कंकाल / द्वितीय खंड / भाग 1 / जयशंकर प्रसाद
एक ओर तो जल बरस रहा था, पुरवाई से बूँदें तिरछी होकर गिर रही थीं, उधर पश्चिम में चौथे पहर की पीली धूप उनमें केसर घोल रही थी। मथुरा से वृन्दावन आने वाली सड़क पर एक घर की छत पर यमुना चादर तान रही थी। दालान में बैठा हुआ विजय एक उपन्यास पढ़ रहा था। निरंजन सेवा-कुंज में दर्शन करने गया था। किशोरी बैठी हुई पान लगा रही थी। तीर्थयात्रा के लिए श्रावण से ही लोग टिके थे। झूले की बहार थी; घटाओं का जमघट।
उपन्यास पूरा करते हुए विश्राम की साँस लेकर विजय ने पूछा, 'पानी और धूप से बचने के लिए एक पतली चादर क्या काम देगी यमुना?'
'बाबाजी के लिए मघा का जल संचय करना है। वे कहते हैं कि इस जल से अनेक रोग नष्ट होते हैं।'
'रोग चाहे नष्ट न हो; पर वृन्दावन के खारे कूप-जल से तो यह अच्छा ही होगा। अच्छा एक गिलास मुझे भी दो।'
'विजय बाबू, काम वही करना, पर उसकी बड़ी समालोचना के बाद, यह तो आपका स्वभाव हो गया है। लीजिये जल।' कहकर यमुना ने पीने के जल दिया।
उसे पीकर विजय ने कहा, 'यमुना, तुम जानती हो कि मैंने कॉलेज में एक संशोधन समाज स्थापित किया है। उसका उद्देश्य है-जिन बातों में बुद्धिवाद का उपयोग न हो सके, उसका खण्डन करना और तदनुकूल आचरण करना। देख रही हो कि मैं छूत-छात का कुछ विचार नहीं करता, प्रकट रूप से होटलों तक में खाता भी हूँ। इसी प्रकार इन प्राचीन कुसंस्कारों का नाश करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ, क्योंकि ये ही रूढ़ियाँ आगे चलकर धर्म का रूप धारण कर लेती हैं। जो बातें कभी देश, काल, पात्रानुसार प्रचलित हो गयी थीं, वे सब माननीय नहीं, हिन्दू-समाज के पैरों में बेड़ियाँ हैं।' इतने में बाहर सड़क पर कुछ बालकों के मधुर स्वर सुनायी पड़े, विजय उधर चौंककर देखने लगा, छोटे-छोटे ब्रह्मचारी दण्ड, कमण्डल और पीत वसन धारण किये समस्वर में गाये जा रहे थे-
कस्यचित्किमपिनोहरणीयं मर्म्मवाक्यमपिनोच्चरणीयम्,
श्रीपतेःपदयुगस्मणीयं लीलयाभवजलतरणीयम्।
उन सबों के आगे छोटी दाढ़ी और घने बालों वाला एक युवक सफेद चद्दर, धोती पहने जा रहा था। गृहस्थ लोग उन ब्रह्मचारियों की झोली में कुछ डाल देते थे। विजय ने एक दृष्टि से देखकर मुँह फिराकर यमुना से कहा, 'देखो यह बीसवीं शताब्दी में तीन हजार बी.सी. का अभिनय! समग्र संसार अपनी स्थिति रखने के लिए चंचल है, रोटी का प्रश्न सबके सामने है, फिर भी मूर्ख हिन्दू अपनी पुरानी असभ्यताओं का प्रदर्शन कराकर पुण्य-संचय किया चाहते हैं।'
'आप तो पाप-पुण्य कुछ मानते ही नहीं, विजय बाबू!'
