कंकाल / चतुर्थ खण्ड / भाग 5 / जयशंकर प्रसाद

Gadya Kosh से
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कई दिन हो गये थे। मंगल नहीं था। अकेले गाला उस पाठशाला का प्रबन्ध कर रही थी। उसका जीवन उसे नित्य बल दे रहा था, पर उसे कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता कि उसने कोई वस्तु खो दी है। इधर एक पंडितजी उस पाठशाला में पढ़ाने लगे थे। उनका गाँव दूर था; अतः गाला ने कहा, 'पंडितजी, आप भी यहाँ रहा करें तो अधिक सुविधा हो। रात को छात्रों को कष्ट इत्यादि का समुचित प्रबन्ध भी कर दिया जाता और सूनापन उतना न अखरता।'

पंडितजी सात्त्विक बुद्धि के एक अधेड़ व्यक्ति थे। उन्होंनें स्वीकार कर लिया। एक दिने वे बैठे हुए रामायण की कथा गाला को सुना रहे थे, गाला ध्यान से सुन रही थी। राम वनवास का प्रसंग था। रात अधिक हो गयी थी, पंडितजी ने कथा बन्द कर दी। सब छात्रों ने फूस की चटाई पर पैर फैलाये और पंडितजी ने भी कम्बल सीधा किया।

आज गाला की आँखो में नींद न थी। वह चुपचाप नैन पवन-विकम्पित लता की तरह कभी-कभी विचार में झीम जाती, फिर चौंककर अपनी विचार परम्परा की विशृंखल लड़ियों को सम्हालने लगती। उसके सामने आज रह-रहकर बदन का चित्र प्रस्फुटित हो उठता। वह सोचती-पिता की आज्ञा मानकर राम वनवासी हुए और मैंने पिता की क्या सेवा की उलटा उनके वृद्ध जीवन में कठोर आघात पहुँचाया! और मंगल किस माया में पड़ी हूँ! बालक पढ़ते हैं, मैं पुण्य कर रही हूँ; परन्तु क्या यह ठीक है? मैं एक दुर्दान्त दस्यु और यवनी की बालिका-हिन्दू समाज मुझे किस दृष्टि से देखेगा ओह, मुझे इसकी क्या चिन्ता! समाज से मेरा क्या सम्बन्ध! फिर भी मुझे चिन्ता करनी ही पड़ेगी, क्यों इसका कोई स्पष्ट उत्तर नही दे सकती; पर यह मंगल भी एक विलक्षण.. आहा, बेचारा कितना परोपकारी है, तिस पर उसकी खोज करने वाला कोई नहीं। न खाने की सुध, न अपने शरीर की। सुख क्या है-वह जैसे भूल गया है और मैं भी कैसी हूँ-पिताजी को कितनी पीडा मैंने दी, वे मसोसते होंगे। मैं जानती हूँ, लोहे से भी कठोर मेरे पिता अपने दुःख के किसी की सेवा-सहायता न चाहेंगे। तब यदि उन्हें ज्वर आ गया हो तो उस जंगल के एकान्त में पड़े कराहते होंगे।' '

सहसा जैसे गाला के हृदय की गति रुकने लगी। उसके कान में बदन के कराहने का स्वर सुनायी पड़ा, जैसे पानी के लिए खाट के नीचे हाथ बढ़ाकर टटोल रहा हो। गाला से न रहा गया, वह उठ खड़ी हुई। फिर निस्तब्ध आकाश की नीलिमा में वह बन्दी बना दी गयी। उसकी इच्छा हुई कि चिल्लाकर रो उठे; परन्तु निरुपाय थी। उसने अपने रोने का मार्ग भी बन्द कर दिया था। बड़ी बेचैनी थी। वह तारों को गिन रही थी, पवन की लहरों को पकड़ रही थी।

सचमुच गाला अपने विद्रोही हृदय पर खीज उठी थी। वह अथाह अन्धकार के समुद्र में उभचुभ हो रही थी-नाक में, आँख में, हृदय में जैसे अन्धकार भरा जा रहा था। अब उसे निश्चित हो गया कि वह डूब गयी। वास्तव में वह विचारों में थककर सो गयी।

अभी पूर्व में प्रकाश नहीं फैला था। गाला की नींद उचट गयी। उसने देखा, कोई बड़ी दाढ़ी और मूँछोंवाला लम्बा-चौड़ा मनुष्य खड़ा है। चिन्तित रहने से गाला का मन दुर्बल हो ही रहा था, उस आकृति को देखकर वह सहम गयी। वह चिल्लाना ही चाहती थी कि उस व्यक्ति ने कहा, 'गाला, मैं हूँ नये!'

