एक थी तरु / भाग 39 / प्रतिभा सक्सेना
आज फिर कनाडा से चिट्ठी आई है
जीजा की चिट्ठी पिछले महीने भी तीनों के पास आई थी कि गौतम की पत्नी, शन्नो या तरु में से कोई कुछ महींनो के लिये वहाँ चली आये। घर और मन्नो की देख-भाल में उनका हाथ बँटा दे। मन्नो का आपरेशन इतने दिन से टल रहा है, लेकिन अब तो होना ही है।
संजू के बच्चे इतने छोटे हैं कि रीना के जाने का प्रश्न नहीं उठता। शन्नो और भाभी अपनी गृहस्थियों से अवकाश नहीं निकाल पा रहीं, उनके अपने-अपने झंझट हैं। मन्नो की बड़ी बेटी तनु यहीं बम्बई में है। पर वह जा नहीं सकती, उसकी डिलीवरी होनेवाली है। पहले तो जीजा यही सोच रहे थे कि वह आ जायेगी। स्थितियाँ ऐसी बनती गईं कि अब न ऑपरेशन टाला जा सकता है, न तनु जा सकती है।
रह गई तरु। उम्मीद उसी से लगाई जा सकती है।
मायके की बात चलने पर तरु के सामने मन्नो का चेहरा आ जाता है। उनके बारे में बहुत सुना है। सिर्फ अम्माँ ही नहीं औरों से भी। जैसा रूप वैसे ही गुण। औ किस्मत भी वैसी ही मिली। जतिन-जीजा के कान्टैक्ट्स बहुत अच्छे हैं, पैसे की कमी नहीं अपना बिजनेस है।
तरु के जन्म के बाद अम्माँ बिस्तर से लग गईं थीं, तो मन्नो ने सारा घर सम्हाला था। तरु को बड़े नेह-से पाला था। रात-रात भर उसे लिये जागती थीं। अम्माँ खुद कहती हैं, उन्होने तो उसके जीने की उम्मीद छोड़़ दी थी, वो तो मन्नो ने जिला लिया।
तरु सोचती है, कैसी होंगी वे जो उसे मौत के मुँह से वापस ले आईं, जिनके गुण गाते अम्माँथकती नहीं। जिनकी कढाई -बुनाई का सामान सहेज कर रखा गया था। उनके साथ रहने का मौका ही कहाँ मिलाथा उसे? अपने होश सम्हालने के बाद का तो उसे कुछ याद नहीं पड़ता। पहले जब आईं थीं तो तरु घर ंमे नहीं थी, कहीं और भेज दी गई थी। फिर उनका आना जाना भाग-दौड़ जैसा ही रहा।
मन्नो जिज्जी पत्रों में हमेशा लिखती हैं-तरु के साथ नहीं रह पाई। उसकी शादी जिस अफ़रा-तफ़री में हुई उसमें वे आ भी नहीं पाईं। उसे अपने साथ रखने को, वे पहले भी कहती थीं, पर किसी ने भेजा नहीं।
तरु का मन वहाँ जाने को व्यग्र हो उठा है, पर चंचल और असित का सोचने लगती है।
फिर यह विचार भी कि, शन्नो जिज्जी या रेणु भाभी जाने को तैयार हो जायें तो ठीक। अब तो दोनों ने ही असमर्थता प्रकट कर दी है।
असित के दौरे, उनके प्रमोशन के बाद से काफी कम हो गये हैं। चंचल घर का काम करने के लायक हो गई है।
"जिज्जी की बीमारी का सुनकर जाने कैसा लगता है, "तरु ने कहा था।
"अब साइन्स काफ़ी आगे बढ गई है और अमेरिका का तो कहना ही क्या! वहाँ जितनी सुविधायें, जितनी सावधानी मिलेगी उसकी यहाँ कल्पना भी नहीं की जा सकती तुम बेकार चिन्ता करती हो। "
इस बार फिर उसने शुरुआत की, "मुझे तो बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा। अपनी जिन्दगी के लिये मैं उनकी ऋणी हूँ, असित, वे नहीं होतीं तो आज मैं भी इस दुनिया में नहीं होती --। "
"तो मम्मी, तुम्हीं क्यों नहीं चली जातीं? मौसी-मौसा इतना तो लिख रहे हैं। तुम्हारी जगह हम होते तो झट् चले जाते। क्यों पापा, है न? "
"हाँ, आज को उन्हें जरूरत है तो किसी को जाना जरूर चाहिये, "असित ने तरु की ओर देखा, "तुम्हारे मन पर निर्भर है। जैसा चाहो --। "
"वाह, मेरा मन क्यों नहीं करेगा? मैं तो तुम लोगों का सोच कर चुप थी। फिर सोचा शायद कोई और जाने को तैयार हो जाये।’