'पाप और कुछ नहीं है यमुना, जिन्हें हम छिपाकर किया चाहते हैं, उन्हीं कर्मों को पाप कह सकते हैं; परन्तु समाज का एक बड़ा भाग उसे यदि व्यवहार्य बना दे, तो वहीं कर्म पुण्य हो जाता है, धर्म हो जाता है। देखती नहीं हो, इतने विरुद्ध मत रखने वाले संसार के मनुष्य अपने-अपने विचारों में धार्मिक बने हैं। जो एक के यहाँ पाप है, वही दूसरे के लिए पुण्य है।'
किशोरी चुपचाप इन लोगों की बात सुन रही थी। वह एक स्वार्थ से भरी चतुर स्त्री थी। स्वतन्त्रता से रहना चाहती थी, इसलिए लड़के को भी स्वतन्त्र होने में सहायता देती थी। कभी-कभी यमुना की धार्मिकता उसे असह्य हो जाती है; परन्तु अपना गौरव बनाये रखने के लिए वह उसका खण्डन न करती, क्योंकि बाह्य धर्माचरण दिखलाना ही उसके दुर्बल चरित्र का आवरण था। वह बराबर चाहती थी कि यमुना और विजय में गाढ़ा परिचय बढ़े और उसके लिए वह अवसर भी देती। उसने कहा, 'विजय इसी से तुम्हारे हाथ का भी खाने लगा है, यमुना।'
'यह कोई अच्छी बात तो नहीं है बहूजी।'
'क्या करूँ यमुना, विजय अभी लड़का है, मानता नहीं। धीरे-धीरे समझ जायेगा।' अप्रतिम होकर किशोरी ने कहा।
इतने में एक सुन्दर तरुण बालिका अपना हँसता हुआ मुख लिए भीतर आते ही बोली, 'किशोरी बहू, शाहजी के मन्दिर में आरती देखने चलोगी न?'
'तू आ गयी घण्टी! मैं तेरी प्रतीक्षा में ही थी।'
'तो फिर विलम्ब क्यों कहते हुए घण्टी ने अल्हड़पन से विजय की ओर देखा।
किशोरी ने कहा, 'विजय तू भी चलेगा न?'
'यमुना और विजय को यहीं झाँकी मिलती है, क्यों विजय बाबू?' बात काटते हुए घण्टी ने कहा।
'मैं तो जाऊँगा नहीं, क्योंकि छः बजे मुझे एक मित्र से मिलने जाना है; परन्तु घण्टी, तुम तो हो बड़ी नटखट!' विजय ने कहा।
'यह ब्रज है बाबूजी! यहाँ के पत्ते-पत्ते में प्रेम भरा है। बंसी वाले की बंसी अब भी सेवा-कुंज में आधी रात को बजती है। चिंता किस बात की?'
विजय के पास सरककर धीरे-से हँसते हुए उस चंचल किशोरी ने कहा। घण्टी के कपोलों में हँसते समय गड्ढे पड़ जाते थे। भोली मतवाली आँखें गोपियों के छायाचित्र उतारतीं और उभरती हुई वयस-संधि से उसकी चंचलता सदैव छेड़-छाड़ करती रहती। वह एक क्षण के लिए भी स्थिर न रहती, कभी अंगड़ाई लेती, तो कभी अपनी उँगलिया चटकाती, आँखें लज्जा का अभिनय करके जब पलकों की आड़ में छिप जातीं तब भी भौंहें चला करतीं, तिस पर भी घण्टी एक बाल-विधवा है। विजय उसके सामने अप्रतिभ हो जाता, क्योंकि वह कभी-कभी स्वाभाविक निःसंकोच परिहास कर दिया करती। यमुना को उसका व्यंग्य असह्य हो उठता; पर किशोरी को वह छेड़-छाड़ अच्छी लगती-बड़ी हँसमुख लड़की है!-यह कहकर बात उड़ा दिया करती।
किशोरी ने अपनी चादर ले ली थी। चलने को प्रस्तुत थी। घण्टी ने उठते-उठते कहा, 'अच्छा तो आज ललिता की ही विजय है, राधा लौट जाती है!' हँसते-हँसते वह किशोरी के साथ घर से बाहर निकल गयी।
वर्षा बन्द हो गयी थी; पर बादल घिरे थे। सहसा विजय उठा और वह भी नौकर को सावधान रहने के लिए कहकर चला गया।