'तुम हो! मैं तो चौंक उठी थी, भला तुम इस समय क्यों आये?'

'तुम्हारे पिता कुछ घण्टों के लिए संसार में जीवित हैं, यदि चाहो तो देख सकती हो!'

'क्या सच! तो मैं चलती हूँ।' कहकर गाला ने सलाई जलाकर आलोक किया। वह एक चिट पर कुछ लिखकर पंडितजी के कम्बल के पास गयी। वे अभी सो रहे थे; गाला चिट उनके सिरहाने रखकर नये के पास गयी, दोनों टेकरी से उतरकर सड़क पर चलने लगे।

नये कहने लगा-

'बदन के घुटने में गोली लगी थी। रात को पुलिस ने डाके में माल के सम्बन्ध में उस जंगल की तलाशी ली; पर कोई वस्तु वहाँ न मिली। हाँ, अकेले बदन ने वीरता से पुलिस-दल का विरोध किया, तब उस पर गोली चलाई गयी। वह गिर पड़ा। वृद्ध बदन ने इसको अपना कर्तव्य-पालन समझा। पुलिस ने फिर कुछ न पाकर बदन को उसके भाग्य पर छोड़ दिया, यह निश्चित था कि वह मर जायेगा, तब उसे ले जाकर वह क्या करती।

'सम्भवतः पुलिस ने रिपोर्ट दी-डाकू अधिक संख्या में थे। दोनों ओर से खूब गोलियाँ चलीं; पर कोई मरा नहीं। माल उन लोगों के पास न था। पुलिस दल कम होने के कारण लौट आयी; उन्हें घेर न सकी। डाकू लोग निकल भागे, इत्यादि-इत्यादि।

'गोली का शब्द सुनकर पास ही सोया भालू भूँक उठा, मैं भी चौंक पड़ा। देखा कि निस्तब्ध अँधेरी रजनी में यह कैसा शब्द। मैं कल्पना से बदन को संकट में समझने लगा।

'जब से विवाह-सम्बन्ध को अस्वीकार किया, तब से बदन के यहाँ नहीं जाता था। इधर-उधर उसी खारी के तट पर पड़ा रहता। कभी संध्या के समय पुल के पास जाकर कुछ माँग लाता, उसे खाकर भालू और मैं संतुष्ट हो जाते। क्योंकि खारी में जल की कमी तो थी नहीं। आज सड़क पर संध्या को कुछ असाधारण चहल-पहल देखी; इसलिए बदन के कष्ट की कल्पना कर सका।

'सिंवारपुर के गाँव के लोग मुझे औघड़ समझते-क्योंकि मैं कुत्ते के साथ ही खाता हूँ। कम्बल बगल में दबाये भालू के साथ मैं, जनता की आँखों का एक आकर्षक विषय हो गया हूँ।

'हाँ तो बदन के संकट ने मुझको उत्तेजित कर दिया। मैं उसके झोंपड़े की ओर चला। वहाँ जाकर जब बदन को घायल कराहते देखा, तब तो मैं जमकर उसकी सेवा करने लगा। तीन दिन बीत गये, बदन का ज्वर भीषण हो चला। उसका घाव भी असाधारण था, गोली तो निकल गयी, पर चोट गहरी थी। बदन ने एक दिन भी तुम्हारा नाम न लिया। संध्या, को जब मैं उसे जल पिला रहा था, मैंने वायु-विकार बदन की आँखों में स्पष्ट देखा। उससे धीरे से पूछा-गाला को बुलाऊँ बदन ने मुँह फेर लिया। मैं अपना कर्तव्य सोचने लगा, फिर निश्चय किया कि आज तुम्हें बुलाना ही चाहिए।'

गाला पथ चलते-चलते यह कथा संक्षेप में सुन रही थी; पर कुछ न बोली। उसे इस समय केवल चलना ही सूझता था।

