कंकाल / तृतीय खंड / भाग 5 / जयशंकर प्रसाद
फतेहपुर सीकरी से अछनेरा जाने वाली सड़क के सूने अंचल में एक छोटा-सा जंगल है। हरियाली दूर तक फैली हुई है। यहाँ खारी नदी एक छोटी-सी पहाड़ी से टकराती बहती है। यह पहाड़ी सिलसिला अछनेरा और सिंघापुर के बीच में है। जन-साधारण उस सूने कानन में नहीं जाते। कहीं-कहीं बरसाती पानी के बहने से सूखे नाले अपना जर्जर कलेवर फैलाये पड़े हैं। बीच-बीच मे ऊपर के टुकड़े निर्जल नालों से सहानुभूति करते हुए दिखाई दे जाते हैं। केवल ऊँची-उँची टेकरियों से बस्ती बसी है। वृक्षों के एक घने झुरमुट में लता-गुल्मों से ढकी एक सुन्दर झोंपड़ी है। उसमें कई विभाग हैं। बड़े-बड़े वृक्षों के नीचे पशुओ के झुंड बसे हैं; उनमें गाय, भैंस और घोड़े भी हैं। तीन-चार भयावने कुत्ते अपनी सजग आँखों से दूर दूर बैठे पहरा दे रहे हैं। एक पूरा पशु परिवार लिए गाला उस जंगल में सुखी और निर्भर रहती है। बदन गूजर, उस प्रान्त के भयानक पशुओं का मुखिया गाला का सत्तर बरस का बूढ़ा पिता है। वह अब भी अपने साथियों के साथ चढ़ाई पर जाता है। गाला का वयस यद्यपि बीस के ऊपर है। फिर भी कौमार्य के प्रभाव से वह किशोरी ही जान पड़ती है।
गाला अपने पक्षियों के चारे-पानी का प्रबन्ध कर रही थी। देखा तो एक बुलबुल उस टूटे हुए पिंजरे से भागना चाहती है। अभी कल ही गाला ने उसे पकड़ा था। वह पशु-पक्षियों को पकड़ने और पालने में बड़ी चतुर थी। उसका यही खेल था। बदन गूजर जब बटेसर के मेले में सौदागर बनकर जाता, तब इसी गाला की देखरेख में पले हुए जानवर उसे मुँह माँगा दाम दे जाते। गाला अपने टूटे हुए पिंजरे को तारों के टुकड़े और मोटे सूत से बाँध रही थी। सहसा एक बलिष्ठ युवक ने मुस्कराते हुए कहा, 'कितनों को पकड़कर सदैव के लिए बन्धन में जकड़ती रहोगी, गाला?'
'हम लोगों की पराधीनता से बड़ी मित्रता है नये! इसमें बड़ा सुख मिलता है। वही सुख औरों को भी देना चाहती हूँ-किसी से पिता, किसी से भाई, ऐसा ही कोई सम्बन्ध जोड़कर उन्हें उलझाना चाहती हूँ; किन्तु पुरुष, इस जंगली बुलबुल से भी अधिक स्वतन्त्रता-प्रेमी है। वे सदैव छुटकारे का अवसर खोज लिया करते हैं। देखा, बाबा जब न होता है तब चले जाते हैं। कब तक आवेंगे तुम जानते हो?'
'नहीं भला मैं क्या जानूँ! पर तुम्हारे भाई को मैंने कभी नहीं देखा।'
'इसी से तो कहती हूँ नये। मैं जिसको पकड़कर रखना चाहती हूँ, वे ही लोग भागते हैं। जाने कहाँ संसार-भर का काम उन्हीं के सिर पर पड़ा है! मेरा भाई? आह, कितनी चौड़ी छाती वाला युवक था। अकेले चार-चार घोड़ों को बीसों कोस सवारी में ले जाता। आठ-दस सिपाही कुछ न कर सकते। वह शेर-सा तड़पकर निकल जाता। उसके सिखाये घोड़े सीढ़ियों पर चढ़ जाते। घोड़े उससे बातें करते, वह उनके मरम को जानता था।'
'तो अब क्या नहीं है?'