यमुना के हृदय में भी निरुद्दिष्ट पथवाले चिंता के बादल मँडरा रहे थे। वह अपनी अतीत-चिंता में निमग्न हो गयी। बीत जाने पर दुखदायी घटना भी सुन्दर और मूल्यवान हो जाती है। वह एक बार तारा बनकर मन-ही-मन अतीत का हिसाब लगाने लगी, स्मृतियाँ लाभ बन गयीं। जल वेग से बरसने लगा, परन्तु यमुना के मानस में एक शिशु-सरोज लहराने लगा। वह रो उठी।
कई महीने बीत गये। किशोरी, निरंजन और विजय बैठे हुए बातें कर रहे थे, निरंजन दास का मत था कि कुछ दिन गोकुल में चलकर रहा जाय, कृष्णचन्द्र की बाललीला से अलंकृत भूमि में रहकर हृदय आनन्दपूर्ण बनाया जाय। किशोरी भी सहमत थी; किन्तु विजय को इसमें कुछ आपत्ति थी।
इसी समय एक ब्रह्मचारी ने भीतर आकर सबको प्रणाम किया। विजय चकित हो गया और निरंजन प्रसन्न।
'क्या उन ब्रह्मचारियों के साथ तुम्हीं घूमते हो?' मंगल विजय ने आश्चर्य भरी प्रसन्नता से पूछा।
'हाँ विजय बाबू!' मैंने यहाँ पर एक ऋषिकुल खोल रखा है। यह सुनकर कि आप लोग यहाँ आये हैं, मैं कुछ भिक्षा लेने आया हूँ।'
'मंगल! मैंने तो समझा था कि तुमने कहीं अध्यापन का काम आरम्भ किया होगा; पर तुमने तो यह अच्छा ढोंग निकाला।'
'वही तो करता हूँ विजय बाबू! पढ़ाता ही तो हूँ। कुछ करने की प्रवृत्ति तो थी ही, वह भी समाज-सेवा और सुधार; परन्तु उन्हें क्रियात्मक रूप देने के लिए मेरे पास और कौन साधन था?'
'ऐसे काम तो आर्यसमाज करती ही थी, फिर उसके जोड़ में अभिनय करने की क्या आवश्यकता थी। उसी में सम्मिलित हो जाते।'
'आर्यसमाज कुछ खण्डनात्मक है और मैं प्राचीन धर्म की सीमा के भीतर ही सुधार का पक्षपाती हूँ।'
'यह क्यों नहीं कहते कि तुम समाज के स्पष्ट आदर्श का अनुकरण करने में असमर्थ थे, परीक्षा में ठहर न सके थे। उस विधिमूलक व्यावहारिक धर्म को तुम्हारे समझ-बूझकर चलने वाले सर्वतोभद्र हृदय ने स्वीकार किया, और तुम स्वयं प्राचीन निषेधात्मक धर्म के प्रचारक बन गये। कुछ बातों के न करने से ही यह प्राचीन धर्म सम्पादित हो जाता है-छुओ मत, खाओ मत, ब्याहो मत, इत्यादि-इत्यादि। कुछ भी दायित्व लेना नहीं चाहते और बात-बात में शास्त्र तुम्हारे प्रमाणस्वरूप हैं। बुद्धिवाद का कोई उपाय नहीं।' कहते-कहते विजय हँस पड़ा।
मंगल की सौम्य आकृति तन गयी। वह संयत और मधुर भाषा में कहने लगा, 'विजय बाबू, यह और कुछ नहीं केवल उच्छृंखलता है। आत्मशासन का अभाव-चरित्र की दुर्बलता विद्रोह कराती है। धर्म मानवीय स्वभाव पर शासन करता है, न कर सके तो मनुष्य और पशु में भेद क्या रह जाय आपका मत यह है कि समाज की आवश्यकता देखकर धर्म की व्यवस्था बनाई जाए, नहीं तो हम उसे न मानेंगे। पर समाज तो प्रवृत्तिमूलक है। वह अधिक से अधिक आध्यात्मिक बनाकर, तप और त्याग के द्वारा शुद्ध करके उच्च आदर्श तक पहुँचाया जा सकता है। इन्द्रियपराय पशु के दृष्टिकोण से मनुष्य की सब सुविधाओं के विचार नहीं किये जा सकते, क्योंकि फिर तो पशु और मनुष्य में साधन-भेद रह जाता है। बातें वे ही हैं मनुष्य की असुविधाओं का, अनन्त साधनों के रहते, अन्त नहीं, वह उच्छृंखल होना ही चाहता है।'
निरंजन को उसकी युक्तियाँ परिमार्जित और भाषा प्रांजल देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई, उसका पक्ष लेते हुए उसने कहा, 'ठीक कहते हो मंगलदेव!'
