न्यूटन / चित्रशाला / नैनसुख / सुशोभित

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न्यूटन
सुशोभित


राजकुमार राव अभिनीत फ़िल्म ‘न्यूटन’ देखते समय मैं सोच रहा था कि फ़िल्म एक घनीभूत विडम्बना का सजीव चित्र तो सामने रखती है, लेकिन इस विडम्बना का केन्द्र कहाँ पर है। वह केन्द्र मालूम हो तभी फ़िल्म का मतलब हमारे सामने खुले। मैं फ़िल्म की वैसी 'सिम्प्लिस्टिक रीडिंग' नहीं करना चाहता था, जिसमें एक तरफ़ 'स्टेट पॉवर' होती है, उसका टूल 'आर्ल्ड फ़ोर्सेस' होती हैं, उनके सामने वंचित समुदाय हैं, और इस सबके बीच में प्रजातंत्र की प्रयोगशाला है, जो चुनावों के माध्यम से स्वयं को रूपायित कर रही है। यानी ये सब चीजें तो हैं ही, लेकिन फ़िल्म और भी कुछ कहती थी। पर क्या?

दृश्य यह है कि छत्तीसगढ़ के नक्सलाइट इलाक़े में एक मध्यवर्गीय नौजवान की इलेक्शन ड्यूटी लगी है। ये नौजवान भोपाल से है, लेकिन अभी उसका परिवार छत्तीसगढ़ चला गया है। नई-नई नौकरी लगी है, इसलिए ब्याह-शादी की तैयारियाँ भी चल रही हैं। भारत के क़स्बों में जैसे शिक्षित कर्मठ नवयुवक होते हैं, वैसा ही वह है। नौकरी लगने से जैसे वह गदगद है और अपना काम ईमानदारी से करने के लिए कमर कसे हुए है। बेईमानी का डीएनए ऐसे नवयुवकों में होता नहीं। उनके पास नेकी का एक वैल्यू-सिस्टम होता है, जिस पर वो अडिग रहना चाहते हैं।

भारत में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। कुल 90 लाख पोलिंग बूथ लगाए गए हैं। इन्हीं में से एक बूथ छत्तीसगढ़ के सुदूर आदिवासी अंचल कोण्डनार में लगाया है, जहाँ 76 वोटर्स हैं (यह फ़िल्म दुर्ग जिले के दल्ली राजहरा में फ़िल्माई गई है)। नूतन कुमार- जिसने अपना नाम बदलकर न्यूटन कर लिया है क्योंकि नूतन सुनकर सब मखौल उड़ाते थे— को यहाँ प्रिसाइडिंग ऑफ़िसर बनाकर भेजा गया है। वहाँ सी.आर.पी.एफ़. के असिस्टेंट कमांडेंट आत्मा सिंह उसको मिलते हैं। उनकी कोई दिलचस्पी इलेक्शन करवाने में नहीं है। इसकी कोई तुक भी नहीं है। यहाँ के लोग तो इलेक्शन में खड़े नेताओं को जानते भी नहीं। उनकी दिलचस्पी दिल्ली की सियासत से ज़्यादा तेंदूपत्ता के दामों में है। प्रधानमंत्री का चुनाव हो रहा है, पर उनके लिए तो निकटस्थ पंचायत का सरपंच भी दूर का देवता है!

तिस पर यहाँ माओवादी सक्रिय हैं। वो चूंकि इंडियन स्टेट की मुखालफत करते हैं, इसलिए उसके चुनावों के भी विरोधी हैं। उम्मीदवारों की हत्या कर दी जाती है। जब-तब एम्बुश होती रहती हैं। आत्मा सिंह एक ऐसा इलेक्शन करवाने के लिए अपने जवानों की ज़िन्दगी दाँव पर नहीं लगाना चाहता, जिसकी लगभग किसी को ज़रूरत नहीं है, न ही जिससे परिदृश्य में कोई बदलाव आएगा। लेकिन दूसरी तरफ़ न्यूटन बाबू हैं, जिनको जब इलेक्शन ड्यूटी पर भेजा गया है, तो वह फ्री एंड फ़ेयर वोटिंग करवाए बिना यहाँ से जाएँगे नहीं।

