कागज पर चिपका समय / भाग 2 / श्याम बिहारी श्यामल
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रुखसाना ने पुरियां तलीं और आलू की भुंजिया। पालक का साग और घर का लगाया आम का अचार। दही के साथ छेना के रसगुल्ले भी उसने खूब पसंद किये। कुछ ही देर में गोदौलिया वाले फिर से मारुति वान लेकर आ गये थे। रोली वहां से खूब हंसी-खुशी ऑफिस के लिए निकली।
आसिफ के ऑफिस पहुंचने में कुछ देर हो चुकी थी। वे अपने कक्ष में घुसने लगे तो दरवाजे पर ही चपरासी मिल गया, “बडे़ साहब आपको खोज रहे थे... अभी उन्हीं के चेम्बर में हैं सभी लोग... आप भी हो आइये... आज से यहां एक नयी मैडम आयी हैं न!”
आसिफ भीतर घुसे। जल्दी-जल्दी आलमारी से लमही वाली फाइल निकाली और कांख में दबाये गति के साथ बाहर की ओर लपक पड़े।
भीतर आता देख डायरेक्टर दूर से हंसे, “अरे, आइये जनाब! कहां थे! आपके बिना सब अधूरा हो जाता है! देखिये यह हमारी नयी सहयोगी हैं रोली शर्मा! “रोली ने नमस्ते की, आसिफ ने सिर हिलाया। चेम्बर भरा था। अतिरिक्त कुर्सियों की तीन कतारें। प्रोग्राम एक्जक्युटिवों के अलावा इंजीनियरिंग के लोग भी थे। आसिफ का ध्यान गया, वहां डिप्टी डायरेक्टर नहीं थे! क्यों, हुआ क्या? क्या वे आज ऑफिस ही नहीं आये हैं या उन्हें साहब ने यहां बुलाया ही नहीं है! ... लेकिन ऐसा तो हो नहीं सकता कि जहां सबको बुलाया गया हो वहां किसी एक को छोड़ दिया जाये! ...
कुछ ही देर में एक-एक कर लोग खिसकने लगे। डायरेक्टर ने आसिफ से पूछा, “क्या हुआ आपका लमही वाला प्रोजेक्ट? कहां तक पहुंचे ? आज तो उस पर डिस्कस करना था न!”
“हां, साब! मेरा तो कांसेप्ट पूरा तैयार है... यह फाइल तो लेकर ही आया हूं!”
“मेरा खयाल है यह वेरी एक्सक्लुसिव कार्यक्रम होगा! प्रेमचंद की कहानियां और उपन्यास तो सबने पढ़े हैं और पढ़ रहे हैं, लेकिन उनके निधन के सात दशक बाद प्रेमचन्द साहित्य में चित्रित पात्रों की अगली पीढि़यों की क्या हालत है, यह जानना सबके लिए एक खास अनुभव होगा... “इसी बीच घंटी बजने पर उन्होंने फोन उठा लिया। बातें करने लगे। बड़ों की बातें भी बड़ी और लम्बी-चौड़ी भी। उस तरफ सम्भवतः कोई बराबर का अधिकारी ही था। बातें करते हुए कुछ ही क्षणों बाद डायरेक्टर ने फाइल मोड़कर आगे कर दी। बाद में डिस्कस करने का इशारा। वे स्वीकार में सिर हिलाते फाइल उठा बाहर आ गये।
कक्ष में लौटकर उन्होंने घंटी बजायी। चपरासी तुरंत हाजिर। उसके हाथ में पानी का मग था जिसे उसने आलमारी के पास तय स्थान पर रखा और सामने आकर खड़ा हो गया। आसिफ ने गौर से ताका, “साहब के चेम्बर में वे लोग कब पहुंचे थे ? मेरे आने से कितना पहले ?”
