कस्तूरी कुण्डल बसै / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 2

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चलते-चलते सुना दिया माँ ने-‘‘बड़ा पीलिया का मरीज है, सब जानते हैं, पर ब्याह हो जाता तो सहारा पा जाता...पर तू अड़ियल छोरी ! आज को तेरी जगह मेरी रज्जो (बड़ी बेटी) होती तो गाय की तरह, जहाँ हम कहते, चल देती। तू तो आदमी के बुढ़ापे और बीमारी से बिदक रही है, यह नहीं पता कि तेरा बाप मुझे जवानी में ही छोड़कर भाग गया। गोरों की मार बुढा़पे और बीमारी से बड़ी है, तेरे भइया भी डर के मारे भाग जाएँगे। तू यहाँ चौंतरा करके बैठी रहना, यही चाहती है नठिया (नाँठ करने वाली) ?’’ आखिरी वाक्य कहकर माँ ने धम्म से पाँव पटका जैसे कस्तूरी को कुचल डालना चाहती हो।

मां कुछ भी कहे, कस्तूरी को पढ़ना अच्छा लगता है।

कलम, खड़िया, तख्ती और पोथी की फिराक में वह दिन-भर घूमा करती है, जिसके कारण घर और खेत के कामों में लापरवाही हो जाती है और वह भाई की फटकार के बाद माँ की मार खाना मंजूर कर लेती है। पढ़ाई के कलम-खड़िया जैसे साधन-प्राप्त करना कस्तूरी जैसी लड़की के न भाग्य में है, न बस में। उसने धरती की नरम रेत को तख्ती माना है। उँगली ही कलम बना ली। अपनी सहेली रामश्री को गुरु समझा है। उसी का लिखा एक कागज दीक्षा में ले आई। कागज पर ओलम लिखी है। ओलम के अक्षर जोड़कर मात्रा मिलाकर शब्द बनाना सीखने लगी। माँ से चुप्पे-चोरी वह किताब पढ़ने की विद्या तक आनेवाली थी कि रामश्री का ब्याह हो गया, वह ससुराल चली गई। ब्याह होने का सबसे बड़ा नुकसान उसे रामश्री को खोने के रूप में हुआ था। यह अलग बात है कि रामश्री की चिट्ठी जब भी आती है, उसकी अम्मा कस्तूरी को ही पढ़ने के लिए बुलाती है। चाची से कुछ भी कहे रामश्री की अम्मा, मगर चिट्ठी पढ़ती हुई कस्तूरी को वह अपनी बेटी रामश्री की तरह ही देखती है। रोती है तो उसी के कन्धे पर हथेली धर लेती है। कस्तूरी समझ लेती है, बहुत घबरा रही है रामश्री की अम्मा।

सो कस्तूरी नाम की लड़की ने कभी इस बात का मलाल नहीं किया कि उसके पास खड़िया, तख्ती और कलम नहीं है। दूसरी बात यह थी कि वह जान गई थी-इस गृहस्थी में खर्चा का अंत नहीं। हर दम न कपड़े-लत्ते पूरे हों, न मिर्च-मसाले ठीक से जुटें। ऊपर से छोटे भइया की बहू के नेगचार दम नहीं लेते। चाची और भाई हलकान रहते हैं। चाची को लगान चुकाने की जूड़ी बारहों मास चढ़ी रहती है।

सबसे बड़ा और कड़ियल खर्चा-सरकारी लगान है, कस्तूरी क्या जानती नहीं, इसी के कारण बाप भागे, इसी के कारण भाई भाग जाने की हालत में हैं। चाची कहती है-सुरसा मुख लगान ! जितनी जमीन नहीं, उतनी रकम। गोरे अँधेर करें तो सूरज भी डर के मारे छिपा रहे। इस धरती पर राज उनका है, आसमान के देवताओं को भी पीट-पीटकर मार डालने की कूवत रखते हैं गोरे लोग।

कस्तूरी जानती है कि माँ के प्राण इसी बात को लेकर हाहाकार कर रहे हैं, पर कहे किससे ? बाँटे किससे ? यहाँ सभी की हालत एक-सी है-काशीफल उबालकर खा लो, कुलफा रांधकर पेट भरो। आम की गुठली खाओ, क्योंकि आम का गूदा जमींदार के यहाँ इकट्ठा होता है। बहेरा और कोदो के सिवा अन्न जैसी चीज नहीं।

