घूँटों की तरह हलक से उतारती रही थी।
फिर उनकी मृत्यु की सूचना आई थी।
चलो, अच्छा हुआ मुक्ति पा गईं वे भी। यहीं के यहीं प्रायश्चित हो गया।
ओ माँ, चलते समय कोई भी बोझ तुम्हारी छाती पर नहीं रहा होगा! सब धुल-पुँछ गया। कोई पछतावा लेकर नहीं गई होगी तुम!
विश्राम करना, निश्चिन्त होकर माँ, और निर्मल स्वच्छ मन लेकर फिर आना तुम!
जाने कितनी विवशताओँ से कुण्ठित अपनी जो ममता अपनी संतान को नहीं दे पाईं, फिर आकर स्नेह से सींच देना। औरों का मैं नहीं जानती लेकिन मेरा तृषित मन तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा। तुम्हारे अन्तर्मन में भी कुछ खटक रह गई होगी-अपने बच्चों पर अपना ममत्व लुटाये बिना तुम भी कहाँ चैन पाओगी!
हमने जाने में -अनजाने में, गुस्से में या रिक्त मन में घुमड़ती असंतोष की अभिव्यक्ति के कारण, जो अनुचित किया हो उसे भी क्षमा कर देना माँ, सोच लेना कि इतनी बुद्धि हममें विकसित नहीं हो पाई थी!
मन ही मन कहती है तरल -इस नाम और रूप की मूल निर्मिति तुम्हारी है। जीवन के प्रति जो दृष्टि विकसी है इसके मूल में भी कहीं तुम हो! आज मैं जो हूँ तुम्हारी देन है। तुमसे भिन्न कर इसे देखना संभव नहीं।
और मन की उद्विग्नता जब असहनीय हो उठती है तब अपने भीतर किसी को पुकारती है तरु, कहती है -ओ मेरे अंतर्यामी, जीवन का जो ज़हर मेरे हिस्से में आया है उसे पचाने की सामर्थ्य देना! तुमने जो दिया, मुझे स्वीकार, पर उसे अंत तक निभा सकूँ ऐसी क्षमता भी तुम्हीं प्रदान करते रहना!
विपिन की खोज-ख़बर लेती रहती है तरल।
उसके माता-पिता रिटायर हो गये, अपने गाँव में रहने चले गये हैं वे लोग।
इलाज चल रहा है। बिलकुल नॉर्मल नहीं हो पाया अभी तक। दाहिने हाथ की सूजन बड़ी मुश्किल से कम हुई है, अब भी किसी मौसम में दर्द होने लगता है। सूजन भी बढ़ जाती है और उठा नहीं पाता हाथ। कभी-कभी एकदम उत्तेजित हो जाता है। यहाँ के वातावरण से दूर रहना ही उसके हित में है।
नहीं, तरु नहीं जा सकती उसे देखने।
नहीं तो फिर वही सब घिर आयेगा उस पर, उत्तेजना नुक्सानदेह हो जायेगी। कहीं फिर दिमाग़ पर वही सब चढ़ गया या अवसाद में लौट गया तो!
नहीं। चिट्ठी-पत्री करने की भी ज़रूरत नहीं, असित का कहना है जिस स्थिति से निकालना है उससे बच कर रहना ही ठीक होगा। लिखने-पढ़ने से तो वही सब फिर उभर आयेगा। दिमाग़ पर और ज़ोर पड़ेगा। नहीं, उसे वहीं रहने दो, यहाँ क्या बचा है उसके लिये! इसी में उसका भला है।
हाँ, इसी में उसका भला है!