सूरज का सातवाँ घोड़ा / चित्रशाला / नैनसुख / सुशोभित

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सूरज का सातवाँ घोड़ा
सुशोभित


हर कहानी का एक प्रारम्भ, मध्य और अन्त होता है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि वह इसी क्रम में हो।

-ज्याँ लुक गोदार

श्याम बेनेगल की यह फ़िल्म 'अ प्रैक्टिस इन स्टोरीटेलिंग' है। वास्तव में इसमें पर्सपेक्टिव को पकड़ने की जो कोशिश है, वह मज़ेदार है। फ़िल्म को रघुबीर यादव नरेट करते हैं। गुलाम मोहम्मद शेख़ के जलरंग चित्रों के ज़रिए हम कहानी के मूल लैंडस्केप पर उतरते हैं। अपने नैरेशन में रघुबीर हमें वह बताते हैं कि जो कि वास्तव में मानिक मुल्ला (रजित कपूर) द्वारा उन्हें और उनके मित्रों को कथानक की तरह सुनाया गया था। अब दूसरे स्तर के इस नैरेशन में कथासूत्र अनेक धाराओं में टूट जाता है, लेकिन ये तमाम सूत्र अन्तर्सम्बद्ध भी हैं। एक-दूसरे से जुड़े छल्लों की तरह कहीं पर वे ओवरलैप करते हैं, कहीं स्वतंत्र दिशाओं में व्याप जाते हैं। कहानी लौटकर ख़ुद पर आती रहती है और उसके दृष्टिकोण बदलते रहते हैं।

वास्तव में जहाँ तमाम अन्य फ़िल्में नैरेशन पर केन्द्रित, उससे लगभग अभिशप्त और आक्रांत होती हैं, वहीं यह फ़िल्म नैरेटर पर केन्द्रित है। वह बार-बार हमसे मानो पूछती रहती है कि बताओ तो जानें, वह कौन है जो कहानी सुना रहा है। वह कितना साक्षी है, कितना संलिप्त है। यह वास्तव में कभी तय नहीं हो सकता, क्योंकि जीवन अन्तर्सम्बद्धताओं के एक व्यूह की तरह है। जब अन्त में हम रजित कपूर के नैरेटर की निरपेक्षता को लेकर लगभग सुनिश्चित हो जाते हैं, तभी वह वर्तमान में अतीत के एक अप्रत्याशित हस्तक्षेप से विचलित हो जाता है और फ़िल्म अपने मूल कथावाचक यानी रघुबीर यादव पर लौट आती है। अनेक अर्थों में इसे आख्यान की दृष्टि से भारत की प्रारम्भिक पोस्ट-मॉर्डन फ़िल्मों में से एक कहा जा सकता है- विश्व सिनेमा में तो 'रशोमोन' से लेकर 'पल्प फ़िक्शन' तक इसकी एक लम्बी शृंखला रही है।

'सूरज का सातवाँ घोड़ा' धर्मवीर भारती के इसी नाम के जिस उपन्यास पर आधारित है, उसकी भूमिका में अज्ञेय ने भी लिखा था, “बहुत सीधी, बहुत सादी, पुराने ढंग की- बहुत पुराने, जैसा आप बचपन से जानते हैं- अलफ़लैला वाला ढंग, पंचतंत्र वाला ढंग, बोकैच्छियो वाला ढंग, जिसमें रोज़ क़िस्सागोई की मजलिस जुटती है, फिर कहानी में से कहानी निकलती है... इसमें एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है।"

फ़िल्म की एक उपधारा प्रेम की प्रकृति पर विमर्श भी है, कि वह कितना एकांगी-आत्मकेन्द्रित होता है और कितना समाज-सापेक्ष। शरतचंद्र का देवदास इस फ़िल्म का विपरीत ध्रुव है और एक मायने में यह देवदास-प्रणीत प्रेम की रूमानी अवधारणा की निर्मम समीक्षा करने का भी प्रयास है। यह वस्तुतः तीन लड़कियों की कहानी है- जमुना ( राजेश्वरी सचदेवा), लिली ( पल्लवी जोशी) और सत्ती ( नीना गुप्ता)। इसमें राजेश्वरी का चरित्र सबसे जटिल है और नीना का सबसे सरलीकृत। पल्लवी जोशी- जो उन दिनों टीवी-सिनेमा की दुनिया का एक जाना-पहचाना चेहरा थीं- का चरित्र इनके मध्य में है। 'स्कन्दगुप्त' की देवसेना के मिथक के इर्द-गिर्द उनका अभिमानी चरित्र बुना गया है। फिर भी, राजेश्वरी ने इस फ़िल्म में अपने अभिनय से जिस तरह की उत्कटता और व्यग्रता का परिचय दिया है, वह रजित की बौद्धिक निरपेक्षता (जिसने 'ब्योमकेश बक्षी' में उनके द्वारा किए गए अभिनय को हमारे लिए अविस्मरणीय बना दिया था) के समक्ष एक उपयुक्त प्रतिसंसार रचता है।

कहने की ज़रूरत नहीं कि श्याम बेनेगल की फ़िल्म-कृति होने से पहले यह धर्मवीर भारती का गल्प-संसार है। यह फ़िल्म-रूप से पहले एक पाठ है, टेक्स्ट है। अपनी तमाम उर्वरताएँ यह रूप उस बहुलार्थी पाठ से ही प्राप्त करता है।

छह कहानियाँ और सातवाँ कथासूत्र।

छह दोपहरें और सातवीं सुबह।

सूरज का सातवाँ घोड़ा!