कला / चित्रशाला / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
नेटफ्लिक्स की फ़िल्म 'कला' में 1940 के दशक का कलकत्ता और उसकी म्यूजिक इंडस्ट्री प्रदर्शित है। फ़िल्म एक युवा गायिका के बारे में है, जो अपने हीनताबोध को भरने के लिए किसी भी क़ीमत पर सफल होना चाहती है। इसके लिए उसे हत्या की साज़िश करने और स्वयं को पुरुषों के सम्मुख प्रस्तुत करने से भी ऐतराज़ नहीं है। वह सफल हो जाती है, किन्तु अन्त में अवसादग्रस्त होकर आत्मघात कर बैठती है। उसकी माँ के साथ उसका संबंध भी बहुत ग्रंथिपूर्ण है। दो घंटे की फ़िल्म अगर इस कहानी को सुनाएगी तो उसके लिए मेलोड्रामा से बचना असम्भव है। आज भारतीय सिनेमा के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि मेलोड्रामा- जिसकी एक लम्बी परम्परा उसके यहाँ रही है, राज कपूर से संजय लीला भंसाली तक- से कैसे बचें। छायांकन वग़ैरह तो अब भारतीय सिनेमा में विश्वस्तरीय हो गया है। लेकिन वह कॉमिक और लुम्पेन तत्त्वों (जिससे आज ओ.टी.टी. प्लैटफ़ॉर्म भरा पड़ा है) का चित्रण करने में जितना सहज रहता है, उतना जटिल मनोभावों के पोर्ट्रेयल में नहीं हो सका है- गाहे-बगाहे वह क्लीशे और प्रिडेक्टिबिलिटी में गिरता रहता है।
'कला' में जो भावना अंडरकरंट की तरह बहती है, वह है- एम्बिशन। यह महत्त्वाकांक्षा कुंठा से उपजती है और हिंसा रचती है। यह हिंसा सबसे पहले स्वयं के प्रति होती है, फिर औरों के प्रति। इस फ़िल्म में दुर्दम्य महत्त्वाकांक्षा की वह भावना एक लाइव-वायर की तरह है, जिसके कारण उसकी नायिका को वल्नरेबल हो ही जाना था। अभिनेत्री ने इसे अच्छे से निभा लिया। हम सफल होना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि लोग हमें जानें और सराहें। लेकिन क्यों? दूसरे हमारे बारे में वैसा कौन-सा वक्तव्य दे सकते हैं, जो हमारी स्वयं के प्रति धारणा से अधिक प्रगाढ़ और प्रामाणिक हो? और अगर हमें सराहनाओं के असंख्य शब्द भी मिल जाएँ, तब भी क्या वे हमारे भीतर के उस अभाव को भर सकेंगे, जो स्वयं की चेतना न होने से उपजता है? यही कारण है कि प्रसिद्ध व्यक्ति एकांत में और अकेला हो जाता है।
दो तरह के अहंकार होते हैं। एक है, विजेता का अहंकार। दूसरा है, पराजित का अहंकार। विजेता का अहंकार दम्भ है। पराजित का अहंकार कुंठा है। दम्भ सरलता से दीख जाता है, गर्वोक्तियों, डींगों, शेखियों में प्रकट होता है। कुंठा थोड़ी सूक्ष्म वस्तु है, उसकी अभिव्यक्तियाँ सामान्यतः पकड़ में नहीं आतीं। किन्तु होती है वह बड़ी मुखर। दम्भ कहता है, मैंने कर दिखाया। कुंठा कहती है, मुझे करने का अवसर नहीं मिला, क्षमता पूरी थी। दम्भ कहता है, मैंने जीत लिया। कुंठा कहती है, मुझे हरा दिया गया, पर न्याय न हुआ। दम्भ कहता है, मैंने पा लिया। कुंठा कहती है, मुझे मिला नहीं, पर मुझी को क्यों न मिला किसी और को क्यों मिला? दम्भ देर-सबेर गल जाता है। जीवन की चक्की में आज नहीं तो कल सभी पिसते हैं। कुंठा का गलना थोड़ा दुष्कर है। यह विषबेल है। यह गलाती अधिक है। किन्तु प्रश्न यही है कि वह कौन है जो सफलता से पुष्ट और विफलता से क्लान्त होता है? जिसे कृष्णमूर्ति स्ट्रक्चर ऑफ़ इगो कहते हैं, उसका निर्माण किन घटकों से होता है? यह कब, कैसे बना था, कैसे उसको रात-दिन पोसा गया है- जैसे कोई अपने घावों को कुरेदकर उनको हरा रखता है? अहंकार एक गाँठ है, इसे नित्यप्रति कोई आलम्बन चाहिए। मैं कुछ हूँ, यह बताने की भूख, जबकि यह स्वयं नहीं जानता कि यह कौन है।
फ़िल्म 'कला' अपने बहिरंग में बड़ी स्मृतिजन्य है। उसकी फ्रेम्स और कम्पोज़िशंस बेजोड़ हैं। आप उसके दृश्यालेख को बार-बार रोककर निहारना चाहेंगे। उसका संगीत तो अत्यंत सुंदर है, जिसे ख़ूबसूरत बोलों से सजाया गया है। लेकिन फ़िल्म का अन्तरंग दुर्बल है। कैरेक्टर्स खड़े नहीं होते हैं। एक अच्छी कहानी वह होती है, जो अपने किरदारों की कशमकश को विश्वसनीय तरीक़े से उभारती है। 'कला' में इस अंदरूनी तर्क की अनेक बार क्षति हुई है, जिसे- अगर इसे विदेशी फ़िल्म समारोहों में प्रदर्शन के लिए भेजा गया तो- पकड़ने से सिद्धहस्त समालोचक चूकेंगे नहीं। एक ठुमरी गायिका जो अपनी बेटी में अपनी महत्वाकांक्षाओं को रोपना चाहती है, एक दिन अचानक किसी अनजान युवक को अपने घर ले आती है। केवल इसलिए कि वह बेटी से अधिक प्रतिभाशाली है? या इसलिए कि ठुमरी गायिका को बेटे की चाह थी और बेटी की वजह से गर्भ में ही जुड़वाँ बेटे का जीवन समाप्त हुआ, इस वजह से उसके मन में बेटी के प्रति द्वेष है?
