कंकाल / प्रथम खंड / भाग 7 / जयशंकर प्रसाद

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रजनी के बालों में बिखरे हुए मोती बटोरने के लिए प्राची के प्रांगण में उषा आयी और इधर यमुना उपवन में फूल चुनने के लिए पहुँची। प्रभात की फीकी चाँदनी में बचे हुए एक-दो नक्षत्र अपने को दक्षिण-पवन के झोंकों में विलीन कर देना चाहते हैं। कुन्द के फूल थले के श्यामल अंचल पर कसीदा बनाने लगे थे। गंगा के मुक्त वक्षस्थल पर घूमती हुई, मन्दिरों के खुलने की, घण्टों की प्रतिध्वनि, प्रभात की शान्त निस्तब्धता में एक संगीत की झनकार उत्पन्न कर रही थी। अन्धकार और आलोक की सीमा बनी हुई युवती के रूप को अस्त होने वाला पीला चन्द्रमा और लाली फेंकने वाली उषा, अभी स्पष्ट दिखला सकी थी कि वह अपनी डाली फूलों से भर चुकी और उस कड़ी सर्दी में भी यमुना मालती-कुंज की पत्थर की चौकी पर बैठी हुई, देर से आते हुए शहनाई के मधुर-स्वर में अपनी हृदयतंत्री मिला रही थी।

संसार एक अँगड़ाई लेकर आँख खोल रहा था। उसके जागरण में मुस्कान थी। नीड़ में से निकलते हुए पक्षियों के कलरव को वह आश्चर्य से सुन रही थी। वह समझ न सकती थी कि उन्हें उल्लास है! संसार में प्रवृत्त होने की इतनी प्रसन्नता क्यों दो-दो दाने बीनकर ले आने और जीवन को लम्बा करने के लिए इतनी उत्कंठा! इतना उत्साह! जीवन इतने सुख की वस्तु है

टप...टप...टप...टप...! यमुना चकित होकर खड़ी हो गयी। खिल-खिलाकर हँसने का शब्द हुआ। यमुना ने देखा-विजय खड़ा है! उसने कहा, 'यमुना, तुमने तो समझा होगा कि बिना बादलों की बरसात कैसी ?'

'आप ही थे-मालती-लता से ओस की बूँदें गिराकर बरसात का अभिनय करने वाले! यह जानकर मैं तो चौंक उठी थी।'

'हाँ यमुना! आज तो हम लोगों का रामनगर चलने का निश्चय है। तुमने तो सामान आदि बाँध लिये होंगे-चलोगी न?'

'बहूजी की जैसी आज्ञा होगी।'

इस बेबसी के उत्तर पर विजय के मन मे बड़ी सहानुभूति उत्पन्न हुई। उसने कहा, 'नहीं यमुना, तुम्हारे बिना तो मेरा, कहते-कहते रुककर कहा, 'प्रबन्ध ही न हो सकेगा-जलपान, पान स्नान सब अपूर्ण रहेगा।'

'तो मैं चलूँगी।' कहकर यमुना कुंज से बाहर आयी। वह भीतर जाने लगी। विजय ने कहा, 'बजरा कब का ही घाट आ गया होगा, हम लोग चलते हैं। माँ को लिवाकर तुरन्त आओ।'

भागीरथी के निर्मल जल पर प्रभात का शीतल पवन बालकों के समान खेल रहा था-छोटी छोटी लहरियों के घरौंदे बनते-बिगडते थे। उस पार के वृक्षों की श्रेणी के ऊपर एक भारी चमकीला और पीला बिम्ब था। रेत में उसकी पीली छाया और जल में सुनहला रंग, उड़ते हुए पक्षियों के झुण्ड से आक्रान्त हो जाता था। यमुना बजरे की खिड़की में से एकटक इस दृश्य को देख रही थी और छत पर से मंगलदेव उसकी लम्बी उँगलियों से धारा का कटना देख रहा था। डाँडों का छप-छप शब्द बजरे की गति में ताल दे रहा था। थोड़ी ही देर में विजय माझी को हटाकर पतवार थामकर जा बैठा। यमुना सामने बैठी हुई डाली में फूल सँवारने लगी, विजय औरों की आँख बचाकर उसे देख लिया करता।