माँ कहती है, साग-पात से पेट भरकर भी इस बात को वह भूल नहीं सकती, पर रात के अँधियारे-सी घिरती आती इस लड़की की जवानी, बेटो की राह में अँधेरा करनेवाली है, भूख-प्यास भुला डालती है ? रीता कलेजा चटकने लगता है। भगवन्, क्यों जन्म देता है लड़कियों को ? लोग कहते हैं लड़कियाँ पापों का फल होती हैं, वे फल विषफल भी हों तो आदमी क्या करें ? बेटी रूपी दुश्मन को कोसते रहो, धिक्कारते रहो, छुटकारा नहीं मिलनेवाला। माँ सिसक-सिसककर रोई थी।

रोकर हलकी हुई कस्तूरी की चाची (माँ) चुपके से बेटों के पास गई थी, जगह तलाशी, जो न घर थी, न बरहे में। कस्तूरी की पहुंच से दूर एक घेर में।

लेकिन कस्तूरी भी ऐसी मिट्टी की नहीं बनी कि कोई रूँध ले।

माँ के सामने आकर खड़ी हो गई और दोनों बाँहें फैलाकर रास्ता रोक लिया-‘‘क्या कह रही थी चाची ? इस लड़की का ब्याह इस तरह तय करो कि भनक न लगे ? ब्याह हुए पीछे कौन चूँ-चपड़ कर सकती है ? चुटिया पकड़नेवाला पाँच हाथ का आदमी काबू में रखता है।’’

बेटी की बात सुनी तो माँ थरथरा गई, ऐसे देखा, जैसे कह रही हो-हाय बीजुरी, तू वहाँ थी ? मां का कलेजा कब छोड़ेगी ? पर माँ ने उस समय बेटी के गोड़ गह लिये थे, हाहा खाई। बिनती की कि ब्याह तेरे बुरे के लिए नहीं, भले कि लिए होगा।

वज्र के मानिन्द कस्तूरी। उसकी माता ने गले में कौर उतार सके, न चैन की नींद सो सके। कस्तूरी देखती कि चाची रात में उठी बैठी है। आँगन और दालान में चमगादड़-सी फेरी खा रही है।

लड़के बिगड़े बछड़ों-से छिटकने के लिए तैयार। छोटा अपनी बहू को मायके छोड़ आया है, क्योंकि लगान की वसूली के लिए कारिन्दे आनेवाले हैं। और नकटी लड़की ने संग नहीं दिया तो बदले की सजा माँ को आसानी से दी जा सकती है। तभी तो माँ गुहार उठी, पास आकर-‘‘कस्तूरी, जिसकी बेटी कुँआरी रहती है, उसकी सात पीढ़ियाँ गल जाती हैं, समझ ले।’’

मगर लड़की बहरी हो गई।


कलह और बढ़ी, क्योंकि कुर्की का ऐलान हुआ। लगान देना किसके बस की बात है और कुर्की के लिए जिन्दगी हाजिर है, जैसी अवस्था सामने थी। माँ ने गालियों की आँधी बेटी की ओर छोड़ दी-‘‘यह सतमासी तब जनमी थी, जब बड़ा बेटा मरा था। सत्यानाशिनी का जन्म ही जंजाल की तरह आया। पेट में माँ ने पसेरी मार ली थी, वह फिर भी नहीं मरी। पैदा होते ही भंगिन से फिंकवाई जा रही थी कि अभागी रो पड़ी।’’ माँ का मानना है कि संसार में औरत के मुकाबले कोई सख्तजान नहीं। बेटों को रोग-धोग व्यापे, इसे कभी छींक तक न आई। अरे...गाय मरे अभागे की, बेटी मरे सुभागे की। मगर बेटी मरे तो सही।

असल मामले की धुरी हिल गई तब जब साफ हो गया कि अब कस्तूरी को देकर बदले में बड़े को भँवराया नहीं जा सकता। यह लड़की उस आदमी से ब्याह करने के बदले कहीं भाग जाएगी, जिसने अपनी बहन बड़े को देने के लिए कहा है और बदले में इसे माँगा है। आगे समस्या यह भी है कि इसको घर से कौन विदा कर ले जाएगा ? ‘ब्याह नहीं करेगी’ का ऐलान करके यह किसी सपनों के राजकुमार की ख्वाइश कर रही है क्या ? राजकुमार तो खैर सपने में ही होता है, मेल का किसान लड़का भी मिलेगा ? मिलेगा तो ब्याह का खर्च कैसे उठेगा ?

