ऐ दिल कहाँ तेरी मंज़िल / माया का मालकौंस / सुशोभित

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ऐ दिल कहाँ तेरी मंज़िल
सुशोभित

वैसा होना तो नहीं चाहिए था, फिर भी जाने क्यूँ, यह गीत इतना जाना-पहचाना नहीं है।

वैसा इसलिए नहीं होना चाहिए था, क्योंकि यह देव आनंद जैसे सितारे पर फ़िल्माया गीत है। वर्ष 1961 की फ़िल्म 'माया', जिसमें सलिल चौधुरी जैसे शलाका पुरुष का संगीत । इसी फ़िल्म का एक अन्य गीत 'तस्वीर तेरी दिल में, जिस दिन से उतारी है' तब बहुत लोकप्रिय हुआ था। कौन जाने, यह गीत भी तब रेडियो पर बहुत बजा हो । किंतु इधर अब यह सुनाई नहीं देता ।

मज़रूह के लिखे इस गीत के बोल हैं-

'ऐ दिल कहाँ तेरी मंज़िल

ना कोई दीपक है

ना कोई तारा है गुम है ज़मीं

दूर आसमां ।’

यह गीत पुरुष स्वर में भी है, स्त्री स्वर में भी । स्त्री स्वर, यानी लता स्वर । पुरुष स्वर में इसे सुनकर आप तुरंत कहेंगे, हेमंत कुमार । किंतु नहीं, ये हेमंत कुमार नहीं हैं, अलबत्ता आवाज़ हूबहू हेमंत दा सी मालूम होगी ।

ये द्विजेन मुखोपाध्याय हैं, ज़ाहिर है वैसे ही गूँज भरे बांग्ला उच्चार वाला स्वर। वास्तव में रबींद्र संगीत गाने के लिए कंठ को जिस अभ्यास में ढालना होता है, वह इस शैली के गायकों को बहुधा एक पाँत में खड़ा कर देता है । ऐसे ही एक अन्य गायक सुबीर सेन थे । अकसर कहा जाता है कि रफ़ी, किशोर, मुकेश की नक़लें तो ख़ूब आई हैं, लेकिन हेमंत कुमार की आवाज़ की कोई नक़ल कभी नहीं आई। वैसा कहने वालों को फ़िल्म 'कठपुतली' का सुबीर सेन का गीत 'मंज़िल वही

है प्यार की राही बदल गए' और फ़िल्म 'माया' का द्विजेन मुखोपाध्याय का यह गीत सुनना चाहिए ।

यह एक अनूठी धुन है । इसकी कोई दूसरी मिसाल कहीं नहीं मिलती । द्विजेन की आवाज़ में वही नॉक्चर्नल-सी अनुगूँजें हैं, जिसने हेमंत को सभी गायकों में विलक्षण बना दिया था । यह वर्तमान को भी व्यतीत की तरह बरतने वाली आवाज़ है, नॉस्टेलजिया की छाती में धँसी हुई । लेकिन, इस धुन का बखान कैसे किया जाए? हवा का एक गुंबद बनता है, बाहर नहीं भीतर उगता है, और हमें अपनी सरहद के बाहर ठेल आता है । सबसे दिलकश लुत्फ़ वे ही होते हैं, जिनके साथ एक अचीन्हा रंज भी चला आता है । एक क़ायनाती अफ़सोस । श्रेष्ठ कृतियाँ हमें और निष्कवच बना देती हैं ।

यह सलिल चौधुरी का संगीत है। आचार्यों ने इस संगीत को जटिल, गूढ़ और दुर्बोध माना है। किंतु इसके साथ ही वह अत्यंत मधुर, मार्मिक और तलस्पर्शी भी है। यह गीत सारंगी के विलाप से शुरू होता है और हमें एक मातमी सोग़ के लिए शुरू से ही तैयार कर लेता है । उसके बाद कोरस का कलेजा चीर देने वाला आर्तनाद है। फ़िल्म में मायूस देव आनंद इस गीत को टूटे दिल वाले नायक की भंगिमा के साथ गाता है । उस ज़माने में बनाई जाने वाली तमाम फ़िल्मों में ऐसा एक टूटे दिल वाला गीत हुआ करता था । आज टूटे दिल वाले गीत नहीं बनते । क्यूँ ?

मेरे दौर के, मेरे हमउम्र साथियों ने अपने रंज, सोग़, दर्द और ग़म को कौड़ियों के मोल बेच दिया है, ठहाकों की मंडी में । ये आँसुओं पर शर्मिंदा होने वाली नस्ल है और जिस पीढ़ी को अपने शोक पर लज्जा हो, उसके भीतर जिंदगी की धुन धीरे-धीरे गूँगी हो जाती है । क्योंकि सृष्टि का मूल संगीत शोकात्मक है ।

गीत के अंतरे में बोल आते हैं-

‘किसलिए मिल-मिलके दिल टूटते हैं

किसलिए बन-बन महल टूटते हैं

किसलिए दिल टूटते हैं?'

देवताओं जैसा ख़ूबसूरत नायक, अपने यौवन के चरम पर, टूटे दिल और टूटे महल की बात कर रहा है । केवल टूटे दिल और टूटे महल की नहीं, बल्कि मिलके टूटने वाले दिल और बनके टूटने वाले महल की । आरंभ देख लिया, अंत भी देख लिया । फिर किस बात का दिलासा मुमकिन हो ? जिसको कि अंग्रेज़ी में कहते हैं—‘अनकंसोलेबल’। क्योंकि, कलेजा थामकर सवाल पूछने वाले दिल को कोई दिलासा नहीं मिल पाती ।

घाव होता है। घाव भर जाता है । लेकिन, घाव क्यों हुआ था, क्यों भर गया, क्या अब फिर ना होगा, जो इन सवालों की रौ में चला गया, उसके लिए केवल संगीत के शोक में ही आश्रय है । क्योंकि ग़म को भी अगर तरन्नुम में गाएँ तो वो भी एकबारगी बर्दाश्त करने जैसा मालूम होता है, यही ज़िंदगी की 'माया' है ।

ग़ौर किया जाए कि यह पाताली धुन रचने वाले सलिल दा मोत्सार्ट के मानसपुत्र थे ।

सिंफ़नियों और कैंचर्टो और ओवर्चर्स में जो अनकैनी-सा, ज़मीनपारी-सा अवयव होता है, वह अक्सर सलिल दा के संगीत में सरक आता था । मोत्सार्ट का 'रेक्वेइयम मास इन सी माइनर' सुनें और फिर यह गीत, तो आप पाएँगे कि दोनों के बीच रोशनी का एक पुल बनता है

मोत्सार्ट चंद्रमा है, सलिल चौधुरी की मनश्चेतना एक सरोवर, जिसमें उस चंद्रमा का बिंब मुस्कराता है । और इसके अलावा जिंदगी में जो कुछ है, वो महज़ एक घटिया नॉवल के सतही ब्योरे हैं ।