अन्हे घोड़े दा दान / चित्रशाला / नैनसुख / सुशोभित

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अन्हे घोड़े दा दान
सुशोभित


अतिरंजनाओं, चुटकुलों और कर्कश संगीत ने जैसा पंजाब हमें दिखाया है, उससे परे भी पंजाब का एक वस्तुगत यथार्थ है, यह हम सब जानते हैं। कोई भी यह प्रिटेंड नहीं करता कि पंजाब और पंजाबियों को लेकर जो सरलीकृत क्लीशे लोकप्रिय संस्कृति ने रचे हैं, वे ही सच हैं। किन्तु पंजाब के उस वस्तुगत यथार्थ को हम जानें कैसे? आत्मनिष्ठ कलाओं की जो सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, वह यही है कि वे एक ऐसे लैंडस्केप को पुनराविष्कृत करती हैं, जो पहले से ही वहाँ मौजूद था, लेकिन उसे देखा और दिखाया नहीं गया था। कोई भी उम्दा कथाकार यह काम बहुत बख़ूबी कर सकता है, जैसा कि गुरदयाल सिंह ने इतने वर्षों में किया ही है, लेकिन इसके बावजूद पंजाबी यथार्थ की जो भौतिक और चाक्षुष अनुभूति है, वह तो हमें सिनेमा के माध्यम से ही मिल सकती है। लेकिन वह सिनेमा है कहाँ?

पंजाबी सिनेमा तो दूर, पंजाबियों के द्वारा बनाए जानेवाले हिन्दी सिनेमा से भी यह उम्मीद करना बेकार है कि वह हमें वस्तुगत-वास्तव का एक अनुभव-खंड दिखलाएगा। तब अतिरंजना वाले लोकप्रिय संगीत की तो बात ही रहने दें। वैसे में क्या हो, जब एक ऐसा सिनेमा हमारे सामने प्रस्तुत हो, जो ना केवल पंजाब के आंचलिक यथार्थ को उसके सूक्ष्मतम-मानवीय प्रसंगों और विवरणों के साथ व्यक्त करता हो, बल्कि सुखद आश्चर्य यह कि यह सिनेमा स्वयं पंजाबी भाषा में बनाया गया हो!

गुरदयाल सिंह के उपन्यास पर आधारित गुरविंदर सिंह की फ़िल्म 'अन्हे घोड़े दा दान' (2011) इधर बीते पंद्रहेक बरसों में भारत में बनाई गई उन इनी-गिनी फ़िल्मों में से है, जिन्होंने वैश्विक कीर्ति अर्जित की है। यह पहली ऐसी पंजाबी फ़िल्म है, जो अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में घूमती रहती है। वेनिस में इसने स्पेशल जूरी अवॉर्ड जीता। लंदन और न्यूयॉर्क में प्रशस्तियाँ अर्जित की। भारत में अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार तो ख़ैर जीते ही। और अलबत्ता पंजाब का यथार्थ कोई आज का आविष्कार नहीं है, किन्तु इस फ़िल्म के माध्यम से वह पहली बार दुनिया के समक्ष प्रस्तुत हुआ। सहसा, अन्तरराष्ट्रीय दर्शकों और समालोचकों ने देखा कि दुनिया का एक कोना ऐसा भी है, जहाँ पर लोग इन परिस्थितियों में, इन संवेदनाओं के साथ जी रहे हैं। यह वस्तुगत यथार्थ का वही 'पुनराविष्कार' है, जिसके बारे में ऊपर संकेत किया है। और केवल और केवल आत्मनिष्ठ कला ही यह उद्यम कर सकती है।

गुरविंदर यायावर जीव हैं। पंजाब के ग्राम-अंचलों की लम्बी यात्राएँ उन्होंने की हैं और पंजाबी संस्कृति के अनेक संदर्भों को संकलित किया है। उन्होंने अनेक वृत्तचित्र बनाए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि वह एफ़.टी.आई.आई. ग्रैजुएट हैं। पुणे स्थित इस महान फ़िल्म संस्थान का संरक्षण कितना आवश्यक है, इसकी बानगी अमित दत्ता और गुरविंदर सिंह जैसे एफ़.टी.आई.आई. एल्युम्नाई का काम है। भारतीय सिनेमा का भविष्य एफ़.टी.आई.आई. के भविष्य से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है।

वर्ष 2005 में गुरविंदर ने मणि कौल की मास्टरक्लासेज़ में उनके साथ सहभागिता की थी। वह मणि से गहरे तक प्रभावित हुए और उनकी वार्ता-पुस्तक 'अभेद आकाश' का अनुवाद भी किया। 'अन्हे घोड़े दा दान' देखते हुए बरबस ही मुझे मणि कौल की पहली फ़िल्म 'उसकी रोटी' की याद हो आई। मणि की वह फ़िल्म पंजाबी पृष्ठभूमि पर ही केन्द्रित थी और 'अन्हे घोड़े दा दान' में ऐसे अनेक दृश्यबंध हैं, जो सीधे तौर पर मणि को आदरांजलि अर्पित करते मालूम होते हैं। यह फ़िल्म गुरविंदर की ओर से मणि को गुरुदक्षिणा है।

'अन्हे घोड़े दा दान' एक दिन की कहानी है। अलसुबह से लेकर मध्यरात्रि तक के समय-खंड में इस फ़िल्म की घटनाएँ घटित होती हैं। गाँवों में दलित वर्ग का मार्जिनलाइज़ेशन और शहरों में वर्किंग क्लास का डी-ह्यूमनाइज़ेशन इस फ़िल्म के मनोरथ के केन्द्र में है, किन्तु वैसा वह अपने वक्तव्य में राजनैतिक हुए बिना बहुत ही दत्तचित्त कलात्मक संयम के साथ करती है।

भारत में अच्छा सिनेमा बने, तो एक निजी क़िस्म का गौरव होता है। तिस पर भी, अगर यह सिनेमा क्षेत्रीय या आँचलिक है तो संतोष और बढ़ जाता है। बाँग्ला सिनेमा का यश हम सब जानते हैं। कन्नड़ न्यूवेव ने कितने स्वर्ण कमल जीते हैं, हमें ज्ञात है। इधर मराठी सिनेमा में एक नवोन्मेष देखा गया है। किन्तु पंजाब-अंचल से वैसी कोई फ़िल्म सामने आए तो यह निश्चय ही अधिक संतोष का विषय है।