तब विडम्बना का चित्र यह है कि भारतवर्ष के इस सुदूर आदिवासी अंचल में आकर प्रजातंत्र अपनी प्रासंगिकता पूरी तरह से गँवा चुका है। फिर भी इलेक्शन तो होना ही हैं। हेलीकॉप्टर से इलेक्शन टीम को अंचल में उतारा गया है। कैम्प से आठ किलोमीटर पैदल चलकर यह दल कोण्डनार पहुँचता है और वहाँ की प्राथमिक शाला में बूथ लगाता है। लेकिन कोई भी वोट डालने नहीं आता। आदमी मशीन तो है नहीं, जो बिना किसी परिणाम के परिश्रम करे। जो ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, पूरा करना ही है- इसके वशीभूत होकर एक न्यूटन ही आख़िर तक डटा रहता है, लेकिन जिस चीज़ को न्यूटन अपनी ज़िम्मेदारी समझता है, वह औरों के लिए समय की बर्बादी और बेकार का मानवीय श्रम है। आत्मा सिंह पूरे समय न्यूटन कुमार को संकेत करता रहता है कि इस सबसे कोई फ़ायदा नहीं है! इससे फ़िल्म में खिंचाव और तनाव आता है। एक क़िस्म का क्लास-स्ट्रगल उभरता है। फ़िल्म के अन्तिमतर दृश्य में आत्मा सिंह और न्यूटन कुमार एक-दूसरे के आमने-सामने ज़ोर-आज़माइश की मुद्रा में आ जाते हैं। इंडियन स्टेट के ये दो वफ़ादार कर्मचारी अपनी-अपनी ड्यूटी निभाते समय आख़िरकार परस्पर संघर्षरत क्यों हो गए- यही इस फ़िल्म में निहित विडम्बना है।

भारत को अपनी डेमोक्रेसी पर उचित ही गर्व है, लेकिन इस डेमोक्रेसी के स्वरूप में एक फाँक भी है, जो ऐसे प्रसंगों में उभरकर सामने आ जाती है। प्रजातंत्र का मतलब है, प्रजा अपने नेता चुनेगी। जब प्रजा ही अपने नेता को चुनेगी, तो उसके दुःखों-तक़लीफ़ों का निपटारा तो होना ही है। किन्तु प्रजातंत्र इतना प्रत्यक्ष नहीं होता है। इसमें जनता सीधे अपने प्रतिनिधि नहीं चुनती है। स्टेट और अवाम के बीच में एक और एजेंसी है, जिसका नाम पॉलिटिकल पार्टी है। यह एजेंसी संसदीय लोकतंत्र के सूत्र अपने हाथ में रखती है, जबकि कमाल की बात यह है कि भारतीय संविधान में राजनैतिक दलों के स्वरूप का कोई वर्णन ही नहीं है। शायद अब जाकर आप समझ सकें कि फ़िल्म में निहित विडम्बना का कहाँ पर है। यह कि लोग अपना जनप्रतिनिधि नहीं चुनते हैं। राजनैतिक दलों के द्वारा जिन नेताओं को उम्मीदवार बनाया जाता है, उनमें से किसी एक को चुनने के लिए वे विवश होते हैं। किन्तु अगर इनमें से वे किसी को अपना नेता नहीं मानें तो? तब उसको क्यों वोट करेंगे? अगर इनमें से कोई नेता उन्हें जानता नहीं, समझता नहीं, उनके प्रति सदाशय नहीं, इनमें से किसी को अपना मित्र नहीं समझता, तो इलेक्शन का उनके लिए क्या मतलब रह जाएगा? यहाँ प्रजा और तंत्र के बीच एक स्पष्ट विभाजन उभर आता है। संसदीय लोकतंत्र राजनीतिक दलों की स्वेच्छाचारिता का बंधक बन जाता है।