विजय और भी गरम होकर आक्रमण करते हुए बोला, 'और उन ढकोसलों में क्या तथ्य है?' उसका संकेत मंदिरों के शिखरों की ओर था।
'हमारे धर्म मुख्यतः एकेश्वरवादी हैं। विजय बाबू! वह ज्ञान-प्रधान है; परन्तु अद्वैतवाद की दार्शनिक युक्तियों को स्वीकार करते हुए कोई भी वर्णमाला का विरोधी बन जाए, ऐसा तो कारण नहीं दिखाई पड़ता। मूर्तिपूजा इत्यादि उसी रूप में है। पाठशाला मे सबके लिए एक कक्षा होती, इसलिए अधिकारी-भेद है। हम लोग सर्वव्यापी भगवान् की सत्ता को नदियों के जल में, वृक्षों में, पत्थरों में, सर्वत्र स्वीकार करने की परीक्षा देते हैं।'
'परन्तु हृदय में नहीं मानते, चाहे अन्यत्र सब जगह मान लें।' तर्क न करके विजय ने व्यंग्य किया। मंगल ने हताश होकर किशोरी की ओर देखा।
'तुम्हारा ऋषिकुल कैसा चल रहा है?' मंगल किशोरी ने पूछा
'दरिद्र हिन्दुओं के ही लड़के मुझे मिलते हैं। मैं उनके साथ नित्य भीख माँगता हूँ। जो अन्न-वस्त्र मिलता है। उसी में सबका निर्वाह होता है। मैं स्वयं उन्हे संस्कृत पढ़ाता हूँ। एक ग्रहस्थ ने अपना उजड़ा हुआ उपवन दे दिया है। उसमें एक और लम्बी सी दालान है और पाँच-सात वृक्ष हैं; उतने में सब काम चल जाता है। शीत और वर्षा में कुछ कष्ट होता है, क्योकि दरिद्र हैं तो क्या, हैं तो लड़के ही न!'
'कितने लड़के हैं?' मंगल निरंजन ने पूछा।
'आठ लड़के हैं, आठ बरस से लेकर सोलह बरस तक के।'
'मंगल! और चाहे जो हो, तुम्हारे इस परिश्रम और कष्ट की सत्यनिष्ठा पर कोई अविश्वास नहीं कर सकता। मैं भी नहीं।' विजय ने कहा।
मंगल मित्र से मुख से यह बात सुनकर प्रसन्न हो उठा, वह कहने लगा, 'देखिये विजय बाबू! मेरे पास यही धोती और अँगोछा है। एक चादर भी है। मेरा सब काम इतने में चल जाता है। कोई असुविधा नहीं होती। एक लम्बा टाट है। उसी पर सब सो रहते हैं। दो-तीन बरतन है और पाठ्य-पुस्तकों की एक-एक प्रतियाँ। इतनी ही तो मेरे ऋषिकुल की सम्पत्ति है।' कहते-कहते वह हँस पड़ा।
यमुना भीतर पीलीभीत के चावल बीन रही थी-खीर बनाने के लिए। उसके रोएँ खड़े हो गये। मंगल क्या देवता है! उसी समय उसे तिरस्कृत हृदय-पिण्ड का ध्यान आ गया। उसने मन में सोचा-पुरुष को उसकी क्या चिंता हो सकती है, वह तो अपना सुख विसर्जित कर देता है; जिसे अपने रक्त से उस सुख को खींचना पड़ता है, वही तो उसकी व्यथा जानेगा! उसने कहा, 'मंगल ही नहीं, सब पुरुष राक्षस हैं; देवता कदापि नहीं हो सकते।' वह दूसरी ओर उठकर चली गयी।
कुछ समय चुप रहने के बाद विजय ने कहा, 'जो तुम्हारे दान के अधिकारी हैं, धर्म के ठेकेदार हैं, उन्हें इसलिए तो समाज देता है कि वे उसका सदुपयोग करें; परन्तु वे मन्दिरों में, मठों में बैठ मौज उड़ाते हैं, उन्हें क्या चिंता कि समाज के कितने बच्चे भूखे-नंगे और अशिक्षित हैं। मंगलदेव! चाहे मेरा मत तुमसे न मिलता हो, परन्तु तुम्हारा उद्देश्य सुन्दर है।'