वह बताने लगा, “बस, आप आये उसके पंद्रह-बीस मिनट पहले! ... बड़े साहब आज दस बजे ही आ गये थे.. कुछ देर चेम्बर में बैठे उसके बाद वर्मा जी को घर से बुलवा लिया.. उनके साथ मुआयना करने स्टूडियो में गये... वहां वर्मा जी पर बड़े साहब ऐसे बिगड़े कि मत पूछिये! एकदम कुत्तेक जैसा झिड़का! उसके बाद डिप्टी साहेब को खोजवाने लगे.. वे अभी घुस ही रहे थे.. मालूम चला तो दौड़े-दौड़े पहुंचे.. फिर इंजीनियरिंग वालों को बुलावा। वे लोग दो-तीन थे, दौड़ते हुए आये... पता नहीं किस बात पर साहब खूब बिगड़ते रहे.. उसी समय नयी वाली मैडम आ गयीं। बड़े साहब उस समय डिप्टी साहब पर बिगड़ रहे थे। उसके बाद सब शांत हो गया। थोड़ी देर में डिप्टी साहब मुंह लटकाये बाहर आ गये... इसके बाद तो आप आ ही गये...”
आसिफ की इच्छा हुई कि कुछ और पूछें किंतु इससे अधिक बतियाना सुरक्षित नहीं लगा। यों भी बात-बात में डिप्टी डायरेक्टर के प्रति उसका हल्का लहजा आफिस के अनुशासन के प्रतिकूल था। आखिर यह कोई चौपाल नहीं, डीडी का आफिस है! अनुशासन की गंगा ऊपर से चलकर ही तो नीचे पहुंचेगी! जब बड़े पदों वाले ही अनुशासन को रौंदेंगे, तो किसी छोटे कर्मी से भला क्या उम्मीद बचेगी! विचारों के बिखरे दाने समेटते हुए मुस्कुराये “यार, हो सके तो बढि़या चाय पिलाओ! लेकिन पहले जरा देखो तो स्टूडियो में सिन्हा जी हैं कि नहीं! हों तो उन्हें कह देना, कल जो कृषि वाला प्रोग्राम शूट हुआ था उसमें कुछ टेक्स्ट चेंज है... इधर जब भी आयें, हमसे जरुर मिल लें!”
चपरासी जैसे ही निकलने लगा, रामशंकर घुस आये। उसे रोकते हुए हंसे, “हें-हें... हें-हें... भाई साहब, सिर्फ तरल ही मंगा रहे हैं क्या ? अरे कुछ ठोस भी आ जाये! सबेरे ऑफिस का फोन आते ही मैं सिर पर पांव रख भागता हुआ आ गया। चाय भी नहीं पी सका था...”
आसिफ ने चपरासी को कुछ लाने का संकेत दे दिया। वह चला गया। रामशंकर ने टेबुल पर सिर आगे बढ़ाया, स्वर धीमा, “कुछ पता चला कि नहीं ?”
आसिफ को चर्चा पसंद नहीं थी, किंतु मुंह से अनजाने निकल गया, “कौन-सी बात?”
“अरे ई गुरुआ किस्मत का भी सांड़ है, एकदम सांड़!”
आसिफ ने फाइल खोल ली। पलटते हुए पन्नों पर नजर गड़ा ली। रामशंकर की आवाज और अंदाज में खनक, “...औरों को जाल में लेने में तो उसे थोड़ी-बहुत मशक्कत भी करनी पड़ी, किंतु यह जो नयी वाली मैडम आयी है यह तो है भी एकदम फूलझड़ी और उसे एकबारगी मिल भी गयी बिन मांगी मुराद की तरह! खुले मुंह में गब्ब-से गिरे रसगुल्ले जैसी!”
रामशंकर ताड़ नहीं सके, यह अंदाज-बात आसिफ के सिर पर बिजली की तरह गिरी। भीतर ही भीतर वे जैसे आग से नहा गये हों! रामशंकर तो अपने रंग में थे, “भाई साहब, गुरुआ के चेम्बर में कमोवेश वही नजारा है... वही रसगुल्ले-समोसे, वही झकास विदेशी सुगन्ध, वही रीतिकाल! कॉफी दूसरी बार भी पहुंच गयी है.. आज तो भीतर से खिलखिलाहटें भी बाहर आ रही हैं!...”
