कंकाल / प्रथम खंड / भाग 6 / जयशंकर प्रसाद

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आज बड़ा समारोह है। निरंजन चाँदी के पात्र निकालकर दे रहा है-आरती, फूल, चंगेर, धूपदान, नैवेद्यपात्र और पंचपात्र इत्यादि माँज-धोकर साफ किये जा रहे हैं। किशोरी मेवा, फल, धूप, बत्ती और फूलों की राशि एकत्र किये उसमें सजा रही है। घर के सब दास-दासियाँ व्यस्त हैं। नवागत युवती घूँघट निकाले एक ओर खड़ी है।

निरंजन ने किशोरी से कहा, 'सिंहासन के नीचे अभी धुला नहीं है, किसी से कह दो कि वह स्वच्छ कर दे।'

किशोरी ने युवती की ओर देखकर कहा, 'जा उसे धो डाल!'

युवती भीतर पहुँच गयी। निरंजन ने उसे देखा और किशोरी से पूछा, 'यह कौन है?'

किशोरी ने कहा, 'वही जो उस दिन रखी गयी है।'

निरंजन ने झिड़ककर कहा, 'ठहर जा, बाहर चल।' फिर कुछ क्रोध से किशोरी की ओर देखकर कहा, 'यह कौन है, कैसी है, देवगृह में जाने योग्य है कि नहीं, समझ लिया है या यों ही जिसको हुआ कह दिया।'

'क्यों, मैं उसे तो नहीं जानती।'

'यदि अछूत हो, अंत्यज हो, अपवित्र हो?'

'तो क्या भगवान् उसे पवित्र नहीं कर देंगे आप तो कहते हैं कि भगवान् पतित-पावन हैं, फिर बड़े-बड़े पापियों को जब उद्धार की आशा है, तब इसको क्यों वंचित किया जाये कहते-कहते किशोरी ने रहस्य भरी मुस्कान चलायी।

निरंजन क्षुब्ध हो गया, परन्तु उसने कहा, 'अच्छा शास्त्रार्थ रहने दो। इसे कहो कि बाहर चली जाये।' निरंजन की धर्म-हठ उत्तेजित हो उठी थी।

किशोरी ने कुछ कहा नहीं, पर युवती देवगृह के बाहर चली गई और एक कोने में बैठकर सिसकने लगी। सब अपने कार्य में व्यस्त थे। दुखिया के रोने की किसे चिन्ता थी! वह भी जी हल्का करने के लिए खुलकर रोने लगी। उसे जैसे ठेस लगी थी। उसका घूँघट हट गया था। आँखों से आँसू की धारा बह रही थी। विजय, जो दूर से यह घटना देख रहा था, इस युवती के पीछे-पीछे चला आया था-कुतूहल से इस धर्म के क्रूर दम्भ को एक बार खुलकर देखने और तीखे तिरस्कार से अपने हृदय को भर लेने के लिए; परन्तु देखा तो वह दृश्य, जो उसके जीवन में नवीन था-एक कष्ट से सताई हुई सुन्दरी का रुदन!

विजय के वे दिन थे, जिसे लोग जीवन बसंत कहते हैं। जब अधूरी और अशुद्ध पत्रिकाओं के टूटे-फूटे शब्दों के लिए हृदय में शब्दकोश प्रस्तुत रहता है। जो अपने साथ बाढ़ में बहुत-सी अच्छी वस्तु ले आता है और जो संसार को प्यारा देखने का चश्मा लगा देता है। शैशव से अभ्यस्त सौन्दर्य को खिलौना समझकर तोड़ना ही नहीं, वरन् उसमें हृदय देखने की चाट उत्पन्न करता है। जिसे यौवन कहते हैं-शीतकाल में छोटे दिनों में घनी अमराई पर बिछलती हुई हरियाली से तर धूर के समान स्निग्ध यौवन!

इसी समय मानव-जीवन में जिज्ञासा जगती है। स्नेह, संवेदना, सहानुभूति का ज्वार आता है। विजय का विप्लवी हृदय चंचल हो गया। उसमें जाकर पूछा, 'यमुना, तुम्हें किसी ने कुछ कहा है?'

