कंकाल / द्वितीय खंड / भाग 2 / जयशंकर प्रसाद
कई दिन हो गये, विजय किसी से कुछ बोलता नहीं। समय पर भोजन कर लेता और सो रहता। अधिक समय उसका मकान के पास ही करील की झाड़ियों की टट्टी के भीतर लगे हुए कदम्ब के नीचे बीतता है। वहाँ बैठकर वह कभी उपन्यास पढ़ता और कभी हारमोनियम बजाता है।
अँधेरा हो गया था, वह कदम्ब के नीचे बैठा हारमोनियम बजा रहा था। चंचल घण्टी चली आयी। उसने कहा, 'बाबूजी आप तो बड़ा अच्छा हारमोनियम बजाते है।' पास ही बैठ गयी।
'तुम कुछ गाना जानती हो?'
'ब्रजवासिनी और कुछ चाहे ना जाने, किन्तु फाग गाना तो उसी के हिस्से का है।'
'अच्छा तो कुछ गाओ, देखूँ मैं बजा सकता हूँ
ब्रजबाला घण्टी एक गीत सुनाने लगी-
'पिया के हिया में परी है गाँठ
मैं कौन जतन से खोलूँ
सब सखियाँ मिलि फाग मनावत
मै बावरी-सी डोलूँ!
अब की फागुन पिया भये निरमोहिया
मैं बैठी विष घोलूँ।
पिया के-'
दिल खोलकर उसने गाया। मादकता थी उसके लहरीले कण्ठ स्वर में, और व्याकुलता थी। विजय की परदों पर दौड़ने वाली उँगलियों में! वे दोनों तन्मय थे। उसी तरह से गाता हुआ मंगल-धार्मिक मंगल-भी, उस हृदय द्रावक संगीत से विमुग्ध होकर खड़ा हो गया। एक बार उसे भ्रम हुआ, यमुना तो नहीं है। वह भीतर चला गया। देखते ही चंचल घण्टी हँस पड़ी! बोली, 'आइए ब्रह्मचारीजी!'
विजय ने कहा, 'बैठोगे या घर के भीतर चलूँ?'
'नही विजय! मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ। घण्टी, तुम घर जा रही हो न!'
विजय ने सहमते हुए पूछा, 'क्या कहना चाहते हो?'
'तुम इस लड़की को साथ लेकर इस स्वतन्त्रता से क्यों बदनाम हुआ चाहते हो?'
'यद्यपि मैं इसका उत्तर देने को बाध्य नहीं मंगल, एक बात मैं भी तुमसे पूछना चाहता हूँ-बताओ तो, मैं यमुना के साथ भी एकान्त में रहता हूँ, तब तुमको सन्देह क्यों नहीं होता!'
'मुझे उसके चरित्र पर विश्वास है।'
'इसलिए कि तुम उसे भीतर से प्रेम करते हो! अच्छा, यदि मैं घण्टी से ब्याह करना चाहूँ, तो तुम पुरोहित बनोगे?'
'विजय तुम अतिवादी हो, उदात्त हो!'
'अच्छा हुआ कि मैं वैसा संयतभाषी कपटाचारी नहीं हूँ, जो अपने चरित्र की दुर्बलता के कारण मित्र से भी मिलने में संकोच करता है। मेरे यहाँ प्रायः तुम्हारे न आने का यही कारण है कि तुम यमुना की...'
'चुप रहो विजय! उच्छृंखलता की भी एक सीमा होती है।'
'अच्छा जाने दो। घण्टी के चरित्र पर विश्वास नहीं, तो क्या समाज और धर्म का यह कर्तव्य नहीं कि उसे किसी प्रकार अवलम्ब दिया जाये, उसका पथ सरल कर दिया जाये यदि मैं घण्टी से ब्याह करूँ तो तुम पुरोहित बनोगे बोलो, मैं इसे करके पाप करूँगा या पुण्य?'
