कस्तूरी कुण्डल बसै / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 1

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‘मैं ब्याह नहीं करूँगी।’

सोलह वर्षीय लड़की ने धीमे से कहा था, जिसे माँ ही सुन सके। कहाँ सोचा था कि उसकी यह बात आँगन के बीच ऐसे गूँजेगी कि घर की दीवारें हिलने लगें ! सब से पहले तो माँ ने ही भयभीत होकर देखा और नजरों से कहा-‘कस्तूरी, लड़कियों से ऐसे दुस्साहस की उम्मीद कौन कर सकता है ? वे तो माँ-बाप के सामने सिर उठाकर बात तक एक नहीं कर सकती, मरने का शाप हँस-हँसकर झेलती हैं और गालियाँ चुपचाप सहन करती हुई अपनी शील का परिचय देती हैं, तू मर्यादा तोड़ने पर आमादा क्यों हुई ?’

पीलिया के मरीज बड़े भाई ने सुना, उसका शरीर तो थरथराया, मगर मूँछें तन गईं। अभी तक कुँआरा है, बहन कुँआरी बैठी रही तो उसके ब्याह के बारे में कौन सोचेगा ? घर की इज्जत मेंटनेवाली बहन को, उसका वश चले तो खोदकर गाड़ दे। पीले रंग की आँखें लाल हो गईं। छोटे भाई ने सवाल किया-‘मेरी ससुराल के लोग क्या कहेंगे ? कैसे सामना करूँगा लोगों का, सोचते ही घबरा जाता हूँ।’

‘और बिरादरी ?’ जाति के नाम पर छोटे भाई ने दाँत पीसे। अपने परिवार की महिमा के चाँद में कलंकनुमा यह बहन...इसने ब्राह्मण परिवार के उपाध्याय गोत्र की सनाढ्य परम्परा मैली करने की ठानी है। कस्तूरी, ढीठ किशोरी, माँ की आँखों में उठती प्रचंड आग की ओर से मुँह फेरकर खड़ी हो गई। भाई बलबलाते रहे, वह मूली उखाड़ने और गाय-भैसों को चारा डालने के लिए खेतों पर बनी झोंपड़ी की ओर निकल गई। मामूली सूरत की साँवली और दुबली-पतली लड़की को माँ और भाइयों के गुस्से का कारण समझ में नहीं आ रहा था, जिन्होंने यह नहीं पूछा कि ब्याह आखिर वह क्यों नहीं करना चाहती ? उसे इस बात का भी अचम्भा था कि घर में बरसों से दो वक्त चूल्हा नहीं जला, पर ये लोग ब्याह की दावत करने के लिए तैयार हैं ! वह खुद से पूछती-ब्याह क्यों होता है ? उत्तर एक नहीं, कई आते, जिनसे वह इतना घबरा जाती कि दोबारा ब्याह के बारे में सोचना नहीं चाहती थी। अत: बकोशिया ब्याह के लिए सहमति-असहमति भुलाकर वह दिन-भर बरहे में (खेतों पर) बछड़े-बछियों और उन चिड़िया-तोतों के साथ रहती थी, जिनके लिए ब्याह के झमेले न थे।

मगर ऐसे कितने दिन तक ?


घर के हर कोने से शोरगुल जाल की शक्ल में उठा। उसे बाँधने लगा। माँ सामने खड़ी हो गई, अग्निवाण हाथ में नहीं था, माँ की जीभ पर था, छोड़ दिया-‘तू अपने भाइयों को खेत की मूली समझ रही है ? सिर काटकर धर देंगे और मैं तुझे बचा नहीं पाऊँगी, नादान ! बाप नहीं है तो क्या तू आजाद हो गई ?

कस्तूरी अपनी छोटी-छोटी आंखों से घूरती रही मां को। न नजर नीची की, न टस-से-मस हुई। छोटी-छोटी चोटों के चलते जिस माँ का नाम लेकर रोती-कराहती रही है, वही आज उसके फैसले पर ऐसी बेजार कि कोसों दूर छिटक गई ! ऐसा कहना क्या इतना बड़ा जुर्म है ? ब्याह न करना लड़की का अपराध है ? उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि माँ और भाई इस भुखमरी के समय उसके ब्याह के जश्न की बात कैसे सोच सकते हैं ? क्या वे उससे ऐसे आजिज आ गए हैं ? जब कि वह खेतों में जी-तोड़ मेहनत करती है।

माँ की खाट से अपनी खाट दूर करके बिछा ली थी लड़की ने। पास लेटने-सोने का मतलब कि ब्याह के घेरे की कथा फिर से शुरू। उस घेरे को काटने के तर्क से बाज नहीं आएगी कस्तूरी। कलह होगी, मौहल्ला जागेगा।

माँ ही बेटी के पास पहुँची। उसकी खाट पर पायताने बैठ गई। सोती समझकर पाँव सहलाने लगी। माँ की यह सदा की आदत है, जब भी वह खेत में पानी लगाती है, या निराई-गुड़ाई करके लौटती है, रात को माँ इसी तरह आ बैठती है, खाट पर।

मगर आज कस्तूरी पागल की भाँति हड़बड़ाकर उठ बैठी। माँ का रवैया जो आजकल चल रहा था, उससे खफा, कठोर स्वर में बोली-‘तू मुझे फुसलाने आई है चाची या कटे पर नमक छिड़कने ? खूब काट-छील चुकी न ?’’

