अरण्येर दिनरात्रि / चित्रशाला / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
सत्यजित राय का सोशल रियलिज़्म उन फ़िल्मों में सर्वाधिक निखरकर सामने आता है, जिनमें वे बंगाल के अर्बन मिडिल क्लास का चित्रण करते हैं। सत्यजित इस वर्ग की रग-रग से वाक़िफ़ हैं और बड़े तीखे विट, आइरनी, ह्यूमर के साथ उसके ब्योरे प्रस्तुत करते हैं। याद रहे कि बंगाली भद्रलोक का अभिजन होना ज़रूरी नहीं है, वह मध्य-वित्त, सर्विस क्लास का होकर भी अभिजनों सरीखा एरोगेंट हो सकता है। उसकी स्नॉबरी कुख्यात है। पर ज़रा-सी विपरीत परिस्थिति में भी उसके जीवन-आधार डगमगा सकते हैं।
सत्यजित ने अपनी जिन फ़िल्मों में इस अर्बन मिडिल क्लास (पेटी बूज्व) को चित्रित किया, उनमें 'महानगर', 'कंचनजंघा', 'प्रतिद्वंद्वी', 'सीमाबद्ध', 'जन-अरण्य', 'आगंतुक ' प्रमुख हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है- 'अरण्येर दिनरात्रि'। यह सत्यजित की सबसे अंडर-रेटेड फ़िल्म भी है। इसमें जिन्होंने जिस फ़ॉर्म का इस्तेमाल किया, वह अभिनव है। कहानी यह है कि चार नौजवान नौकरी से छुट्टी लेकर जंगल में समय काटने चले आए हैं। उनके कोई जीवन-मूल्य नहीं हैं। वे स्वप्नहीन और आधारहीन हैं। कॉर्पोरेट में काम करते हैं, लेकिन फ्रस्ट्रेटेड हैं। उन्हें यह भी नहीं पता कि जंगल में वे क्या करने आ गए हैं, पर ख़ुद को स्थानीय देहातियों और संथाल आदिवासियों से श्रेष्ठ समझते हैं। अपने ही देशवासियों के प्रति एक क़िस्म का कलोनियल-गेज़ उनमें आ गया है। वे अंग्रेज़ीदाँ हैं। वन विभाग के एक डाक बंगले में सभी काबिज़ हो जाते हैं। इसके लिए उन्होंने परमिट नहीं लिया होता है, पर चौकीदार को झूठ बोलकर, अपने फ़र्जी ओहदों की धौंस दिखाकर और कुछ रुपया घूस देकर उसमें प्रवेश पा लेते हैं। “थैंक गॉड फ़ॉर करप्शन!"- उनमें से एक कहता है। यानी अगर करप्शन नहीं होता तो जीना मुहाल था।
चौकीदार की बीवी बीमार है, पर वे उसे खाना बनाने को विवश करते हैं। गाँव से ज़रूरी सामान लाने के लिए एक और देहाती को काम पर रख लेते हैं। ख़ुद देर तक शराब पीकर समय काटते हैं। प्राय: सभी यौन-कुंठित हैं और संथाली लड़कियों की देहयष्टि का मुआयना करते हैं। उनकी दुविधा तब शुरू होती है, जब सम्भ्रांत वर्ग के एक परिवार से उनकी मुलाक़ात होती है, जिसमें दो युवा स्त्रियाँ हैं। एक विधवा है, दूसरी छात्रा है। वे लड़कियों को देखकर उनके घर के बाहर मंडलाने लगते हैं। “क्या यह करना उचित रहेगा?"- पूछे जाने पर वह कहते हैं, “जो कलकत्ते में अनुचित था, उसे हम कलकत्ते में ही छोड़ आए।” लेकिन जल्द ही उन्हें अपने डौल में आना पड़ता है, जब सम्भ्रांत परिवार के बुजुर्गवार के द्वारा उन्हें घर में निमंत्रित किया जाता है। वे यहाँ जंगल में लुम्पेन तत्त्व बनकर आए थे, लेकिन अब फिर से अभिजन बनने का स्वाँग करना पड़ता है। उन्होंने प्रण लिया था कि यहाँ हजामत तक नहीं बनवाएँगे, लेकिन लड़कियों को देखकर बनने-ठनने लगते हैं। कलकत्ता उनका पीछा करता हुआ यहाँ चला आया था।
फ़िल्म का एक दृश्य है। सौमित्र चटर्जी शर्मिला ठाकुर को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। “आप बड़ी सुन्दर हैं", "आपकी रुचियाँ बड़ी परिष्कृत हैं", जैसी थोथी बातें कहकर उन पर प्रभाव जमा रहे हैं। शर्मिला अपने जीवन में इस खेल को अनेक बार देख चुकी होती हैं। उनका कम्पोज़र सौमित्र को अपदस्थ करता है। अचानक वो पूछती हैं, “आपने बताया था कि डाक बंगले के चौकीदार की पत्नी बीमार हैं, क्या तकलीफ़ है उनको?”इस पर सौमित्र अवाक् रह जाते हैं। कहते हैं, "यह तो मुझे पता नहीं, मैंने तो मालूम भी करने की कोशिश नहीं की थी।“ शर्मिला उन्हें अपने साथ चौकीदार के बाड़े में ले जाती हैं और उसकी रोगग्रस्त स्त्री को दिखलाती हैं। एक क्षण में सौमित्र को अपनी हीनता का अनुभव हो जाता है। उन्हें लगता है कि वे इस स्त्री के समक्ष बौने हो गए हैं। शर्मिला कहती हैं, “आपको देखते ही मुझे पहला ख़याल यही आया था कि इस नौजवान के आत्मविश्वास को मुझे झकझोरना चाहिए।”सौमित्र कहते हैं, “और तुमने सच में ही ऐसा कर दिया।"
