एक थी तरु / भाग 38 / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गीता में जिसे’ जल मे कमल पत्र -वत्’ कहा गया है, वह स्थिति क्या ऐसी ही होती होगी जैसी आज मेरे मन की हो गई है!

तरु सोचती है, जिसे सुख कहते हैं वह सब कुछ है मेरे पास, पर मन उसमें डूबता नहीं। कुछ पाकर खुशी से नाच नहीं अठता। सब से अलग-थलग रह जाता है। क्या यही कहलाती है निर्लिप्त मनस्थिति?

अरे नहीं, कैसे हो सकती है मेरी वह स्थिति? वह तो वैराग्य से उत्पन्न, निस्पृहता से पुष्ट परम शान्तिमय स्थिति है, जहाँ सांसारिकता की ओर प्रवृत्ति ही नहीं होती। और मेरा घोर सांसारिक, माया -मोह से आच्छन्न मन! जिससे मेरा कोई मतलब नहीं, उससे भी कहीं न कहीं जुड़ जाती हूँ!

लेकिन फिर भी, हमेशा नहीं, पर कभी-कभी लगता है ये सारे सुख, ये सारे दुख निरर्थक हैं। इनकी भोक्ता होकर भी मैं इनसे अलग रह जाती हूँ, असंपृक्त!

वहाँ जहाँ मैं हूँ सिर्फ़, और कुछ नहीं। सबसे अलग, निर्लिप्त। सुख-नहीं, दुख नहीं, राग नहीं, द्वेष नहीं, अपना नहीं, पराया नहीं। कैसी विलक्षण है वह अनुभूति जिसे व्यक्त नहीं कर पाती। वहाँ ये चीज़ें बहुत छोटी, बहुत सतही रह जाती हैं। कैसी है वह अनुभूति जहाँ मै भोक्ता होकर भी साक्षी रह जाती हूँ। निन्दा-स्तुति, उचित-अनुचित, पाप-पुण्य की सीमायें कहीं पीछे रह जाती हैं और मैं सबसे तटस्थ!

वह क्या है जो मुझे सबसे दूर कर देता है? कोई प्रश्न जहाँ नहीं, ऐसी स्थिति में मन कभी-कभी कैसे पहुँच जाता है! बस यही बोध शेष रहता है कि जो करना है वह करना है, उससे कहीं निस्तार नहीं।

-मन की जड़ता है क्या, या रिक्तता का बोध?

पर अकेली कहाँ हूँ मैं? हर जगह सब से जुड़ी। हुई। हर्ष -शोक, हानि-लाभ सभी कुछ तो औरों से जुड़ा है। फिर मेरा अपना है क्या?

गीली घास पर नंगे पाँव कब से चले जा रही है।

विपिन के जाने के बाद तरु की अन्यमनस्कता और बढ़ गई है।

उम्र का कितना रास्ता पार कर आई केशों मे झलकती सफ़ेदी और आँखों से बारीक चीजों का न दिखाई देना। चश्मा जरूरी होता जा रहा है।

पर क्या उम्र को सिर्फ वर्षों से ही मापा जा सकता है अनुभवों से नहीं?

अपने विगत पर विचार करती है तो लगता है यह जीवन निष्फलताओं का दस्तावेज़ है। जो करना चाहा कभी न हो सका। संभव है इसीलिये इतनी रिक्तता भर गई है।

वह मन ही मन कहती है, ’मैं तुम्हारी आभारी हूँ असित, कि तुमने मुझे प्यार किया, मेरा साथ दिया, कितनी बार, ’कैसे तर हैं तुम्हारे बाल, जिस करवट लेटती हो उधर के! कितना पसीना। इतनी गर्मी तो नहीं है, ' कहते हुये, नीम अँधेरे में अपने से सटा कर’तुमने मेरे आँसुओँ का गीलापन पोंछा है।

पर मैं तुम्हारे साथ अभिन्न कहाँ हो सकी। मुझे क्षमा करना। मैं निरुपाय हूँ। मैंने जो किया उसका परिणाम मुझे ही भोगना है। उसके बिना मेरा निस्तार नहीं। वहाँ मैं बिल्कुल अकेली हूँ। तुम भी मेरे साथ नहीं। मैं विवश हूँ इन विषमताओँ को झेलने के लिये। जिस अन्याय में मेरा साझा है उसका दण्ड मुझे ही भोगना है -अकेले, तुमसे अलग। अपने ही ताप से दग्ध। मेरी समझ में नहीं आता, मुझसे जो हुआ, उसका निराकरण किस प्रकार करूँ!

मैं क्या थी, क्या हूँ, और क्या हो जाऊँगी। मुझे खुद पता नहीं। जीवन की कटुताओँ का तीखापन जिसमें समा गया है, वह तरु। , कितने-कितने अभिशाप जिसके पल्ले में बँधे हैं वह तरु, सब कुछ पाकर भी जो मन से वंचित रह गई है। निरर्थक जीवन जीनेवाली तरु!


