ऐ सुरक्षा... तू यहाँ क्यों आई है? / ट्‍विंकल रक्षिता

Gadya Kosh से
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कुछ कहानियाँ सच के बेहद क़रीब होती हैं, जिनसे जितना भागो वो उतना पीछा करती हैं।

अभी अभी मेरी ट्रेन इलाहाबाद से कलकत्ते के लिए खुल चुकी है, पर कहानी खुलने में वक़्त लगेगा। नहीं जानती, यहाँ के बाद का रास्ता किस तरफ़ ले जाएगा, पर क्या ही बेहतर होता कि मैं अपनी पूरी ज़िन्दगी ट्रेन में ही बिता देती।

मुझे ट्रेन में सफ़र करना बहुत पसन्द है। मैं बिल्कुल नहीं ऊबती, यहाँ तक कि जब लोगों से और अपने आप से ऊब जाती हूँ, तो उसे बैलेंस करने के लिए ट्रेन में बैठ जाती हूं। इस लगाव का एक और कारण है कि मुझे अच्छा लगता है अपने पीछे सबकुछ छोड़कर भाग जाना। मैं अपने बराबर किसी परिचित को नहीं देखना चाहती। मुझे लगता है कि आप मेरे क़रीब आएँगे और फिर मेरे बारे में सबकुछ जान जाएँगे, जिसके बाद मुझे यहाँ से भी भागना पड़ेगा। कितना अच्छा लगता है, जब ट्रेन के धड़ - धड़ की तेज़ आवाज़ में आप अपनी ही आवाज़ नहीं सुन पाते। मेरे लिए सबसे सुकून का पल यही होता है। लेकिन आज उस धड़ - धड़ की आवाज़ के साथ - साथ मेरे भीतर भी कुछ बजता है, जिसे बिलकुल साफ़ - साफ़ सुना जा सकता है। ख़बरदार... जो आप सब को मुझसे हमदर्दी हुई, मुझपर दया करने की ज़ुर्रत भी मत कीजिएगा, आप तो बस मेरी कहानी सुनिए और मज़े लीजिए... इससे ज़्यादा कुछ नहीं। मुझे आपकी सहानुभूति की भाषा समझ में आती है और उससे बहुत डर लगता है...। हाँ, आज मैं डरी हुई हूँ। मैं वापस उसी पागल के पास जा रही हूँ... दशा और दिशा दोनों वही हैं, शायद मेरी परिणति भी।

मुई, दिसम्बर की ठण्ड है, दाँत कटकटा रहे हैं। बार - बार साड़ी को देखना पड़ता है कि कहीं कुछ लग तो नहीं गया...। ख़ैर... आप तो कहानी सुनिए।


मुझे नहीं पता कि कब तक यूँ ही अपनी समस्याओं से भागा जा सकता है, लेकिन मैं भागती हूँ, जब-जब मुझे लगता है कि मैं हार रही हूँ। मैं भाग लेती हूँ और दो-चार को साथ-साथ भागने की नसीहत भी दे जाती हूँ। लेकिन ये बात भी सच है कि मेरे साथ कोई भागता नहीं है और न ही अपने साथ रोकता है। सत्रह साल की उम्र में सहरसा, बिहार से भागकर कलकत्ते आ गई थी, तब भी किसी ने नहीं रोका। वैसे रोकने वाला था भी कौन? बाबूजी पहले ही बैक टू बैक सात बच्चे, जिनमें पाँच लड़की और दो लड़के पैदा करवाते - करवाते माई को अधमरा बना चुके थे और बची खुची जान आठवीं बार में निकल गई। लेकिन शुक्र है कि जच्चा के साथ - साथ बच्चा, ओह, क्षमा करें, बच्चा नहीं, बच्ची भी मर चुकी थी। बड़ी भली किस्मत थी, जी, उसकी...। नरक भोगने से पहले ही ख़तम हो गई। मुझसे बड़े थे सभी भाई बहन, घर से जब मैं भागी थी। तब तीन बहनों की शादी हो चुकी थी और चौथी के लिए लड़का ढूँढ़ा जा रहा था। दोनों भाई अड़े हुए थे कि जब तक बहनों को नहीं निपटा देते, ख़ुद भी नहीं निपटेंगे। वैसे अगर मुझे रोका जाता, तब भी कौन सी रुकने वाली थी, मैंने कहा  न, मैं खूब भागती हूँ, हर परेशानी से भागती हूँ।