निंरजन जैसे सचेत हो गया। एक बार उसने विजय की ओर देखा; पर बोला नहीं। किशोरी ने कहा, 'मंगलदेव! मैं परदेश मे हूँ, इसलिए विशेष सहायता नही कर सकती; हाँ, तुम लोगों के लिए वस्त्र और पाठ्य-पुस्तकों की जितनी आवश्यकता हो, मैं दूँगी।'
'और शीत, वर्षा-निवारण के योग्य साधारण गृह बनवा देने का भार मैं लेता हूँ मंगल!' निरंजन ने कहा।
'मंगल! मैं तुम्हारी इस सफलता पर बधाई देता हूँ।' हँसते हुए विजय ने कहा, 'कल मैं तुम्हारे ऋषिकुल में आऊँगा।'
निरंजन और किशोरी ने कहा, 'हम लोग भी।'
मंगल कृतज्ञता से लद गया। प्रणाम करके चला गया।
सबका मन इस घटना से हल्का था; पर यमुना अपने भारी हृदय से बार-बार यही पूछती थी-इन लोगों ने मंगल को जलपान करने तक के लिए न पूछा, इसका कारण क्या उसका प्रार्थी होकर आना है?
यमुना कुछ अनमनी रहने लगी। किशोरी से यह बात छिपी न रही। घण्टी प्रायः इन्ही लोगों के पास रहती। एक दिन किशोरी ने कहा, 'विजय, हम लोगों को ब्रज आये बहुत दिन हो गये, अब घर चलना चाहिए। हो सके तो ब्रज की परिक्रमा भी कर लें।'
विजय ने कहा, 'मैं नही जाऊँगा।'
'तू सब बातों में आड़े आ जाता है।'
'वह कोई आवश्यक बात नहीं कि मैं भी पुण्य-संचय करूँ।' विरक्त होकर विजय ने कहा, 'यदि इच्छा हो तो आप चली जा सकती हैं, मैं तब तक यहीं बैठा रहूँगा।'
'तो क्या तू यहाँ अकेला रहेगा?'
'नहीं, मंगल के आश्रम में जा रहूँगा। वहाँ मकान बन रहा है, उसे भी देखूँगा, कुछ सहायता भी करूँगा और मन भी बहलेगा।'
'वह आप ही दरिद्र है, तू उसके यहाँ जाकर उसे और भी दुख देगा।'
'तो मैं क्या उसके सिर पर रहूँगा।'
'यमुना! तू चलेगी?'
'फिर विजय बाबू को खिलावेगा कौन बहू जी, मैं तो चलने के लिए प्रस्तुत हूँ।'
किशोरी मन-ही-मन हँसी थी, प्रसन्न भी हुई और बोली, 'अच्छी बात है। तो मैं परिक्रमा कर आऊँ, क्योंकि होली देखकर अवश्य घर लौट चलना है।'
निरंजन और किशोरी परिक्रमा करने चले। एक दासी और जमादार साथ गया।
वृदांवन में यमुना और विजय अकेले रहे। केवल घण्टी कभी-कभी आकर हँसी की हलचल मचा देती। विजय कभी-कभी दूर यमुना के किनारे चला जाता और दिन-दिन भर पर लौटता। अकेली यमुना उस हँसोड़ के व्यंग्य से जर्जरित हो जाती। घण्टी परिहास करने में बड़ी निर्दय थी।
एक दिन दोपहर की कड़ी धूप थी। सेठजी के मन्दिर में कोई झाँकी थी। घण्टी आई और यमुना को दर्शन के लिए पकड़ ले गयी। दर्शन से लौटते हुए यमुना ने देखा, एक पाँच-सात वृक्षों का झुरमुट और घनी छाया, उसने समझा कोई देवालय है। वह छाया के लालच से टूटी हुई दीवार लाँघकर भीतर चली गयी। देखा तो अवाक् रह गयी-मंगल कच्ची मिट्टी का गारा बना रहा है, लड़के ईंटें ढो रहे हैं, दो राज उस मकान की जोड़ाई कर रहे हैं। परिश्रम से मुँह लाल था। पसीना बह रहा था। मंगल की सुकुमार देह विवश थी। वह ठिठककर खड़ी हो गयी। घण्टी ने उसे धक्का देते हुए कहा, 'चल यमुना, यह तो ब्रह्मचारी है, डर काहे का!' फिर ठठाकर हँस पड़ी।
यमुना ने एक बार फिर उसकी ओर क्रोध से देखा। वह चुप भी न हो सकी थी कि फरसा रखकर सिर से पसीना पोंछते हुए मंगल ने घूमकर देखा, 'यमुना!'
