कंकाल / चतुर्थ खण्ड / भाग 6 / जयशंकर प्रसाद
जज के साथ पाँच जूरी बैठे थे। सरकारी वकील ने अपना वक्तव्य समाप्त करते हुए कहा, 'जूरी सज्जनों से मेरी प्रार्थना है कि अपना मत देते हुए वे इस बात का ध्यान रखें कि वे लोग हत्या जैसे एक भीषण अपराध पर अपना मत दे रहे हैं। स्त्री साधारणतः मनुष्य की दया को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है, फिर जबकि उसके साथ उसकी स्त्री जाति की मर्यादा का प्रश्न भी लग जाता हो। तब यह बड़े साहस का काम है कि न्याय की पूरी सहायता हो। समाज में हत्या का रोग बहुत जल्द फैल सकता है, यदि अपराधी इस...'
जज ने वक्तव्य समाप्त करके का संकेत किया। सरकारी वकील ने केवल-'अच्छा तो आप लोग शान्त हृदय से अपराध के गुरुत्व को देखकर न्याय करने में सहायता दीजिए।' कहकर वक्तव्य समाप्त किया।
जज ने जूरियों को सम्बोधन करके कहा, 'सज्जनो, यह एक हत्या का अभियोग है, जिसमें नवाब नाम का मनुष्य वृंदावन के समीप यमुना के किनारे मारा गया। इसमें तो संदेह नहीं कि वह मारा गया-डॉक्टर कहता है कि गला घोंटने और सिर फोड़ने से उसकी मृत्यु हुई। गवाह कहते हैं-जब हम लोगों ने देखा तो यह यमुना उस मृत व्यक्ति पर झुकी हुई थी; पर यह कोई नहीं कहता कि मैंने उसे मारते हुए देखा। यमुना कहती है कि स्त्री की मर्यादा नष्ट करने जाकर नवाब मारा गया; पर सरकारी वकील का कहना बिल्कुल निरर्थक है कि उसने मारना स्वीकार किया है। यमुना के वाक्यों से यह अर्थ कदापि नहीं निकाला जा सकता। इस विशेष बात को समझा देना आवश्यक था। यह दूसरी बात है कि वह स्त्री अपनी मर्यादा के लिए हत्या कर सकती है या नहीं; यद्यपि नियम इसके लिए बहुत स्पस्ट है। विचार करते समय आप लोग इन बातों का ध्यान रखेंगे। अब आप लोग एकान्त में जा सकते हैं।'
जूरी लोग एक कमरे में जा बैठे। यमुना निर्भीक होकर जज का मुँह देख रही थी। न्यायालय में दर्शक बहुत थे। उस भीड़ में मंगल, निरंजन इत्यादि भी थे। सहसा द्वार पर हलचल हुई, कोई भीतर घुसना चाहता था, रक्षियों ने शान्ति की घोषणा की। जूरी लोग आये।
दो ने कहा, 'हम लोग यमुना को हत्या का अपराधी समझते हैं; पर दण्ड इसे कम दिया जाय।' जज ने मुस्करा दिया।
अन्य तीन सज्जनों ने कहा, 'प्रमाण अभियोग के लिए पर्याप्त नहीं हैं।' अभी वे पूरी कहने नहीं पाये थे कि एक लम्बा, चौड़ा, दाड़ी-मूँछ वाला युवक, कम्बल बगल में दबाये, कितने ही को धक्का देता जज की कुरसी की बगल वाली खिड़की से कब घुस आया, यह किसी ने नहीं देखा। वह सरकारी वकील के पास आकर बोला, 'मै हूँ हत्यारा! मुझको फाँसी दो। यह स्त्री निरपराध है।'
जज ने चपरासियों की ओर देखा। पेशकार ने कहा, 'पागलों को भी तुम नहीं रोकते! ऊँघते रहते हो क्या
इसी गड़बड़ी में बाकी तीन जूरी सज्जनों ने अपना वक्तव्य पूरा किया, 'हम लोग यमुना को निरपराध समझते हैं।'
उधर वह पागल भीड़ में से निकला जा रहा था। उसका कुत्ता भौंककर हल्ला मचा रहा था। इसी बीच में जज ने कहा, 'हम तीन जूरियों से सहमत होते हुए यमुना को छोड़ देते हैं।'
एक हलचल मच गयी। मंगल और निरंजन-जो अब तक दुश्चिन्ता और स्नेह से कमरे से बाहर थे-यमुना के समीप आये। वह रोने लगी। उसने मंगल से कहा, 'मैं नहीं चल सकती।' मंगल मन-ही-मन कट गया। निरंजन उसे सान्तवा देकर आश्रम तक ले आया
एक वकील साहब कहने लगे, 'क्यों जी, मैंने तो समझा था कि पागलपन भी एक दिल्लगी है; यह तो प्राणों से भी खिलवाड़ है।'
दूसरे ने कहा, 'यह भी तो पागलपन है, जो पागल से भी बुद्धिमानी की आशा तुम रखते हो!'