शायद इसलिए भी भागती हूँ कि मैं जीना चाहती हूँ। आज तक शायद ही कभी मरने की इच्छा मेरे भीतर आई हो,और अगर आई भी हो, तो चुटकी बजाते मैंने उसे भगा दिया है। लेकिन उस दिन मैं समझ चुकी थी कि जैसे ही ये बात सबको पता चलेगी, मेरा मरना तय है। अरे, किसे पसन्द आता कि मैं पेट से हूँ, और उस पर अपने बड़े बहनोई से। अब ये मत सोच लीजिएगा कि मुझे उस आदमी से प्रेम था, बिल्कुल नहीं। मुझ जैसी लड़की को उस समय और मुझ जैसी ही औरत को देने के लिए आज भी आपके और आपके इस समाज के पास कुछ नहीं है। आप कुछ नहीं दे सकते मुझे... न दोस्ती, न दुश्मनी... न चैन न ख़ौफ़... न ग़म, न ख़ुशी। अब अगर आप बात करेंगे सेक्स की, तो वो मेरी भी ज़रूरत है, या कहूँ की आपसे भी ज़्यादा मुझे उसकी ज़रूरत है।

तभी तो पेट लेकर भागी थी, इसलिए कम से कम सेक्स की दुहाई देकर तो मैं नहीं रोऊँगी।... इसलिए इस मुद्दे पर हिसाब बराबर... न कुछ दिया, न कुछ लिया। अब आप चौंक रहे होंगे कि जिस बात को मुद्दा बनाकर मैं लड़ सकती थी और जीत भी सकती थी, उस मौक़े को मैंने यूँही क्यों जाने दिया... अरे जीते तो कोई तब, जब जीतना चाहे, उस आदमी से जीतकर भी, भला, मैं क्या ही उखाड़ लेती। उससे होता केवल यही कि मैं अपनी बहन की सौत बन जाती, फिर पूरी ज़िन्दगी उसकी गालियाँ सुनती और साथ ही साथ दो चार बच्चे और पैदा कर लेती। मुझे नहीं जीतना था इन चीज़ों को...। इन्हीं सबसे तो भागती आई हूँ आज तक। पर भला हो उस सज्जन पुरुष का, जिसने कम से कम गाँव से भागने में मेरी बहुत मदद की। सज्जन इस मामले में, कि आठ सत्तू वाली लिट्टियाँ, दो हज़ार रुपए, एक मोबाइल फ़ोन, कलकत्ते के किसी आदमी का पता और बच्चा गिराने वाली गोलियाँ लिए वह सहरसा स्टेशन पर खड़ा था। सामान देते वक़्त वो रो रहा था, बार - बार मिन्नतें कर रहा था... देखो, सब सम्भाल लेना, ये बात खुलने न पाए, नहीं तो सब ख़तम हो जाएगा। कम से कम अपने बहन - पूतो के बारे में ज़रूर सोच लेना कुछ भी करने से पहले...। देखो, जो भी हुआ उसमें तुम्हारी भी मर्ज़ी थी न? तुमने मना नहीं किया था न ? किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो फ़ोन करना। मैं तो हूँ ही...। 

हाँ, सही बात...जो भी हुआ था, उसमें विरोध मैंने भी नहीं किया। क्यों करती विरोध...? मुझे उस दिन एक पल के लिए भी अपनी ग़लती नज़र नहीं आ रही थी। जो भी हो रहा था, उससे भागना मेरे वश में नहीं था, तो मैंने भी ज़बरदस्ती भागने की कोशिश नहीं की। इसीलिए उसकी किसी भी बात का जवाब नहीं था मेरे पास। लेकिन उस दिन के बाद से मैंने न कभी उसे फ़ोन किया, न उसने मुझे...। मुझे दवाई खाने की इतनी जल्दबाज़ी थी कि मैंने बिना खाना खाए ही एक साथ दो - तीन गोलियाँ खा लीं...। काश ! उस आदमी को ये भी पता होता कि तीन चार महीने के बच्चे को ख़त्म करने के लिए दवाइयाँ नहीं, कैंचियाँ भिड़ानी पड़ती हैं, तो शायद वो मेरे साथ अस्पताल तक जाता...।

