कंकाल / तृतीय खंड / भाग 4 / जयशंकर प्रसाद

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'तब आपने क्या निश्चय किया सरला तीव्र स्वर में बोली।

'घण्टी को उस हत्याकांड से बचा लेना भी अपराध है, ऐसा मैंने कभी सोचा भी नहीं।' बाथम ने कहा।

'बाथम! तुम जितने भीतर से क्रूर और निष्ठुर हो, यदि ऊपर से भी वही व्यवहार रखते, तो तुम्हारी मनुष्यता का कल्याण होता! तुम अपनी दुर्बलता को परोपकार के परदे में क्यों छिपाना चाहते हो नृशंस! यदि मुझमें विश्वास की तनिक भी मात्रा न होती, तो मैं अधिक सुखी रहती।' कहती हुई लतिका हाँफने लगी थी। सब चुप थे।

कुबड़ी खटखटाते हुए पादरी जान ने उस शांति को भंग किया। आते ही बोला, 'मैं सब समझा सकता हूँ, जब दोनों एक-दूसरे पर अविश्वास करते हो, तब उन्हें अलग हो जाना चाहिए। दबा हुआ विद्वेष छाती के भीतर सर्प के सामान फुफकारा करता है; कब अपने ही को वह घायल करेगा, कोई नहीं कह सकता। मेरी बच्ची लतिका! मारगरेट!'

'हाँ पिता! आप ठीक कहते हैं और अब बाथम को भी इसे स्वीकार कर लेने में कोई विरोध न होना चाहिए।' मारगरेट ने कहा।

'मुझे सब स्वीकार है। अब अधिक सफाई देना मैं अपना अपमान समझता हूँ!' बाथम ने रूखेपन से कहा।

'ठीक है बाथम! तुम्हें सफाई देने, अपने को निरपराध सिद्ध करने की क्या आवश्यकता है। पुरुष को साधारण बातों से घबराने की संभावना पाखण्ड है!' गरजती हुई सरला ने कहा। फिर लतिका से बोली, 'चलो बेटी! पादरी सबकुछ कर लेगा, संबंध-विच्छेद और नया सम्बन्ध जोड़ने में वह पटु है।'

'लतिका और सरला चली गयीं। घण्टी काठ की पुतली-सी बैठी चुपचाप अभिनय देख रही थी। पादरी ने उसके सिर पर दुलार से हाथ फेरते हुए कहा, 'चलो बेटी, मसीह-जननी की छाया में; तुमने समझ लिया होगा कि उसके बिना तुम्हें शांति न मिलेगी।'

बिना एक शब्द कहे पादरी के साथ बाथम और घण्टी दोनों उठकर चले जाते हुए बाथम ने एक बार उस बँगले को निराश दृष्टि से देखा, धीरे-धीरे तीनों चले गये।

आरामकुर्सी पर खड़ी हुई लतिका ने एक दिन जिज्ञासा-भरी दृष्टि से सरला की ओर देखा, तो वह निर्भीक रमणी अपनी दृढ़ता में महिमापूर्ण थी। लतिका का धैर्य लौट आया, उसने कहा, 'अब?'

'कुछ चिंता नहीं बेटी, मैं हूँ! सब वस्तु बेचकर बैंक में रुपये जमा करा दो, चुपचाप भगवान् के भरोसे रुखी-सूखी खाकर दिन बीत जायेगा।' सरला ने कहा।

'मैं एक बार उस वृंदावन वाले गोस्वामी के पास चलना चाहती हूँ, तुम्हारी क्या सम्मति है?' लतिका ने पूछा।