एक और दृश्य। वन विभाग के आला अफ़सर आ धमके हैं और युवकों की पोल खुल गई है। वे यहाँ बिना परमिट के डेरा डाले हुए थे। उन्होंने ख़ुद को वीआईपी घोषित कर रखा था। वे अफ़सर से कहते हैं, “माना कि हमने नियम तोड़ा, पर कभी-कभी नियमों में छूट भी दी जा सकती है, एक्सेप्शंस भी होते हैं।” कंज़र्वेटर पूछता है, “एक्सेप्शंस ज़रूर होते हैं, पर मैं आप लोगों को किस ख़ुशी में रियायत दूँ? एक वाजिब कारण बतला दीजिए?“ नौजवान बगलें झाँकने लगते हैं। वे शहरी, शिक्षित, मध्यवर्गीय हैं, इतने भर से उन्होंने स्वयं को नियमों से परे मान लिया था। शर्मिला और उनकी भाभी उन्हें वहाँ से रेस्क्यू करती हैं, यह उनके लिए और शर्मिंदगी का सबब है।
एक दृश्य तो बड़ा ही मज़ेदार है। चारों नौजवान डाक बंगले के बाहर कुएँ पर नहा रहे हैं। अचानक सम्भ्रांत परिवार की स्त्रियाँ गाड़ी से वहाँ चली आती हैं। वे उन्हें कोई वस्तु लौटाने आई हैं, जिसे वे उनके घर पर भूल आए थे। उन्हें आता देख एक तो कुएँ की दीवार के पीछे छिप जाता है। दूसरा वहीं ऑकवर्ड दशा में अधनंगा खड़ा रह जाता है। तीसरा आगे बढ़कर उनसे भेंट करता है। उनके सौजन्य के लिए शुक्रिया अदा करता है। शरीर पर साबुन मला है। अन्तर्वस्त्र में है। पर बड़ी नफ़ीस अंग्रेज़ी में शरीर को झुकाते हुए कहता है- “सो काइंड ऑफ़ यू, हैव अ नाइस ट्रिप...” यहाँ एक क्षण में अभिजन का डी-क्लासिफ़िकेशन हो जाता है। वह हास्यास्पद सिद्ध हो जाता है। इससे कुछ ही देर पहले इन नौजवानों ने आदिवासियों को डपटकर वहाँ से भगा दिया था कि “क्या दीदें फाड़कर देख रहे हो, पहले कभी किसी को नहाते नहीं देखा?"
दो घंटे की फ़िल्म में सत्यजित ने जाने कितने सबप्लॉट संजो दिए हैं। एक पिकनिक-दृश्य में मेमोरी गेम के माध्यम से उन्होंने चरित्रों के व्यक्तित्व को उजागर कर दिया। एक फ़्लैशबैक के माध्यम से एक पात्र की फ्रस्ट्रेटेड लव-लाइफ़ ज़ाहिर कर दी। एक दृश्य में विधवा स्त्री की यौनेच्छा का प्राकट्य कर दिया, जो एक बाँग्ला इंटेलेक्चुअल को नर्वस कर देती है। एक अन्य युवक एक संथाली लड़की का शोषण करता है, जिसका प्रतिकार एक आदिवासी युवक उस पर लट्ठ से प्रहार करके करता है। वह दृश्य देखकर मुझको सहसा आभास हुआ कि अपनी पहली फ़िल्म ('पथेर पाँचाली') से लेकर अन्तिम फ़िल्म ('आगंतुक') तक सत्यजित ने निरन्तर ट्राइबल्स और रूरल-क्लास के प्रति एक सहानुभूतिपूर्ण मानवीय दृष्टि का परिचय दिया था, लेकिन अधिक चर्चा हुई है सामंतों के प्रति उनकी सहानुभूतियों की ('जलसाघर' या 'शतरंज के खिलाड़ी')।
'अरण्येर दिनरात्रि' के उत्तरार्द्ध में सत्यजित सभी पात्रों की कहानियों को स्प्लिट कर देते हैं, जैसे नदी अपने मुहाने पर अनेक उपधाराओं में टूट जाती है। यह पोलिफ़ोनिक नैरेटिव-शैली है, जिसका बखान दोस्तोयेव्स्की के उपन्यासों में मिखाइल बाख़्तिन ने 'कार्निवालेस्क' कहकर किया था। शॉट मुस्तैदी से कट होते रहते हैं, दृश्य बदलते हैं, सम्पादन की परफ़ेक्ट, परिनिष्ठित लय में फ़िल्म का अन्तर्सत्य उभरकर सामने आता है। सत्यजित अपने दर्शकों को इस बात के लिए कभी माफ़ नहीं कर पाए थे कि उन्होंने ‘कंचनजंघा' और 'अरण्येर दिनरात्रि' को पर्याप्त सराहा नहीं, और पश्चिमी समालोचकों से भी उन्हें यह शिकायत रही कि उन्होंने 'अशनि संकेत' को पुरस्कृत किया, किन्तु 'अरण्येर' की यत्किंचित उपेक्षा कर बैठे। इसे राष्ट्रीय पुरस्कार तक नहीं मिला, जो कि 'हीरक राजार देशे' तक को दे दिया गया था। श्रेष्ठ कृति की उपेक्षा से अधिक कष्ट कलाकार को किसी और बात से नहीं होता। पर कम-से-कम अब तो दर्शक इस कृति की उपेक्षा न करें!