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सुशोभित
किसी चित्रकार का नाम नैनसुख हो, इससे सुंदर बात क्या होगी। चित्रकार की कृतियाँ प्रेक्षक के लिए नैनसुख का निमित्त तो होती ही हैं, संसार के प्रति एक रागात्मक चाक्षुष-रति (वोयुरिज़्म) से ग्रस्त हुए बिना भी कोई चित्रकार नहीं बन सकता। और जब किसी चित्रकार पर फ़िल्म बनाई जाए तो?
नैनसुख पहाड़ी-कांगड़ा शैली के चित्रकार थे। पहाड़ी चित्रकला के अग्रणी कलाकारों में देवीदास, लहरू, माणक, नैनसुख का नाम लिया जाता है। माणक और नैनसुख भाई थे और गुलेर (हिमाचल प्रदेश) में रहते थे। फिर नैनसुख जसरोटा (जम्मू-कश्मीर) चले गए और वहाँ के राजपूत राजा बलवंत सिंह के दरबार में काम करने लगे। उनकी कला का आधार मुग़ल क़लम थी, किन्तु उन्होंने वर्ण्य विषयों में हिन्दू प्रतीकों और कृति में निजी शैली का समावेश कर एक स्वायत्त कलारूप के रूप में इसे विकसित किया। नैनसुख की कला पर अमित दत्ता ने फ़िल्म बनाई है। एक घंटा बीस मिनट की फ़िल्म में कथानक और संवाद न के बराबर हैं, इसके स्थान पर नैनसुख के चित्रों का नाट्य रूपान्तर फ़िल्मकार ने असम्बद्ध दृश्यों के रूप में परदे पर प्रस्तुत किया है। यह प्रयोग अभिनव है। फ़िल्म इन अर्थों में एक सुंदर कलात्मक अनुभूति है। किन्तु वह एक फ़िल्म-निबंध है, नॉन-फ़िक्शन है। उसमें नैनसुख के जीवन का वैसा आख्यान नहीं है, जैसा आन्द्रे रूब्ल्योफ़ के जीवन पर निर्मित आन्द्रे तारकोव्स्की की फ़िल्म में है। तब फ़िल्म से नैनसुख का व्यक्तित्व उभरकर सामने नहीं आता, उनकी कला के विवरण अवश्य नए आलोक में उद्भूत होते हैं।
अमित दत्ता की फ़िल्में फ़ेस्टिवल सर्किट्स में ही दिखाई जाती हैं। सिनेमाघरों में तो रिलीज़ होने का प्रश्न नहीं, किन्तु अन्य माध्यमों पर भी वे सामान्यतः सुलभ नहीं हैं। मुबी ने ज़रूर एक बार उनकी फ़िल्मों को रेट्रोस्पेक्टिव दिखाया था। अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में अमित की बड़ी प्रतिष्ठा है, और वह वर्तमान में भारत के सबसे सराहे जाने वाले और पुरस्कृत आर्टहाउस फ़िल्मकार हैं, किन्तु उनकी फ़िल्मों के सुलभ न होने से वो लोकवृत्त में अपनी उत्तरजीविता नहीं पा सकी हैं। अमित का सिनेमा देखते समय आप अनुभव करते हैं कि मणि कौल की प्रेरणा उनके पीछे निरंतर गूँज रही है। तब आपके सामने अमित की कलादृष्टि का परिप्रेक्ष्य भी स्पष्ट हो जाता है। सत्यजित राय ने एक बार कटाक्ष करते हुए कहा था कि ऋत्विक घटक के सिनेमा में तो बहुत मेलोड्रामा है, किन्तु उनके चेलों का सिनेमा निष्प्राण और भावहीन बनकर रह गया है। वो मणि कौल और कुमार शहानी की ओर संकेत कर रहे थे। किन्तु इसका संदर्भ यह है कि जहाँ सत्यजित का फ़िल्म-ग्रामर यूरोपियन था और वे इतालवी नवयथार्थवाद और उसके लीनियर