यमुना निःसंकोच भाव से बोली, 'मेरा अपराध था।'

'क्या अपराध था यमुना?'

'मैं देव-मन्दिर में चली गयी थी।'

'तब क्या हुआ?'

'बाबाजी बिगड़ गये।'

'रो मत, मैं उनसे पूछूँगा।'

'मैं उनके बिगड़ने पर नहीं रोती हूँ, रोती हूँ तो अपने भाग्य पर और हिन्दू समाज की अकारण निष्ठुरता पर, जो भौतिक वस्तुओं में तो बंटा लगा ही चुका है, भगवान पर भी स्वतंत्र भाग का साहस रखता है!'

क्षणभर के लिए विजय विस्मय-विमुग्ध रहा, यह दासी-दीन-दुखिया, इसके हृदय में इतने भाव उसकी सहानुभूति उच्छृंखल हो उठी, क्योंकि यह बात उसके मन की थी। विजय ने कहा, 'न रो यमुना! जिसके भगवान् सोने-चाँदी से घिरे रहते हैं, उनको रखवाली की आवश्यकता होती है।'

यमुना की रोती आँखें हँस पड़ीं, उसने कृतज्ञता की दृष्टि से विजय को देखा। विजय भूलभुलैया में पड़ गया। उसने स्त्री की-एक युवती स्त्री की-सरल सहानुभूति कभी पाई न थी। उसे भ्रम हो गया जैसे बिजली कौंध गयी हो। वह निरंजन की ओर चला, क्योंकि उसकी सब गर्मी निकालने का यही अवसर था।

निरंजन अन्नकूट के सम्भार में लगा था। प्रधान याजक बनकर उत्सव का संचालन कर रहा था। विजय ने आते ही आक्रमण कर दिया, 'बाबाजी आज क्या है?'

निरंजन उत्तेजित तो था ही, उसने कहा, 'तुम हिन्दू हो कि मुसलमान नहीं जानते, आज अन्नकूट है।'

'क्यों, क्या हिन्दू होना परम सौभाग्य की बात है? जब उस समाज का अधिकांश पददलित और दुर्दशाग्रस्त है, जब उसके अभिमान और गौरव की वस्तु धरापृष्ठ पर नहीं बची-उसकी संस्कृति विडम्बना, उसकी संस्था सारहीन और राष्ट्र-बौद्धों के सदृश बन गया है, जब संसार की अन्य जातियाँ सार्वजनिक भ्रातृभाव और साम्यवाद को लेकर खड़ी हैं, तब आपके इन खिलौनों से भला उसकी सन्तुष्टि होगी?'

'इन खिलौनों'-कहते-कहते इसका हाथ देवविग्रह की ओर उठ गया था। उसके आक्षेपों का जो उत्तर निरंजन देना चाहता था, वह क्रोध के वेग में भूल गया और सहसा उसने कह दिया, 'नास्तिक! हट जा!'

विजय की कनपटी लाल हो गयी, बरौनियाँ तन गयीं। वह कुछ बोलना ही चाहता था कि मंगल ने सहसा आकर हाथ पकड़ लिया और कहा, 'विजय!'

विद्रोही वहाँ से हटते-हटते भी मंगल से यह कहे बिना नहीं रहा, धर्म के सेनापति विभीषिका उत्पन्न करके साधारण जनता से अपनी वृत्ति कमाते हैं और उन्हीं को गालियाँ भी सुनाते हैं, गुरुडम कितने दिनों तक चलेगा, मंगल?'

मंगल विवाद को बचाने के लिए उसे घसीटता ले चला और कहने लगा, 'चलो, हम तुम्हारा शास्त्रार्थ-निमंत्रण स्वीकार करते हैं।' दोनों अपने कमरे की ओर चले गये।

निरंजन पल भर में आकाश से पृथ्वी पर आ गया। वास्तविक वातावरण में क्षोभ और क्रोध, लज्जा और मानसिक दुर्बलता ने उसे चैतन्य कर दिया। निरंजन को उद्विग्न होकर उठते देख किशोरी, जो अब तक स्तब्ध हो रही थी, बोल उठी, 'लड़का है!'

