अनुराधा / चित्रशाला / नैनसुख / सुशोभित

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अनुराधा
सुशोभित


ऋषिकेश मुखर्जी की आरम्भिक फ़िल्मों में से एक 'अनुराधा' जिन्होंने देखी होगी, उन्हें इसकी भली प्रकार याद होगी। इसमें बलराज साहनी-लीला नायडु-अभि भट्टाचार्य का त्रिक था, अलबत्ता अभि इसमें एक उत्प्रेरक से अधिक न थे। मूलकथा तो द्वैत को ही प्रस्तुत करती थी। यह श्रेय और प्रेय का द्वैत है। उस ज़माने में भारत के सम्मुख यह एक बड़ा प्रश्न हुआ करता था। वह गाँधी का भारत जो था! दो करियर हैं, जो एक-दूसरे से टकरा बैठे हैं- एक चिकित्सक का दूसरा गायिका का। एक को दूसरे के लिए बलिदान देना है तो किसे आगे बढ़ना होगा? संगीत चाहे जितना मधुर हो, कर्णप्रिय हो, किन्तु श्रेय तो लोकमंगल ही है। उसके सामने प्रेय को बलिदान देना ही होगा। इसकी पृष्ठभूमि ऐसे बनती है कि बलराज साहनी चिकित्सक है, किन्तु शहरों में प्रैक्टिस करने वाला नहीं। वह गाँवों में जाकर काम करता है। ग़रीबों की सेवा करता है और उनसे पैसे नहीं लेता।

गाँधीवादी फ़लसफ़े में गाँवों का बड़ा महत्त्व माना जाता है, जबकि वास्तव में वह गाँवों का नहीं बुनियादी संरचनाओं और प्राथमिक इकाइयों का महत्व है। भारत में गाँव ही बुनियाद में हैं तो बात उन तक चली जाती थी। ग्राम स्वराज्य का विचार उभरता था। गाँवों में कुशल-मंगल होगा तो देश राज़ी-ख़ुशी रहेगा। भारत की प्रतिभाओं को स्वयं को गाँवों में लोककल्याण के लिए झोंकना चाहिए- यह गाँधी का विचार था, और आज दुनिया जिन संकटों का सामना कर रही है, उनमें ये विचार नए सिरे से फिर परखे और स्वीकारे जाएँगे, मुझको तो इसमें संशय नहीं।

तो हमारे सामने मूल्यों और आदर्शों से भरा वह चिकित्सक है। ऊँची क़द-काठी, गरिमामयी व्यक्तित्व, चेहरे पर सम्भ्रांत गम्भीरता- जैसी कि बलराज साहनी के व्यक्ति-विग्रह में ही निहित थी। उनके सामने लीला नायडु हैं- गायिका और नृत्यांगना। फ़िल्म को अपना नाम उन्हीं के नाम से मिला है- अनुराधा रॉय। अनुराधा के रिकॉर्ड्स निकले हैं और उनका बड़ा नाम है। किन्तु बलराज से प्रेम करने की शर्त यह है कि विवाह के बाद गाँव में जाकर उनके साथ रहना होगा और गाने को तिलांजलि देनी होगी। वह आत्मबलिदान का रास्ता चुनती है।

फ़िल्म के अन्त में यह दृश्य है कि उस सुदूर गाँव में स्वाध्याय और परिश्रम के बूते जब बलराज साहनी एक असम्भव शल्यक्रिया को अंजाम देता है, तो इसका पारितोषिक उसकी बजाय अनुराधा को मिलता है। मर्म यह है कि “माना इसमें लगन तुम्हारी थी, किन्तु यह सम्भव तो अनुराधा के बलिदान से हुआ है!