नये जब गाला को लेकर पहुँचा, तब बदन की अवस्था अत्यन्त भयानक हो चली थी। गाला उसके पैर पकड़कर रोने लगी। बदन ने कष्ट से दोनों हाथ उठाये, गाला ने अपने शरीर को अत्यन्त हलका करके बदन के हाथों में रख दिया। मरणोन्मुख वृद्ध पिता ने अपनी कन्या का सिर चूम लिया।

नये उस समय हट गया था। बदन ने धीरे से उसके कान में कुछ कहा, गाला ने भी समझ लिया कि अब अन्तिम समय है। वह डटकर पिता की खाट के पास बैठ गयी।

हाय! उस दिन की भूखी संध्या ने उसके पिता को छीन लिया।

गाला ने बदन का शव-दाह किया। वह बाहर तो खुलकर रोती न थी, पर उसके भीतर की ज्वाला का ताप उसकी आरक्त आँखों में दिखाई देता था। उसके चारों ओर सूना था। उसने नये से कहा, 'मैं तो धन का सन्दूक न ले जा सकूँगी, तुम इसे ले लो।'

नये ने कहा, 'भला मैं क्या करूँगा गाला। मेरा जीवन संसार के भीषण कोलाहल से, उत्सव से और उत्साह से ऊब गया है। अब तो मुझे भीख मिल जाती है। तुम तो इसे पाठशाला में पहुँचा सकती हो। मैं इसे वहाँ पहुँचा सकता हूँ। फिर वह सिर झुकाकर मन-ही-मन सोचने लगा-जिसे मैं अपना कह सकता हूँ, जिसे माता-पिता समझता था, वे ही जब अपने ही नहीं तो दूसरों की क्या?'

गाला ने देखा, नये के मन में एक तीव्र विराग और वाणी में व्यंग्य है। वह चुपचाप दिन भर खारी के तट पर बैठी हुई सोचती रही। सहसा उसने घूमकर देखा, नये अपने कुत्ते के साथ कम्बल पर बैठा है। उसने पूछा, 'तो नये! यही तुम्हारी सम्पत्ति है न?'

'हाँ, इससे अच्छा इसका दूसरा उपयोग हो ही नहीं सकता। और यहाँ तुम्हारा अकेले रहना ठीक नहीं।' नये ने कहा।

'हाँ पाठशाला भी सूनी है-मंगलदेव वृन्दावन की एक हत्या में फँसी हुई यमुना नाम की एक स्त्री के अभियोग की देख-रेख में गये हैं, उन्हें अभी कई दिन लगेंगे।'

बीच में टोककर नये ने पूछा, 'क्या कहा, यमुना> वह हत्या में फँसी है?'

'हाँ, पर तुम क्यों पूछते हो?'

'मैं भी हत्यारा हूँ गाला, इसी से पूछता हूँ, फैसला किस दिन होगा कब तक मंगलदेव आएँगे?'

'परसों न्याय का दिन नियत है।' गाला ने कहा।

'तो चलो, आज ही तुम्हें पाठशाला पहुँचा दूँ। अब यहाँ रहना ठीक भी नहीं है।'

'अच्छी बात है। वह सन्दूक लेते आओ।'

नये अपना कम्बल उठाकर चला और गाला चुपचाप सुनहली किरणों को खारी के जल में बुझती हुई देख रही थी-दूर पर एक सियार दौड़ा हुआ जा रहा था। उस निर्जर स्थान में पवन रुक-रुककर बह रहा था। खारी बहुत धीरे-धीरे अपने करुण प्रवाह में बहती जाती थी, पर जैसे उसका जल स्थिर हो-कहीं से आता-जाता न हो। वह स्थिरता और स्पन्दनहीन विवशता गाला को घेरकर मुस्कराने लगी। वह सोच रही थी-शैशव से परिचित इस जंगली भूखंड को छोड़ने की बात।

गाला के सामने अन्धकार ने परदा खींच दिया। तब वह घबराकर उठ खड़ी हुई। इतने में कम्बल और सन्दूक सिर पर धरे नये वहाँ पहुँचा। गाला ने कहा, 'तुम आ गये।'

'हाँ चलो, बहुत दूर चलना है।'

दोनों चले, भालू भी पीछे-पीछे था।