गाड़ी की धड़ - धड़ की आवाज़ और तेज़ होती है, जिसके साथ साथ उस डॉक्टर की भी आवाज़ गूँजने लगती है, जिसके यहाँ से मैं आज वापस लौट रही हूँ... क्या नाम है तुम्हारा...? पति है साथ में...? पहले से कितने बच्चे हैं तुम्हारे...? अबौर्शन क्यों करवा रही हो...? देखो, हम बिना किसी जाननेवाले के तुम्हें एडमिट नहीं कर सकते। अगर कुछ हो गया तो...? मैं मन ही मन सोच रही थी कि क्या हो जाएगा...? ये कोई पहली बार थोड़ी ही है, तीसरी बार है...। मुझे तो अब आदत पड़ गई है...। इससे पहले दो बार कलकत्ते में ही करवा चुकी हूँ, वो तो इस बार यहाँ दस दिनों के लिए काम के सिलसिले में आना था, सोचा, चलो इससे भी निपट लिया जाए।

मैंने उससे याचना भरे शब्दों में कहा कि आप शायद जानती हैं कि मेरे साथ कोई नहीं आएगा, अगर आना होता साथ में ही आता... ये कहते कहते मेरी आवाज़ रुंध गई...। ठीक है, ठीक है... लेकिन बारह हज़ार रुपए लगेंगे । मैंने कहा कि ये थोड़ा ज़्यादा नहीं हैं...? मैं मन ही मन पिछली बार कलकत्ते वाला दाम याद करने लगी जो कि सात हज़ार ही था...। अरे, कम में भी हो जाएगा, लेकिन कोई दिक़्क़त हुई तो बाद में तो हमें मत कहना...। अगर बारह हज़ार लेंगे, तो तुम्हें बड़े ऑपरेशन थिएटर में ले जाएँगे.., सारी सुविधाएँ होंगी, शिकायत वाली कोई बात नहीं, और फिर तुम्हें आगे कभी माँ बनना है या नहीं...? कम में मैं उसका रिस्क नहीं लेती...। मन में तो आया की फटाक से हाँ ही बोल देती हूँ, कौन सा मुझे मेरे वंश का वारिस चाहिए। मैं तो अपना नामो - निशान अपने साथ ही लेकर मरूँगी। पर नहीं बोल पाई।

ओह क्षमा करें महोदय, थोड़ा गीला - गीला अनुभव हो रहा है, ज़रा चेक करके आती हूँ...। नहीं नहीं, मेरा वहम था, अभी दो - तीन घण्टे तो काम चल जाएगा। चाय ले लो, चाय.., गरम - गरम चाय.., ठण्डी - ठण्डी शाम, गरम - गरम चाय.., चाय ले लो, चाय। बड़ी ज़बरदस्त ठण्ड है, भई, चार कप पी गई, पता भी नहीं चला। ख़ैर, आप ऊब न जाएँ इसीलिए कहानी पर वापस लौटते हैं। इन सबमें आप लोगों का कोई कुसूर थोड़े है, तो फिर आपको सज़ा क्यों मिले ?

घर से भागते वक़्त भयंकर गर्मी थी, ऊपर से तीन - तीन गोलियों की दाह...। शरीर काँप जाता है उस दर्द से... जैसे - तैसे सहरसा से कलकत्ते तक का सफ़र गुज़रा था, अगल - बगल के लोग भी शायद समझ गए होंगे मेरी समस्या को, पर कौन पूछता है...। आधे रास्ते पहुँचते - पहुँचते पेट में भयंकर दर्द हुआ ... ऐसा लग रहा था मानों साक्षात यमराज ही पेट में घुस गए हों...। बेचैनी में किसी तरह दो लिट्टियाँ भी खा लीं, पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। बार - बार ऐसा लगता था कि किसी ने अपने दोनों हाथ मेरे पेट में घुसा दिए हों और मेरी अन्तड़ियों को बाहर की तरफ खींच रहा हो। बीच - बीच में दोनों पैरों के बीच सर घुसाकर लगातार तीन - तीन चार - चार मिनट अपने आख़िरी दम तक दाँत भींचे रहना पड़ रहा था, पर दर्द में कोई फ़ायदा नहीं। ऐसा लगता था मानों आज जान नहीं बचेगी...।

भीतर से एक ही आवाज़ आ रही थी बार - बार...। बचा लो, कोई तो बचा लो...। मैं बार - बार किसी तरह का चमत्कार होने के इन्तज़ार में थी। गाँव में जितने देवता - पितरों की मनौतियाँ लोग मानते थे, सबकी मनौती कर चुकी थी..। अचानक उल्टी आने लगी, उठकर दरवाज़े तक जाने का भी मौक़ा नहीं मिला...। आस - पास वाले बिदककर उठ गए। वैसी उल्टी मुझे पहले कभी नहीं हुई थी, नाक - मुँह दोनों जगहों से ... नीले रंग की कै...। उसे देखकर आँखों के सामने बिल्कुल अंधेरा छा गया था। मैं अब हिम्मत हार चुकी थी और फूट - फूटकर रोने लगी थी...। मन फिर कह रहा था... बचा लो, कोई तो बचा लो... मैं मरना नहीं चाहती। पर मन की बात सुनता कौन है...?

