स्पर्श / चित्रशाला / नैनसुख / सुशोभित

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स्पर्श
सुशोभित


1. नई देहभाषा का आविष्कार

सई परांजपे की फ़िल्म 'स्पर्श' (1980) में नसीरुद्दीन शाह ने एक सर्वथा नई और विशिष्ट देहभाषा को आविष्कृत किया था। वह उसके बाद से फिर दोहराई नहीं गई इसलिए इन अर्थों में आज भी अद्वितीय है। कहते हैं जिसके शरीर की एक इंद्री बाधित हो, उसकी दूसरी इंद्रियों में अधिक सामर्थ्य स्वतः ही उत्पन्न हो जाता है। किन्तु इंद्रियाँ बहि:करण हैं, तीन अन्त:करण भी माने गए हैं- मन, बुद्धि और अहंकार। एक दृष्टिबाधित व्यक्ति के भीतर उसकी बुद्धि और अहंकार की क्या लीलाएँ होती हैं, वे प्रेम और साहचर्य में कैसे बाधा बनती हैं, वे कैसे उसकी प्रतिरक्षा करने के साथ ही उसे व्यापक-विश्व से पृथक् भी करती हैं, इसके अनेक सजीव विवरण 'स्पर्श' में प्रकट हुए हैं।

यह फ़िल्म दृष्टिबाधितों के जीवन और सामान्य लोगों से उनके संबंधों पर केन्द्रित थी। फ़िल्म की पटकथा सुनते समय ही नसीर ने निर्णय ले लिया था कि वे इसमें उस तरह से एक दृष्टिबाधित व्यक्ति का अभिनय नहीं करेंगे, जैसा कि तब तक हिन्दी सिनेमा में किया जाता रहा था। यह कि अभिनेता की आँखें सामने शून्य में ताकती रहेंगी, वह बाँहें फैलाए यहाँ-वहाँ टकराता-लड़खड़ाता रहेगा और उसकी देहभाषा से लाचारी या बेचारगी व्यक्त होगी। नसीर ने इससे उलट युक्ति अपनाई। उन्होंने अपनी आँखों को किसी एक जगह स्थिर नहीं रखा और उन्हें अन्तर्मुखी किन्तु तरल रखते हुए अपने आंगिक अभिनय का हिस्सा बना लिया, उन्होंने स्पेस की पैनी समझ को प्रदर्शित किया और लड़खड़ाए नहीं, और बेचारगी के उलट उन्होंने एक हठपूर्ण-अभिमान को अपने डौल में ढाला। किस बात का स्वाभिमान? एक बड़े अभाव के बावजूद जीवन-संघर्ष में स्वयं को बनाए रखने वाले व्यक्ति का, जो सदाशय-सहानुभूतियों के प्रति तीखी वितृष्णा प्रकट करता हो।

'स्पर्श' दिल्ली की ब्लाइंड रिलीफ़ असोसिएशन में वास्तविक लोकेशन पर, वास्तविक दृष्टिबाधित बच्चों के बीच फ़िल्माई गई थी। वह असोसिएशन के प्रिंसिपल मिस्टर मित्तल के जीवन पर आधारित थी। वह काला चश्मा नहीं लगाते थे, क्योंकि बकौल सई परांजपे, “उनकी आँखें बड़ी सुंदर थीं!“ इसीलिए नसीर ने भी फ़िल्म में काला चश्मा नहीं चढ़ाया। दृश्य में कुछ भी नहीं देख सकने वाली उनकी आँखें तब पूरे समय बोलती रही थीं। और उनकी पकी हुई, पाटदार आवाज़ उसमें रंग भरती रही थी।

'स्पर्श' में अभिनय के लिए नसीर ने मिस्टर मित्तल सहित अन्य दृष्टिबाधितों का बारीकी से मुआयना किया था और मन ही मन उनकी भाव-भंगिमाओं के नोट्स लिए थे। उन्होंने पाया कि दृष्टिबाधित लोग किसी को सम्बोधित करते समय उनकी तरफ़ अपनी आँखें नहीं बल्कि कानों को इंगित करते हैं। उन्हें रातों को सपने आते हैं और वे प्राथमिक रंगों की एक समझ रखते हैं। उनके शरीर का बोध कमर के ऊपर अधिक स्थित रहता है, यही कारण है कि वे कभी लैम्प-पोस्ट से नहीं जा भिड़ते, लेकिन अगर कोई वस्तु धरती पर पड़ी हो तो उससे ठोकर ज़रूर खा बैठते हैं। और सबसे बढ़कर उनके स्पर्श की संवेदना सामान्य लोगों की तुलना में कहीं अधिक तीक्ष्ण होती है।