'यह पाप हो या पुण्य, तुम्हारे लिए हानिकारक होगा।'
'मैं हानि उठाकर भी समाज के एक व्यक्ति का कल्याण कर सकूँ तो क्या पाप करूँगा उत्तर दो, देखें तुम्हारा धर्म क्या व्यवस्था देता है।' विजय अपनी निश्चित विजय से फूल रहा था।
'वह वृंदावन की एक कुख्यात बाल-विधवा है, विजय।'
सहज में पच आने वाला धीरे से गले उतर जाने वाला स्निग्ध पदार्थ सभी आत्मसात् कर लेते हैं। किन्तु कुछ त्याग-सो भी अपनी महत्ता का त्याग-जब धर्म के आदर्श ने नहीं, तब तुम्हारे धर्म को मैं क्या कहूँ, मंगल।'
'विजय! मैं तुम्हारा इतना अनिष्ट नहीं देख सकता। इसे त्याग तुम भले ही समझ लो; पर इसमें क्या तुम्हारी दुर्बलता का स्वार्थपूर्ण अंश नहीं है। मैं यह मान भी लूँ कि विधवा से ब्याह करके तुम एक धर्म सम्पादित करते हो, तब भी घण्टी जैसी लड़की से तुमको जीवन से जिए परिण्य सूत्र बाँधने के लिए मैं एक मित्र के नाते प्रस्तुत नहीं।'
'अच्छा मंगल! तुम मेरे शुभचिन्तक हो; यदि मैं यमुना से ब्याह करूँ? वह तो...'
'तुम पिशाच हो!' कहते हुए मंगल उठकर चला गया।
विजय ने क्रूर हँसी हँसकर अपने आप कहा, 'पकड़े गये ठिकाने पर!' वह भीतर चला गया।
दिन बीत रहे थे। होली पास आती जाती थी। विजय का यौवन उच्छृंखल भाव से बढ़ रहा था। उसे ब्रज की रहस्यमयी भूमि का वातावरण और भी जटिल बना रहा था। यमुना उससे डरने लगी। वह कभी-कभी मदिरा पीकर एक बार ही चुप हो जाता। गम्भीर होकर दिन-ब-दिन बिता दिया करता। घण्टी आकर उसमें सजीवता ले आने का प्रयत्न करती; परन्तु वैसे ही जैसे एक खँडहर की किसी भग्न प्राचीर पर बैठा हुआ पपीहा कभी बोल दे!
फाल्गुन के शुक्लपक्ष की एकादशी थी। घर के पास वाले कदम्ब के नीचे विजय बैठा था। चाँदनी खिल रही थी। हारमोनियम, बोतल और गिलास पास ही थे। विजय कभी-कभी एक-दो घूँट पी लेता और कभी हारमोनियम में एक तान निकाल लेता। बहुत विलम्ब हो गया था। खिड़की में से यमुना चुपचाप यह दृश्य देख रही थी। उसे अपने हरद्वार के दिन स्मरण हो आये। निरभ्र गगन में चलती हुई चाँदनी-गंगा के वक्ष पर लोटती हुई चाँदनी-कानन की हरियाली में हरी-भरी चाँदनी! और स्मरण हो रही थी। मंगल के प्रणय की पीयूष वर्षिणी चन्द्रिका एक ऐसी ही चाँदनी रात थी। जंगल की उस छोटी कोठरी में धवल मधुर आलोक फैल रहा था। तारा लेटी थी, उसकी लटें तकिया पर बिखर गयी थीं, मंगल उस कुन्तल-स्तवक को मुट्ठी में लेकर सूँघ रहा था। तृप्ति थी किन्तु उस तृप्ति को स्थिर रखने के लिए लालच का अन्त न था। चाँदनी खिसकती जाती थी। चन्द्रमा उस शीतल आलिंगन को देखकर लज्जित होकर भाग रहा था। मकरन्द से लदा हुआ मारुत चन्द्रिका-चूर्ण के साथ सौरभ राशि बिखेर देता था।
यमुना पागल हो उठी। उसने देखा-सामने विजय बैठा हुआ अभी पी रहा है। रात पहर-भर जा चुकी है। वृन्दावन में दूर से फगुहारों की डफ की गम्भीर ध्वनि और उन्मत्त कण्ठ से रसीले फागों की तुमुल तानें उस चाँदनी में, उस पवन में मिली थीं। एक स्त्री आई, करील की झाड़ियों से निकलकर विजय के पीछे खड़ी हो गयी। यमुना एक बार सहम उठी, फिर उसने देखा-उस स्त्री ने हाथ का लोटा उठाया और उसका तरल पदार्थ विजय के सिर पर उड़ेल दिया।
विजय के उष्ण मस्तक को कुछ शीतलता भली लगी। घूमकर देखा तो घण्टी खिलखिलाकर हँस रही थी। वह आज इन्द्रिय-जगत् के वैद्युत प्रवाह के चक्कर खाने लगा, चारों ओर विद्युत-कण चमकते, दौड़ते थे। युवक विजय अपने में न रह सका, उसने घण्टी का हाथ पकड़कर पूछा, 'ब्रजबाले, तुम रंग उड़ेलकर उसकी शीतलता दे सकती हो कि उस रंग की-सी ज्वाला-लाल ज्वाला! ओह, जलन हो रही है घण्टी! आत्मसंयम भ्रम है बोलो!'