बजरा धारा पर बह रहा था। प्रकृति-चितेरी संसार का नया चिह्न बनाने के लिए गंगा के ईषत् नील जल में सफेदा मिला रही थी। धूप कड़ी हो चली थी। मंगल ने कहा, 'भाई विजय! इस नाव की सैर से अच्छा होगा कि मुझे उस पार की रेत में उतार दो। वहाँ दो-चार वृक्ष दिखायी दे रहे हैं, उन्हीं की छाया में सिर ठण्डा कर लूँगा।'

'हम लोगों को तो अभी स्नान करना है, चलो वहीं नाव लगाकर हम लोग भी निपट लें।'

माझियों ने उधर की ओर नाव खेना आरम्भ किया। नाव रेत से टिक गयी। बरसात उतरने पर यह द्वीप बन गया था। अच्छा एकान्त था। जल भी वहाँ स्वच्छ था। किशोरी ने कहा, 'यमुना, चलो हम लोग भी नहा लें।'

'आप लोग आ जायें, तब मैं जाऊँगी।' यमुना ने कहा। किशोरी उसकी सचेष्टता पर प्रसन्न हो गयी। वह अपनी दो सहेलियों के साथ बजरे में उतर गयी।

मंगलदेव पहले ही कूद पड़ा था। विजय भी कुछ इधर-उधर करके उतरा। द्वीप के विस्तृत किनारों पर वे लोग फैल गये। किशोरी और उनकी सहेलियाँ स्नान करके लौट आयीं, अब यमुना अपनी धोती लेकर बजरे में उतरी और बालू की एक ऊँची टोकरी के कोने में चली गयी। यह कोना एकान्त था। यमुना गंगा के जल में पैर डालकर कुछ देर तक चुपचाप बैठी हुई, विस्तृत जलधारा के ऊपर सूर्य की उज्ज्वल किरणों का प्रतिबिम्ब देखने लगी। जैसे रात के तारों की फूल-अंजली जाह्नवी के शीतल वृक्ष कर किसी ने बिखेर दी हो।

पीछे निर्जन बालू का द्वीप और सामने दूर पर नगर की सौध-श्रेणी, यमुना की आँखों में निश्चेष्ट कुतूहल का कारण बन गयी। कुछ देर में यमुना ने स्नान किया। ज्यों ही वह सूखी धोती पहनकर सूखे बालों को समेट रही थी, मंगलदेव सामने आकर खड़ा हो गया। समान भाव से दोनों पर आकस्मिक आने वाली विपद को देखकर परस्पर शत्रुओं के समान मंगलदेव और यमुना एक क्षण के लिए स्तब्ध थे।

'तारा! तुम्हीं हो!' बड़े साहस से मंगल ने कहा।

युवती की आँखों में बिजली दौड़ गयी। वह तीखी दृष्टि से मंगलदेव को देखती हुई बोली, 'क्या मुझे अपनी विपत्ति के दिन भी किसी तरह न काटने दोगे। तारा मर गयी, मैं उसकी प्रेतात्मा यमुना हूँ।'

मंगलदेव ने आँखें नीचे कर लीं। यमुना अपनी गीली धोती लेकर चलने को उद्यत हुई। मंगल ने हाथ जोड़कर कहा, 'तारा मुझे क्षमा करो।'

उसने दृढ़ स्वर में कहा, 'हम दोनों का इसी में कल्याण है कि एक-दूसरे को न पहचानें और न ही एक-दूसरे की राह में अड़ें। तुम विद्यालय के छात्र हो और मैं दासी यमुना-दोनों को किसी दूसरे का अवलम्ब है। पापी प्राण की रक्षा के लिए मैं प्रार्थना करती हूँ कि, क्योंकि इसे देकर मैं न दे सकी।'

'तुम्हारी यही इच्छा है तो यही सही।' कहकर ज्यों ही मंगलदेव ने मुँह फिराया, विजय ने टेकरी की आड़ से निकलकर पुकारा, 'मंगल! क्या अभी जलपान न करोगे?'