निरंजन ने वहाँ से जाते-जाते कहा, 'लड़का है तो तुम्हारा है, साधुओं को इसकी चिंता क्या?' उसे अब भी अपने त्याग पर विश्वास था।

किशोरी निरंजन को जानती थी, उसने उन्हें रोकने का प्रयत्न नहीं किया। वह रोने लगी।

मंगल ने विजय से कहा, 'तुमको गुरुजनों का अपमान नहीं करना चाहिए। मैंने बहुत स्वाधीन विचारों को काम में ले आने की चेष्टा की है, उदार समाजों में घूमा-फिरा हूँ; पर समाज के शासन-प्रश्न पर और असुविधाओं में सब एक ही से दिख पड़े। मैं समाज में बहुत दिनों तक रहा, उससे स्वतंत्र होकर भी रहा; पर सभी जगह संकीर्णता है, शासन के लिए; क्योंकि काम चलाना पड़ता है न! समाज में एक-से उन्नत और एक-सी मनोवृत्ति वाले मनुष्य नहीं, सबको संतुष्ट और धर्मशील बनाने के लिए धार्मिक समस्याएँ कुछ-न-कुछ उपाय निकाला करती हैं।'

'पर हिन्दुओं के पास निषेध के अतिरिक्त और भी कुछ है? यह मत करो, वह मत करो, पाप है। जिसका फल यह हुआ कि हिन्दुओं को पाप को छोड़कर पुण्य कहीं दिखलायी ही नहीं पड़ता।' विजय ने कहा।

'विजय! प्रत्येक संस्थाओं का कुछ उद्देश्य है, उसे सफल करने के लिए कुछ नियम बनाये जाते हैं। नियम प्रातः निषेधात्मक होते हैं, क्योंकि मानव अपने को सब कुछ करने का अधिकारी समझता है। कुल थोड़े-से सुकर्म है और पाप अधिक हैं; जो निषेध के बिना नहीं रुक सकते। देखो, हम किसी भी धार्मिक संस्था से अपना सम्बन्ध जोड़ लें, तो हमें उसकी कुछ परम्पराओं का अनुकरण करना ही पड़ेगा। मूर्तिपूजा के विरोधियों ने भी अपने-अपने अहिन्दू सम्प्रदायों में धर्म-भावना के केन्द्र स्वरूप कोई-न-कोई धर्म-चिह्न रख छोड़ा है। जिन्हें वे चूमते हैं, सम्मान करते हैं और उसके सामने सिर झुकाते हैं। हिन्दुओं ने भी अपनी भावना के अनुसार जन-साधारण के हृदय में भेदभाव करने का मार्ग चलाया है। उन्होंने मानव जीवन में क्रम-विकास का अध्ययन किया है। वे यह नहीं मानते कि हाथ-पैर, मुँह-आँख और कान समान होने से हृदय भी एक-सा होगा। और विजय! धर्म तो हृदय से आचरित होता है न, इसलिए अधिकार भेद है।'

'तो फिर उसमें उच्च विचार वाले लोगों को स्थान नहीं, क्योंकि समता और विषमता का द्वन्द्व उसके मूल में वर्तमान है।'

'उनसे तो अच्छा है, जो बाहर से साम्य की घोषणा करके भी भीतर से घोर विभिन्न मत के हैं और वह भी स्वार्थ के कारण! हिन्दू समाज तुमको मूर्ति-पूजा करने के लिए बाध्य नहीं करता, फिर तुमको व्यंग्य करने का कोई अधिकार नहीं। तुम अपने को उपयुक्त समझते हो, तो उससे उच्चतर उपासना-प्रणाली में सम्मिलित हो जाओ। देखो, आज तुमने घर में अपने इस काण्ड के द्वारा भयानक हलचल मचा दी है। सारा उत्सव बिगड़ गया है।'