फ़िल्म के एक दृश्य में उनकी प्रेमिका की भूमिका निभा रहीं शबाना आज़मी- जो अच्छी तरह से देख सकती हैं- जब अपनी सगाई के लिए एक साड़ी पसंद करती हैं, तो उसके रंगों को देखकर नहीं, उन्हें स्पर्श कर उनकी छुअन के अहसास के आधार पर चुनती हैं! और नसीर-शबाना का वह अतुल्य प्रणय-दृश्य, जिसमें शबाना अपने रंग और रूप से अपनी सुन्दरता को आँकती हैं और इसका प्रतिवाद करते हुए नसीर कहते हैं, तुम इसलिए सुन्दर हो क्योंकि तुम्हारा स्पर्श मुलायम है! 'स्पर्श' में नसीर और शबाना के अभिनय का खरा आस्वाद अनिर्वचनीय है। समान्तर-सिनेमा की इस शीर्ष-जोड़ी ने 'निशान्त', 'पार', 'मंडी', 'मासूम', 'स्पर्श', 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है', 'पेस्टनजी' आदि में एक-दूसरे से इतनी भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ निभाई हैं कि आज इतने वर्षों बाद उन्हें लौटकर देखने पर उनकी क्षमताओं पर अचरज ही होता है। 'स्पर्श' में उनका अभिनय इतना मार्मिक, सधा हुआ और जीवन्त है कि आप स्वयं को उनके संसार का हिस्सा बनाना चाहने लगते हैं।

नसीर ने फ़िल्म के लिए तैयारी करते समय शुरू में कुछ सेशंस आँखों पर पट्टी बाँधकर और हाई-पॉवर कॉन्टैक्ट लेंस लगाकर भी किए थे। उन्होंने अनिरुद्ध परमार नामक अपने उस चरित्र के साथ इतना एम्पैथाइज़ कर लिया था कि जब वे सेट्स पर गए और फ़िल्मांकन शुरू हुआ तो वे दृष्टिबाधितों के बीच अभिनय करने वाले एक नेत्रवान व्यक्ति नहीं, बल्कि उन्हीं में से एक बन गए थे। लेकिन विडम्बना ही है कि इस फ़िल्म में अभिनय के लिए नसीर को एक रुपया भी भुगतान नहीं किया गया था! कालान्तर में उनके एक हितैषी मित्र फ़िल्म के निर्माता बासु भट्टाचार्य से तग़ादा करके 12 हज़ार रुपयों का पारिश्रमिक नसीर के लिए लेकर आए। लेकिन नसीर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं फ़िल्म में इतना खो गया था कि मुझे ख़याल ही नहीं रहा मुझे इसके लिए मेहनताना भी लेना है।

'स्पर्श' का आभामण्डल विशिष्ट है। इसका उपलब्ध प्रिंट एक विशिष्ट सेपिया-टोन सरीखी कलर-पैलेट में मिलता है। उसकी लोकेशंस हलके बैंजनी धुंधलके में डूबी मालूम होती हैं। उसकी पटकथा, सम्पादन, फ़िल्मांकन, अभिनय और सबसे बढ़कर उसकी रिदम, टेम्पो और टेक्सचर ने उसे हिन्दी सिनेमा की शीर्ष उपलब्धि बना दिया है। क्या ही विडम्बना है कि एक संवेदनशील विषय पर बनाई गई यह उत्कृष्ट फ़िल्म अपने निर्माण के बाद चार वर्षों तक सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रिलीज़ नहीं हो सकी थी। लेकिन जब यह प्रदर्शित हुई तो सर्वत्र सराही गई और नसीरुद्दीन शाह ने इसके लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार (1985) जीता। उन्होंने दिखाया था कि एक स्पेशली-एबल्ड व्यक्ति का अभिनय कैसे किया जाता है। विश्व-सिनेमा में भी 'स्पर्श' इस तरह के अभिनय के लिए एक टेक्स्ट-बुक या रेफ़रेंस-पॉइंट बन गई है। किंवदंती हैं कि अल पचीनो ने भी 'सेंट ऑफ़ अ वुमन' में अभिनय से पहले, उसकी तैयारी के लिए 'स्पर्श' देखी थी!

2. दीर्घ-क्षण

('स्पर्श' के लिए)

कोहरे में खोई हुई सड़कें हैं! लेकिन ऐसा न होता तो भी फ़र्क ना पड़ना था। कि आँखों में ही धूप कहाँ है?

बड़ी ख़ुशगवार धुली-पुछी सुबह है! लेकिन ऐसा न होता तो भी फ़र्क नहीं पड़ना था। कि मन के अहातों में तो अंधेरा है। और एक दुछत्ती इमारत है, जिसके घुमावदार सीढ़ियाँ हैं। एक गीत की दिशा है, जिसमें चिड़ियाएँ किलकती हैं। बौने दरख्तों का पड़ोस है और दरवाज़ों पर साँकल नहीं है।

ख़ाली प्याला है, धुंधला दर्पण है, ख़ाली ख़ाली मन है।

और तब एक 'स्पर्श' है!

यह 'स्पर्श' वह दीर्घ-क्षण है, जब वे मिलते हैं, और दो अनिश्चित अंधकार मिलकर एक पारदर्शी उजाला बनते हैं।

और जो ऐसा ना होता, तो सचमुच बहुत, बहुत फ़र्क पड़ना था!