दोनों वकील मित्र हँसने लगे।
पाठकों को कुतूहल होगा कि बाथम न अदालत में उपस्थित होकर क्यों नहीं इस हत्या पर प्रकाश डाला। परन्तु वह नहीं चाहता था कि उस हत्या के अवसर पर उसका रहना तथा उक्त घटना से उसका सम्पर्क सब लोग जान लें। उसका हृदय घण्टी के भाग जाने से और भी लज्जित हो गया था। अब वह अपने को इस सम्बन्ध में बदनाम होने से बचाना चाहता था। वह प्रचारक बन गया था।
इधर आश्रम में लतिका, सरला, घण्टी और नन्दो के साथ यमुना भी रहने लगी, पर यमुना अधिकतर कृष्णशरण की सेवा में रहती। उसकी दिनचर्या बड़ी नियमित थी। वह चाची से भी नहीं बोलती और निरंजन उसके पास ही आने में संकुचित होता। भंडारीजी का तो साहस ही उसका सामना करने का न हुआ।
पाठक आश्चर्य करेंगे कि घटना-सूत्र तथा सम्बन्ध में इतने समीप के मनुष्य एक होकर भी चुपचाप कैसे रहे
लतिका और घण्टी का मनोमालिन्य न रहा, क्योंकि अब बाथम से दोनों का कोई सम्बन्ध न रहा। नन्दो चाची ने यमुना के साथ उपकार भी किया था और अन्याय भी। यमुना के हृदय में मंगल के व्यवहार की इतनी तीव्रता थी कि उसके सामने और किसी के अत्याचार प्रस्फुटित हो नहीं पाते। वह अपने दुःख-सुख में किसी को साझीदार बनाने की चेष्टा न करती, निंरजन सोचता-मैं बैरागी हूँ। मेरे शरीर से सम्बन्ध रखने वाले प्रत्येक परमाणुओं को मेरे दुष्कर्म के ताप से दग्ध होना विधाता का अमोध विधान है, यदि मैं कुछ भी कहती हूँ, तो मेरा ठिकाना नहीं, इसलिए जो हुआ, सो हुआ, अब इसमें चुप रह जाना ही अच्छा है। मंगल और यमुना आप ही अपना रहस्य खोलें, मुझे क्या पड़ी है।
इसी तरह से निरंजन, नन्दो और मंगल का मौन भय यमुना के अदृश्य अन्धकार का सृजन कर रहा था। मंगल का सार्वजनिक उत्साह यमुना के सामने अपराधी हो रहा था। वह अपने मन को सांत्वना देता कि इसमें मेरा क्या अन्याय है-जब उपयुक्त अवसर पर मैंने अपना अपराध स्वीकार करना चाहा, तभी तो यमुना ने मुझे वर्जित किया तथा अपना और मेरा पथ भिन्न-भिन्न कर दिया। इसके हृदय में विजय के प्रति इतनी सहानुभूति कि उसके लिए फाँसी पर चढ़ना स्वीकार! यमुना से अब मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। वह उद्विग्न हो उठता। सरला दूर से उसके उद्विग्न मुख को देख रही थी। उसने पास आकर कहा, 'अहा, तुम इन दिनों अधिक परिश्रम करते-करते थक गये हो।'
'नहीं माता, सेवक को विश्राम कहाँ अभी तो आप लोगों के संघ-प्रवेश का उत्सव जब तक समाप्त नहीं हो जाता, हमको छुट्टी कहाँ।' सरला के हृदय में स्नेह का संचार देखकर मंगल का हृदय भी स्निग्ध हो चला, उसको बहुत दिनों पर इतने सहानुभूतिसूचक शब्द पुरस्कार में मिले थे।
मंगल इधर लगातार कई दिन धूप में परिश्रम करता रहा। आज उसकी आँखें लाल हो रही थीं। दालान में पड़ी चौकी पर जाकर लेट रहा। ज्वर का आतंक उसके ऊपर छा गया था। वह अपने मन में सोच रहा था कि बहुत दिन हुए बीमार पड़े-काम करके रोगी हो जाना भी एक विश्राम है, चलो कुछ दिन छुट्टी ही सही। फिर वह सोचता कि मुझे बीमार होने की आवश्यकता नहीं; एक घूँट पानी तक को कोई नहीं पूछेगा। न भाई, यह सुख दूर रहे। पर उसके अस्वीकार करने से क्या सुख न आते उसे ज्वर आ ही गया, वह एक कोने में पड़ा रहा।
