मेसी साहब / चित्रशाला / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
प्रदीप कृष्ण की फ़िल्म 'मेसी साहब' ब्रिटिश राज पर भारत में निर्मित सबसे सुंदर फ़िल्म है, और यह बात मैं सत्यजित राय की 'शतरंज के खिलाड़ी' और श्याम बेनेगल की 'जुनून' को देखने-सराहने के बाद कह रहा हूँ। क्योंकि प्रदीप कृष्ण की फ़िल्म में गोरे साहबों से तत्कालीन भारतवासियों के संबंध के जो बारीक़ अन्तर्सूत्र निरायास ही उभरे हैं, वे स्टीरियोटाइप्ड नहीं हैं, नाटकीय और पूर्वनियत नहीं हैं। उसमें वह दृष्टि है, जो ऊँचे पाये की कला में हमेशा सहज-पैबस्त रहती है। जीवन के रंगमंच पर मनुष्य किन भिन्न भूमिकाओं में अवतरित होते हैं और अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद वे किस तरह से अपने देश-काल-परिस्थिति से बाध्य होते हैं, इसके बड़े सजल, आत्मीय और मानवीय चित्र उस फ़िल्म में उभरे हैं। वह भारतीय सिनेमा की बड़ी उपलब्धियों में से है।
रघुबीर यादव की यह पहली फ़िल्म है और उनकी अब तक की सर्वश्रेष्ठ भी। आवाज़ में ख़राश और चेहरे पर गँवई सरलता वाले इस अद्भुत अभिनेता की प्रतिभा के साथ हिन्दी सिनेमा ने पर्याप्त न्याय नहीं किया। 'मेसी साहब' के लिए 1985 में उन्हें वेनिस में अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला, पर भारत में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार योग्य नहीं समझा गया। 'द हिन्दू' को कालान्तर में दिए एक इंटरव्यू में रघुबीर यादव ने बड़ी उदासी से कहा था, "’मेसी साहब' जैसी फ़िल्में रोज़ नहीं बनतीं। मैं पूरा जीवन इंतज़ार करता रहा कि मुझे उस जैसी कोई भूमिका फिर से निभाने का मौक़ा मिलेगा, पर अब मैं उम्मीद छोड़ चुका हूँ। मेरे भीतर मौजूद अभिनेता को अब फिर कभी वैसे परखा नहीं जाएगा।"
बहुत साल पहले बचपन में दूरदर्शन पर इस फ़िल्म को देखने की एक झीनी-सी याद मुझे थी। फिर इसे एन.एफ़.डी.सी. की डिजिटली रिमास्टर्ड डी.वी.डी. ख़रीदकर देखा। हाल में मुबी पर फिर देखा। यह 1930 का दशक है और गाँधी के बढ़ते प्रभाव से अंग्रेज़ हैरान हैं। मध्य भारत के आदिवासी अंचल में एक डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर ऑफ़िस का टाइप-बाबू कैसे ख़ुद को भूरा साहब समझता है, गोरे साहबों की नज़र में चढ़ने के लिए तिकड़में करता है और इस फेर में बड़ी ग़लतियाँ कर बैठता है, यह इस फ़िल्म का विषय है। भारत की चिर-परिचित जुगाड़ शैली में माहिर वह चलता पुर्ज़ा जिन बातों के लिए सराहना की उम्मीद करता है, उसके लिए उसे साहबों से फटकार मिलती है। हम इसमें रघुबीर यादव को अनेक भूमिकाओं में देखते हैं- अफ़सर, मदारी, सड़क बनवाने वाला सुपरवाइज़र-फ़ोरमैन, काग़ज़ों में हेरफेर करने वाला काइयाँ, छोटे लोगों को डपटकर उनसे काम निकलवाने वाला बाबू साहब, स्नेहिल पति और पिता, आइडेंटिटी क्राइसिस से गुज़र रहा एक क्रॉसओवर आदमक़द पुतला।
फ़िल्म का सबसे सुंदर पहलू है डिप्टी कमिश्नर एडम साहब (यह भूमिका थिएटर की दुनिया की नामचीन हस्ती बैरी जॉन ने बड़े माधुर्य से निभाई है) से फ्रांसिस मेसी की मित्रता। इससे बेमेल दोस्ती भला क्या हो सकती थी? पर घने, पथरीले जंगल से होकर सड़क बनाई जाना है। एडम साहब का मानना है कि जब अंग्रेज़ हिन्दुस्तान से जाएँगे तो यहाँ के लोग उन्हें सड़कें और रेलमार्ग बनाने के लिए याद रखेंगे। वह कहते हैं, “एक अच्छी सड़क बनाना दो ताज महल बनाने से ज़्यादा ज़रूरी है!“ मेसी बाबू इससे इत्तेफ़ाक़ रखते हैं। एडम साहब को इस काम को अंजाम देने के लिए उन जैसे ही होशियार सहायक की ज़रूरत है। वे भले आदमी हैं (अमूमन ब्रिटिश राज पर आधारित फ़िल्मों में गोरे साहबों को अच्छा नहीं दिखलाया जाता) और वे आख़िर तक मेसी की मदद करने की भरपूर कोशिश करते हैं, लेकिन मेसी अपनी नियति से हार जाता है। उसने अपनी क्षमता से ऊपर उड़ने की कोशिश की थी और धम्म से नीचे आ गिरा था। वह अन्तत: एक भूरा साहब ही था, फिरंगी नहीं था- बेसुरे स्वर में इंजील पढ़ने और अफ़सरों वाला टोप लगाने के बावजूद।
फ़िल्म में अरूंधती रॉय ने भी एक आदिवासी लड़की की भूमिका निभाई है। निर्देशक प्रदीप कृष्ण उनके पति हैं। फ़िल्म के दो दृश्यों में उन्होंने अरूंधती को शालभंजिका की मुद्रा में पैर से काँटा निकालते दर्शाया-पृष्ठभूमि में वृक्ष वाली तिमिरछवि। अरूंधती में वैसी स्त्रैण-रूपकात्मकता फिर कोई खोज नहीं सका। प्रदीप कृष्ण ने तीन ही फ़िल्में बनाईं। फिर वे दरख्तों के इश्क़ में गिरफ़्तार हो गए। फ़ील्ड-बोटनी का अध्ययन उन्होंने अपने बूते किया और दिल्ली के पेड़ों पर एक निहायत ख़ूबसूरत किताब लिखी। इसकी प्रेरणा उन्हें पचमढ़ी के अंचल में 'मेसी साहब' के फ़िल्मांकन के दौरान ही मिली होगी, जिसकी हरीतिमा, सरलता और मिनिमलिज़्म श्लाघनीय है। उनकी यह फ़िल्म हिन्दी सिनेमा का लाल-जवाहर है, जो धूल भरे रास्तों और घास भरे अहातों में कहीं रखकर भुला दिया गया है!