यमुना और मंगल ने देखा कि विजय की आँखें क्षण-भर में लाल हो गयीं; परन्तु तीनों चुपचाप बजरे की ओर लौटे। किशोरी ने खिड़की से झाँककर कहा, 'आओ जलपान कर लो, बड़ा विलम्ब हुआ।'

विजय कुछ न बोला, जाकर चुपचाप बैठ गया। यमुना ने जलपान लाकर दोनों को दिया। मंगल और विजय लड़कों के समान चुपचाप मन लगाकर खाने लगे। आज यमुना का घूँघट कम था। किशोरी ने देखा, कुछ बेढब बात है। उसने कहा, 'आज न चलकर किसी दूसरे दिन रामनगर चला जाय, तो क्या हानि है दिन बहुत बीत चुका, चलते-चलते संध्या हो जाएगी। विजय, कहो तो घर ही लौट चला जाए?'

विजय ने सिर हिलाकर अपनी स्वीकृति दी।

माझियों ने उसी ओर खेना आरम्भ कर दिया।

दो दिन तक मंगलदेव और विजयचन्द से भेंट ही न हुई। मंगल चुपचाप अपनी किताब में लगा रहता है और समय पर स्कूल चला जाता। तीसरे दिन अकस्मात् यमुना पहले-पहल मंगल के कमरे में आयी। मंगल सिर झुकाकर पढ़ रहा था, उसने देखा नहीं, यमुना ने कहा, 'विजय बाबू ने तकिये से सिर नहीं उठाया, ज्वर बड़ा भयानक होता जा रहा है। किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं लिवा लाते।'

मंगल ने आश्चर्य से सिर उठाकर फिर देखा-यमुना! वह चुप रह गया। फिर सहसा अपना कोट लेते हुए उसने कहा, 'मैं डॉक्टर दीनानाथ के यहाँ जाता हूँ।' और वह कोठरी से बाहर निकल गया।

विजयचन्द्र पलंग पर पड़ा करवट बदल रहा था। बड़ी बेचैनी थी। किशोरी पास ही बैठी थी। यमुना सिर सहला रही थी। विजय कभी-कभी उसका हाथ पकड़कर माथे से चिपटा लेता था।

मंगल डॉक्टर को लिये हुए भीतर चला आया। डॉक्टर ने देर तक रोगी की परीक्षा की। फिर सिर उठाकर एक बार मंगल की ओर देखा और पूछा, 'रोगी को आकस्मिक घटना से दुःख तो नहीं हुआ है?'

मंगल ने कहा, 'ऐसा तो यों कोई कारण नहीं है। हाँ, इसके दो दिन पहले हम लोगों ने गंगा में पहरों स्नान किया और तैरे थे।'

डॉक्टर ने कहा, 'कुछ चिंता नहीं। थोड़ा यूडीक्लोन सिर पर रखना चाहिए, बेचैनी हट जायेगी और दवा लिखे देता हूँ। चार-पाँच दिन में ज्वर उतरेगा। मुझे टेम्परेचर का समाचार दोनों समय मिलना चाहिए।'

किशोरी ने कहा, 'आप स्वयं दो बार दिन में देख लिया कीजिये तो अच्छा हो!'

डॉक्टर बहुत ही स्पष्टवादी और चिड़चिड़े स्वभाव का था और नगर में अपने काम में एक ही था। उसने कहा, 'मुझे दोनों समय देखने का अवकाश नहीं, और आवश्यकता भी नहीं। यदि आप लोगों से स्वयं इतना भी नहीं हो सकता, तो डॉक्टर की दवा करनी व्यर्थ है।'

'जैसा आप कहेंगे वैसा ही होगा। आपको समय पर ठीक समाचार मिलेगा। डॉक्टर साहब दया कीजिये।' यमुना ने कहा।

डॉक्टर ने रुमाल निकालकर सिर पोंछा और मंगल के दिये हुए कागज पर औषधि लिखी। मंगल ने किशोरी से रुपया लिया और डॉक्टर के साथ ही वह औषधि लेने चला गया।

मंगल और यमुना की अविराम सेवा से आठवें दिन विजय उठ बैठा। किशोरी बहुत प्रसन्न हुई। निरंजन भी तार द्वारा समाचार पाकर चले आये थे। ठाकुर जी की सेवा-पूजा की धूम एक बार फिर मच गयी।