निरंजन उत्सव की तैयारी में व्यस्त था। मंगल के रोगी हो जाने से सबका छक्का छूट गया। कृष्णशरण जी ने कहा, 'तब तक संघ के लोगों के उपदेश के लिए मैं राम-कथा कहूँगा और सर्वसाधारण के लिए प्रदर्शन तो जब मंगल स्वस्थ होगा, किया जायेगा।'
बहुत-से लोग बाहर से भी आ गये थे। संघ में बड़ी चहल-पहल थी; पर मंगल ज्वर में अचेत रहता। केवल सरला उसे देखती थी। आज तीसरा दिन था, ज्वर में तीव्र दाह था, अधिक वेदना से सिर में पीड़ा थी; लतिका ने कुछ समय के लिए छुट्टी देकर सरला को स्नान करने के लिए भेज दिया था। सबेरे की धूप जंगले के भीतर जा रही थी। उसके प्रकाश में मंगल की रक्तपूर्ण आँखें भीषण लाली से चमक उठतीं। मंगल ने कहा, 'गाला! लड़कियों की पढ़ाई पर...'
लतिका पास बैठी थी। उसने समझ लिया कि ज्वर की भीषणता में मंगल प्रलाप कर रहा है। वह घबरा उठी। सरला इतने में स्नान करके आ चुकी थी। लतिका ने प्रलाप की सूचना दी। सरला उसे वहीं रहने के लिए कहकर गोस्वामीजी के पास गयी। उसने कहा, 'महाराज! मंगल का ज्वर भयानक हो गया है। वह गाला का नाम लेकर चौंक उठता है।'
गोस्वामीजी कुछ चिन्तित हुए। कुछ विचारकर उन्होंने कहा, 'सरला, घबराने की कोई बात नहीं, मंगल शीघ्र अच्छा हो जायेगा। मैं गाला को बुलवाता हूँ।'
गोस्वामीजी की आज्ञा से एक छात्र उनका पत्र लेकर सीकरी गया। दूसरे दिन गाला उसके साथ आ गयी। यमुना ने उसे देखा। वह मंगल से दूर रहती। फिर भी न जाने क्यों उसका हृदय कचोट उठता; पर वह लाचार थी।
गाला और सरला कमर कसकर मंगल की सेवा करने लगीं। वैद्य ने देखकर कहा, 'अभी पाँच दिन में यह ज्वर उतरेगा। बीच में सावधानी की आवश्यकता है। कुछ चिन्ता नहीं।' यमुना सुन रही थी, वह कुछ निश्चिन्त हुई।
इधर संघ में बहुत-से बाहरी मनुष्य भी आ गये थे। उन लोगों के लिए गोस्वामीजी राम-कथा कहने लगे थे।
आज मंगल के ज्वर का वेग अत्यन्त भयानक था। गाला पास बैठी हुई मंगल के मुख पर पसीने की बूँदों को कपड़े से पोंछ रही थी। बार-बार प्यास से मंगल का मुँह सूखता था। वैद्यजी ने कहा था, 'आज की रात बीत जाने पर यह निश्चय ही अच्छा हो जायेगा। गाला की आँखों में बेबसी और निराशा नाच रही थी। सरला ने दूर से यह सब देखा। अभी रात आरम्भ हुई थी। अन्धकार ने संघ में लगे हुए विशाल वृक्षों पर अपना दुर्ग बना लिया था। सरला का मन व्यथित हो उठा। वह धीरे-धीरे एक बार कृष्ण की प्रतिमा के सम्मुख आयी। उसने प्रार्थना की। वही सरला, जिसने एक दिन कहा था-भगवान् के दुःख दान को आँचल पसारकर लूँगी-आज मंगल की प्राणभिक्षा के लिए आँचल पसारने लगी। यह वंगाल का गर्व था, जिसके पास कुछ बचा ही नहीं। वह किसकी रक्षा चाहती! सरला के पास तब क्या था, जो वह भगवान् के दुःख दान से हिचकती। हताश जीवन तो साहसिक बन ही जाता है; परन्तु आज उसे कथा सुनकर विश्वास हो गया कि विपत्ति में भगवान् सहायता के लिए अवतार लेते हैं, आते हैं भारतीयों के उद्धार के लिए। आह, मानव-हृदय की स्नेह-दुर्बलता कितना महत्त्व रखती है। यही तो उसके यांत्रिक जीवन की ऐसी शक्ति है। प्रतिमा निश्चल रही, तब भी उसका हृदय आशापूर्ण था। वह खोजने लगी-कोई मनुष्य मिलता, कोई देवता अमृत-पात्र मेरे हाथों में रख जाता। मंगल! मंगल! कहती हुई वह आश्रम के बाहर निकल पड़ी। उसे विश्वास था कि कोई दैवी सहायता मुझे अचानक अवश्य मिल जायेगी!