आगे का सफ़र मैंने बेहोशी की हालत में काटा, कलकत्ते पहुँचने पर किसी ने झकझोरा... मैडम, कहाँ उतरना था आपको? हावड़ा पहुँच गई है ट्रेन। किसी तरह पूछते हुए स्टेशन से बाहर निकली। पीली - पीली ढेर सारी टैक्सियाँ एक साथ खड़ी थीं। उन्हीं में से एक को पता थमाया और चुपचाप उसकी टैक्सी में बैठ गई। दर्द अपने चरम था, जब कभी टैक्सी ज़ोर से हिलती - डुलती तो उसी के साथ पेट का मरोड़ भी बढ़ जाता। ख़ैर, एक - डेढ़ घण्टे बाद मैं काका के घर में थी और वो मुझे अस्पताल ले जाने की जल्दी - जल्दी तैयारी कर रहे थे। उन्होंने उसी टैक्सी वाले को रोक रखा था।

उस दिन भी लगभग वही सब हुआ, जो आज...। बस, फ़र्क इतना है कि आज भीतर से डर गायब था...। उस दिन भी डॉक्टर के सवाल लगभग यही थे... क्या नाम है..? पति हैं साथ में...? ना ना बोर आस्ते पारी नी...आमी ओर बाबा..(नहीं - नहीं, पति नहीं आ पाए, मैं पिता हूँ इसका)। अच्छा, यहाँ साइन कर दीजिए...। काका ने झटपट साइन किए, फ़ीस भरी और दस मिनट के भीतर मैं ऑपरेशन थियेटर में थी। मुझे एक मशीननुमा बेड पर लिटा दिया गया था, एक नर्स आई और उसने झट से मेरे पायजामे को खोलकर किनारे कर दिया, फिर दोनों हाथ और दोनों पैर बाँध दिए ...। उस दिन एक पल को लगा था कि इससे बेहतर तो यह होता कि मैं मर जाती, अब जीने का कोई मतलब नहीं है।अगले ही पल डॉक्टर और उसके साथ एक मर्द शायद कम्पाउण्डर रहा होगा, दोनों आए, उसी मर्द ने मेरे अँगूठे में एक सुई लगा दी और बोला आँख बन्द करो..। मैंने आँखे बन्द कर लीं, फिर आहिस्ते - आहिस्ते कोई औरत मेरे सर को सहला रही थी..।

तुम्हें डर तो नहीं लग रहा है..? डरो मत..। बस, दस मिनट। अरे, तुम्हें तो कुछ पता भी नहीं चलेगा, सो जाओ। बिलकुल परेशान मत होना।उसकी इन मीठी बातों ने अचानक माँ की याद दिला दी और मैं ज़ोर - ज़ोर से रोने लगी। लेकिन अगले ही पल मैं अपने होश में नहीं थी..। बस, हर दस सेकण्ड पर मुझे घर्र - घर्र की ख़ूब तेज़ आवाज़ सुनाई पड़ती, साथ ही साथ लगता था मानों एक साथ ढेर सारी बिजलियाँ चमक रही हों और मेरा  कलेजा बैठने लगता ।लेकिन थोड़ी देर बाद सब सुन्न पड़ चुका था..। लगभग एक घण्टे बाद मुझे होश आया। नॉर्मल वार्ड के एक बिस्तर पर मैं लाश की तरह लेटी थी। मेरे पैरों के पास काका और वो टैक्सी ड्राइवर भी खड़ा था। ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरे भीतर कुछ है ही नहीं, पूरा शरीर हवा के समान हलका, दर्द बिलकुल गायब हो चुका था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं ज़िन्दा हूँ... पर उस दिन से आज तक मैं ज़िन्दा हूँ। आपको विश्वास हो रहा है न कि मैं ज़िन्दा हूँ...?