विजय अभी दुर्बल था। पन्द्रह दिनों में ही वह छः महीने का रोगी जान पड़ता था। यमुना आजकल दिन-रात अपने अन्नदाता विजय के स्वास्थ्य की रखवाली करती थी, और जब निरंजन के ठाकुर जी की ओर जाने का उसे अवसर ही न मिलता था।

जिस दिन विजय बाहर आया, वह सीधे मंगल के कमरे में गया। उसके मुख पर संकोच और आँखों में क्षमा थी। विजय के कुछ कहने के पहले ही मंगल ने उखड़े हुए शब्दों में कहा, 'विजय, मेरी परीक्षा भी समाप्त हो गयी और नौकरी का प्रबन्ध भी हो गया। मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। आज ही जाऊँगा, आज्ञा दो।'

'नहीं मंगल! यह तो नहीं हो सकता।' कहते-कहते विजय की आँखें भर आयीं।

'विजय! जब मैं पेट की ज्वाला से दग्ध हो रहा था, जब एक दाने का कहीं ठिकाना नहीं था, उस समय मुझे तुमने अवलम्ब दिया; परन्तु मैं उस योग्य न था। मैं तुम्हारा विश्वासपात्र न रह सका, इसलिए मुझे छुट्टी दो।'

'अच्छी बात है, तुम पराधीन नहीं हो। पर माँ ने देवी के दर्शन की मनौती की है, इसलिए हम लोग वहाँ तक तो साथ ही चलें। फिर जैसी तुम्हारी इच्छा।'

मंगल चुप रहा।

किशोरी ने मनौती की सामग्री जुटानी आरम्भ की। शिशिर बीत रहा था। यह निश्चय हुआ कि नवरात्र में चला जाये। मंगल को तब तक चुपचाप रहना दुःसह हो उठा। उसके शान्त मन में बार-बार यमुना की सेवा और विजय की बीमारी-ये दोनों बातें लड़कर हलचल मचा देती थीं। वह न जाने कैसी कल्पना से उन्मत्त हो उठता। हिंसक मनोवृत्ति जाग जाती। उसे दमन करने में वह असमर्थ था। दूसरे ही दिन बिना किसी से कहे-सुने मंगल चला गया।

विजय को खेद हुआ, पर दुःख नहीं। वह बड़ी दुविधा में पड़ा था। मंगल जैसे उसकी प्रगति में बाधा स्वरूप हो गया था। स्कूल के लड़कों को जैसी लम्बी छुट्टी की प्रसन्नता मिलती है, ठीक उसी तरह विजय के हृदय में प्रफुल्लता भरने लगी। बड़े उत्साह से वह भी अपनी तैयारी में लगा। फेसक्रीम, पोमेड, टूथ पाउडर, ब्रश आकर उसके बैग में जुटने लगे। तौलियों और सुगन्धों की भरमार से बैग ठसाठस भर गया।

किशोरी भी अपने सामान में लगी थी। यमुना कभी उसके कभी विजय के साधनों में सहायता करती। वह घुटनों के बल बैठकर विजय की सामग्री बड़े मनोयोग से हैंडबेग में सजा रही थी। विजय कहता, 'नहीं यमुना! तौलिया तो इस बैग में अवश्य रहनी चाहिए।' यमुना कहती, 'इतनी सामग्री इस छोटे पात्र में समा नहीं सकती। वह ट्रक में रख दी जायेगी।'

विजय ने कहा, 'मैं अपने अत्यंत आवश्यक पदार्थ अपने समीप रखना चाहता हूँ।'

'आप अपनी आवश्यकताओं का ठीक अनुमान नहीं कर सकते। संभवतः आपका चिट्ठा बड़ा हुआ रहता है।'

'नहीं यमुना! वह मेरी नितान्त आवश्यकता है।'

'अच्छा तो सब वस्तु आप मुझसे माँग लीजियेगा। देखिये, जब कुछ भी घटे।'

विजय ने विचारकर देखा कि यमुना भी तो मेरी सबसे बढ़कर आवश्यकता की वस्तु है। वह हताश होकर सामान से हट गया। यमुना और किशोरी ने ही मिलकर सब सामान ठीक कर लिए।