यदि मंगल जी उठता तो गाला कितना प्रसन्न होती-यही बड़बड़ाती हुई यमुना के तट की ओर बढ़ने लगी। अन्धकार में पथ दिखाई न देता; पर वह चली जा रही थी।
यमुना के पुलिन में नैश अन्धकार बिखर रहा था। तारों की सुन्दर पंक्ति झलमलाती हुई अनन्त में जैसे घूम रही थी। उनके आलोक में यमुना का स्थिर गम्भीर प्रवाह जैसे अपनी करुणा में डूब रहा था। सरला ने देखा-एक व्यक्ति कम्बल ओढ़े, यमुना की ओर मुँह किये बैठा है; जैसे किसी योगी की अचल समाधि लगी है।
सरला कहने लगी, 'हे यमुना माता! मंगल का कल्याण करो और उसे जीवित करके गाला को भी प्राणदान दो! माता, आज की रात बड़ी भयानक है-दुहाई भगवान की।'
वह बैठा हुआ कम्बल वाला विचलित हो उठा। उसने बड़े गम्भीर स्वर में पूछा, 'क्या मंगलदेव रुग्ण हैं?'
प्रार्थिनी और व्याकुल सरला ने कहा, 'हाँ महाराज, यह किसी का बच्चा है, उसके स्नेह का धन है, उसी की कल्याण-कामना कर रही हूँ।'
'और तुम्हारा नाम सरला है। तुम ईसाई के घर पहले रहती थीं न?' धीरे स्वर से प्रश्न हुआ।
'हाँ योगिराज! आप तो अन्तर्यामी हैं।'
उस व्यक्ति ने टटोलकर कोई वस्तु निकालकर सरला की ओर फेंक दी। सरला ने देखा, वह एक यंत्र है। उसने कहा, 'बड़ी दया महाराज! तो इसे ले जाकर बाँध दूँगी न
वह फिर कुछ न बोला, जैसे समाधि लग गयी हो, सरला ने अधिक छेड़ना उचित न समझा। मन-ही-मन नमस्कार करती हुई प्रसन्नता से आश्रम की ओर लौट पड़ी।
वह अपनी कोठरी में आकर उस यंत्र के धागे को पिरोकर मंगल के प्रकोष्ठ के पास गयी। उसने सुना, कोई कह रहा है, 'बहन गाला, तुम थक गयी होगी, लाओ मैं कुछ सहायता कर दूँ।'
उत्तर मिला, 'नहीं यमुना बहिन! मैं तो अभी बैठी हुई हूँ, फिर आवश्यकता होगी तो बुलाऊँगी।'
वह स्त्री लौटकर निकल गयी। सरला भीतर घुसी। उसने वह यंत्र मंगल के गले में बाँध दिया और मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना की। वहीं बैठी रही। दोनों ने रात भर बड़े यत्न से सेवा की।
प्रभात होने लगा। बड़े सन्देह से सरला ने उस प्रभात के आलोक को देखा। दीप की ज्योति मलिन हो चली। रोगी इस समय निद्रित था। जब प्रकाश उस कोठरी में घुस आया, तब गाला, सरला और मंगल तीनों नींद में सो रहे थे।
जब कथा समाप्त करके सब लोगों के चले जाने पर गोस्वामीजी उठकर मंगलदेव के पास आये, तब गाला बैठी पंखा झल रही थी। उन्हें देखकर वह संकोच से उठ खड़ी हुई। गोस्वामीजी ने कहा, 'सेवा सबसे कठिन व्रत है देवि! तुम अपना काम करो। हाँ मंगल! तुम अब अच्छे हो न!'
