एक थी तरु / भाग 37 / प्रतिभा सक्सेना
दिन बड़े खाली-खाली से हो गये हैं -बड़े उचाट से!
लगता है करने को कुछ नहीं, एक बँधा हुआ ढर्रा चलता जा रहा है। समय बीतता चला जा रहा है।
चंचल एम। ए। में आ गई है। असित ने बड़े-बड़े मंसूबे पाल रखे हैं -मेरी बेटी ये बनेगी, वो बनेगी।
तरु को हँसी आती है। पहले यह भी तो देख लो बेटी का झुकाव किस ओर है।
असित का कहना है अभी शादी की क्या जल्दी है, उसे कुछ बन लेने दो
। तरु कुछ और सोच रही है। लड़की अपना केरियर बनाना चाहे तो इन्तज़ार किया जाय नहीं तो सही उम्र पर विवाह ठीक। जीवन के उल्लास और उमंगें उम्र के बढ़ने साथ, कभी-कभी दूध में उफान की तरह बैठने लगती हैं। सही उम्र से उसका मतलब है बीस से तेईस तक-लडकियों के मामले में। लव मैरिज पर उसका विश्वास नहीं। खास कर नई उम्र की लडकियाँ। जो दुनियादारी के अनुभव से बिल्कुल कोरी हों, इस मामले मे भावुकता या कोरे आदर्शवाद से निर्णय ले लेती हैं, फिर उम्र भर पछताती हैं।
"आज की दुनिया बड़ी खराब है। " वह असित से कहती है, "फिर हमारे सामने ही, चंचल भी सेटल हो जाय तो निश्चिन्ती हो। "
अन्दर वाले कमरे में चंचल पढ रही है, बाहरवाले में असित और तरु हैं। उनकी बातों के कुछ अंश उसके कान तक आ जाते हैं।
असित ने आवाज देकर इनलैंड लाने को कहा।
'अच्छा तो कहीं चिट्ठी लिखी जा रही है’! कौतूहल से, कुछ देर वहीं खडी रही। फिर लौट गई।
चंचल की कुछ साथिनें ब्याह गईं, कुछ विभिन्न प्रतियोगिताओं की तैयारी, और कुछ निरुद्देश्य पढ़ रही हैं।
विवाह की बात उसके मन में पुलक भर देती है। घर में अब यह चर्चा होने लगी है।
कान लगा कर बाहर की बातें सुनने की कोशिश करती है। एकाध शब्द के अलावा कोई कुछ बोल ही नहीं रहा।
वैसे तो पापा बार-बार मम्मी से पूछते हैं’क्या लिखें?’और मम्मी बताती हैं। दोनों सलाह -मशविरा करते हैं। आज इतने चुप कैसे हैं?
उसे ताज्जुब हो रहा है। हो सकता है मन्नो मौसी को लिख रहे हों। उनकी तबीयत खराब थी, आपरेशन होना है। वे चाहती है हिन्दुस्तान से कोई कुछ महीनों के लिये उनके पास चला जाय। हाँ, मम्मी जा सकती हैं। पर वहाँ इन्लैंड थोड़े ही लिखा जायेगा।
उँह, उसने सोचा अभी लिख कर रख देंगे तब देख लूँगी। चिट्ठी के मामले में पापा बडे आलसी हैं, एक तो उनकी चिट्ठी एक बार में पूरी होती नहीं और फिर दो-तीन दिन से पहले डाक में नहीं जाती।
फिर भी उसका मन नहीं माना, तो किताब उठाने बहाने फिर वहाँ जा घुसी। रैक पर किताबें खड़बड़ करती रही -शायद कुछ शब्दों को पकड़ कर मतलब समझ में आ जाय।
कोई कुछ नहीं बोल रहा। किताबें उठाने में भला कतनी देर लगाई जा सकती है! फिर अन्दर आ गई पर उसके कान उधर ही लगे हैं।
असित की आवाज , "देखो ठीक है। "
"हाँ और क्या? " कुछ देर में मम्मी की आवाज।
अजीब बात है। घूमकर आये दोनों जने और चिट्ठी लिखने बैठ गये। ऐसी क्या जरूरी थी। वैसे तो मम्मी दस बार रटती हैं तब दो-चार दिन टाल-मटोल कर लिखते हैं
। ऊँह होगा, मुझे क्या?