वह बेटी को तुरंत हाशिए पर धकेलकर उस युवा गायक को निखारने लगती है। उसके सामने प्रश्न यह है कि पिता की परम्परा आगे बढ़े या माँ की परम्परा? अगर उसको लगता है कि पिता की परम्परा को बेटा ही आगे बढ़ाएगा- चाहे दत्तक पुत्र हो- तब यह एक फ़ेमिनिस्ट थीम हो गई। इसे उभारकर तब बेटी का सशक्त चरित्र-चित्रण करना स्वत: तर्कपूर्ण हो जाता। किन्तु बेटी को प्रतिभाहीन, कुंठित और समझौतापरस्त दिखलाकर फ़िल्म ने अपने बुनियादी आधार को स्वयं ही भंग कर दिया। तब यह अविश्वसनीय कथानक बन जाता है। हीन भावना से ग्रस्त नायिका उस युवा गायक के सर्वनाश का प्रसंग रचती है। उसकी जगह लेने की कोशिश करती है। इसके लिए वह तमाम समझौते करने को तैयार है। वह डेस्पेरेट है। एक दृश्य में वह ठीक से गा नहीं पा रही है, नर्वस है और बारम्बार रीटेक हो रहे हैं। संगीत-निर्देशक उसकी दुर्बलता का लाभ उठाकर उसका यौन शोषण करता है, जिसके तुरंत बाद वह चहककर अच्छी तरह से गाने लगती है। भला कोई वल्नरेबल और नर्वस लड़की यौन-शोषण के मानसिक आघात के तुरंत बाद लय में कैसे गा सकती है? यह किस तरह का मनोवैज्ञानिक वर्णन या चरित्र-चित्रण है? इतनी सुंदरता से फ़िल्माई गई फ़िल्म का दारोमदार ऐसे कमज़ोर कैरेक्टर-पोर्ट्रेयल पर कैसे डाला जा सकता है?
फ़िल्म में नाहक़ ही इल्यूज़ंस दिए गए हैं। गायिका का कला नाम लता की याद दिलाता है। उसे लता की तरह दीदी भी कहा जाता है। महान गायिका से इस सादृश्यता की भला क्या आवश्यकता थी? फ़िल्म में सितारा-गायक चंदन लाल सान्याल है, यह नाम कुंदन लाल सहगल की ओर संकेत करता है। संगीतकार सुमन्त कुमार का नाम सुनकर हेमन्त कुमार याद आते हैं। एक गीतकार का नाम मजरूह है। एक अन्य गायिका नसीबन हैं, जो रसूलन बाई की याद दिलाती हैं। हमें बताया जाता है कि कला अगली फ़िल्म किन्हीं राय साहब के साथ करने जा रही थीं, जिसमें नायिका होंगी उनकी पत्नी। इशारा बॉम्बे टॉकीज़ के हिमांशु राय और देविका रानी की ओर है। युवा गायक को दूध में पारा मिलाकर पिला देने की कहानी मास्टर मदन की त्रासदी की याद दिलाती है। फ़िल्म में फ़ेमिनिस्ट थीम्स को अनमने ढंग से छूकर छोड़ दिया गया है (“नाम के आगे पंडित होना चाहिए, नाम के पीछे बाई नहीं"), क्योंकि निर्देशिका जानती हैं कि उनकाीय चरित्र दुर्बल है और दर्शक उसके साथ हमदर्दी नहीं जताएँगे। फ़िल्म के एक दृश्य में अपराध बोध से ग्रस्त नायिका बार-बार अपने हाथ धोती है, मानो ख़ून के दाग़ छुड़ा रही हो। यह शेक्सपीयर के ड्रामा 'मैकबेथ' से उठाया गया दृश्य है। फ़िल्म के कुछ दृश्य 'ब्लैक स्वैन' से प्रेरित हैं।
एक उपन्यास में जैसे किसी चरित्र के अंदरूनी डिटेल्स पर काम किया जाता है, वैसा फ़िल्म नहीं कर सकती- ये सच है। यही कारण है कि पश्चिम का ग्रेट सिनेमा फ़ीचर फ़िल्म की शैली को त्याग चुका है, जिसमें उसे पूरी कहानी सुनाना हो। वह एपिसोडिक और फ्रैग्मेंटेड होता है। एक स्थिति विशेष को उभारता है और उसमें रंग भरता है। लेकिन अगर आप दो घंटे में इतनी लम्बी कहानी सुनाएँगे, तो ब्लैकहोल सरीखी ग्रैविटी वाली कृति रचेंगे, जिसमें खिंचाव तो बहुत है, लेकिन उसी के चलते उसके तमाम प्रसंग आपस में गड्डमड्ड हो जाते हैं- जिस स्पेस में उनके डिटेल्स उभर सकते हैं वो खंख हो जाता है। और सिनेमा में स्पेस सबसे ज़रूरी चीज़ होती है- अंदरूनी लैंडस्केप और बाहर के दृश्यबंध- दोनों के परिप्रेक्ष्य में।