'पहले यह प्रबन्ध कर लेना होगा, फिर वहाँ भी चलूँगी। चाय पिओगी? आज दिन भर तुमने कुछ नहीं खाया, मैं ले आऊँ-बोलो हम लोगों को जीवन के नवीन अध्याय के लिए प्रस्तुत होना चाहिए। लतिका! 'सदैव वस्तु रहो' का महामंत्र मेरे जीवन का रहस्य है-दुःख के लिए, सुख के लिए, जीवन के लिए और मरण के लिए! उसमे शिथिलता न आनी चाहिए! विपत्तियाँ वायु की तरह निकल जाती हैं; सुख के दिन प्रकाश के सदृश पश्चिमी समुद्र में भागते रहते हैं। समय काटना होगा, और यह ध्रुव सत्य है कि दोनों का अन्त है।'

परन्तु घण्टी! आज अँधेरा हो जाने पर भी, गिरजा के समीप वाले नाले के पुल पर बैठी अपनी उधेड़बुन में लगी है। अपने हिसाब-किताब में लगी है-मैं भीख माँगकर खाती थी, तब कोई मेरा अपना नहीं था। लोग दिल्लगी करते और मैं हँसती, हँसाकर हँसती। पहले तो पैसे के लिए, फिर चस्का लग गया-हँसने का आनन्द मिल गया। मुझे विश्वास हो गया कि इस विचित्र भूतल पर हम लोग केवल हँसी की लहरों में हिलने-डोलने के लिए आ रहे हैं। आह! मैं दरिद्र थी, पर मैं उन रोनी सूरत वाले गम्भीर विद्वान-सा रुपयों के बोरों पर बैठे हुए भनभनाने वाले मच्छरों को देखकर घृणा करती या उनका अस्तित्व ही न स्वीकार करती, जो जी खोलकर हँसते न थे। मैं वृंदावन की एक हँसोड़ पागल थी, पर उस हँसी ने रंग पलट दिया; वही हँसी अपना कुछ और उद्देश्य रखने लगी। फिर विजय; धीरे-धीरे जैसे सावन की हरियाली पर प्रभात का बादल बनकर छा गया-मैं नाचने लगी मयूर-सी! और वह यौवन का मेघ बरसने लगा। भीतर-बाहर रंग से छक गया। मेरा अपना कुछ न रहा। मेरा आहार, विचार, वेश और भूषा सब बदला। वह बरसात के बादलों की रंगीन संध्या थी; परन्तु यमुना पर विजय पाना साधारण काम न था। असंभव था। मैंने संचित शक्ति से विजय को छाती से दबा लिया था। और यमुना...वह तो स्वयं राह छोड़कर हट गयी थी, पर मैं बनकर भी न बन सकी-नियति चारों ओर से दबा रही थी। और मैंने अपना कुछ न रखा था; जो कुछ था, सब दूसरी धातु का था; मेरे उपादान में ठोस न था। लो-मैं चली; बाथम...उस पर भी लतिका रोती होगी-यमुना सिसकती होगी...दोनों मुझे गाली देती होंगी, अरे-अरे; मैं हँसने वाली सबको रुलाने लगी! मैं उसी दिन धर्म से च्युत हो गयी-मर गयी, घण्टी मर गयी। पर यह कौन सोच रही है। हाँ, वह मरघट की ज्वाला धधक रही है-ओ, ओ मेरा शव वह देखो-विजय लकड़ी के कुन्दे पर बैठा हुआ रो रहा है और बाथम हँस रहा है। हाय! मेरा शव कुछ नहीं करता है-न रोता है, न हँसता है, तो मैं क्या हूँ! जीवित हूँ। चारों ओर यह कौन नाच रहे हैं, ओह! सिर में कौन धक्के मार रहा है। मैं भी नाचूँ-ये चुड़ैलें हैं और मैं भी! तो चलूँ वहाँ आलोक है।

घण्टी अपना नया रेशमी साया नोचती हुई दौड़ पड़ी। बाथम उस समय क्लब में था। मैजिस्ट्रेट की सिफारिशी चिट्ठी की उसे अत्यन्त आवश्यकता थी। पादरी जान सोच रहा था-अपनी समाधि का पत्थर कहाँ से मँगाऊँ, उस पर क्रॉस कैसा हो!

उधर घण्टी-पागल घण्टी-अँधेरे में भाग रही थी।