ट्रेन के भीतर मैं और मेरे भीतर कहानियाँ चल रही हैं। ट्रेन रुकने के साथ ही साथ मैं कहानियों का चलना भी बन्द कर दूँगी, और वो भी हमेशा के लिए। लगता है, अब कोई चाय वाला नहीं आएगा। काफ़ी रात हो चुकी है, और मुझे भूख लग रही है। हाँ, बैग में बिस्कुट हैं, पहले खा लूँ फिर सुनाऊँगी आगे की कहानी।   तीन साल बाद बाबूजी के मरने की ख़बर कहीं से मिली थी... मन तो इसी टोह में था ही कि किसी बहाने कम से कम एक बार घर चली जाऊँ। काका रोक रहे थे, वो बार बार कह रहे थे...ओखाने तोर जोने किछुई नेई सुरक्षा, जास ना... (वहाँ  तुम्हारे लिए कुछ नहीं होगा, सुरक्षा, मत जाओ...)।  ये वही काका हैं, जिनका पता सहरसा स्टेशन पर उसने दिया था। मैं ताज्जुब करती हूँ कि इतने अच्छे आदमी का पता उस आदमी के पास कैसे था। कैसे जानते थे ये दोनों एक दूसरे को...? लेकिन कभी पूछने का मन नहीं हुआ। उनका एक ही लड़का था, जन्म से ही मंदबुद्धि या एक तरह से कह सकते हैं कि पागल था। पत्नी गुज़र चुकी थीं।

काका अपने बेटे को ख़ूब प्यार करते थे, आज भी करते हैं। वो ख़ूब सवाल करता है, काका कभी नहीं उबते उसके सवालों से। मुझसे भी ख़ूब बकबक करता है। एक ही सवाल लगातार छह - छह महीने तक पूछता रहता है। शुरुआत में पूछता था...येई सुरक्षा ! तुई एखाने आसली केनो? (ए सुरक्षा ! तू यहाँ क्यों आई..?)। मेरे कुछ बोलने से पहले ही काका जवाब दे देते... तुझसे मिलने। फिर वो झटपट काका के पास जाकर बैठ जाता था और उनसे बार बार यही सवाल पूछने लगता था...सुरक्षा यहाँ क्यों आई है? फिर जवाब मिलता तुझसे मिलने। सुरक्षा यहाँ क्यों आई है? तुझसे मिलने। शुरुआत में खूब ऊब होती थी, लगता था कि कहाँ फँस गई। उसके सवाल जैसे जैसे बढ़ते, मेरी खीझ भी वैसे वैसे  बढ़ती जाती, लेकिन मैं उस घर को छोड़कर भी कहाँ जाती। जीवन में अपना क्या करना है, ये सवाल सहरसा से भागते वक़्त मैं शायद वहीं छोड़ आई थी, जिसका जवाब भी मुझे कभी नहीं मिला, यहाँ तक कि दोबारा वहाँ जाने पर भी नहीं। पर लोकेश की एक ख़ासियत थी कि वो सवाल, भले, अपने मन से करता था, लेकिन जवाब कोई भी सुन लेता था। धीरे - धीरे मुझे भी आदत पड़ गई। आज मैं भी उसके साथ काका की तरह ही रट्टा मारते - मारते अपना दिन गुज़ार देती हूँ। हम अपना काम कर रहे होते हैं और वह रेडियो की तरह बज रहा होता है।

एक अजीब सा डर लिए उस दिन गाँव गई थी। बाबूजी के भोज की तैयारी चल रही थी। दरवाज़े पर ही ढेरों लोग बैठे थे, दोनों भाई और बहनोई भी, पर किसी ने अन्दर नहीं जाने दिया। दोनों बहने और उनके पीछे घूँघट में एक औरत थी, शायद बड़े भाई की पत्नी होगी... झाँक रही थी, पर उनमें से भी कोई बाहर नहीं आया। बड़े भाईसाहब की बातें आज भी कानों में गूँजती हैं। वो सबके सामने ताबड़तोड़ लप्पड़ें और मुक्के बरसाए जा रहे थे। अरे रण्डी कहीं की, यहाँ क्यों आई, और आई भी तो आज ही..? इतने लोगों के बीच में हमारी नाक कटवाने... जीजाजी के कहने पर हमलोग तो उसी दिन तुम्हें मरा हुआ मान चुके थे, जब हमें पता चला कि तूने कलकत्ते में किसी पागल से शादी कर ली है, फिर आज क्यों आई..? मर गया क्या वो पागल...? उस दिन सारे सवालों के जवाब बिना पूछे ही मिल गए थे..। पैरों के नीचे से ज़मीं खिसक चुकी थी। मैं उस दिन भी भागी, बड़े ज़ोर से भागी।