'नहीं है। मैं रोकती थी, बाबा ने न माना। एक लड़ाई में वह मारा गया। अकेले बीस सिपाहियों को उसने उलझा लिया, और सब निकल आये।'
'तो क्या मुझे आश्रय देने वाले डाकू हैं?'
'तुम देखते नहीं, मैं जानवरों को पालती हूँ, और मेरे बाबा उन्हें मेले में ले जाकर बेचते हैं।' गाला का स्वर तीव्र और सन्देहजनक था।
'और तुम्हारी माँ?'
'ओह! वह बड़ी लम्बी कहानी है, उसे न पूछो!' कहकर गाला उठ गयी। एक बार अपने कुरते के आँचल से उसने आँखें पोंछी, और एक श्यामा गौ के पास जा पहुँची, गौ ने सिर झुका दिया, गाला उसका सिर खुजलाने लगी। फिर उसके मुँह से मुँह सटाकर दुलार किया। उसके बछड़े का गला चूमने लगी। उसे भी छोड़कर एक साल भर के बछड़े को जा पकड़ा। उसके बड़े-बड़े अयालों को उँगलियों से सुलझाने लगी। एक बार वह फिर अपने-पशु मित्रों से प्रसन्न हो गयी। युवक चुपचाप एक वृक्ष की जड़ पर जा बैठा। आधा घण्टा न बीता होगा कि टापों के शब्द सुनकर गाला मुस्कराने लगी। उत्कण्ठा से उसका मुख प्रसन्न हो गया।
'अश्वारोही आ पँहुचे। उनमें सबसे आगे उमर में सत्तर बरस का वृद्ध, परन्तु दृढ़ पुरुष था। क्रूरता उसकी घनी दाढी और मूँछों के तिरछेपन से टपक रही थी। गाला ने उसके पास पहुँचकर घोड़े से उतरने में सहायता दी। वह भीषण बुड्ढा अपनी युवती कन्या को देखकर पुलकित हो गया। क्षण-भर के लिए न जाने कहाँ छिपी हुई मानवीय कोमलता उसके मुँह पर उमड़ आयी। उसने पूछा, 'सब ठीक है न गाला!'
'हाँ बाबा!'
बुड्ढे ने पुकारा, 'नये!'
युवक समीप आ गया। बुड्ढे ने एक बार नीचे से ऊपर तक देखा। युवक के ऊपर सन्देह का कारण न मिला। उसने कहा, 'सब घोडों को मलवाकर चारे-पानी का प्रबन्ध कर दो।'
बुड्ढे के तीन साथी और उस युवक ने मिलकर घोड़ों को मलना आरम्भ किया। बुड्ढा एक छोटी-सी मचिया पर बैठकर तमाखू पीने लगा। गाला उसके पास खड़ी होकर उससे हँस-हँसकर बातें करने लगी। पिता और पुत्री दोनों ही प्रसन्न थे। बुड्ढे ने पूछा, 'गाला! यह युवक कैसा है
गाला ने जाने क्यों इस प्रश्न पर लज्जित हुई। फिर सँभलकर उसने कहा, 'देखने में तो यह बड़ा सीधा और परिश्रमी है।'
'मैं भी समझता हूँ। प्रायः जब हम लोग बाहर चले जाते हैं, तब तुम अकेली रहती हो।'
'बाबा! अब बाहर न जाया करो।'
'तो क्या मैं यहीं बैठा रहूँ गाला। मैं इतना बूढ़ा नहीं हो गया!'