माँ दो पल चुप रही। कस्तूरी ने उसके हाथों के बीच से अपना पाँव खींच लिया था, अपमानित-सी हुई, मगर माँ के बड़प्पन और ममता से भरकर बोली-‘‘नहीं बेटा, मैं तो यह पूछने आई थी कि सारी उमर कुँआरी रहेगी, अकेली। तुझे डर नहीं लगता ?’’

-डर ! डर ही तो लगता है चाची । सच्ची, ब्याह से बड़ा डर रहता है।

-सो क्यों ?

-मुझ में सती होने की हिम्मत नहीं है। मुझे मरने से डर लगता है-कस्तूरी की आवाज उस बछिया की-सी हो गई, जो रम्भाते हुए माँ को पुकारती है।

-हाय बेटा ! तू कैसा असगुन सोच रही है ! तू सती क्यों होगी ? सौ-सौ बरस जिए तेरा सुहाग। तू काए को मरेगी, मरें तेरे बैरी।

-चाची, पति मरेगा तो सुहाग जिन्दा नहीं रहेगा और सुहाग मरेगा तो मुझे ही मरना पड़ेगा। तेरी असीस में इतना दम कहाँ कि मुझे बचा ले।

-पर तेरा पति मरेगा, ही काए को ?

-वह बूढ़ा है, बीमार है, कब तक जिएगा ? जो वर ढूँढ़ा है, मुझे पता चल गया है। और यह तू भी जानती है कि पति की चिता पर बैठकर जिन्दा जल मरने वाली औरत को लोग पूजते हैं। जिन्दा रही तो जीते-जी मार डालेंगे। चाची, मैंने रेशम कुँवर सती की किताब पढ़ी है।

माँ चौकी-‘‘किताब पढ़ी है ?’’

अनर्थ क्यों हो रहा है, सूत्र माँ के हाथ आ गया। इस बार उसका स्वर धीमा, मगर इतना तीखा और नोंकदार था कि कस्तूरी बिलबिला जाए-‘‘तो तू पोथी-पत्तरा पढ़कर बरबाद हुई है ? हाय कुभागी तू होते ही न मर गई ! मैं तो सोच रही थी रामश्री की अम्मा मेरी छोरी के दूत कर रही हैं-कि कस्तूरी की चाची अपनी लड़िकिनी के लाच्छिन सुधारो। मैं तो खुद ही भोगे बैठी हूँ, तीसरे दिन रामश्री की चिट्ठी आ जाती है। डाकिया देखते ही मुझे जूड़ी का जुर चढ़ जाता है कि चिट्ठी नहीं आई, बेटी का दुख-दर्द चलकर आ गया।’’

माँ ने गुस्से में कस्तूरी की पीठ को धाँय-धाँय कूटा, बाद में अपनी छाती पीटी और दाँत घिस-घिसकर गालियाँ दी-‘‘मेरी सौत, तू खानदान की जड़ में दीमक, हम सब का सफाया कर देगी। हरजाई, कौन सा यार तुझे ब्याह होकर विदा होने से रोक रहा है ?’’

माँ जल्दी ही अपनी जुबान पर काबू न कर लेती तो हो सकता है भीतर का सारा ताप गला फाड़कर निकलने लगता, लोग सुनते और पूछते तो किस मुँह से बताया जाता कि जो गाँवों में अब तक नहीं हुआ, वह अनर्थ उनके घर होने जा रहा है। बताकर कहाँ रहा जाता ? बरहे में सारा घर कब तक मुँह बाँधे पड़ा रहता ? गाँव की लीक से हटना-गाँव समाज से बेदखल होना है, यह बात कस्तूरी नहीं जानती तब क्या अनुभवी माँ भी नहीं समझती ?

अब सवाल-जवाब कुछ भी नहीं...। होंठ भींचकर माँ रोने लगी। भीतर से टीसें उठतीं, आँसू बहते और होंठ बेकाबू से बुदबुदाते-‘‘अब इस कुल का क्या होगा ? आदमी भागा नहीं, हमें मार गया। गोरों के बूटों के आगे हमें पटक गया। जमींदार का कोड़ा लडकों पर बरसेगा। ये दोनों भी डर गए तो ?’’

-क्या कह रही है तू ?-कस्तूरी ने झुँझलाकर पूछा।

-तू सुनेगी, कहूँ ? पर तू ज्वानी में गर्रा रही है, तुझे हमारी विपदा से क्या लेना ?

कहकर माँ उठ खड़ी हुई तो खाट मचमचा उठी।