मैंने कहा था न पहले ही, मैं जीना चाहती हूँ, इसीलिए बार बार भागती हूँ। या फिर आप मुझे बेशरम, बेहया भी कह सकते हैं। और फिर उस दिन तो मौत साक्षात सामने खड़ी थी... नाक - मुँह दोनों जगहों से ख़ून आ रहा था, जबड़ा बैठा जा रहा था और दाईं तरफ़ का गाल भी जगह - जगह से फट चुका था। मैं भागी... मैं ग़लत ट्रेन में चढ़ चुकी थी, जिसकी ख़बर मुझे डेढ़ - दो घण्टे बाद लगी, जब अचानक से लगा कि लोग मुझे एकटक घूर रहे हैं। तब तक चेहरे पर लगा ख़ून सूख चुका था। मैंने फटाक से अपनी चुन्नी ओढ़ ली और भरसक अपने चेहरे को पूरी तरह से ढक लिया। मैंने अपने बग़ल वाले यात्री से पूछा... भईया ! ट्रेन कहाँ जाएगी? वह बोला ... पटना। मैंने सोचा, चलो कोई बात नहीं, पटना से ही कलकत्ते के लिए ट्रेन या बस पकड़ लूँगी... लेकिन ये ख़याल आते ही यह भी याद आया कि उस पागल के घर  का पता मुझे इसीलिए दिया गया था ताकि मैं उसे अपना नसीब मानकर वहीं रहने लगूँगी। और फिर शायद इसीलिए काका ने भी मुझसे कुछ नहीं पूछा... वो आदमी पहले ही सबकुछ बता गया होगा।

बाप रे... उस दिन लगा, कितनी चालाक है ये दुनिया। पर मैंने भी अपना मन बना ही लिया था, अब मैं कलकत्ते में ही रहूँगी और उन्हीं लोगों के साथ रहूँगी। मन में एक लोभ भी तब तक आ चुका था कि वो घर आख़िर में मेरा हो सकता है। यहाँ - वहाँ भटकने से क्या फ़ायदा? शायद अभी तक के बुरे अनुभवों का एक अच्छा फल मिल ही गया मुझे।

रात के ग्यारह बज चुके थे। पटना उतर के स्टेशन पर ही मैंने हाथ - मुँह धोया। उतनी चोट के बाद भी भूख तो लगनी ही थी। माँ हमेशा कहती थी... पेट चाण्डाल होता है, इसके लिए ही आदमी को सारे कर्म करने पड़ते हैं। मैंने खाना खाया, दवाई ली और रात में ही बस स्टैण्ड पहुँच गई। सुबह के पाँच बजे की एक बस थी कलकत्ते के लिए, मैंने टिकट तो कटा ली, लेकिन बस एक घण्टे पहले ही स्टैण्ड में आकर लगती थी। बस स्टैण्ड के भीतर ही एक पेट्रोल पम्प था। मैंने चार - पाँच घण्टे का समय चुपचाप वहीं बैठकर निकाल दिया। उस दिन सोचने को, याद करने को कितनी घटनाएँ थीं और साथ ही भविष्य की योजनाएँ भी कि समय कैसे बीत गया, पता भी नहीं चला। बार - बार लोकेश का चेहरा आँखों के सामने घूम रहा था... उसकी आवाज़ें गूँज रही थीं कानों में... ए सुरक्षा ! तू यहाँ क्यों आई है... तुमसे मिलने... नहीं - नहीं... हमेशा के लिए तुम्हारे साथ रहने।