अब किशोरी भीतर चली गयी, जो बाहर खड़ी हुई दोनों की बातें सुन रही थी। वह बोली, 'मंगल ने ठीक कहा है। विजय, तुमने अच्छा काम नहीं किया। सब लोगों का उत्साह ठण्डा पड़ गया। पूजा का आयोजन अस्त-व्यस्त हो गया।' किशोरी की आँखें भर आयी थीं, उसे बड़ा क्षोभ था; पर दुलार के कारण विजय को वह कुछ कहना नहीं चाहती थी।

मंगल ने कहा, 'माँ! विजय को साथ लेकर हम इस उत्सव को सफल बनाने का प्रयत्न करेंगे, आप अपने को दुःखी न कीजिये।'

किशोरी प्रसन्न हो गयी। उसने कहा, 'तुम तो अच्छे लड़के हो। देख तो विजय! मंगल की-सी बुद्धि सीख!'

विजय हँस पड़ा। दोनों देव मन्दिर की ओर चले।

नीचे गाड़ी की हरहराहट हुई, मालूम हुआ निरंजन स्टेशन चला गया।

उत्सव में विजय ने बड़े उत्साह से भाग लिया; पर यमुना सामने न आयी, तो विजय के सम्पूर्ण उत्साह के भीतर यह गर्व हँस रहा था कि मैंने यमुना का अच्छा बदला निरंजन से लिया।

किशोरी की गृहस्थी नये उत्साह से चलने लगी। यमुना के बिना वह पल भर भी नहीं रह सकती। जिसको जो कुछ माँगना होता, यमुना से कहता। घर का सब प्रबन्ध यमुना के हाथ में था। यमुना प्रबन्धकारिणी और आत्मीय दासी भी थी।

विजयचन्द्र के कमरे का झाड़-पोंछ और रखना-उठाना सब यमुना स्वयं करती थी। कोई दिन ऐसा न बीतता कि विजय को उसकी नयी सुरुचि का परिचय अपने कमरे में न मिलता। विजय के पान खाने का व्यसन बढ़ चला था। उसका कारण था यमुना के लगाये स्वादिष्ट पान। वह उपवन से चुनकर फूलों की माला बना लेती। गुच्छे सजाकर फूलदान में लगा देती। विजय की आँखों में उसका छोटे-से-छोटा काम भी कुतूहल मिश्रित प्रसन्नता उत्पन्न करता; पर एक बात से अपने को सदैव बचाती रही-उसने अपना सामना मंगल से न होने दिया। जब कभी परसना होता-किशोरी अपने सामने विजय और मंगल, दोनों को खिलाने लगती। यमुना अपना बदन समेटकर और लम्बा घूँघट काढ़े हुए परस जाती। मंगल ने कभी उधर देखने की चेष्टा भी न की, क्योंकि वह भद्र कुटुम्ब के नियमों को भली-भाँति जानता था। इसके विरुद्ध विजयचन्द्र ऊपर से न कहकर, सदैव चाहता कि यमुना से मंगल परिचित हो जाये और उसकी यमुना की प्रतिदिन की कुशलता की प्रकट प्रशंसा करने का अवसर मिले।

विजय को इन दोनों रहस्यपूर्ण व्यक्तियों के अध्ययन का कुतूहल होता। एक ओर सरल, प्रसन्न, अपनी व्यवस्था से संतुष्ट मंगल, दूसरी ओर सबको प्रसन्न करने की चेष्टा करने वाली यमुना का रहस्यपूर्ण हँसी। विजय विस्मित था। उसके युवक-हृदय को दो साथी मिले थे-एक घर के भीतर, दूसरा बाहर। दोनों ही संयत भाव के और फूँक-फूँककर पैर रखने वाले! इन दोनों से मिल जाने की चेष्टा करता।

एक दिन मंगल और विजय बैठे हुए भारतीय इतिहास का अध्ययन कर रहे थे। कोर्स तैयार करना था। विजय ने कहा, 'भाई मंगल! भारत के इतिहास में यह गुप्त-वंश भी बड़ा प्रभावशाली था; पर उसके मूल पुरुष का पता नही चलता।'