पर किसी तरह चैन नहीं पड़ रहा, अन्दर सुगबुगाहट हो रही है -लिखा किसे है? क्या लिखा है? कुछ मुझसे संबंधित है?। कहाँ के लिये हो सकती है? वह लाख सिर मारती है, कुछ समझ नहीं आता। न बेकार कमरे में जाना ठीक लग रहा है, न कुछ पूछना चंचल बेचारी परेशान है।
एक बार सोचा पापा को आवाज़ देकर कहे बंबई चिट्ठी लिख रहे हों तो मैं भी लिखूँगी जीजा जी को। मन्नो मौसी की बेटी आज कल वहीं है न। पर कहने की हिम्मत नहीं पडी। डर लगा मम्मी टोक देंगी, "पढ़ रही हो या इधर ध्यान लगाये हो? "
चंचल फिर पानी पीने निकली। असित अब चिट्ठी मोड़ रहे हैं।
"पता तो लिखो तरु ने कहा। "
हाँ, वहीं जा रही है -चंचल समझ गई।
फिर तरु की आवाज आई, "पीछे अपना पता भी पूरा लिख दो। "
"रहने दो, वे गेस करें। "
अब रहा नहीं गया चंचल से। बाहरवाले कमरे में फिर आ गई, "पापा, कहाँ चिट्ठी लिखी? "
बढ़ कर चिट्ठी उठा ली उसने , "अच्छा, जीजा जी को लिखी है! लाइये हम अपना नाम लिख दें पीछे। "
"नहीं, नहीं, तुम अलग लिखना। " असित ने फौरन टोका। उन्होंने पीछे अपना पता भी लिख दिया।
तरु अखबार की गड्डी लिये, किसी खास तारीख का ढूँढ रही है। असित बाथरूम चले गये। चंचल ने धीरे से चिट्ठी उठा ली और दूसरे कमरे में घुस गई।
चलो। मोड़ी है अभी, चिपकाई नहीं है!
क्या करे? कमरा बन्द कर ले? पर इस समय कमरा बन्द करने की क्या तुक? मम्मी समझ गईं तो! रक्खी रहने दो यहीं, रात में अभी काफ़ी देर जग कर पढ़ाई करनी है, मौका लग ही जायेगा।
'अरे, जब लिख ही ली है तो डाल क्यों नहीं आते। सुबह निकल जायेगी ? " तरु की आवाज आई।
असित चिट्ठी ढूँढ रहे हैं
"अभी तो यहीं रखी थी, कहाँ गई? "
तरु झुक कर पीछे दीवाल की तरफ़ झाँकती है, मेज पर रखी किताबें, पत्रिकायें पलटती है।
"तरु, तुमने उठाई? "
"नहीं, मैंने नहीं उठाई। तुम पता लिख रहे थे तभी से मैं तो अखबारों में वह तुलसी के उपयोग वाला लेख खोज रही हूँ। पता नहीं किस दिनके पेपर में था। पिछले हफ्ते आया था शायद। "
इधर -उधर ढूँढ-खखोर मच रही है। फिर असित ने आवाज लगाई, "चंचल, तुमने चिट्ठी उठाई? "
चंचल धक् से रह गई। अब क्या करे?
वह फौरन चली आई।
"नहीं, हमने नहीं उठाई। "
"तुम मालिनी की चिट्ठी के धोखे में तो नहीं ले गईं? "
मालिनी उसकी फ्रेंड का नाम है।
"मालिनी की तो ये पड़ी है। "तरु ने एक इन्लैंड उठाकर आगे रख दिया।
"हमने उठाई ही नहीं, हम क्या करते उस का? "
"फिर गई कहाँ? "
फिर सब ढूँढा गया। अखबार हटा कर दीवान पर पड़ी चादर फटकारी गई।
"यहाँ से कहाँ जायेगी? तुम्हीं कहीं रख कर भूल गये हो। "
"मैं तो सिर्फ़ बाथरूम गया था। वहाँ क्यों ले जाता?"
'मैंने तो छुई भी नहीं।’-तरल का तर्क।
मेज़ की बिताबें फिर उल्टी-पल्टी गईं, अखबार झाड़-झाड़ कर देखे गये। फिर तरु उठ कर अन्दर के कमरे में गई।
वहाँ अल्मारी मे रखी मिल गई चिट्ठी।
"क्यों, चंचल, तुमने ले जा कर रखी?"
हड़बड़ा गई वह, "हमने नहीं रखी, मम्मी, "
"तो और किसने रक्खी? मैं तो यहाँ से उठ कर कहीं गई नहीं। पापा बाथरूम गये थे, बस। "
"हमें नहीं पता। "
चंचल को देख कर असित मुस्करा रहे हैं।
'तुम्हीं ने रखी होगी चिट्ठी के तो पाँव लग नहीं गये कि उठ कर चली जाती। "
खिसियाहट के मारे वह रुआँसी हो आई, "हमने नहीं रखी। हम क्यों रखते? "
"तुम यहाँ से कुछ सामान ले गईं थीं? "
"हाँ, सामान तो ठिकाने से रख दिया था। "
"अच्छा " तरु ने कहा, उसकी हँसी स्पष्ट नहीं है, । "और सब सामान पड़ा रह गया, ये मालिनी की चिट्ठी, ग्रीटिंग कार्ड, गिलास, चम्मच, हेल्मेट, रूमाल और तुम सिर्फ़ चिट्ठी ठिकाने से रख आईं? "
"वाह क्या बात है! "
असित हो-हो करके हँस पडे।
"बेकार में ही --"खिसियाई चंचल कमरे से बाहर निकल गई