इस बार कलकत्ते आते वक़्त मेरे भीतर डर नाम की कोई चीज़ नहीं थी, ना ही किसी अपने का चेहरा था जिसके लिए मेरे भीतर कोई अफ़सोस हो, जैसे पिछली बार बड़ी दीदी के लिए  एक अपराध - बोध लेकर घर से निकली थी और जो तीन सालों से कहीं न कहीं भीतर दबा था। इस बार वह भी छोड़ आई थी। अब मेरे साथ केवल मैं थी, जिसे जीना था, केवल जीना था। काका के बाद उस पागल का ख़याल रखना था, जिससे होने वाले बच्चे को लगातार दूसरी बार मैंने आज ही ख़तम किया है। मैं कलकत्ते आ चुकी थी और जीवन फिर से सामान्य होने लगा था, घाव भरने लगे थे, पुरानी कहानियाँ धुँधली पड़ने लगी थीं। मैंने लोकेश से शादी कर ली थी... ये क्या हो रहा है... शादी, ये क्या हो रहा है...शादी। ए सुरक्षा तू इसलिए यहां आई थी.. हां, ए सुरक्षा तू किसलिए आई है... शादी के लिए।              काका साड़ियां रंगते थे, घर ठीक ठाक था तीन कमरे थे, पीछे की तरफ बड़ा सा आंगन था, जिसमें हमेशा रंगी हुई साड़ियां टंगी रहती थी, मेरे जाने के बाद उनका काम और बेहतर हो गया था...आज काका और हम दोनों के अलावा ग्यारह लोग और काम करते हैं, साड़ियां रंगना अब न के बराबर होता है उसकी जगह अब साड़ियों पर कढ़ाई होती हैं ,एक तरह से कहिए तो काका के नाम पर मेरा छोटा सा बिजनेस चलने लगा है, मुझे ग्राहक ढूंढने में कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ी क्योंकि वो काका ने भरपूर बनाए थे जिसका भरपूर फायदा आज मैं उठाती हूं। काका शुरुआत के दिनों में हमेशा कहते थे कि तुझे जीवन जीने के लिए और पूरा जीवन जीने के लिए खूब मेहनत करनी होगी। हां, काका सही कहते थे क्योंकि उन्होंने मेरे बहनोई के साथ मिलकर मेरा भविष्य जो सोच लिया था,और वो साफ साफ देख पा रहे थे मेरी नियति।                    ट्रेन रुकी है... पता नहीं कहां... पर अभी कलकत्ते पहुंचने में वक्त लगेगा... पर कहानी खत्म होने में नहीं...  ट्रेन की बढ़ती आवाज के साथ-साथ उस डॉक्टर की आवाज फिर से तेज हाने लगती है....तुम्हारा नाम क्या है, कहां से आई हो? पति हैं साथ में..?पता नहीं कहां-कहां से लोग आ जाते हैं| वैसे मैडम आगे से आना तब कम से कम उस ब्वॉयफ्रेंड को ही लेती आना, हमें सब पता है कि पति कब और क्यों नहीं आते। मैं मन ही मन सोच रही थी कि अगली बार ऐसा कुछ हुआ  भी तब  मैं तुम्हारे यहां क्यों आऊंगी...? कलकत्ते में आग लग जाएगी क्या तब तक। एक इच्छा हो रही थी कि बता ही देती हूं कि मेरा पति

10 पागल है, पर ये मानेगी भी नहीं... खैर... देखो थोड़ा पर्सनल होके एक एडवाइस दे रही हूं, ये सब अच्छी बात नहीं है।  तुम तो उम्र में बड़ी हो फिर क्या शौक चढ़ी थी। खैर एक नसीहत दूंगी आगे के लिए... चुपचाप अच्छे से अपने पति के साथ रहो, यहां वहां भटकने से कोई फायदा नहीं है। पति के साथ एक बच्चा कर लो, देखना फिर सारा नशा उतर जायेगा, जिंदगी अपने आप रास्ते पर आ जायेगी। और अगर बच्चा नहीं चाहिए तो नशबंदी करा लो न... मैं फिर खुद से कहती हूं... नहीं... मैं नहीं कराती नशबंदी। मैं ऐसे ही मारूंगी। तुम जैसी औरतें थकती नहीं क्या...? कितना अच्छा बिजनेस कर रही हो तुम... अपनी एनर्जी सही जगह लगाओ। उसकी आखिरी लाइन थी... सुनो अगली बार जब यहां आना तो केवल साड़ियों की खरीद बिक्री के लिए ही आना।           सही बोल रही थी वो मैं नहीं थकती पर अब थक  चुकी हूं टांगें फैला-फैला कर...कभी उस पागल के सामने तो कभी इस डॉक्टर के सामने। मुझे मेरी आंखों पर वो बत्तियां चुभती हैं। सामने कम उम्र का कम्पाउंडर मुस्कुराता हुआ मुझे अजीब लगता है। पर मैं आऊंगी, उतनी बार आऊंगी जितनी बार मेरे पेट में उस पागल का बच्चा होगा, उसका ही क्यों, उसकी जगह कोई और भी होता तब भी मैं आती... हालांकि इनसब में इस पागल का कोई दोष नहीं है, बस मैंने ही अपने लिए आसान रास्ता चुन लिया। वो भले ही पागल है लेकिन है तो मर्द ही... ताज्जुब तो तब हुआ जब उस पागल को उस छेद का पता था... उसे वहां तक पहुंचने के लिए विशेष भूमिका नहीं बांधने आती है...हाय रे पागल। और फिर अच्छा है कि वो पागल है, उसे फर्क नहीं पड़ता कि मैं उसके बच्चे को खतम किए जा रही हूं, उसे अपना वंश बढ़ाने की कोई चिंता नहीं है।  आप फिर चौंक रहे होंगे, पर यही सच है कि मैं उस पागल के साथ बड़े आराम से सो लेती हूं... इसे मैंने खुद चुना है। उसी सड़े हुए और खोखले समाज से चुना है, जहां मुझ जैसी स्त्री के लिए कुछ नहीं था, न शिक्षा, न स्वास्थ्य न बाकी की सुविधाएं। थीं तो केवल मां बाप द्वारा चुनी गई नियति, पति द्वारा चुना गया आठ बच्चों के साथ भविष्य... जहां आठों को खिलाने के बाद कई बार मां की थाली में कुछ न बचे।  मुझे बच्चा नहीं चाहिए। आपने जो मेरे लिए सोच रखा था मैं उसे किसी कीमत पर सच नहीं होने दूंगी। कलकत्ते में तीन चार साल पहले ही मैंने एक अधनंगी

