एक थी तरु / भाग 5 / प्रतिभा सक्सेना
तरु के मन में जो उमड़ता-घुमड़ता है, अगर सोचने बैठे तो सिलसिलेवार कुछ याद नहीं आता। सब कुछ जैसे खण्ड-खण्ड होकर बिखर गया है। भीतर-ही भीतर एक सैलाब -सा उठता है, जिसमें सारा का सारा बेतरतीब उतराता चला आता है।
पिता का चेहरा बार-बार उभरता है -अलग-अलग तरह से, अनेक रूपों में, अनेक भंगिमाओं में। स्मृति की एक लहर लाती है दूसरी समेटती बहा ले जाती है। कुछ भी पकड़ में नहीं आता। उनके एक हँसते चेहरे, एक प्रफुल्ल मुद्रा को बहुत प्रयत्न करके वह सामने रखने की कोशिश करती है, पर नहीं हो पाता!
बीच-बीच में दिख जाता है विपिन का किशोर-कोमल मुख, जिसकी नव-स्फुटित वय अनायास ही तरु से मैत्री जोड़ बैठी थी। वह किशोर कब युवा हो गया, उसे पता ही न चला, और एक दिन समझ कर वह चौंक उठी। वह चला गया तब उसने रिक्तता का अनुभव किया था। फिर उसने मन-ही-मन कहा था, 'अच्छा हुआ विपिन, तुम चले गये। तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारा न होना मुझे खटकता रहा, पर तुम्हारी नई उम्र को फूलों की जरूरत थी और मेरे पास सिर्फ काँटे थे।’
और पृष्ठभूमि में एक भीड़, जिसमें बहुत लोग हैं -भाई-बहिन, नाते-रिश्ते, मित्र-परिचित; बहुत से चेहरे, बहुत सी भंगिमायें। पर वह सारी भीड़ लहरों में बिखर कर गड्ड-मड्ड हो जाती है।