ढीठ घण्टी से अब कैसे रहा जाय, वह झटककर बोली, 'ग्वालिनी! तुम्हें कान्ह बुलावे री!' यमुना गड़ गयी, मंगल ने क्या समझा होगा वह घण्टी को घसीटती हुई बाहर निकल आयी। यमुना हाँफ रही थी। पसीने-पसीने हो रही थी। अभी वे दोनों सड़क पर पहुँची भी न थीं कि दूर से किसी ने पुकारा, 'यमुना!'
यमुना मन में संकल्प-विकल्प कर रही थी कि मंगल पवित्रता और आलोक से घिरा हुआ पाप है कि दुर्बलताओं में लिपटा हुआ एक दृढ़ सत्य उसने समझा कि मंगल पुकार रहा है, वह और लम्बे डग बढ़ाने लगी। घण्टी ने कहा, 'अरी यमुना! वह तो विजय बाबू हैं। पीछे-पीछे आ रहे हैं।'
यमुना एक बार काँप उठी-न जाने क्यों, पर खड़ी हो गयी, विजय घूमकर आ रहा था। पास आ जाने पर विजय ने एक बार यमुना को ऊपर से नीचे तक देखा।
कोई कुछ बोला नहीं, तीनों घर लौट आये।
बसंत की संध्या सोने की धूल उड़ा रही थी। वृक्षों के अन्तराल से आती हुए सूर्यप्रभा उड़ती हुई गर्द को भी रंग देती थी। एक अवसाद विजय के चारों ओर फैल रहा था। वह निर्विकार दृष्टि से बहुत सी बातें सोचते हुए भी किसी पर मन स्थिर नहीं कर सकती। घण्टी और मंगल के परदे में यमुना अधिक स्पष्ट हो उठी थी। उसका आकर्षण अजगर की साँस के समान उसे खींच रहा था। विजय का हृदय प्रतिहिंसा और कुतूहल से भर गया था। उसने खिड़की से झाँककर देखा, घण्टी आ रही है। वह घर से बाहर ही उससे जा मिला।
'कहाँ विजय बाबू?' घण्टी ने पूछा।
'मंगलदेव के आश्रम तक, चलोगी?'
'चलिये।'
दोनों उसी पथ पर बढ़े। अँधेरा हो चला था। मंगल अपने आश्रम में बैठा हुआ संध्यापासन कर रहा था। पीपल के वृक्ष के नीचे शिला पर पद्मासन लगाये वह बोधिसत्त्व की प्रतिमूर्ति सा दिखता था। विजय क्षण भर देखता रहा, फिर मन ही मन कह उठा-पाखण्ड आँख खोलते हुए सहसा आचमन लेकर मंगल ने धुँधले प्रकाश में देखा-विजय! और दूर कौन है, एक स्त्री वह पल भर के लिए अस्त-व्यस्त हो उठा। उसने पुकारा, 'विजय बाबू!'
विजय और घण्टी वहीं लौट पड़े, परन्तु उस दिन मंगल के पुरुष सूक्त का पाठ न हो सका। दीपक जल जाने पर जब वह पाठशाला में बैठा, तब प्राकृत प्रकाश के सूत्र उसे बीहड़ लगे। व्याख्या अस्पष्ट हो गयी। ब्रह्मचारियों ने देखा-गुरुजी को आज क्या हो गया है।
विजय घर लौट आया। यमुना रसोई बनाकर बैठी थी। हँसती हुई घण्टी को उसने साथ ही आते देखा। वह डरी। और न जाने क्यों उसने पूछा। विजय बाबू, विदेश में एक विधवा तरुणी को लिए इस तरह घूमना क्या ठीक है?'