11 पागल स्त्री को घूमते देखा था, वो भी पेट से थी... अचानक से दिखना बंद हो गई। पांच छः महिने बाद पता चला कि एक दिन वो नाली के दोनों ओर पैर रख देर से बैठी थी शायद पैखाने में बच्चा होने वाले दर्द में उसके लिए कोई फर्क नहीं था। आते जाते लोगों के सामने उसने नाली में ही बच्चे को पैदा किया और आगे चलते बनी। आपके सामने उसका बच्चा नाली में सड़ रहा था, तब भी आपके पास कुछ नहीं था। तीन चार दिन बाद उस पागल औरत की लाश भी सड़क किनारे से मिली थी जहां एक पेड़ के पिछे बैठे बैठे ही वो मर चुकी थी और उसकी गर्दन एक ओर को झुकी और आखें खुली की खुली थी। अब बताएं आप...? किसने किया होगा...? मुझे नहीं लगता किसी पागल का काम होगा... बल्कि आपके बीच का ही कोई बेहद समझदर और सुलझा हुआ तथाकथित इंसान होगा। एक पागल वो जिसे आपने चुना, एक पागल ये जिसे मैंने। अब मुझे नहीं लगता कि आपको आपत्ति होनी चाहिए।  मैं आपके समाज में आपके जैसे ही बेहद समझदार पागलों की संख्या और नहीं बढ़ाऊंगी। मारूंगी, बार बार मारूंगी।  इसीलिए अभी-अभी आपकी परंपरा के तीसरे पागल को खत्म किया है या स्त्री भी हुई तो उसे मैं अपने जैसी, अपनी मां जैसी, या उस पागल औरत जैसी नहीं देखना चाहती हूं।             मुझे नींद आ रही है, मैं बहुत हल्का महसूस कर रही हूं। मेरे पेट में कोई कचड़ा नहीं है। लेकिन इतना सब कुछ खतम होने या करने के बाद मेरे भीतर मैं भी बहुत कम बची हूं। आज हल्कापन महसूस होने के साथ साथ एक थकान भी महसूस हो रही है। कभी कभी लगता है कि मैं पागल हो चुकी हूं और इतना कुछ सुनने के बाद आपको भी यही लगने लगा होगा। मुझमें मरने का साहस नहीं है...लेकिन आप मेरे लिए मौत जरुर मांगिएगा...शायद मुझ जैसी औरत के लिए आपके पायजामे रूपी झोले में  मौत जरुर होगा। आगे बस इतना पता है कि दस दिन बाद रांची अपनी पूरी टीम के साथ जाना है जहां मेरी साड़ियों की अच्छी क्वालिटी  और छः राज्यों में अच्छी बिक्री के लिए सम्मानित किया जाएगा। मेरी नियति तय करनेवालों की मेहनत पर मैंने कब्जा जो जमा लिया है।

12                  धड़ धड़ धड़ धड़ धड़... ट्रेन जितनी  तेजी से आगे जा रही है, कहानी उतनी ही तेजी से पीछे। इन दोनों के बीच में मैं सुरक्षा... सुरक्षा लोकेश बनर्जी जिंदा हूं... और आपके मारने तक जिंदा रहूंगी और मैं ये भी जानती हूं कि आप मुझे बड़ी जल्दी मारेंगे।