निश्चित दिन आ गया। रेल का प्रबन्ध पहले ही ठीक कर लिया गया था। किशोरी की कुछ सहेलियाँ भी जुट गयी थीं। निरंजन थे प्रधान सेनापति। वह छोटी-सी सेना पहाड़ पर चढ़ाई करने चली।

चैत का सुन्दर एक प्रभात था। दिन आलस से भरा, अवसाद से पूर्ण, फिर भी मनोरंजकता थी। प्रवृत्ति थी। पलाश के वृक्ष लाल हो रहे थे। नयी-नयी पत्तियों के आने पर भी जंगली वृक्षों में घनापन न था। पवन बौखलाया हुआ सबसे धक्कम-धुक्की कर रहा था। पहाड़ी के नीचे एक झील-सी थी, जो बरसात में भर जाती है। आजकल खेती हो रही थी। पत्थरों के ढोकों से उनकी समानी बनी हुई थी, वहीं एक नाले का भी अन्त होता था। यमुना एक ढोके पर बैठ गयी। पास ही हैंडबैग धरा था। वह पिछड़ी हुई औरतों के आने की बाट जोह रही थी और विजय शैलपथ से ऊपर सबके आगे चढ़ रहा था।

किशोरी और उसकी सहेलियाँ भी आ गयीं। एक सुन्दर झुरमुट था, जिसमें सौन्दर्य और सुरुचि का समन्वय था। शहनाई के बिना किशोरी का कोई उत्साह पूरा न होता था, बाजे-गाजे से पूजा करने की मनौती थी। वे बाजे वाले भी ऊपर पहुँच चुके थे। अब प्रधान आक्रमणकारियों का दल पहाड़ी पर चढ़ने लगा। थोड़ी ही देर में पहाड़ी पर संध्या के रंग-बिरंगे बादलों का दृश्य दिखायी देने लगा। देवी का छोटा-सा मन्दिर है, वहीं सब एकत्र हुए। कपूरी, बादामी, फिरोजी, धानी, गुलेनार रंग के घूँघट उलट दिये गये। यहाँ परदे के आवश्यकता न थी। भैरवी के स्वर, मुक्त होकर पहाड़ी के झरनों की तरह निकल रहे थे। सचमुच, वसन्त खिल उठा। पूजा के साथ ही स्वतंत्र रूप से ये सुन्दरियाँ भी गाने लगीं। यमुना चुपचाप कुरैये की डाली के नीचे बैठी थी। बेग का सहारा लिये वह धूप में अपना मुख बचाये थी। किशोरी ने उसे हठ करके गुलेनार चादर ओढ़ा दी। पसीने से लगकर उस रंग ने यमुना के मुख पर अपने चिह्न बना दिये थे। वह बड़ी सुन्दर रंगसाजी थी। यद्यपि उसके भाव आँखों के नीचे की कालिमा में करुण रंग में छिप रहे थे; परन्तु उस समय विलक्षण आकर्षण उसके मुख पर था। सुन्दरता की होड़ लग जाने पर मानसिक गति दबाई न जा सकती थी। विजय जब सौन्दर्य में अपने को अलग न रख सका, वह पूजा छोड़कर उसी के समीप एक विशालखण्ड पर जा बैठा। यमुना भी सम्भलकर बैठ गयी थी।

'क्यों यमुना! तुमको गाना नहीं आता बातचीत आरम्भ करने के ढंग से विजय ने कहा।

'आता क्यों नहीं, पर गाना नहीं चाहती हूँ।'

'क्यों?'

'यों ही। कुछ करने का मन नहीं करता।'

'कुछ भी?'

'कुछ नहीं, संसार कुछ करने योग्य नहीं।'

'फिर क्या?'

'इसमें यदि दर्शक बनकर जी सके, तो मनुष्य के बड़े सौभाग्य की बात है।'

'परन्तु मैं केवल इसे दूर से नहीं देखना चाहता।'

'अपनी-अपनी इच्छा है। आप अभिनय करना चाहते हैं, तो कीजिये; पर यह स्मरण रखिये कि सब अभिनय सबके मनोनुकूल नहीं होते।'

'यमुना, आज तो तुमने रंगीन साड़ी पहनी है, बड़ी सुन्दर लग रही है!'