अब खुद को सम्भाले रख सकना मुश्किल हो गया था आसिफ के लिए। शरीर में जैसे चार हजार वोल्ट का करंट मचल रहा हो! माथा धधकने लगा। अचानक वे बौखलाकर उठे और चीख पड़े, “मिश्रा जी! बंद कीजिये यह बकवास!! ...एकदम बंद!! बस, अब और नहीं! एकदम नहीं! मैं आजिज आ चुका हूं आपसे! छिः आप ऐसे घटिया सोच के आदमी हैं! बर्बर, असभ्य, जंगली! नो, प्लीज, माफ करें मुझे! ...रोज-रोज इस तरह मुझे टार्चर...”
रामशंकर हक्का-बक्का। काटो तो खून नहीं। बैठे ही बैठे जैसे पत्थर! आसिफ के शब्द दहक रहे थे, “बेचारी एक लड़की ने अभी ज्वायन भर किया है कि आप शुरू हो गये! ...पहले दिन पहले ही घंटे से गलत और गंदली गॉशिप ! ...वैरी शैड! ...शर्मनाक!”
अचानक तमतमाकर खड़े हो गये रामशंकर। धीमी ही आवाज में लेकिन सीधी चुनौती, “यह मेरा सिर है और वह आपका जूता! मेरी बात गलत निकले तो आप चाहें तो जूते से पीटते हुए मेरी जान तक ले लें, मैं एक शब्द भी बोलूं तो पैदाइश का अंतर! ...आप अभी खुद जाइये! जाकर खुद देख आइये! मैं भला गॉशिप क्यों फैलाने लगा! मैं भी आप ही की तरह इन चीजों को एकदम सिरे से नापसंद करता हूं। अंतर सिर्फ यही है कि मैं गलत देखकर बेचैन हो जाता हूं जबकि आप इस पर चिंतन करने लगते हैं। ... आपके इसी गुण का तो मैं प्रशंसक रहा हूं... बल्कि यही सब तो मैं आपसे सीखने आता हूं!”
बहुत दुविधा में आ गये थे आसिफ। चुपचाप ताकते रहे। रामशंकर बताने लगे, “डायरेक्टर के चेम्बर से निकलकर घंटा भर से नयी मैडम बाकायदा वहीं बैठी हुई है! आप पता तो कीजिये वह अभी भी वहीं है! ...”
आसिफ जैसे बेहोशी से निकले हों। मुंह से खुद-ब-खुद निकला-सॉरी! बैठते हुए वे बहुत गौर से रामशंकर का मुंह ताकते रहे। रामशंकर के चेहरे पर अपमान बिच्छू की तरह चिपका हुआ था और डंक पर डंक चस्पां किये जा रहा था। रह-रहकर तीव्र खिंचाव उभर रहा था और त्वचा फट पड़ने की हद तक खिंच-तन जा रही थी, “साहब के कमरे से निकलते समय नयी मैडम ने मुझी से पूछा कि डिप्टी डारेक्टर साहब का चेम्बर किधर है! मैंने उसे यहां तक समझाया कि आपको अपने सेक्शुन में जाकर पहले अपनी कुर्सी सम्भालनी चाहिए... इस पर वह कहने लगी कि वह यहां से निकलकर सीधे डिप्टी साहब से मिलेगी इसके बाद ही कहीं जायेगी! उसके स्पष्टे आग्रह पर मुझे ही डिप्टी के चेम्बर तक ले जाकर उसे पहुंचाना पड़ा!”
एक झटके के साथ उठ खड़े हुए आसिफ, “चलिये तो मिश्रा जी, जरा टायलेट की ओर से हो आया जाये! “रामशंकर चुपचाप बैठे रहे। तभी उधर का चपरासी आ गया, “सर, आपको डिप्टी डायरेक्टर साहब बुला रहे हैं!”
“चेम्बर में और कोई है क्या?”
“हां, नयी वाली मैडम भी हैं! “चकरा गये आसिफ। तेज गति से बाहर निकले। दिमाग जैसे एकदम चक्करघिन्नी! रोली के सामने वे इस तरह क्यों बुला रहे हैं भला! बात क्या है! इस लड़की ने ही कोई चर्चा तो नहीं कर दी! ... क्या चर्चा कर सकती है वह! वे अभी दरवाजे के पहले ही थे कि रोली भीतर से निकलती दिखी। उसने झटके से देखने के बाद नजरें नीची कर ली और बगल से ही आगे निकल गयी। ज्यों ही परदा हटाकर उन्होंने भीतर कदम बढ़ाया डिप्टी डायरेक्टर ने खास अंदाज में जोरदार स्वागत किया, “अरे, आइये आइये जनाब! कहां रहते हैं आप, कुछ पता ही नहीं चलता!”