'गुप्त-वंश भारत के हिन्दू इतिहास का एक उज्ज्वल पृष्ठ है। सचमुच इसके साथ बड़ी-बड़ी गौरव-गाथाओं का सम्बन्ध है।' बड़ी गंभीरता से मंगल ने कहा।

'परन्तु इसके अभ्युदय में लिच्छिवियों के नाश का बहुत कुछ अंश है, क्या लिच्छिवियों के साथ इन लोगों ने विश्वासघात नहीं किया?' विजय ने पूछा।

'हाँ, वैसा ही उनका अन्त भी तो हुआ। देखो, थानेसर के एक कोने से एक साधारण सामन्त-वंश गुप्त सम्राटों से सम्बन्ध जोड़ लेने में कैसा सफल हुआ। और क्या इतिहास इसका साक्षी नहीं है कि मगध के गुप्त सम्राटों को बड़ी सरलता से उनके मानवीय पद से हटाकर ही हर्षवर्धन उत्तरा-पथेश्वर बन गया था। यह तो ऐसे ही चला करता है।' मंगल ने कहा।

'तो ये उनसे बढ़कर प्रतारक थे; वह वर्धन-वंश भी-' विजय और कुछ कहना चाहता ही था कि मंगल ने रोककर कहा, 'ठहरो विजय! वर्धनों के प्रति ऐसे शब्द कहना कहाँ तक संगत है तुमको मालूम है कि ये अपना पाप छिपाना भी नहीं चाहते। देखो, यह वही यंत्र है, जिसे तुमने फेंक दिया था। जो कुछ इसका अर्थ प्रोफेसर देव ने किया है, उसे देखो तो-' कहते-कहते मंगल ने जेब से निकालकर अपना यंत्र और उसके साथ एक कागज फेंक दिया। विजय ने यंत्र तो न उठाया, कागज उठाकर पढ़ने लगा-'शकमण्डलेवर महाराजपुत्र राज्यवर्धन इस लेख के द्वारा यह स्वीकार करते हैं कि चन्द्रलेखा का हमारा विवाह-सम्बन्ध न होते हुए भी यह परिणीता वधु के समान पवित्र और हमारे स्नेह की सुन्दर कहानी है, इसलिए इसके वंशधर साम्राज्य में वही सम्मान पावेंगे, जो मेरे वंशधरों को साधारणतः मिलता है।'

विजय के हाथ से पत्र गिर पड़ा। विस्मय से उसकी आँखें बड़ी हो गयीं। वह मंगल की ओर एक टक निहारने लगा। मंगल ने कहा, 'क्या है विजय?'

'पूछते हो क्या है! आज एक बड़ा भारी आविष्कार हुआ है, तुम अभी तक नहीं समझ सके। आश्चर्य है! क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकल सकता कि तुम्हारी नसों में वही रक्त है, जो हर्षवर्धन की धमनियों में प्रवाहित था?'

'यह अच्छी दूर की सूझी! कहीं मेरे पूर्व-पुरुषों को यह मंगल-सूचक यंत्र में समझाकर बिना जाने-समझे तो नहीं दे दिया गया था इसमें...'

'ठहरो, यदि मैं इस प्रकार समझूँ, तो क्या बुरा कि यह चन्द्रलेखा के वंशधरों के पास वंशानुक्रम से चला आया हो और पीछे यह शुभ समझकर उस कुल के बच्चों को ब्याह होने तक पहनाया जाता रहा हो। तुम्हारे यहाँ उसका व्यवहार भी तो इसी प्रकार रहा है।'

मंगल के सिर में विलक्षण भावनाओं की गर्मी से पसीना चमकने लगा। फिर उसने हँसकर कहा, 'वाह विजय! तुम भी बड़े भारी परिहास रसिक हो!' क्षण भर में भारी गंभीरता चली गयी, दोनों हँसने लगे।