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सुशोभित


गुलज़ार ने अपनी फ़िल्म 'कोशिश' में एक बड़े नैतिक प्रश्न का सामना किया था। फ़िल्म तो अपनी तार्किक परिणति की ओर बढ़ती जाती थी, जैसे गुरुत्त्वाकर्षण के बल से कोई वस्तु धरती पर गिरती हो। किन्तु फ़िल्म के बाहर उस तर्क की युक्ति नहीं जान पड़ती थी। निजी परिप्रेक्ष्य उपस्थित थे। व्यक्ति और समूह का द्वैत सम्मुख था।

कहानी यह थी कि संजीव कुमार गूंगे-बहरे थे। उनकी पत्नी जया भादुड़ी भी बोल-सुन नहीं सकती थीं। इसी लाचारी के कारण वे अपनी पहली संतान गँवा चुके थे। किन्तु दूसरे पुत्र को उन्होंने बहुत मनोयोग से पालकर बड़ा किया। वह देख, बोल, सुन सकता था और एक स्वस्थ व सुसंस्कृत पुरुष के रूप में विकसित हुआ था। उसके लिए विवाह का प्रस्ताव आया। किन्तु लड़की मूक-बधिर थी। पुत्र ने विवाह से इनकार कर दिया। उसकी माँ की तब तक मृत्यु हो चुकी थी। तब पिता ने उसे उलाहना दिया कि हम दो गूंगे-बहरों ने तुझे पालकर बड़ा किया, इस क़ाबिल बनाया, और आज तू गूंगी कहकर एक लड़की को ठुकराता है। आख़िरकार पुत्र पिता की बात मानता है, और विवाह को तैयार होता है।

फ़िल्म से बाहर खड़े होकर आप देखें तो कह सकते हैं कि एक पढ़े-लिखे नौजवान के द्वारा अपनी पसंद की साथी की आकांक्षा रखना ग़लत नहीं था। अगर वह चाहता था कि उसकी पत्नी बोल-सुन सकती हो, तो यह भी स्वाभाविक था। किन्तु उसने अपना पूरा जीवन गूंगे-बहरे माँ-पिता के साथ बिताया था और उनकी संकेत भाषा को समझने की सहज-बुद्धि विकसित कर ली थी, जो अन्यों में दुर्लभ होती है। उसके लिए विवाह का प्रस्ताव भी उसके इसी गुण के कारण आया था कि वह भली प्रकार जानता था, ऐसे लोगों की बात कैसे समझी जाती है और उनके साथ कैसे बर्ताव किया जाता है। उसके पास इसका एक संदर्भ-बिंदु था। वह गुण उसका दायित्व बनना चाहता था। परिस्थिति जटिल थी।

ऐसा सम्भव नहीं है कि गुलज़ार को इस प्रश्न ने देरी तक नहीं छला होगा। किन्तु भावना की तीव्रता के साथ उनकी फ़िल्म जिस दिशा में बढ़ रही थी, वहाँ वे बेबस हो गए थे। पूरी फ़िल्म ही इस बात को मानवीय आशयों के साथ सामने रखती थी कि ईश्वर ने जिन्हें कमतर बनाया है, वे भी जीवन में बराबर की सहभागिता के हक़दार हैं। वे संजीव कुमार और जया भादुड़ी को गहरे अनुराग और स्नेह में डूबे दम्पती की तरह चित्रित करते हैं। इतनी लम्बी यात्रा तय करने के बाद फ़िल्मकार के लिए यह सम्भव नहीं था कि उनके पुत्र के मुँह से यह कहलवा दें कि मैं गूंगी-बहरी लड़की के साथ ब्याह नहीं करूँगा।

अन्तत: जब गुलज़ार यह निर्णय करते हैं कि संजीव कुमार का पुत्र उसी लड़की से ब्याह करेगा, तो फिर निर्बंद्व होने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं रह गया था। निर्णय की यह तीव्रता अभिनेता तक पहुँची और परिणाम यह रहा कि संजीव कुमार ने बहुत तन्मय आवेग से उन दृश्यों को चित्रित किया। व्यक्ति पर सार्वभौम के चिंतन की विजय हुई। आत्मबलिदान पूर्ण हुआ। मनुष्य अपने सुख के लिए समाज में नहीं रहता, सर्वे भवन्तु सुखिन: की भावना लेकर जीता है, उसी के सामने आख़िरकार उसको सिर नवाना होता है, यह सिद्ध हुआ।