उनके इस अचानक इतने खुले व्यवहार ने थोड़ी चिंता बढ़ायी। वे गौर करने लगे कि इसमें व्यंग्य वगैरह है या कुछ और! कुर्सी पर सामने बैठते हुए वे भरसक मुस्कुराये, “हुक्म करें साब! मैं तो यहीं हूं.. रोज ऑफिस में ही रहता हूं.. दो महीने से कहीं बाहर भी नहीं गया...”
“बाहर जाते तब तो पता ही चल जाता न! ऑफिस में रहते हैं, इसीलिए तो भेंट नहीं हो पाती! वही तो पूछ रहा हूं कि ऑफिस में कहां किधर छुपे रह जाते हैं! भेंट का मतलब तो देखा-देखी कत्त ई नहीं हैं.... जब तक कुछ बोलना-बतियाना, हंसना-हंसाना...”
आसिफ ने गौर किया, साल भर में आज यह पहला मौका है जब यह शख्स इस कदर जुड़कर बात कर रहा है! लेकिन क्यों! उन्होंने मुस्कुराने का प्रयास किया, “हां, सर! लेकिन आपने मुझे अभी याद किया है! बताइये... क्या आदेश है...”
“आदेश नहीं! केवल साथ बैठकर चाय पीने के लिए बुलाया है आपको! साथ ही आपको अपना आभार भी जताना है...”
“आभार ! किस बात के लिए? मैं कुछ समझा नहीं!”
“रोली अभी यही सब बता रही थी कि यह आपकी पूर्व परिचित है और आज सुबह आप और आपकी पत्नी ने इसे मेरे बारे में सबकुछ बता-समझा दिया है...”
कलेजा जैसे धक् से करके रह गया। यह क्या! यानी कि उसने वह सब इन्हें बता दिया है जो सुबह इसे समझाया गया था! लेकिन ऐसा उसने किया ही क्यों! क्या सोचकर! यह तो भलाई के बदले भाला मिलने वाली बात ही हुई न! तो, अब क्या होगा! क्या किया जाये! क्या सीधे उनका पांव पकड़कर माफी ही मांग ली जाये! तभी डिप्टी डायरेक्टर ने आगे कहा, “मुझे आपको देखकर लगता रहा था कि आप औरों से अलग हैं! संजीदा और सलीकेदार! आखिर मेरी धारणा सही निकली... आप बिल्कुल वैसे ही साबित भी हुए... “यह व्यंग्य कर रहे हैं या सचमुच इन शब्दों का वही अर्थ है जैसे कि वे सुने जा रहे हैं! आसिफ जिस बारीकी से उनके एक-एक शब्द को जौहरी की तरह पकड़-परख रहे थे उससे कहीं ज्यादा तन्मयता से उनका मुखमंडल पढ़ रहे थे।
डिप्टी डायरेक्टर मुग्ध-मगन थे, “रोली ने बताया कि आप दोनों पति-पत्नी ने इसे सुबह ही समझाया कि आफिस में फालतू लोगों से बचना है और केवल डायरेक्टर साहब और मुझसे मिलकर रहना है! इस क्रम में आपदोनों ने मेरी कितनी और क्या-क्या तारीफ की, रोली वह सब डिटेल बता रही थी! ...भई, ग्रेट! मैं यह सब सुनकर इतना खुश हुआ कि कुछ मत पूछिये...! वैसे मेरे बारे में आपका यह खयाल सही है कि मैं आज तक लोगों की मदद ही तो करता आया हूं... भई, बड़े होने का मतलब ही यही है कि छोटों को संरक्षण दो! मैं तो अपना हक अदा कर रहा हूं! ... मुझे आपका यह अंदाज बहुत-बहुत अच्छा लगा। ... और रोली... सी इज वेरी टैलेंटेड, स्मार्ट! ग्रेट, ग्लैमरस एंड गोल्डेन फ्यूचरेस्टिक! “आसिफ के मुर्दा होते शरीर में जैसे जान वापस आ रही हो। यह विश्वाास अब जमने लगा था कि वे कम से कम व्यंग्य तो नहीं ही कर रहे। डिप्टी डायरेक्टर आगे कह रहे थे,” ...रामशंकर मिश्रा वगैरह तो टुच्चे हैं... देखियेगा, मौका मिलने पर इसको तो मैं कभी भी नाप दूंगा!”
