एक थी तरु / भाग 4 / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
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ट्रेन में चढ़ते ही तरु ने असित को देख लिया। वह अनदेखी कर अपनी बर्थ की ओर बढ़ गई।

उसके सहकर्मी के बडे भाई डॉ। रायज़ादा के घर दोनों का परिचय कराया गया तब भी नमस्ते कर वह वहाँ से खिसक ली थी।’ उँह, मुझे क्या करना! दुनिया में सब तरह के लोग होते हैं। ----और अकेली लड़की को देख कर कुछ लोग और धृष्ट हो उठते हैं।’

कहाँ इलाहाबाद कहाँ मेरठ! लेकिन नौकरी जब यहाँ मिली तो क्या किया जा सकता है। उधर गौतम भैया के पास इलाहाबाद का चक्कर भी लगाना ही पड़ेगा। अम्माँ बहुत बीमार हैं, न जायें तो भी नहीं चलता।

यह असित का एरिया है, गाज़ियाबाद और समीपवर्ती क्षेत्र। असित उधर है-चार बर्थ छोड़कर। वह ज़रा खिसक कर एक ओर हो गई जिसमे सामना न करना पड़े। मुझे उससे क्या मतलब?

पर असित ने देख लिया, वह उठ कर चला आया और वहीं बैठ गया।

"आप भी अक्सर इस गाड़ी से जाती हैं?"

"हूँऊँ" बिना मुँह खोले उसने नाक से आवाज निकाली।

"मुझे भी यही गाड़ी सूट करती है। हफ़्ते में एक चक्कर तो लग ही जाता है।”

वह चुप रही।

"आप मुझसे नाराज होंगी? उस दिन के व्यवहार के लिए, सॉरी!”

"नहीं आपका भला क्या दोष?” तरु भरी बैठी थी,

"जो महिलायें बाहर नौकरी के लिये निकलती हैं उनका भी कोई मान-सम्मान होता है? आपने कोई नई बात तो की नहीं। अब तो सुनने की आदत पड गई है, नाराज काहे को होऊँगी?”

असित का मुँह लटक गया। यह सब सुनने को मिलेगा उसने सोचा भी नहीं था। पर चुपचाप बैठा रहा। तरु होल्डाल उठाये इसके पहले ही उसने उठाकर रख दिया, अटैची एक ओर खड़ी कर दी, फिर बोला,”थर्मस में पानी भर लाऊँ?”

पानी लाकर खूँटी पर टाँग दिया।

होल्डाल खोल दिया।

आखिर कहाँ तक खिंची रहती , बोलने-चालने से सफ़र में कहाँ तक बचा जा सकता है!

फिर उसने चाय के लिये पूछा तो सिर हिला दिया।

"चलो, आप बोलीं तो। मैंने तो सोचा था दुनिया भर से नाराज़ ही रहती हैं।”

चाय पीते-पीते बात करने लगे दोनों।

शुरू में लगा था पर ऐसा बुरा है नहीं, तरु ने सोचा, और मुझे क्या करना, उसकी अपनी परेशानियाँ होंगी!

दस-पन्द्रह दिनों में तरु का एक चक्कर लगता ही है -कभी कभी तो और जल्दी।

बात एक बार की हो तो इंसान तटस्थ रह ले। यहाँ तो ट्रेन में आते-जाते महीने में एक-दो बार आमना-सामना हो जाता हैंष और अक्सर उसी कंपार्टमेंट में।

इतने लंबे सफ़र में बात करना भी एक मजबूरी है। फिर जो आदमी सुविधा का इतना ध्यान रखे उससे मुँह भी कैसे फेरे रहे!

काफ़ी परिचय हो गया है आपस में।

"---अब तो अम्माँ का ठीक होना मुश्किल लगता है, मुश्किल क्या असंभव! पैरालिसिस का ऐसा अटैक! बिल्कुल बिस्तर पर सीमित रह गई हैं। ज्वाइन करके मुझे फिर छुट्टी लेनी पडेगी।”

छुट्टियों की बात चली तो असित ने अपना दृष्टिकोण बताया। तरु को ताज्जुब हुआ।

"अच्छा! छुट्टियों में भी घर पर समय बिताना नहीं चाहते?”

"एकाध दिन तो चल जाता है फिर ऊबने लगता हूँ।”

"घर में कौन-कौन है?”

"पिता हैं, माँ हैं, भाई-बहन सब हैं।”

"फिर भी--फिर भी---?।”

"कुछ नहीं, ऐसे ही। कहने लायक कुछ नहीं। शुरू से ही कुछ ऐसा हूँ, सबसे अलग-अलग रह जाता हूँ। घर में और अकेलापन लगता है। आपको सुनकर अजीब लग रहा होगा?”