नैरेटिव से प्रेरित थे, वहीं ऋत्विक घटक सिनेमा को भारतीय-भावभूमि पर रचना चाहते थे। उनके यहाँ अतिनाटक और महाकाव्य की प्रविधि है। कालान्तर में जब उनसे प्रेरित भारतीय फ़िल्मकारों में आत्मचेतना आई तो उन्होंने यूरोपियन शैली को नकारने का सचेत प्रयास किया और भारतीय चित्रकला, लोकनाट्य, सांस्कृतिक-इतिहास और उसके प्रतीकों, पुराण-कथाओं और मिथकों से प्रेरणा पाई। चूँकि भारत में सिनेमा की कोई ऐतिहासिक परम्परा नहीं रही है, इसलिए एक भारतीय शैली की खोज में युवा फ़िल्मकार रंगमंच की ओर जाते हैं। उनकी फ़िल्में एक फ़िल्माए गए नाटक की तरह लगने लगती हैं। रॉबेर ब्रेसाँ ने थिएटर को सिनेमा से अलगाने का बहुत प्रयास किया था, किन्तु भारतीय तत्त्व की तलाश में फ़िल्मकार थिएटर की तरफ़ जा रहे हैं। वर्तुल इस तरह पूर्ण हो जाता है।
सत्यजित राय ने श्याम बेनेगल, ओपर्णा सेन, गौतम घोष, उत्पलेन्दु चक्रबर्ती को प्रेरित किया था। ऋत्विक घटक ने मणि कौल और कुमार शहानी को प्रेरित किया। इससे भारत के समान्तर सिनेमा में नियो-रियलिज्म और नियो-क्लासिसिज़्म की दो धाराएँ विकसित हुई हैं। गुरविंदर सिंह और अमित दत्ता जैसे आत्मचेतस कलाकार मणि कौल की धारा में आगे बढ़े हैं। अमित ने तो अपना स्वयं का एक ग्रामर अब विकसित कर लिया है, किन्तु अपने गुरु के गुरु (ऋत्विक घटक और फ़ेदरीको फ़ेलीनी) की तरह सिनेमा में मानव-प्रसंग और नाटकीयता का समावेश करना अभी उनका ध्येय नहीं बन सका है। यही कारण है कि अमित की फ़िल्मों के विजुअल्स सम्मोहक और लुभावने होने के बावजूद उनका अन्तिम प्रभाव वृत्तचित्रात्मक रहता है।
अमित के यहाँ भारतीय कला-सैद्धांतिकियों और सांस्कृतिक विरासतों का संदर्भ निरंतर बना रहता है। ‘नैनसुख' में भी पहाड़ी चित्रकला के विकास पर एक नैरेटिव का निर्माण चित्रों की सजीव प्रस्तुति के माध्यम से हुआ है। निजी मनोगत रूढ़ियों के अनेक सम्मोहक चित्र अमित के यहाँ हैं, जिनका प्रभाव हम पर स्वप्नभाषा सरीखा होता है। कैमरे की तरल स्वीपिंग पैनिंग भी उनके यहाँ बड़ी अनूठी। पर्सपेक्टिव में लो-एंगल, एक्स्ट्रीम हाई-एंगल, वाइड एंगल, हॉरिजॉन्टल और वर्टिकल ट्रैजेक्टरीज़ के माध्यम से वो अपने स्पेस को डिस्टॉर्ट करते रहते हैं, तीन आयामों के भीतर नए आयाम गूँथते रहते हैं। उनके यहाँ कैमरा अपनी पोज़िशन लगातार बदलता रहता है। बहुधा वह एक निश्चित दूरी से किसी बनैले जानवर की तरह अपने सब्जेक्ट पर नज़र रखता बरामद होता है। कभी-कभी उनकी कम्पोजिशंस की परिधियाँ और त्रिज्याएँ कमानी की तरह नर्म गोलाइयों में घूम जाती हैं। वह आईलाइन-मैचिंग से भरसक बचने का यत्न करते हैं, जबकि वह फ़िल्म मेकिंग की स्टैंडर्ड प्रैक्टिस है। अमित दत्ता का आर्टहाउस-सिनेमा फ़िल्म-रसिकों के लिए एक सुरुचि का प्रसंग सिद्ध होना चाहिए।