यह 1972 की फ़िल्म है। इसमें उस समय के सितारा कलाकार अभिनय कर रहे थे। और यह निजी सुख और सर्वकल्याण के द्वैत को चित्रित करती थी। मनुष्य का अन्तर्तम बड़ा जटिल होता है। सुख का बेखटके शोध करे तो मूल्यों की हानि होती है। मूल्यों की चिंता करे तो आत्मत्याग के सिवा रास्ता नहीं दिखता। सुख कुछ समय जलकर बुझ जाता है। आत्मत्याग की लौ चेतना में देर तक अडिग रहती है। तब किसका चयन किया जाए?

स्वामी विवेकानंद ने कहा था, “मनुष्य सार्वभौम होकर व्यक्ति है, न कि विशिष्ट होकर।” यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण कथन है, जो मनुष्य और व्यक्ति के द्वैत को हमारे सामने उजागर करता है।

देखें तो सार्वभौम का चिंतन गाँधीवादी दृष्टि का भी नवनीत है। गाँधी कहते थे कि व्यापारियों को घाटा उठाकर भी उचित मूल्य पर वस्तुएँ लोगों तक पहुँचानी चाहिए। खेत में अनाज इसलिए उत्पन्न नहीं होता कि कोई उस पर मुनाफ़ा कमाए और अपनी कोठियाँ भरे, वह मनुज के उदर-पोषण के लिए उत्पन्न होता है। जो भी वृत्ति इसमें बाधा डालती है, वह अनैतिक है। ट्रस्टीशिप का सिद्धांत यहीं से आता है।

मैं दिलीप कुमार की एक तक़रीर सुन रहा था। उनसे पूछा गया कि फ़िल्म को क्या चीज़ बड़ी बनाती है। दिलीप साहब ने कहा, बहुत सारी चीजें, लेकिन सबसे बड़ी चीज़ एक ही है। और वो यह कि फ़िल्म की कहानी में उसके चरित्रों के सामने कितनी गम्भीर नैतिक दुविधाएँ प्रकट होती हैं और वो उनके सम्मुख किस तरह से अपना रास्ता तलाशते हैं। इसी से अभिनेता के चरित्र का प्रकटन होता है। इसी से फ़िल्म की अन्तर्वस्तु बनती है। अगर इसमें कमी रह गई और चरित्रों के सामने गहरी दुविधाएँ प्रस्तुत नहीं हुईं, तो चाहे जो कर लो, अच्छी फ़िल्म नहीं बन सकेगी।

यह बात दिलीप कुमार को मालूम थी, यह बात गुलज़ार को मालूम थी, यह संजीव कुमार और जया भादुड़ी को भी पता थी। कालांतर में सुखवाद की आंधी ने इसे पहले किंचित् संकोच के साथ, और बाद में बेधड़क होकर ताक पर रखा। नतीजा यह कि आज पहले से कहीं उम्दा फ़िल्म तकनीक है, साधन-संसाधन हैं, और वैश्विक मानदंडों की समझ भी अभिनेताओं को पहले से ज़्यादा है, इसके बावजूद ऐसी कहानियाँ सामने नहीं आतीं। न वैसे किरदार देर तक ज़ेहन में टंगे रहते हैं।

विलियम फ़ॉकनर से किसी ने पूछा कि साहित्य की परिभाषा क्या है? उसने कहा, "ह्यूमन हार्ट इन कॉन्फ्लिक्ट विद इटसेल्फ़"- यही परिभाषा है। अपने तईं गहरी उधेड़बुन में डूबा मनुज का मन!

मैंने लड़कपन में यह फ़िल्म कई बार देखी थी। इधर पंद्रह-बीस वर्षों के अन्तराल से फिर देखी तो उसका अन्तर्सत्य एक रौशनी की तरह सामने उजागर हुआ। यह फ़िल्म देखना कठिन है। इसमें ऐसी गहरी मार्मिकता और उत्कट मानवीय प्रसंग का समावेश है, जो आज अन्यत्र खोजे नहीं मिलेगा। इसे देखते हुए मन लौटकर विगत के उसी लोक में चला जाता है, जो कहता था- जिसके भीतर अपने को बरजने की हूक नहीं, ग्लानियाँ और उधेड़बुन नहीं, दोराहे और दुस्साहस नहीं, वह मनुष्य ही क्या!