कोर्ट / चित्रशाला / नैनसुख / सुशोभित

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चैतन्य तम्हाणे की फ़िल्म 'कोर्ट' (2014) जब आई थी तो उसने बहुतों का ध्यान खींचा था। फ़िल्म ने 18 अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते थे, जिसमें प्रतिष्ठित वेनिस फ़िल्म समारोह में मिली प्रशस्ति भी थी। भारत में इसे सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। यानी एक यूनिवर्सल अक्लेम इसे मिला और यह भारत की सबसे अधिक डेकोरेटेड (यानी बहु-पुरस्कृत) फ़िल्मों में से एक बनी। अगले साल इसकी डी.वी.डी. जारी हुई तो मैं उसे ख़रीद लाया। उस ज़माने में ओ.टी. टी. नहीं था और फ़िल्में देखने का इकलौता माध्यम वही था। डी.वी.डी. प्रिंट बहुत उम्दा नहीं था, फिर भी मैंने फ़िल्म देखी और महसूस किया कि नि:संदेह वह एक आउटराइट क्लैसिक है। उसके कई दृश्य मेरे ज़ेहन पर छप गए थे। जब यह फ़िल्म नेटफ़्लिक्स पर आई तो इधर उसे फिर देखा- इस बार हाई-रिज़ोल्यूशन प्रिंट में- और उसका और मुरीद हुआ। बीते एक दशक में भारत में निर्मित बेहतरीन फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त में 'कोर्ट' शीर्ष-3 में होगी, या होनी चाहिए।

आला दर्जे का डार्क ह्यूमर है। सोशल कमेंट्री। आप पाएँगे कि भारत में अच्छा आर्टहाउस सिनेमा सोशल कमेंट्री वाला ही बन सकता है। अगर भारतीय यूरोपियन उस्तादों सरीखा आत्मरति (सेल्फ़ इंडल्जेंस) वाला सिनेमा बनाते हैं तो बात बनती नहीं है, क्योंकि यहाँ का देशकाल इसकी इजाज़त नहीं देता। यही कारण है कि यहाँ मणि कौल, कुमार शहानी, अमित दत्ता एक सीमा से आगे प्रशंसित नहीं हो सके हैं। सत्यजित राय, श्याम बेनेगल, गिरीश कासरवल्ली जैसा क़द उनका नहीं हो सका। चैतन्य तम्हाणे कुलजमा 27 साल के थे, जब उन्होंने अपनी वह ब्रिलियंट डेब्यू फ़िल्म बनाई थी। कोर्टरूम ड्रामा है, पर मेलोड्रमैटिक नहीं है। निहायत मैटर ऑफ़ फ़ैक्ट अंदाज़ में उसके वकील और जज क़ानूनी शब्दावलियाँ उच्चरित करते हैं। फ़िल्म की शैली इंडिपेंडेंट है। यह वो शैली कहलाती है, जिसमें निर्देशक एक्चुअल लोकेशंस पर शूट करता है-बाज़ दफ़े तो ख़ुफ़िया तरीक़े से कैमरे को कहीं छुपाकर, ताकि किसी को पता न चले कि यहाँ फ़िल्म बनाई जा रही है। और दूसरे, इसमें बहुधा नॉन-प्रोफ़ेशनल एक्टर्स का उपयोग किया जाता है। इस विधि से एक रॉ-नेस, वास्तविकता का एक सूचकांक अर्जित किया जाता है और वृत्तचित्रनुमा अनुभूति रची जाती है। एक भारत, जिसे हम जानते हैं, लेकिन फ़िल्म के परदे पर विरले ही देखते हैं। भारत के सरकारी दफ़्तर, अदालतें, घर, चॉल, झोपड़पट्टियाँ- नाक पर हाथ रखे बिना मृणाल देसाई का कैमरा तमाम जगहों पर घुसपैठ करता है। फ़िल्म मल्टीलिंग्वल है- बहुभाषी। इसका एक बड़ा हिस्सा अंग्रेज़ी और मराठी में है, बीच-बीच में हिन्दी और गुजराती भी आती रहती हैं। मुम्बई का यही भाषाई परिवेश है, वहाँ रहने वाले जन अमूमन इन चार भाषाओं में जाने-अनजाने पूरा दिन आवाजाही करते रहते हैं।