'यह बात आज क्यों पूछती हो यमुना घण्टी! इसमें तुम्हारी क्या सम्मति है?' शान्त भाव से विजय ने कहा।
'इसका विचार तो यमुना को स्वयं करना चाहिए। मैं तो ब्रजवासिनी हूँ, हृदय की बंसी को सुनने से कभी रोका नहीं जा सकता।'
यमुना व्यंग्य से मर्माहत होकर बोली, 'अच्छा, भोजन कर लीजिए।'
विजय भोजन करने बैठा, पर अरुचि थी। शीघ्र उठ गया। वह लैम्प के सामने जा बैठा। सामने ही दरी के कोने पर बैठी यमुना पान लगाने लगी। पान विजय के सामने रखकर चली गयी, किन्तु विजय ने उसे छुआ भी नहीं, यह यमुना ने लौट आने पर देखा। उसने दृढ़ स्वर में पूछा, 'विजय बाबू, पान क्यों नहीं खाया आपने?'
'अब पान न खाऊँगा, आज से छोड़ दिया।'
'पान छोड़ने मे क्या सुविधा है?'
'मैं बहुत जल्दी ही ईसाई होने वाला हूँ, उस समाज में इसका व्यवहार नहीं। मुझे यह दम्भपूर्ण धर्म बोझ के समान दबाये है, अपनी आत्मा के विरुद्ध रहने के लिए मैं बाध्य किया जा रहा हूँ।'
'आपके लिए तो कोई रोक-टोक नहीं, फिर भी।'
'यह मैं जानता हूँ, कोई रोक-टोक नहीं, पर मैं यह भी अनुभव करता हूँ कि मैं कुछ विरुद्ध आचरण कर रहा हूँ। इस विरुद्धता का खटका लगा रहता है। मन उत्साहपूर्ण होकर कर्तव्य नहीं करता। यह सब मेरे हिन्दू होने के कारण है। स्वतंत्रता और हिन्दू धर्म दोनों विरुद्धवाची शब्द हैं।'
'पर ऐसी बहुत-सी बातें तो अन्य धर्मानुयायी मनुष्यों के जीवन में भी आ सकती हैं। सबका काम सब मनुष्य तो नहीं कर सकते।'
'तो भी बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जो हिन्दू धर्म में रहकर नहीं की जा सकतीं; किन्तु मेरे लिए नितान्त आवश्यक हैं।'
'जैसे?'
'तुमसे ब्याह कर लेना!'
यमुना ने ठोकर लगने की दशा में पड़कर पूछा, 'क्यों विजय बाबू! क्या दासी होकर रहना किसी भी भद्र महिला के लिए अपमान का पर्याप्त कारण हो जाता है?'
'यमुना! तुम दासी हो कोई दूसरा हृदय खोलकर पूछ देखे, तुम मेरी आराध्य देवी हो-सर्वस्व हो!' विजय उत्तेजित था।
'मै आराध्य देवता बना चुकी हूँ, मैं पतित हो चुकी हूँ, मुझे...'
'यह मैंने अनुमान कर लिया था, परन्तु इन अपवित्राओं में भी मैं तुम्हें पवित्र उज्ज्वल और ऊर्जस्वित पाता हूँ-जैसे मलिन वसन में हृदयहारी सौन्दर्य।'
'किसी के हृदय की शीतलता और किसी के यौवन की उष्णता-मैं सब झेल चुकी हूँ। उसमें सफल हुई, उसकी साध भी नहीं रही। विजय बाबू! मैं दया की पात्री एक बहन होना चाहती हूँ-है किसी के पास इतनी निःस्वार्थ स्नेह-सम्पत्ति, जो मुझे दे सके कहते-कहते यमुना की आँखों से आँसू टपक पड़े।
विजय थप्पड़ खाये हुए लड़के के समान घूम पड़ा, 'मैं अभी आता हूँ...' कहता हुआ वह घर से बाहर निकल गया।