'नही बाबा! मुझे अकेली छोड़कर न जाया करो।'
'पहले जब तू छोटी थी तब तो नहीं डरती थी। अब क्या हो गया है, अब तो यह 'नये' भी यहाँ रहा करेगा। बेटी! यह कुलीन युवक जान पड़ता है।'
'हाँ बाबा! किन्तु यह घोड़ों का मलना नहीं जानता-देखो सामने पशुओं से इसे तनिक भी स्नेह नहीं है। बाबा! तुम्हारे साथी भी बडे निर्दयी हैं। एक दिन मैंने देखा कि सुख से चरते हुए एक बकरी के बच्चे को इन लोगों ने समूचा ही भून डाला। ये सब बड़े डरावने लगते हैं। तुम भी उन ही लोगों में मिल जाते हो।'
'चुप पगली! अब बहुत विलम्ब नहीं-मैं इन सबसे अलग हो जाऊँगा, अच्छा तो बता, इस 'नये' को रख लूँ न 'बदन गम्भीर दृष्टि से गाला की ओर देख रहा था।
गाला ने कहा, 'अच्छा तो है बाबा! दुख का मारा है।'
एक चाँदनी रात थी। बरसात से धुला हुआ जंगल अपनी गम्भीरता में डूब रहा था। नाले के तट पर बैठा हुआ 'नये' निर्निमेष दृष्टि से उस हृदय विमोहन चित्रपट को देख रहा था। उसके मन में बीती हुई कितनी स्मृतियाँ स्वर्गीय नृत्य करती चली जा रही थीं। वह अपने फटे कोट को टटोलने लगा। सहसा उसे एक बाँसुरी मिल गयी-जैसे कोई खोयी हुई निधि मिली। वह प्रसन्न होकर बजाने लगा। बंसी के विलम्बित मधुर स्वर में सोई हुई वनलक्ष्मी को जगाने लगा। वह अपने स्वर से आप ही मस्त हो रहा था। उसी समय गाला ने जाने कैसे उसके समीप आकर खड़ी हो गयी। नये ने बंसी बंद कर दी। वह भयभीत होकर देखने लगा।
गाला ने कहा, 'तुम जानते हो कि यह कौन स्थान है?'
'जंगल है, मुझसे भूल हुई।'
'नहीं, यह ब्रज की सीमा के भीतर है। यहाँ चाँदनी रात में बाँसुरी बजाने से गोपियों की आत्माएँ मचल उठती हैं।'
'तुम कौन हो गाला!'
'मैं नहीं जानती; पर मेरे मन में भी ठेस पहुँचती है।'
'तब मैं न बजाऊँगा।'
'नहीं नये! तुम बजाओ, बड़ी सुन्दर बजती थी। हाँ, बाबा कदाचित् क्रोध करें।'
'अच्छा, तुम रात को यों ही निकलकर घूमती हो। इस पर तुम्हारे बाबा न क्रोध न करेंगे?'
'हम लोग जंगली हैं, अकेले तो मैं कभी-कभी आठ-आठ दस-दस दिन इसी जंगल में रहती हूँ।'
'अच्छा, तुम्हें गोपियों की बात कैसे मालूम हुई? क्या तुम लोग हिन्दू हो इन गूजरों से तो तुम्हारी भाषा भिन्न है।'
'आश्चर्य से देखती हुई गाला ने कहा, 'क्यों, इसमें भी तुमको संदेह है। मेरी माँ मुगल होने पर भी कृष्ण से अधिक प्रेम करती थी। अहा नये! मैं किसी दिन उसकी जीवनी सुनाऊँगी। वह...'
