ओ अलबेले पंछी / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
बिमल रॉय की फ़िल्म 'देवदास' दो घंटा पैंतीस मिनट लम्बी है । फ़िल्म के आरम्भिक पंद्रह मिनटों में एक गीत आता है। देवदास और पार्वती अभी बालक-बालिका ही हैं। आम के बाग़ में बुलबुल देखने आए हैं । देवदास आम के पेड़ पर चढ़कर बुलबुल पकड़ने का यत्न करता है । पाखी उड़ जाता है। अब वो दोनों बचपन के संगी मिलकर वह बड़ा ही सुंदर गीत गाते हैं-
“ओ अलबेले पंछी,
तेरा दूर ठिकाना है
छोड़ी जो डाली इक बार
वहां कब लौट के आना है?"
ये साहिर के बोल हैं। गहरे आशयों को व्यक्त करने वाले शब्दार्थ हैं। एक बार जो डाली छूट जाए, वहां फिर लौटकर आना नहीं होता । यह बचपन का सुख भी वैसी ही एक डाली है, जो अब छूट जाने वाली है । यह संसार फिर कभी वैसा सुखमय उन दोनों के लिए अब हो नहीं सकेगा।
पंछी का ठिकाना दूर है | कौन-से पंछी का? प्राण के पखेरू का तो नहीं ? क्या कारण है कि हमको बारम्बार लगता है, इस धरती पर हम अजनबी हैं। यों मालूम होता है कि कुछ है, जो भूल गया है । कुछ है, जो मिला नहीं। जीते जी कभी नहीं मिलेगा। आत्मा के औघट घाट पर किसी बैरागी का बसेरा है। उसका दिल उचट गया है। कहीं ये वही पाखी तो नहीं, जिसका ठिकाना दूर, बहुत दूर है । उस है पाखी से तब हमारा क्या नाता है?
इस गीत की धुन दादा बर्मन ने बांधी है। आशा और उषा ने इसे गाया है। बात ज़रा-सी थी, किंतु बहुत दूर जाने वाली थी । इसके बाद फ़िल्म दो घंटा बीस मिनट और चलती है। परदे पर तो यही कालावधि है, किंतु पाखी - गीत गाने वाले इन दो बालक-बालिकाओं का समूचा जीवन इस अंतराल में व्यतीत हो जाता है । देवदास बड़ा होकर मर जाता है ।
पार्वती भी बड़ी होकर मर जाती है । देवदास दुःख मनाकर मरता है, पार्वती ब्याह रचाकर। बात एक ही है। रास्ते भिन्न हैं। स्त्री और पुरुष के मरने का यह भेद है। जिगर ने क्या ख़ूब कहा था - " सिमटे तो दिले-आशिक़, फैले तो ज़माना है !"
पुरुष दिले-आशिक़ की तरह सिमटकर मरता है । स्त्री ज़माने में व्यापकर मर जाती है। ये मरने के दो रास्ते हैं !
फ़िल्म अपने अंतिम अध्याय में पहुंच जाती है । देवदास पार्वती के घर के बाहर दम तोड़ देता है। पार्वती किंतु उसका मरा मुख देख नहीं पाई है। डोम उसे उठाकर ले गए हैं। गांव के बाहर उसका शव फूंक आए हैं । बिमल रॉय तब हमें दो अंतिम दृश्य दिखलाते हैं-
एक, देवदास की चिता जल रही है और धुएं के बादलों के ऊपर चंद्रमा की छवि है । क्या यह चंद्रमुखी है, जो अपने प्रिय का अंतिम दर्शन करने आई है ?
और दो, सुदूर क्षितिज की ओर दो पक्षी उड़े चले जाते हैं !
एक पाखी तो कदाचित् देवदास की आत्मा का पखेरू है । दूसरा कौन है ? क्या पार्वती है? संसार के सीमान्त तक उसे छोड़ने उसके साथ आई है, इस वचन के साथ कि यह जीवन तो गया, किंतु दूसरे जन्म में अब कभी विलग ना होंगे ? किंतु यह वही पाखी हैं, जिनका ठिकाना बहुत दूर है । जिन्हें फ़िल्म के आरम्भ का वह गीत टेरता है । बचपन के उस विस्मय में कुछ गहरा - विकल था, मन में दबी कोई गांठ, जो अब जाकर खुली है। पंछी को अब इस डाली पर लौटकर नहीं आना है।
रबींद्रनाथ ठाकुर ने जिसे 'दूरत्व' कहा है, वैसे गीत, वैसे दृश्य उसी को अकुलाकर पुकारते हैं—“ दूरत्व की परिप्रेक्षिणी, अनुदर्शन का भाव । विषय कितना ही निकट का हो, स्वरों में उसकी यात्रा शुरू हो जाती है" - गुरुदेव ने मृत्यु से दो बरस पहले शांतिनिकेतन में कहा था । और गुरुदेव के मानसपुत्र बिमल रॉय ने उसके कई वर्षों बाद फिर दूरत्व की यात्रा का वह बिम्ब अपने सिनेमा में रचा।
विद्या की सौगन्ध खाकर कहता हूं - बिमल रॉय की 'देवदास' को एक बार देखना पर्याप्त नहीं है, एक आंख, एक हृदय से उसे निरखना काफ़ी नहीं, जैसे एक बार मरना देवदास के लिए मुनासिब नहीं था । यह तो बारम्बार की गति है - “मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता !”