कागज पर चिपका समय / श्याम बिहारी श्यामल
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लिटरेचर वाले रामशंकर मिश्र जैसे दुनिया की सबसे बड़ी खबर ले आये थे, “अरे भाई जान! गुरुआ ने तो नया किला भी फतह कर लिया! उसके कमरे में काफी देर से रीतिकाल छाया हुआ है। मैं एक बार आधा घंटा पहले टायलेट की तरफ से हो आया हूं, चलिये न एक बार उधर से और हो लिया जाये!”
आसिफ जानबूझकर अनजान बनने लगे, “मैं आज बहुत परेशान हूं! खेती-किसानी के कार्यक्रम तो एकदम नाकाबिले बर्दाश्त हो गये हैं। पंद्रह मिनट का एक कार्यक्रम रिकार्ड कराकर लौटा हूं और सिर की हालत घूमते चाक-सी हो रही है!”
“लगता है आपने मेरी बात को सुना नहीं! मैं गुरुआ के बारे में कह रहा हूं...”
“मेरी इन बातों में कोई रूचि नहीं... आप तो जानते हैं मैं ...” उन्होंने घंटी दबायी।
चपरासी ने गिलास का पानी बदल दिया और सामने खड़ा हो गया। रामशंकर ने चेहरा चौकोर किया,, “क्यों जी, ‘वहां’ क्या-क्या आइटम पहुंचा चुके हो ?”
वह मुंह पर हाथ रखकर फिस्स-फिस्स हंसने लगा, “दू घंटा से चल रहा है.. अभी काला जामुन और समोसे पहुंचा कर आ रहा हूं... थोड़ी देर में कॉफी लेकर जाना है... इसके पहले एक बार रसगुल्ले-आलूचॉप और दो बार कॉफी!... “वह लगातार हिलता-डुलता हुआ उसी तरह उपहास उड़ाता हंसता रहा। रामशंकर भी अपनी तरह से साथ दे रहे थे।
आसिफ ने चपरासी को झिड़क दिया, “यह क्या बेहूदगी है! वे साहब हैं, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इस तरह... “वह सकपका गया। जैसे रंगे हाथ पकड़ लिया गया हो। चेहरे पर हवाइयां। हाथ जोड़ गिड़गिड़ाया,” नाहीं, सर! हम क्या बोलेंगे! हमारी क्या औकात! हमें हुक्म करें... चाय लेकर आयें क्या?”
रामशंकर भी सम्भले, सीधे बैठ गये। आसिफ ने आंखें मूंदी, “देखो, सिर में दर्द हो रहा है, हो सके तो कड़क चाय पिलाओ! दो कप लेकर आ जाओ!”
वह तुरंत चला गया। उसके जाते ही रामशंकर ने अर्थपूर्ण मुस्कान छोड़ी, “सब सिरदर्द ठीक हो जायेगा, आप जरा उधर चलें तो! ...चलिये, हम दोनों उधर टायलेट की ओर हो लेते हैं! दो मिनट में तो लौट आयेंगे यहां! चाय लेकर वह अभी तुरंत थोड़े ही आयेगा! आप जानते नहीं कि गेट के बाहर निकलकर यह कहां तक पैदल जायेगा, चाय बनवायेगा तब वहां से...”
आसिफ ने आलमारी से कुछ फाइलें निकाल लीं। एक को खोलने लगे, “आपको मैंने यह बात बतायी थी कि नहीं!”
“क्या ?”
“मैंने खेती-किसानी में एक बढि़या कार्यक्रम का कॉन्सेप्ट क्रियेट किया है... छुट्टी पर जाने से पहले साहब ने यह प्रोजेक्ट देख लिया है, अब वे लौट आये हैं तो यह फाइनल हो सकता है... मैं दरअसल कुछ ऐसे भूमिहीनों को सामने लाना चाह रहा हूं जिनके बाप या दादा भी भूमिहीन और शोषित तो थे किन्तु उनमें कुछ विशिष्टीता थी...”
“भूमिहीनों और शोषितों में विशिष्टलता! ...मैं कुछ समझा नहीं...”
“अरे भाई, हरहुआ के लमही गांव से लेकर पाण्डेयपुर और बनारस मेन सिटी में इधर जगतगंज तक का इलाका ही तो मुंशी प्रेमचन्द की चौबीस घंटे सक्रियता का मूल क्षेत्र था... लमही में जन्म और जगतगंज में निधन... तो, यहां के ढेरों शोषित-दमित पात्र उनके साहित्य में अमर हैं... ऐसे पात्रों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के ज्यादातर लोग आज भी वैसी ही दशा में जीवन खेप रहे हैं... मैं खास तौर पर भूमिहीनों को टच करूंगा... यह कार्यक्रम कुछ खास...”