अलग-अलग लोगों का ढंग कभी-कभी कैसा एक सा होता है, तरु ने सोचा, और सिर हिला दिया जैसे उसकी बात समझ रही हो।

वह पूछती रही, वह बताता रहा।

"जाने कैसे जीवन बीता। वह सब याद करने की इच्छा नहीं होती। मेरी माँ बहुत पहले मर गईं थीं, दूसरी माँ हैं ये। पहले उनसे माँजी कहना बड़ा अजीब लगता था। अम्माँ कहलाना उन्हें पसन्द नहीं आया। तब हम तीन भाई-बहन थे। सबसे बडी बहन अब नहीं हैं। वे डूब गईं थीं, मर गईं।

"पन्द्रह वर्ष का था, तब से एक दुकान पर नौकरी शुरू कर दी, साथ ही मैट्रिक की तैयारी भी। फिर वही क्रम आगे चला। सुधा दीदी के मरने के बाद घर से मन उचट गया था। बाहर के लोग अजीब निगाहों से देखते थे, नई माँ से बडा डर लगता था। तरह-तरह के इल्जाम और डाँट-फटकार। हमेशा अपमान और आरोप! बुरी तरह परेशान रहता था मैं।”

"खाना-पीना?"

"किसी का कुछ ठिकाना नहीं। कभी खा लिया, कभी यों ही रह गया।”

तरु चुप बैठी है।

"इन्टर में कॉलेज ज्वाइन कर लिया। प्राइवेट होकर साइन्स नहीं ले सकता था। डॉक्टर बनने की इच्छा थी और तमाशा देखिये, बन गया मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव।”

वह जोर से हँसा। कैसी खोखली लग रही है यह हँसी!

तरु को अजीब लगने लगा है। क्या बोले कुछ समझ में नहीं आ रहा। असित वहीं जमा बैठा है, तरु के होल्डाल से बची हुई जगह में। तरु होल्डाल पर खिड़की से लगी बैठी है, तिरछी होकर जिससे खिड़की से बाहर भी देखती रह सके।

कुछ तो बोलना चाहिये, तरु ने पूछा" दुकान के काम के साथ पढ़ाई कैसे चल पाती होगी?”

"हाई स्कूल मे फर्स्ट था न! दुकानदार ने काफी सुविधायं दे दीं थीं, देर रात तक उसका हिसाब-किताब करवाता रहता था। परीक्षा के पहले तो उसने काम भी बहुत हल्का कर दिया था। सिर्फ़ चार घण्टे की ड्यूटी। तभी अचानक प्रिन्सिपल साहब की कृपा हुई होस्टल में जगह मिल गई। इन्टर में भी फ़र्स्ट ले आया। फिर दुकान की नौकरी छोड़़ ट्यूशनें पकड़ लीं।

"प्रिन्सिपल की कृपा की भी विचित्र कहानी है।” तरु कुछ पूछ भी नहीं रही, चुप बैठी है।

"रहने का कोई ठिकाना तो था नहीं। एक बार प्लेटफार्म पर जा सोया। सोचा था आराम से चाय-वाय पीकर निकलूंगा पर वहँ फँस गया। कोई ट्रेन बहुत लेट आई थी। बाहर निकलने लगा तो टिकट की माँग हुई और यहँ प्लेटफार्म -टिकट भी पास नहीं था। पकड़ा गया। दुकनदार के यहाँ काम करता नहीं था वहाँ सोने की कोई तुक नहीं थी, कुछ सामान जरूर उसके स्टोर में रख छोड़ा था।

"अजीब हालत हो गई मेरी। इतने में प्रिसिपल साहब उधर आ निकले-किसी को सी-ऑफ करके लौट रहे थे। मुझे अच्छी तरह जानते थे, पढने में अच्छा था न! कह-सुन कर अपने साथ निकाल लाये, खाना खिलाया।”

तरु को कैसा-कैसा तो लग रहा है। विचित्र है यह दुनिया, जहाँ किसी की बहन, किसी के पिता दूसरों के अत्याचार सह-सह कर मर जाते हैं या मार डाले जाते हैं और हत्यारे सबकी सहानुभूति बटोरते लम्बी आयु भोगते हैं!

"मैं सामान्य नहीं हूँ तरल जी, मुझे खुद को सम्हालना बडा मुश्किल लगता है। कभी-कभी इतनी उलझन, इतना बिखराव कि मैं झेल नहीं पाता। मन इतना उद्विग्न कि अपने आप से छुटकारा पाना चाहता हूँ। यह बाहरी चक्कर मन की भटकन से सामंजस्य बैठा लेता है इसीलिये पसन्द की है यह नौकरी। किसी से कुछ कह नहीं सकता, कौन सुने-समझेगा? मेरा कोई अपना नहीं है।”

तरु हाथ पर सिर टिकाये वैसी -की -वैसी बैठी है।

असित का ध्यान उधर गया। कोई स्टेशन आ रहा है शायद, गाड़ी की गति धीमी पड़ने लगी है।

"मैं तो बोलता ही चला जा रहा हूँ, आप भी क्या सोचती होंगी!”

कोई उत्तर नहीं।

इतने में स्टेशन की रोशनी तरु के झुके चेहरे पर पड़ी।

"अरे, ये क्या?। आप रो रही हैं। इतना लगता है आपको मेरे लिये।”

आवेश में बढकर उसने तरु का नीचे लटकता हाथ पकड़ लिया। वह सम्हली, धीरे-से अपना हाथ छुडाकर आँसू पोंछ लिये।

"ग़लत मत समझिये, आप कह रहे थे और मुझे अपने लिए लगने लगा था। बात आपकी थी पर जाने कैसे मैं अपने में चली गई।”

सिर उठाकर असित ने ध्यान से उसकी ओर देखा।

तरु चुपचाप बाहर देख रही थी।