आसिफ ने हाथ जोड़ लिये, “सर, चाय फिर कभी आकर पी लेंगे... अभी यहां से लाने जायेगा तो देर करेगा! वैसे मेरे कमरे में चाय आ चुकी होगी... मुझे जैसे ही पता चला कि आप याद कर रहे हैं तो मैं तुरंत दौड़ते हुए यहां आ गया... आप अगर इजाजत दें तो मैं...”
कुर्सी से उठते हुए डिप्टी डायरेक्टर ने किसी कद्रदां की तरह हाथ मिलाकर उन्हें विदा किया। आसिफ पसीना पोंछते हुए अपने कक्ष में लौटे। रामशंकर वैसे ही चुपचाप बैठे थे। उन्होंने रामशंकर से पूछा, “चाय-समोसे लेकर वह अब तक नहीं आया क्या?”
रामशंकर ने मुंह नहीं खोला। आसिफ टेबुल पर सामने रखी फाइल उठाकर पन्ने पलटने लगे। अचानक उठकर बाहर निकल गये रामशंकर। बिना कुछ कहे। आसिफ चाहकर भी उन्हें आवाज नहीं दे सके। फाइल में वे नजरें उलझाते रहे। लग रहा था कि फड़फड़ाते पन्नों पर लिखे शब्द तेज-तेज घूम रहे हैं, लट्टू की तरह! जैसे तेज नख-दंतों वाली एक पहेली दिमाग को खूनेखून कर रही हो। ऐन इसी समय सामने से कमरे में आती दिखी रोली। नजरें नीची और सुबह का चुलबुलापन गायब। आसिफ ने उसे एक नजर देखने के बाद फाइल को उठा लिया और तीव्रता से पन्ने पलटने लगे।
रोली ने बैठते हुए बहुत धीरे-धीरे कहना शुरू किया, “अंकल, सुबह वहां से चलने के बाद मैं रास्ते भर सोचती हुई आयी... हर तरह से बहुत-बहुत सोचा-समझा... आकर यहां भी देखा कि अपने डायरेक्टर साहब तक डिप्टी डायरेक्टर से ही खौफ खा रहे हैं... यह सब देखते-समझते हुए अन्ततः मुझे यही लगा कि जिससे सब डरते हों और जो सबसे ज्यादा बड़ा खतरा हो, क्यों न सबसे पहले उसे काबू में कर लिया जाये!”
आसिफ हक्का-बक्का उसका मुंह ताकने लगे। उसका मुखमण्डल कठपुतली के मुंह जैसा दिखा, खूब बढि़या रंगा-पुता लेकिन सख्त! वह आगे बोलती चली जा रही थी, “मैंने उसे यही बताया कि मुझे आसिफ अंकल और आंटी ने बताया है कि आप सबसे ज्यादा मददगार और भले आदमी हैं और यह भी कि मुझे आप ही से मिलकर यहां रहना चाहिए!”
आसिफ ने फाइल में ऐसा सिर गड़ाया मानो किसी गहरे-अंधेरे कुएं में उतर गये हों। दिमाग झन्-झन् कर रहा था। सब कुछ जैसे स्याह और शिथिल। पन्ने पर चिपका समय लथपथ और निरुपाय। रोली के स्वर में विजेता का उन्माद- उल्लास मचल रहा था, अंधेरा रचने वाले धूल-धुएं के पहाड़ उछालते बवंडर की तरह “...अंकल, आई एम वेरी लक्की! नाऊ डिप्टी डायरेक्टर मेरे क्लच में है! टोटेली कब्जे में! ...उससे मुझे अब कोई खतरा नहीं है!”
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