'मैं, मेरे पास दाम न था, रंग फीका होगा विजय बाबू!'
हाड़-मांस के वास्तविक जीवन का सत्य, यौवन आने पर उसका आना न जानकर बुलाने की धुन रहती है। जो चले जाने पर अनुभूत होता है, वह यौवन, धीवर के लहरीले जाल में फँसे हुए स्निग्ध मत्स्य-सा तड़फड़ाने वाला यौवन, आसन से दबा हुआ पंचवर्षीय चपल तुरंग के समान पृथ्वी को कुरेदने-वाला त्वरापूर्ण यौवन, अधिक न सम्हल सका, विजय ने घण्टी को अपनी मांसल भुजाओं में लपेट लिया और एक दृढ़ तथा दीर्घ चुम्बन से रंग का प्रतिवाद किया।
यह सजीव और उष्ण आलिंगन विजय के युवा जीवन का प्रथम उपहार था, चरम लाभ था। कंगाल को जैसे निधि मिली हो! यमुना और न देख सकी, उसने खिड़की बन्द कर दी। उस शब्द ने दोनों को अलग कर दिया। उसी समय इक्कों के रुकने का शब्द बाहर हुआ। यमुना नीचे उतर आयी किवाड़ खोलने। किशोरी भीतर आयी।
अब घण्टी और विजय आस-पास बैठ गये थे। किशोरी ने पूछा, 'विजय कहाँ है?' यमुना कुछ न बोली। डाँटकर किशोरी ने कहा, 'बोलती क्यों नहीं यमुना?'
यमुना ने कुछ न कहकर खिड़की खोल दी। किशोरी ने देखा-निखरी चाँदनी में एक स्त्री और पुरुष कदम्ब के नीचे बैठे हैं। वह गरम हो उठी। उसने वहीं से पुकारा, 'घण्टी!'
घण्टी भीतर आयी। विजय का साहस न हुआ, वह वहीं बैठा रहा। किशोरी ने पूछा, 'घण्टी, क्या तुम इतनी निर्लज्ज हो!'
'मैं क्या जानूँ कि लज्जा किसे कहते हैं। ब्रज में तो सभी होली में रंग डालती हैं, मैं भी रंग डाल आयी। विजय बाबू को रंग से चोट तो न लगी होगी किशोरी बहू!' फिर हँसने के ढंग से कहा, 'नहीं, पाप हुआ हो तो इन्हें भी ब्रज-परिक्रमा करने के लिए भेज दीजिये!'
किशोरी को यह बात तीर-सी लगी। उसने झिड़कते हुए कहा, 'चलो जाओ, आज से मेरे घर कभी न आना!'
घण्टी सिर नीचा किये चली गयी।
किशोरी ने फिर पुकारा, 'विजय!'
विजय लड़खड़ाता हुआ भीतर आया और विवश बैठ गया। किशोरी से मदिरा की गन्ध छिप न सकी। उसने सिर पकड़ लिया। यमुना ने विजय को धीरे से लिटा दिया। वह सो गया।
विजय ने अपने सम्बन्ध की किंवदन्तियों को और भी जटिल बना दिया, वह उन्हें सुलझाने की चेष्टा भी न करता था। किशोरी ने बोलना छोड़ दिया था। किशोरी कभी-कभी सोचती-यदि श्रीचन्द्र इस समय आकर लड़के को सम्हाल लेते! परन्तु वह बड़ी दूर की बात थी।
एक दिन विजय और किशोरी की मुठभेड़ हो गयी। बात यह थी कि निरंजन ने इतना ही कहा कि मद्यपों के संसर्ग में रहना हमारे लिए असंभव है! विजय ने हँसकर कहा, 'अच्छी बात है, दूसरा स्थान खोज लीजिये। ढोंग से दूर रहना मुझे भी रुचिकर है।' किशोरी आ गयी, उसने कहा, 'विजय, तुम इतने निर्लज्ज हो! अपने अपराधों को समझकर लज्जित क्यों नहीं होते नशे की खुमारी से भरी आँखों को उठाकर विजय ने किशोरी की ओर देखा और कहा, 'मैं अपने कर्मों पर हँसता हूँ, लज्जित नहीं होता। जिन्हें लज्जा बड़ी प्रिय हो, वे उसे अपने कामों में खोजें।'
किशोरी मर्माहत होकर उठ गयी, और अपना सामान बँधवाने लगी। उसी दिन काशी लौट जाने का उसका दृढ़ निश्चय हो गया। यमुना चुपचाप बैठी थी। उससे किशोरी ने पूछा, 'यमुना, क्या तुम न चलोगी?'
