गमन / चित्रशाला / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
मुज़फ़्फ़र अली की फ़िल्म 'गमन' (1978) में लैंडस्केप का एक ऐसा तत्त्व उभरकर आया है, जो उस समय बनाई जा रही मुख्यधारा की हिन्दी फ़िल्मों के लिए दुर्लभ था। गाँव और शहर-गाँव यानी उत्तरप्रदेश का अंचल (कोटवारा), शहर यानी मुम्बई का महादैत्य! गाँव में जीवन है, शहर में रोज़गार। जीवित रहने के लिए जीवन को सम्भव बनाने वाली धरती का त्याग ज़रूरी था। विस्थापन की यह कहानी भारत के निम्न-मध्यवर्ग के लिए जानी-पहचानी है, जिन्होंने रोज़ी-रोटी कमाने के लिए अपने देश-मुल्क को त्याग दिया। लेकिन यह वस्तुसत्य सिनेमा में जैसे 'गमन' में प्रदर्शित हुआ है, वैसे उससे पहले नहीं हुआ था। कालान्तर में सई परांजपे ने लगभग इसी लीक पर 'दिशा' बनाकर एक अनमना प्रयास किया, पर उसमें 'गमन' सरीखी लिरिकल छाया और ऊँचे पाये की सौंदर्यदृष्टि न थी।
मुज़फ़्फ़र ने इस फ़िल्म के निर्माण में ऐसी अनेक वृत्तचित्रात्मक युक्तियों की आज़माइश की, जो तब अलहदा थीं। एक्चुअल लोकेशंस पर खुफ़िया कैमरों की मदद से फिल्माए गए सच्चे दृश्य- जिसके पात्र अचानक सेल्युलॉयड पर कीलित होने के प्रारब्ध के प्रति आत्मचेतस् हो उठते थे, पार्श्व की ध्वनियाँ, जिन्हें फ़िल्म में जस का तस ढाल दिया गया, पृष्ठभूमि में इत्मीनान से गूँजते तराने, जिन्हें परदे पर कोई होंठ हिलाकर गा नहीं रहा होता था लेकिन जो फ़िल्म की बुनावट में गुँथे हुए थे, दृश्य से बाहर मौजूद व्यक्तियों की आपसी अनौपचारिक चर्चाओं से निर्मित होने वाले नानाकथारूप। मुज़फ़्फ़र की सौंदर्यदृष्टि और कलाभिरुचि आला दर्जे की है (यह आप क़ैसरबाग़, लखनऊ स्थित उनके कोटवारा-हाउस को देखकर जान सकते हैं- जो अपने आपमें इंटीरियर का एक शाहकार है) और उनके द्वारा बनाई इस पहली ही फ़िल्म में एक सिद्धहस्त फ़िल्मकार की छाप दिखी है। फ़िल्म जब उत्तरप्रदेश में होती है, तो उस अंचल की बोली-बानी, उसके भूदृश्य को सजीव कर देती है। जब वह बम्बई में अवतरित होती है, तो एक मुस्तैद जासूस की नज़र से उसकी गलियों-कूचों, सड़कों-चौरस्तों और उसके विकट-विरोधाभासों के पिक्चर-पोस्टकार्डों को परदे पर मूर्तमान करती है।
और फ़ारूख़-स्मिता के मन-प्राण के अंदरूनी लैंडस्केप, जलाल-गीता की उपकथाएँ। देशबदर होने की टूटन और उसका दमघोंटू अहसास। फ़िल्म में रेलगाड़ी का एक दृश्य जब फ़िल्माया जा रहा था तो किसी ने उसकी खिड़की के शीशे को पत्थर मारकर तिड़का दिया था। 1978 की अपनी डायरी में फ़ारूख़ ने लिखा था, “किसी ने इसी रेलगाड़ी की इसी खिड़की के शीशे को क्यों चुना होगा?“ मुज़फ़्फ़र ने उस दृश्य को उसी टूटे शीशे वाली खिड़की के साथ फिल्माया। वह नायक की अंदरूनी टूटन का रूपक बन गया था।
1970 और 1980 के दशक में भारत में समान्तर सिनेमा आन्दोलन परवान चढ़ा था। श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, सई परांजपे, गौतम घोष, सईद अख़्तर मिर्ज़ा, मणि कौल, कुमार शहानी, महेश भट्ट, तपन सिन्हा, बुद्धदेब दासगुप्ता, बासु भट्टाचार्य आदि के द्वारा बनाई गई फ़िल्मों ने तब बॉलिवुड की मुख्यधारा के विपरीत एक भिन्न मनोलोक, छायांकन की युक्तियों और सामाजिक यथार्थ की सृष्टि की थी। उनका एक फ़र्क़ आस्वाद था। अपना एक एस्थेटिक था। और उनका अपना एक नॉस्टेल्जिया भी है, उन लोगों के लिए जिन्होंने उस दौर में वो फ़िल्में सिनेमाघर में जाकर देखी थीं (अपनी इस परिष्कृत रुचि के प्रदर्शन के लिए वे शुभकामना के पात्र हैं) या कालान्तर में उन्हें दूरदर्शन पर देखा था।
'गमन' उसी समान्तर परम्परा की फ़िल्म है। आज इसे लगभग भुला दिया गया है, लेकिन इसके गीत आज भी जब-तब यहाँ-वहाँ गूँज उठते हैं तो अपनी तरफ़ खींच लेते हैं। 'अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो' और 'आपकी याद आती रही रातभर' और सबसे बढ़कर, सुरेश वाडकर के कंठ में दो तार वाली चाशनी में निबद्ध विषाद के राग वाला यह गाना- 'सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है...'