'क्या करूँ विजय बाबू! जो मिलेगा वहीं न पहनूँगी।' विरक्त होकर यमुना ने कहा।

विजय को रुखाई जान पड़ी, उसने भी बात बदल दी। कहा, 'तुमने तो कहा था कि तुमको जिस वस्तु की आवश्यकता होगी, मैं दूँगी, यहाँ मुझे कुछ आवश्यकता है।'

यमुना भयभीत होकर विजय के आतुर मुख का अध्ययन करने लगी। कुछ न बोली। विजय ने सहमकर कहा, 'मुझे प्यास लगी है।'

यमुना ने बैग से एक छोटी-सी चाँदी की लुटिया निकाली, जिसके साथ पतली रंगीन डोरी लगी थी। वह कुरैया के झुरमुट के दूसरी ओर चली गई। विजय चुपचाप सोचने लगा; और कुछ नहीं, केवल यमुना के स्वच्छ कपोलों पर गुलेनार रंग की छाप। उन्मत्त हृदय-किशोर हृदय स्वप्न देखने लगा-ताम्बूल राग-रंजित, चुंबन अंकित कपोलों का! वह पागल हो उठा।

यमुना पानी लेकर आयी, बैग से मिठाई निकालकर विजय के सामने रख दी। सीधे लड़के की तरह विजय ने जलपान किया, तब पूछा, 'पहाड़ी के ऊपर ही तुम्हें जल मिला, यमुना?'

'यहीं तो, पास ही एक कुण्ड है।'

'चलो तुम दिखला दो।'

दोनों कुरैये के झुरमुट की ओट में चले। वहाँ सचमुच एक चौकोर पत्थर का कुण्ड था, उसमें जल लबालब भरा था। यमुना ने कहा, 'मुझसे यही एक टंडे ने कहा है कि यह कुण्डा जाड़ा, गर्मी, बरसात सब दिनों में बराबर भरा रहता है; जितने आदमी चाहें इसमें जल पियें, खाली नहीं होता। यह देवी का चमत्कार है। इसी में विंध्यवासिनी देवी से कम इन पहाड़ी झीलों की देवी का मान नहीं है। बहुत दूर से लोग यहाँ आते हैं।'

'यमुना, है बड़े आश्चर्य की बात! पहाड़ी के इतने ऊपर भी यह जल कुण्ड सचमुच अद्भुत है; परन्तु मैंने और भी ऐसा कुण्ड देखा है, जिसमें कितने ही जल पियें, वह भरा ही रहता है!'

'सचमुच! कहाँ पर विजय बाबू?'

'सुन्दरी में रूप का कूप!' कहकर विजय यमुना के मुख को उसी भाँति देखने लगा, जैसे अनजान में ढेला फेंककर बालक चोट लगने वाले को देखता है।

'वाह विजय बाबू! आज-कल साहित्य का ज्ञान बढ़ा हुआ देखती हूँ!' कहते हुए यमुना ने विजय की ओर देखा, जैसे कोई बड़ी-बूढ़ी नटखट लड़के को संकेत से झिड़कती हो।

विजय लज्जित हो उठा। इतने में 'विजय बाबू' की पुकार हुई, किशोरी बुला रही थी। वे दोनों देवी के सामने पहुँचे। किशोरी मन-ही-मन मुस्कुराई। पूजा समाप्त हो चुकी थी। सबको चलने के लिए कहा गया। यमुना ने बैग उठाया। सब उतरने लगे। धूप कड़ी हो गयी थी, विजय ने अपना छाता खोल लिया। उसकी बार-बार इच्छा होती थी कि वह यमुना से इसी की छाया में चलने को कहे; पर साहस न होता। यमुना की एक-दो लटें पसीने से उसके सुन्दर भाल पर चिपक गयी थीं। विजय उसकी विचित्र लिपि को पढ़ते-पढ़ते पहाड़ी से नीचे उतरा।

सब लोग काशी लौट आये।

जयशंकर प्रसाद कृत उपन्यास "कंकाल" का पहला खंड समाप्त। दूसरे खंड के लिए आगे बढें।