फ़िल्म की कहानी सुनें। एक प्रोटेस्ट-सिंगर है, जनकवि (लोक-शाहिर) नारायण काम्बले। उन्हें पुलिस ने मंच से सस्वर कविता पढ़ते समय गिरफ़्तार कर लिया है। आरोप बड़ा ही हास्यास्पद है। यह कि काम्बले का गीत सुनकर गटर साफ़ करने वाले एक बृहन्मुम्बई सफ़ाईकर्मी ने आत्महत्या कर ली। इसका कोई सबूत नहीं है। काम्बले ने आत्महत्या को प्रेरित करने वाला वैसा कोई गाना गाया है, यह भी निश्चित नहीं। अदालत में जब उनसे पूछा जाता है कि क्या आपने ऐसा कोई गाना लिखा है, तो वह कहते हैं, अभी तक तो नहीं, पर भविष्य में ज़रूर लिखना चाहूँगा। यह बयान उनके केस को बहुत पुख्ता नहीं बनाता। शायद वह इससे बेफ़िक्र हैं और जानते हैं कि सत्तातंत्र के निशाने पर हैं। लिहाजा, ज़मानतें रद्द होती रहती हैं, न्यायिक हिरासत की अवधि बढ़ती रहती है, तारीख़ पर तारीख़ मिलती रहती हैं।

एक जज हैं- सदावर्ते। एक लोक अभियोजक हैं- नूतन। एक आरोपी पक्ष के वकील हैं- विनय वोरा। कोर्टरूम में जिरहें चलती हैं, लेकिन चैतन्य तम्हाणे की अचीवमेंट यहाँ पर यह है कि वह हमको इन तीनों के व्यक्तिगत जीवन की झाँकियाँ दिखलाकर एस्टैब्लिश करते हैं कि आपकी जो सांस्कृतिक-निर्मिति होती है, उसी से सार्वजनिक-जीवन के आपके निर्णय प्रभावित होते हैं। इसलिए अगर दलितों के हक की आवाज़ उठाने वाले एक आम्बेडकरवादी जनकवि- जिसे आज 'अर्बन-नक्सल' के ख़िताब से नवाज़ा जाता- को सजा दिलवाने पर लोक अभियोजक आमादा हैं, तो चैतन्य हमें उनके अंदरूनी जीवन के ब्योरों से यह बतलाते हैं कि वह टिपिकल महाराष्ट्रीयन मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली महिला हैं, जो परप्रांतियों के प्रति द्वेषभाव रखती हैं और दकियानूसी परम्पराओं को पवित्र समझती हैं। उनका पर्सपेक्टिव इस पृष्ठभूमि से मँजा होता है।

वहीं नारायण काम्बले का केस लड़ने वाला वकील उच्चवर्ग का है, वह पॉश-क्लबों में आता जाता है और महँगी शराब पीता है। वह शौकिया अभिभाषक है और ह्यूमन राइट्स संबंधी मामलों में उसकी विशेष रुचि है। वह अंग्रेज़ीदाँ है और उसकी लिबरल मूल्यवत्ता उसकी सहानुभूतियों का निवेश उस सर्वहारा कवि में कर देती है, जो न उसके बूज्र्ज्या वर्ग का हिस्सा है, न कभी हो सकता है। फ़ैसले का अधिकार जिन जज साहब में परिनिष्ठित है, वह अंकविज्ञान, रत्नविज्ञान आदि में विश्वास रखते हैं और एक महिला के द्वारा स्लीवलेस टॉप पहनने भर से मामले की सुनवाई करने से इनकार कर देते हैं। फ़िल्म बिना किसी नाटकीयता के हमें दिखलाती है कि प्रभावशाली पदों पर जो लोग बैठे हैं, जिनके पास निर्णय लेने का अधिकार है, वे अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को आउट-ग्रो नहीं कर सकते हैं इसलिए कभी भी न्याय नहीं कर सकेंगे- चाहकर भी नहीं, तमाम नेक इरादों के बावजूद। क्योंकि फ़िल्म में कोई खलनायक नहीं हैं, बस अपनी-अपनी कंडीशनिंग के बंधक मनुज हैं।

चैतन्य तम्हाणे ने जिस 'ईज़' के साथ 116 मिनटों का यह कोलाज बुना है, वह अमूमन देखा नहीं जाता। फ़िल्म-माध्यम पर वैसा निष्णात अधिकार पाने में निर्देशकों की पूरी उम्र ख़र्च हो जाती है। सिनेमा में एक दृश्य से दूसरे दृश्य में जाने का बड़ा महत्व है, जिससे अर्थवत्ता का एक प्रकाश स्क्रीन पर उभरे और एक रेजोनेंस, एक अनुगूँज पिछले दृश्यों की आगामी कथानक में अनुस्यूत होती चली जाए। फ़िल्म चूँकि अलग-अलग समय पर लिए गए शॉट्स को जोड़कर बनाई गई एक रील होती है, इसलिए उसमें वैसी ऑर्गेनिक निरंतरता और आवयविकता तभी पाई जा सकती है, जब निर्देशक के दिमाग़ में वह पूरी तरह से स्पष्ट हो और उसके पास एक बेहतरीन एडिटर हो।

यहाँ पर यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अतीत में भारत में जो स्थान बाँग्ला और कन्नड़ सिनेमा का था, अब धीरे-धीरे मराठी सिनेमा भी उस स्तर पर जा रहा है। पिछले वर्षों में आई 'कासव', 'देऊल', 'श्वास' और 'कोर्ट' जैसी फ़िल्में इसकी बानगी हैं!