जिनकी रुचि लैंगिक विमर्श या सबाल्टर्न रीडिंग में रहती है, वे इस पर कह सकते हैं कि स्त्री ने पुरुष के लिए करियर का बलिदान दिया। क्लीशे (परिपाटी) के प्रति अपनी दुर्निवार अरुचि के चलते मैं तो वैसा नहीं सोचूंगा, और वास्तव में वैसा है भी नहीं। वैसा तब होता, जब बलराज साहनी शहर में ही रहकर प्रैक्टिस करता और इसके बावजूद अनुराधा को गाने का त्याग करना होता। इस फ़िल्म की फ़ेमिनिस्ट रीडिंग की कोशिशें तो भ्रष्ट ही कहलाएँगी, अलबत्ता उसकी गुंजाइश वहाँ उसके सबटेक्स्ट्स में मौजूद है। उन्नीस सौ साठ की यह फ़िल्म है। ऋषिकेश मुखर्जी, बिमल रॉय के सहायक हुआ करते थे। 'मधुमती' का सम्पादन उन्होंने ही किया था। अपने गुरु का आशीर्वाद लेकर यह 'बिमल रॉय स्कूल' की उत्कृष्ट फ़िल्म लेकर प्रस्तुत हुए, जिसे न केवल बर्लिन में दिखाया गया, भारत में भी राष्ट्रपति ने इसे स्वर्णकमल से विभूषित किया। उस ज़माने में कितना सुन्दर और अर्थपूर्ण सिनेमा बनता था, यह 'अनुराधा' देखकर पुनः स्पष्ट होता है। पंडित रवि शंकर का इसमें संगीत है। तीन श्रेष्ठ लता-गीत इसके विन्यास की सज्जा बन गए हैं- “कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया पिया जाने ना", "जाने कैसे सपनों में खो गई अँखियाँ” और सबसे बढ़कर, “हाये रे वो दिन क्यों ना आए!"

यह लता-स्वर इतना शुभ्र और ऊर्जस्वित है कि प्रेय की कोटियों को लाँघकर श्रेय की संज्ञा में चीन्हा जा सकता है। वह सात्विक आभा से युक्त अन्तर्नाद है, किसी साधारण कंठ का वह रचाव नहीं। लता यहाँ पार्श्वगायिका हैं। किन्तु अगर सच में ही वैसे किसी कोकिल-कण्ठ को अपनी सम्भावनाओं का बलिदान लोककल्याण की वेदी पर करना होता तो यह एक अत्यंत कठिन प्रश्न होता। फ़िल्म की काल्पनिकता ने तब हमारी रक्षा की कि शुक्र है, यह सच नहीं है। यह केवल एक कहानी भर है। क्योंकि लता-स्वर का प्रकाश भी लोकमंगल का एक आयाम है!

फ़िल्म में एक नृत्य-नाटिका भी है। हो न हो, रवि शंकर ने अपने बंधु उदय शंकर के प्रभाव का उपयोग करते हुए उस बैले प्रस्तुति का संयोजन करवाया होगा। उसमें मन्ना डे का बहुत ही सुंदर गाना आया है- “ले के दिल का साज़ हम, गीत गाने आ गए"। और इस पर अत्यंत ही भावपूर्ण पुरुष-नृत्य प्रस्तुति, जैसे मन्मथ ही थिरकते चले आए हों। प्रसंगवश, फ़िल्म का एक दृश्य याद आता है- बलराज साहनी इतने निष्ठावान चिकित्सक हैं कि मरीज़ों को देखने जाते हैं तो साथ में अपनी बिटिया को भी ले जाते हैं। वह नन्ही लड़की मन ही मन स्वयं को चिकित्सक के रूप में तैयार करने लगती है। अनुराधा को इस पर ऐतराज़ है। “कहीं बिटिया बीमार पड़ गई तो?"- वह कहती हैं। बलराज साहनी मुस्कराकर जवाब देते हैं, “अरे नहीं, बल्कि उल्टे इससे तो उसकी इम्युनिटी बढ़ेगी। तुमने देखा नहीं, ग़रीब लोग उतने बीमार नहीं पड़ते, जितने अमीर बीमार पड़ते हैं!“

पुराने भारत का पता देने वाला एक और वाक्य!