कस्तूरी क्या जानती नहीं, मां की चिन्ताएँ हजार हैं, और गाँव में बद्री बनिया के सिवा गाँठ का पूरा कोई नहीं। इस गाँव से उस गाँव तक के अनेक गाँवों तक साहूकार और जमींदार की हैसियत ही आदमियों जैसी है, बाकी तो सब सूद और लगान की एवज मुफ्त है-भाई कहते हैं। साथ ही, लड़की की देह का भराव देखकर माँ का मन सूखे डंठल-सा काँपता है तो रोगी भाई का चेहरा हल्दी की गांठ-सा सिकुड़कर छोटा हो गया है और आँखों में पीली आँधी-सी उठती है, जो कहती है-कमबख्त लड़की, तुझे लड़कियों की तरह भाई का दुख भी नहीं सालता ? बहनें भाइयों के लिए कहां-कहाँ से नहीं गुजर जातीं।–धिक्कार के तूफान में घिरी है कस्तूरी।

अँगरेजों का हुक्म ! कुर्कियों का जलजला।

गाँवों में हाहाकार मच गया। माना कि हाहाकार नया नहीं, मगर चोटें नए सिरे से पड़ती हैं। यातना देने के नए-नए ढंग गोरों ने खोज निकाले हैं, जैसे वे लगान लेने के बहाने आदमी को सजा देने में आनन्द पाते हों कि उनके आतंक का साम्राज्य जमा रहे तो अँगरेजी सत्ता को कौन उखाड़ सकता है ? बस हुकूमत ने दंड देने के लिए गली-गली पिटाईखाने खोल दिए और ढोर-डंगर, कपड़ों के साथ गृहस्थी के बर्तन, भाँड़े, डाकुओं की तरह लूट लिये। आदमी की तह-परतें उधेड़ डाली, मगर सोने-चांदी का कील काँटा नहीं मिला।

जमींदार कहने के लिए अपना है, क्योंकि रंगरूप से अपना जैसा है, मगर मातहत तो गोरों का है। किसी कुर्की-नीलामी से लगान की भरपाई न हो तो किसानों को पिटवाने में जुटकर अपनी जमींदारी बरकरार रखता है, क्योंकि जानता है, अपनों पर जुल्म करने की एवजी में तरक्की और इनाम-खिताब मिलने की सम्भावना रहती है। अगर जालिम नहीं बन पाएगा तो जमींदार किस बात का ? हक छीन लिया जाएगा। सो डर और असुरक्षा लगातार खूँखारी की ओर ढकेलते जाते हैं। आज किसानों के कपड़े उतरवा लेने के बाद खाल उधेड़ने का हुक्म हुआ है।

कस्तूरी ने ये सारी बातें चबूतरे पर बैठे, चिन्ता में डूबे हुए, भयभीत लोगों के मुँह से सुनीं तो उसका कलेजा मुँह को आ गया। कलेजे पर बड़े भाई की छवि उतर आई जिसका नाम नन्दन लाल वल्द ज्वाला प्रसाद उसी सूची में शामिल था और यह तय था कि लिखे नामोंवाले व्यक्तियों के साथ खून की होली खेली जानी है, उनके ही खून से।

किशोरी लड़की का साँवला चेहरा काला-सा पड़ गया। होंठ खुल आए। आँखों में अँधेरे का रेत भरा हो जैसे। वह लम्बी-लम्बी उसाँसे लेती हुई माँ को सिर्फ महसूस कर रही थी, देख नहीं पा रही थी। उसने ताकत लगाकर, लगभग आँखें, फाड़कर देखा-माँ का यह रूप...? उसने माँ के अनेक रूप देखे हैं-रोते-घबराते, चीखते-चिल्लाते, भीख-माँगते, रिरिआते, लेकिन आज इनमें से कुछ नहीं, माँ का चेहरा आग की तरह गनगना रहा है। अँगार गर्दन पर सँभाले दुबली-पतली मझोले कद की माँ अपना जर्जर लहँगा समेटती हुई और ओढ़नी सीने पर ढँकती हुई कभी इधर भागती है, कभी उधर। मौहल्ले की सारी औरतें ज्यों जौहर के लिए तैयार हो रही हों, भाग-भागकर पौर में जुटने लगीं।