'गाला! तब तुम मुगलवानी माँ से उत्पन्न हुई हो।'
क्रोध से देखती हुई गाला ने कहा, 'तुम यह क्यों नहीं कहते कि हम लोग मनुष्य हैं।'
'जिस सहृदयता से तुमने मेरी विपत्ति में सेवा की है, गाला! उसे देखकर तो मैं कहूँगा कि तुम देव-बालिका हो!' नये का हृदय सहानुभूति की स्मृति से भर उठा था।
'नहीं-नहीं, मैं तुमको अपनी माँ की लिखी जीवनी पढ़ने को दूँगी और तब तुम समझ जाओगे। चलो, रात अधिक बीत रही है, पुआल पर सो रहो।' गाला ने नये का हाथ पकड़ लिया; दोनों उस चन्द्रिका-धौत शुभ्र रजनी से भीगते हुए झोंपड़ी की ओर लौटे। उसके चले जाने के बाद वृक्षों की आड़ से बूढ़ा बदन गूजर भी निकला और उनके पीछे-पीछे चला।'
प्रभात चमकने लगा था। जंगली पक्षियों के कलनाद से कानन-प्रदेश गुंजरित था। गाला चारे-पानी के प्रबन्ध में लग गयी थी। बदन ने नये को बुलाया। वह आकर सामने खड़ा हो गया। बदन ने उससे बैठने के लिए कहा। उसके बैठ जाने पर गूजर कहने लगा-'जब तुम भूख से व्याकुल, थके हुए भयभीत, सड़क से हटकर पेड़ के नीचे पड़े हुए आधे अचेत थे, उस समय किसने तुम्हारी रक्षा की थी?'
'आपने,' नये ने कहा।
'तुम जानते हो कि हम लोग डाकू हैं, हम लोगों को माया-ममता नहीं! परन्तु हमारी निर्दयता भी अपना निर्दिष्ट पथ रखती है, वह है केवल धन लेने के लिए। भेद यही है कि धन लेने का दूसरा उपाय हम लोग काम में नहीं लेते, दूसरे उपायों को हम लोग अधम समझते हैं-धोखा देना, चोरी करना, विश्वासघात करना, यह सब तो तुम्हारे नगरों के सभ्य मनुष्यों की जीविका के सुगम उपाय हैं, हम लोग उनसे घृणा करते हैं। और भी-तुम वृंदावन वाले खून के भागे हुए आसामी हो-हो न कहकर बदन तीखी दृष्टि से नये को देखने लगा। वह सिर नीचा किये खड़ा रहा। बदन फिर कहने लगा, 'तो तुम छिपाना चाहते हो। अच्छा सुनो, हम लोग जिसे अपनी शरण में लेते हैं, उससे विश्वासघात नहीं करते। आज तुमसे एक बात साफ कह देना चाहता हूँ। देखो, गाला सीधी लड़की है, संसार के कतर-ब्योंत वह नहीं जानती, तथापि यदि वह निसर्ग-नियम से किसी युवक को प्यार करने लगे, तो इसमें आश्चर्य नही। संभव है, वह मनुष्य तुम ही हो जाओ, इसलिए तुम्हें सचेत करता हूँ कि सावधान! उसे धोखा न देना। हाँ, यदि तुम कभी प्रमाणित कर सकोगे कि तुम उसके योग्य हो, तो फिर देखा जाएगा! समझा।'
बदन चला गया। उसकी प्रौढ़ कर्कश वाणी नये के कानों में वज्र गम्भीर स्वर में गूँजने लगी। वह बैठ गया और अपने जीवन का हिसाब लगाने लगा।
बहुत विलम्ब तक वह बैठा रहा। तब गाला ने उससे कहा, 'आज तुम्हारी रोटी पड़ी रहेगी, क्या खाओगे नहीं?'
नये ने कहा, 'मैं तुम्हारी माता की जीवनी पढ़ना चाहता हूँ। तुमने मुझे दिखाने के लिए कहा था न।'
'ओहो, तो तुम रूठना भी जानते हो। अच्छा खा लो! मान जाओ, मैं तुम्हें दिखला दूँगी।' कहती हुई गाला ने वैसा ही किया, जैसे किसी बच्चे को मानते हुए स्त्रियाँ करती हैं। यह देखकर नये हँस पड़ा। उसने पूछा-
'अच्छा कब दिखलाओगी?'
'लो, तुम खाने लगो, मैं जाकर ले आती हूँ।'
'नये अपने रोटी-मठे की ओर चला और गाला अपने घर में।'