कभी-कभी कितनी ऊब लगती है। इच्छा होती है चली जाय कहीं जहाँ यहाँ का कोई न हो। न विपिन न असित, न नाते-रिश्ते, और कोई स्मृति नहीं। कोरा हो जाय मन बिलकुल -कुछ दिनों को ही सही!

। कहीं अजाने देश की धरती पर, अनजाने लोगों के बीच जहाँ न कोई अपना हो, न पराया। एक नई यात्रा की शुरुआत करने।

पर वहाँ भी आज तक के जीवन को नकारा जा सकेगा क्या? आज तक के संबंधों की अब तक की स्थितियों की जो परिणतियाँ, और परिष्कृतियाँ मेरे निजत्व में समाहित हो गई है, उनसे छुटकारा हो सकेगा क्या?


तरु को लगता है वह बहुत थक गई है, अब रुक कर आराम करना चाहती है।

कैसी विडंबना है, वह जो जानती है उसे सिर्फ वही जानती है, दूसरा कोई नहीं, जान सकता भी नहीं।

और लोग भी कैसी-कैसी धारणायें बना लेते हैं। पर किसी का क्या दोष! जल की सतह पर जो होता है वही तो दिखाई देता है सबको। डूबनेवाला ही जानता है अस्लियत तो।


असित के दोस्त उससे कहते हैं, "यार, तुम लकी हो। "

उन्हें लगता है असित की पत्नी, सबसे अलग है -घर -बाहर हर जगह निभाव कर लेती है, तमाम बातों में दखल दे लेती है। उनकी समस्याओं को सुन कर सहानुभूति-सुझाव भी। लोगों को लगता है बौद्धिकता में उनसे पीछे नहीं है। सिर्फ़ घर की औरत न होकर उसके सिवा भी बहुत कुछ है।


उनकी पत्नियां समझती हैं कि उसने जीवन में बहुत सफलतायें पाईँ हैं। सफलता के भी सबके अपने-अपने माप-दण्ड। कोई किसी को नहीं समझ सकता। हँसी आती है कभी-कभी।

"देखो, तरु दीदी कैसे करती हैं। " "तरु भाभी आप ग्रेट हैं। " " भई, हम आपकी तरह नहीं कर पाते " ईर्ष्या की पात्र तरु!

वह सुनती है और चुप रहती है। मन ही मन कहती है’मेरी तरह कोई न हो इस दुनिया में। इतना अशान्त और उद्विग्न मन लेकर किसी को न जीना पड़े!’

इस प्रशंसा की, असित जैसा पति और भरे-पुरे घर की स्वामिनी होने की सार्थकता उसके लिये क्या है? और जिसे लोग उसकी कुशलता और सफलता रहते है, उसे कहाँ तक लादे रहे -जब मन कहीं टिकता नहीं, कुछ स्वीकारता नहीं, निर्लिप्त भटकता है?

अब सहन शक्ति जवाब देने लगी है, वह इस ज़िद्दी मन से भी छुटकारा पाना चाहती है, जो स्थितियों से पटरी बैठा लेना नहीं जानता, जो किसी प्रकार चैन लेने नहीं देता। इस दारुण मन्थन से, चेतनायें श्रमित और, लड़ने की सामर्थ्य क्षीण हो चली है। मन ही मन कहती है, ’असित, तुमसे जुड कर मैंने इस ज़िन्दगी को जिया कहाँ, बेगार सी टाली है।

यह उद्विग्नता और अशान्ति जब असह्य हो उठती है, तनी हुई शिरायें जब चटक कर टूट जाना चाहती हैं, तब उसके भीतर कोई जागता है। उसे साधनेवाला, चरम निराशा से उबारनेवाला। उन विषम क्षणों में संतप्त मन को चेताता है, पूछता है, ’बस, इतने में घबरा गईं? इसी बल-बूते पर संसार की अथाह वेदना को मापने का दम भरा था? "

'नहीं मुझे कोई शिकायत नहीं , ’ वह अपने आप से कहती है, ’दुख तो मैने स्वयं माँगे थे, और जैसा मेरा स्वभाव है शान्ति मुझे मिलेगी नहीं, ’

और मन की विश्रान्ति शमित होने होने लगती है।

तरु जब चलती है तो एक खूब चमकीला तारा उसके साथ-साथ चलता है। उसकी दृष्टि आकाश की ओर उठी। आज वह सितारा कहाँ चला गया? वह सारे आकाश में खोजती है। घने पेडों की आड में कभी-कभी वह छिप जाता है, पर उसकी झिलमिलाहट हिलते पत्तों की सँध से झलक ही जाती है। आज कोहरा है, या इतनी देर हो गई है कि वह सितारा डूब गया है।