'बहूजी, मैं अब कहीं नहीं जाना चाहती; यहीं वृन्दावन में भीख माँगकर जीवन बिता लूँगी!'
'यमुना, खूब समझ लो!'
'मैंने कुछ रुपये इकट्ठे कर लिए हैं, उन्हें किसी के मन्दिर में चढ़ा दूँगी और दो मुट्ठी भर भात खाकर निर्वाह कर लूँगी।'
'अच्छी बात है!' किशोरी रूठकर उठी।
यमुना की आँखों से आँसू बह चले। वह भी अपनी गठरी लेकर किशोरी के जाने के पहले ही उस घर से निकलने के लिए प्रस्तुत थी।
सामान इक्कों पर धरा जाने लगा। किशोरी और निरंजन ताँगे पर जा बैठे। विजय चुपचाप बैठा रहा, उठा नहीं, जब यमुना भी बाहर निकलने लगी, तब उससे रहा न गया; विजय ने पूछा, 'यमुना, तुम भी मुझे छोड़कर चली जाती हो!' पर यमुना कुछ न बोली। वह दूसरी ओर चली; ताँगे और इक्के स्टेशन की ओर। विजय चुपचाप बैठा रहा। उसने देखा कि वह स्वयं निर्वासित है। किशोरी का स्मरण करके एक बार उसका हृदय मातृस्नेह से उमड़ आया, उसकी इच्छा हुई कि वह भी स्टेशन की राह पकड़े; पर आत्माभिमान ने रोक दिया। उसके सामने किशोरी की मातृमूर्ति विकृत हो उठी। वह सोचने लगा-माँ मुझे पुत्र के नाते कुछ भी नहीं समझती, मुझे भी अपने स्वार्थ, गौरव और अधिकार-दम्भ के भीतर ही देखना चाहती है। संतान स्नेह होता तो यों ही मुझे छोड़कर चली जाती वह स्तब्ध बैठा रहा। फिर कुछ विचारकर अपना सामान बाँधने लगा, दो-तीन बैग और बण्डल हुए। उसने एक ताँगे वाले को रोककर उस पर अपना सामान रख दिया, स्वयं भी चढ़ गया और उसे मथुरा की ओर चलने के लिए कह दिया। विजय का सिर सन-सन कर रहा था। ताँगा अपनी राह पर चल रहा था; पर विजय को मालूम होता था कि हम बैठे हैं और पटरी पर के घर और वृक्ष सब हमसे घृणा करते हुए भाग रहे हैं। अकस्मात् उसके कान में एक गीत का अंश सुनाई पड़ा-
'मैं कौन जतन से खोलूँ!'
उसने ताँगेवाले को रुकने के लिये कहा। घण्टी गाती जा रही थी। अँधेरा हो चला था। विजय ने पुकारा, 'घण्टी!'
घण्टी ताँगे के पास चली आयी। उसने पूछा, 'कहाँ विजय बाबू?'
'सब लोग बनारस लौट गये। मैं अकेला मथुरा जा रहा हूँ। अच्छा हुआ, तुमसे भेंट हो गयी!'
'अहा विजय बाबू! मथुरा मैं भी चलने को थी; पर कल आऊँगी।'
'तो आज क्यों नहीं चलती बैठ जाओ, ताँगे पर जगह तो है।'
इतना कहते हुए विजय ने बैग ताँगेवाले के बगल में रख दिया, घण्टी पास जाकर बैठ गयी।