"मैं मना नहीं करूँगा, बशर्ते, तुम वहाँ जाकर और रुकने को न कहो। कहीं वहीं कोई और।’
'बस, चुप भी करो।’
' हाँ, चंचल को अकेले रहना पड़ेगा और तुम --।’
"अरे, हम क्या कभी अकेले रहे नहीं? पिछली बार तो चार दिन अकेले रहे थे, जब दादी बीमार थीं। सिर्फ रात को महरी आ कर सो जाती थी। मम्मी, तुम जाओ। अमेरिका रिटर्न्ड ! वाह, क्या रौब पडेगा मेरी सहेलियों पर ! "
"वैसे तो रश्मि भी पंद्रह -बीस दिन आसानी से रह सकती है, राहुल -राजुल को लिखो तो वे भी बारी-बारी से भेज ही देंगे। नहीं तो माँ जी तो हैं ही। वैसे भी आती-जाती बनी रहती हैं, अबकी से लगकर रह लेंगी। "
"वह कोई प्राब्लम नहीं। बीच में कितनी छुट्टियाँ पडती हैं, चंचल भी जाकर किसी के साथ रह सकती है। फिर मैं भी तो हूँ, "असित ने समर्थन दे दिया।
वह एकदम उमँग उठी। , "तो असित, तुम लिख दो उन्हें, वे इन्तजाम करें। मन्नो जिज्जी कितनी खुश होंगी। --। "
तरु के जाने की तैयारियाँ शुरू।
कोई अपना देश तो है नहीं कि चाहे जब जाओ, चाहे जब लौट आओ। हफ़्तों पहले से बुकिंग और हर तरह की तैयारियाँ।
चंचल ऐसी मगन जैसे खुद ही जा रही हो। उसने एक लम्बी सी लिस्ट बना ली है।
"मम्मी, ये सामान हमारे लिये लाना है। "
'ओफ़्फ़ोह चंचल, तुम्हारा बस चले तो तुम सारा अमेरिका उठवा मँगाओ, वहाँ से लाना इतना आसान नहीं कि बस गये और खरीद लिया। "
'इसके लिये सबसे अच्छी भेंट क्या होगी मैं बताऊँ?’
'क्या पापा?'
' कोई योग्य भारतीय लड़का, जो वहाँ से शिक्षा प्राप्त कर यहाँ आ रहा हो।’
तरल ने पूरा किया, ’और भारत में सेटल होने का इरादा रखता हो।’
चंचल ने झेंपते हुये कहा, ’आप लोगों को बस यही सूझता है।’
वैसे वह सब ख़बर रखती है कि कहाँ से पत्र-व्यवहार चल रहा है।
कुछ फ़र्माइशें वहाँ से भीआई हैं -हरद्वार गंगा-जल, काँच की चूड़ियाँ, बिन्दी के पत्ते, पञ्चदीप आरती, तुलसी की माला, सलवर सूट वग़ैरा-वगै़रा। भरतीयों की संख्या वहाँ काफ़ी है और उनके संस्कार भारत की धरती के मोह से मुक्त नहीं होने देते।
असित के लिये तरु के मन का प्यार उमड़ पड़ा है। वैसे तो जब भी वे घर पर नहीं होते उनकी कमी खटकती थी, वह हर बार तय करती थी अबकी बार उन्हें खूब संतुष्ट कर दूँगी। पर जितना चाव उमड़ता था उतना कर नहीं पाती थी -दुनिया भर के झंझट, व्यस्तता, और प्राथमिकतावाले काम। घर में होने पर वैसे भी आवेश ठण्डा ही रहता है। अब मन में जो उत्साह जागा है उसका प्रभाव व्यवहार पर छा गया है। चंचल का लाड़ भी बढ गया है। उसके मन का सामान वह खुद जाकर दिला लाती है। आगे क्या-क्या करना है सब समझा रही है।
तरु के भीतर कुछ होने लगा है।
मानवी संबंधों के कौन-कौन से रूप। कैसी-कैसी परिस्थितियां वहाँ के समाज में होंगी, वह जानने को उत्सुक हो उठी है। वहाँ की जीवन पद्धति कैसी होगी, तरु सोचती है, जहाँ इतनी समृद्धि है, इतनी सुविधायें हैं, उस वर्जनाहीन समाज में, क्या इसी प्रकार की कुण्ठायें पलती होंगी? ऐसी विकृतियाँ वहाँ भी होंगी? कैसे होंगे वहाँ के लोग? एक ओर यह संस्कृति, जो व्यक्तित्व की घोर उपेक्षाकर, वर्जनाओं और घुटन का पर्याय बन गई है और जैसा कि सुनती आई है, ठीक इसके विपरीत वहाँ का उच्छृंखल-संयमहीन और भोगवादी दृष्टिकोण! व्यक्ति, समाज और परिवार में कितना ताल-मेल है वहाँ? इन दो छोरों के बीच कोई संतुलन बिन्दु संभव है क्या?