कम्पित कंठ से मंगल ने कहा, 'हाँ, गुरुदेव!'
'अब तुम्हारा अभ्युदय-काल है, घबराना मत।' कहकर गोस्वामीजी चले गये।
दीपक जल गया। आज अभी तक सरला नहीं आयी। गाला को बैठे हुए बहुत विलम्ब हुआ। मंगल ने कहा, 'जाओ गाला, संध्या हुई; हाथ-मुँह तो धो लो, तुम्हारे इस अथक परिश्रम से मैं कैसे उद्धार पाऊँगा।'
गाला लज्जित हुई। इतने सम्भ्रान्त मनुष्य और स्त्रियों के बीच आकर कानन-वासिनी ने लज्जा सीख ली थी। वह अपने स्त्रीत्व का अनुभव कर रही थी। उसके मुख पर विजय की मुस्कराहट थी। उसने कहा, 'अभी माँ जी नहीं आयीं, उन्हें बुला लाऊँ!' कहकर सरला को खोजने के लिए वह चली।
सरला मौलसिरी के नीचे बैठी सोच रही थी-जिन्हें लोग भगवान कहते हैं, उन्हें भी माता की गोद से निर्वासित होना पड़ता है, दशरथ ने तो अपना अपराध समझकर प्राण-त्याग दिया; परन्तु कौशल्या कठोर होकर जीती रही-जीती रही श्रीराम का मुख देखने के लिए, क्या मेरा दिन भी लौटेगा क्या मैं इसी से अब तक प्राण न दे सकी!
गाला ने सहसा आकर कहा, 'चलिये।'
दोनो मंगल की कोठरी की ओर चलीं।
मंगल के गले के नीचे वह यंत्र गड़ रहा था। उसने तकिया से खींचकर उसे बाहर किया। मंगल ने देखा कि वह उसी का पुराना यंत्र है। वह आश्चर्य से पसीने-पसीने हो गया। दीप के आलोक में उसे वह देख ही रहा था कि सरला भीतर आयी। सरला को बिना देखे ही अपने कुतूहल में उसने प्रश्न किया, 'यह मेरा यंत्र इतने दिनों पर कौन लाकर पहना गया है, आश्चर्य है!'
सरला ने उत्कण्ठा से पूछा, 'तुम्हारा यंत्र कैसा है बेटा! यह तो मैं एक साधू से लायी हूँ।'
मंगल ने सरल आँखों से उसकी ओर देखकर कहा, 'माँ जी, यह मेरा ही यंत्र है, मैं इसे बाल्यकाल में पहना करता था। जब यह खो गया, तभी से दुःख पा रहा हूँ। आश्चर्य है, इतने दिनों पर यह आपको कैसे मिल गया?'
सरला के धैर्य का बाँध टूट पड़ा। उसने यंत्र को हाथ में लेकर देखा-वही त्रिकोण यंत्र। वह चिल्ला उठी, 'मेरे खोये हुए निधि! मेरे लाल! यह दिन देखना किस पुण्य का फल है मेरे भगवान!'
मंगल तो आश्चर्य चकित था। सब साहस बटोरकर उसने कहा, 'तो क्या सचमुच तुम्हीं मेरी माँ हो।'
तीनों के आनन्दाश्रु बाँध तोड़कर बहने लगे।
सरला ने गाला के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'बेटी! तेरे भाग्य से आज मुझे मेरा खोया हुआ धन मिल गया!'
गाला गड़ी जा रही थी।
मंगल एक आनन्दप्रद कुतूहल से पुलकित हो उठा। उसने सरला के पैर पकड़कर कहा, 'मुझे तुमने क्यों छोड़ दिया था माँ
उसकी भावनाओं की सीमा न थी। कभी वह जीवन-भर के हिसाब को बराबर हुआ समझता, कभी उसे भान होता कि आज के संसार में मेरा जीवन प्रारम्भ हुआ है।
सरला ने कहा, 'मैं कितनी आशा में थी, यह तुम क्या जानोगे। तुमने तो अपनी माता के जीवित रहने की कल्पना भी न की होगी। पर भगवान की दया पर मेरा विश्वास था और उसने मेरी लाज रख ली।'
गाला भी उस हर्ष से वंचित न रही। उसने भी बहुत दिनों बाद अपनी हँसी को लौटाया। भण्डार में बैठी हुई नन्दो ने भी इस सम्वाद को सुना, वह चुपचाप रही। घण्टी भी स्तब्ध होकर अपनी माता के साथ उसके काम में हाथ बँटाने लगी।