फ़िल्म में संजय मिश्रा ने इलेक्शन इंस्ट्रक्टर की भूमिका निभाई है। उनके रोल को कैमियो ही कहा जा सकता है- फ़िल्म की शुरुआत में ही उनकी चंद मिनटों की भूमिका है। किन्तु भारतीय चुनावों- जो कि दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक क़वायद हैं- की प्रकृति पर उनकी एक पंक्ति की टिप्पणी ग़ौरतलब है, “भले इलेक्शन में गुंडे चुनकर पार्लियामेंट चले जाएँ, लेकिन हम चुनावों में गुंडागर्दी नहीं होने देंगे!“ इसे आपको फ़िल्म में न्यस्त आइरनी पर एक सम्पूर्ण टिप्पणी समझना चाहिए।

फ़िल्म के नायक न्यूटन कुमार के व्यक्तित्व पर सबसे सटीक टिप्पणी भी संजय मिश्रा के ही हिस्से आई है। वह कहते हैं, “पता है न्यूटन जी, आपकी परेशानी क्या है? ईमानदारी का घमंड। आप किसी पर एहसान नहीं कर रहे हैं ईमानदार होकर, ये एक्सपेक्टेड है आपसे। और ईमानदारी से दिल हल्का होता है, दिल पर बोझ नहीं आता।"

लेकिन न्यूटन अराजकता के घटाटोप में अपनी निजी लड़ाई लड़ रहा है। और चूंकि उसकी लड़ाई निजी है, इसलिए दूसरों से उसका टकराव है। यह टकराव एक-दो दिन का नहीं है, दुनिया में इस तरह का मिज़ाज लेकर जीना जीवनभर के दलिद्दर को न्योता देना है। फ़िल्म का क्लाइमैक्स वाला दृश्य याद कीजिए। फ़र्ज़ी फ़ायरिंग के बाद जब बूथ बंद कर दिया जाता है, तब जंगल में चार आदिवासियों- जो वोट डालने आए थे- को देखकर न्यूटन बदहवास हो जाता है। वह कमांडेंट से रायफ़ल छीन लेता है और वोटिंग करवाता है। वह विक्षिप्तों की तरह बार-बार कहता है, 'वोटिंग होगी, वोटिंग होगी।”फिर जोड़ता है, “तीन बजने में दो मिनट का समय है। अभी रुकिए।”यहाँ पर सवाल डेमोक्रेसी का नहीं है, ड्यूटी निभाने का भी नहीं है, यह एक हारे हुए नौजवान का फ्रस्ट्रेशन है, और उसने कोण्डनार में वोटिंग करवाने को अपने लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। फ़िल्म का एक सबटेक्स्ट इस ऊपर से ईमानदार दिखाई देने वाले नौजवान के भीतर पैठा अवसाद भी है।

संतोष की बात है कि आज भारत में ऐसी फ़िल्में बनाई जा रही हैं। थिएटर से आए लोग उसमें काम कर रहे हैं। और फ़िल्म-माध्यम को समझने वाले लोगों को इसके लिए स्पेस दिया जा रहा है। जो क्रिटिक्स इस फ़िल्म की व्याख्या एक एंटी-स्टेट वक्तव्य की तरह करना चाहते हैं, उनके लिए एक और गहरी विडम्बना तब यह प्रस्तुत है कि न केवल यह फ़िल्म भारत में बनाई गई, प्रदर्शित हुई और सराही गई, बल्कि यह केन्द्र सरकार से एक करोड़ रुपए की ग्रांट पाने वाली भारत की पहली फ़िल्म भी है। इतना ही नहीं, इसे भारत की ओर अधिकृत रूप से ऑस्कर पुरस्कारों के लिए भी भेजा गया था।

पहले ही कह दिया था, हमें चीज़ों की सिम्प्लिस्टिक रीडिंग नहीं करनी चाहिए!