“वाह! सचमुच खास! अति विशिष्टल होगा यह... खैर, अब उठिये... “रामशंकर निर्णायक तरीके से खड़े हो गये, “चलिये... थोड़ी देर दस-पंद्रह मिनट तफरीह हो जाये! उधर टायलेट के बहाने गुरुआ का कमरा झांका जाये! देखिये न आपका सिरदर्द कैसे हवा हो जाता है!”
आसिफ ने मन मसोसा, “गजब! मिश्रा जी, आपको मैं मान गया! आप सचमुच लिटरेचर वाले ही हैं! इतनी बढि़या चर्चा हो गयी लेकिन आपकी जिद नहीं भूली...! नहीं मानेंगे तो चलिये, उठना तो पड़ेगा ही न!”
आगे-आगे आसिफ और पीछे रामशंकर। डिप्टी डायरेक्टर के कक्ष से थोड़ा पहले उन्होंने पीछे से हाथ पकड़कर दबा दिया। संकेत यह कि इतना तेज न चलें और हिलते पर्दे से नजारा ले लें! दरवाजे के सामने पहुंचकर आसिफ ने एक नजर कमरे के भीतर पैवस्त की फिर तुरंत सामने देखते हुए कदम तेज कर दिये। दूसरे ही क्षण दरवाजे के सामने रामशंकर। खड़ा होकर जेब टटोलते हुए हिलते पर्दे के अगल-बगल से भाले की तरह दृष्टि फेंकने लगे। मोबाइल निकाला और मिसकाल देखने का बहाना। एक हल्की नजर मोबाइल पर तो दूसरी भरपूर शिकारी दृष्टि भीतर। संयोग यह कि कूलर की सीधी हवा में उधियाता पर्दा पर्याप्त उठ-उठ जा रहा था। अचानक कुछ ज्यादा उठ गया और गिरने के क्रम में ऐंठते हुए एक तरफ थोड़ा सिमट-सा गया। भीतर का भरपूर नजारा! नयी आयी स्टेनो की पीछे से भरपूर टहक झलक मिली। कलरिंग किये हुए यू-कट बाल गोल चमकते हुए दिखे, कनपट्टी झन्न-से कर गयी। कुर्सी के दोनों ओर फर्श को छू रहा लाल दुपट्टा, भीतर के गाफिल गुलाबी माहौल की पुष्टि करता हुआ। डिप्टी डायरेक्टर टेबुल पर थोड़ा आगे बढ़कर केहुनी टिकाये, पंजे पर मुंह रखे फुसफुसाकर कुछ बोलते हुए! तभी उनका मुंह दरवाजे की ओर उठ गया। नजरों की एकदम आमने-सामने टक्कर! सकपकाकर रह गये रामशंकर। अब क्या करें! तुरंत हकलाते हुए हाथ जोड़ दिये, “प..प..परनाम सर! परनाम!!”
“अरे मिश्रा जी, प्रणाम-पाती तो हो ही चुकी है! सुबह-दोपहर-शाम को अलग-अलग नमस्कार की नयी प्रणाली लागू कराना चाहते हैं क्या ? वह भी दूर से नमस्कार वाली? “डिप्टी डायरेक्टर के व्यंग्य-बाण की धार तेज थी। आवाज की ऐंठन में तांकझांक की इस हरकत को समझ लेने की परोक्ष धमकी के भाव भी।
रामशंकर को बात समझ में आ गयी थी। घबरा उठे, “सर! आप हमारे बॉस हैं... बॉस को तो बार-बार प्रणाम किया ही जाता है... दूर से क्यों, मैं भीतर आ रहा हूं... आपको नजदीक से प्रणाम करके तब आगे बढ़ूंगा!”
वे लपककर भीतर घुसे। कोई कीमती परफ्यूम हवा के रेशे-रेशे को उग्र बना रहा था। पहली ही सांस में सुगन्ध सरसराकर जैसे दिमाग में चढ़ गयी और पूरे वजूद को अपने पंजों में दबोचे गोल-गोल उड़ने-उड़ाने लगी! नयी स्टेनो की ओर नजर उठाने की हिम्मत तो नहीं हुई लेकिन टेबुल पर दृष्टि चली गयी। एक प्लेट में सात-आठ की संख्या में बड़े-बड़े काला जामुन और एक अन्य में खूब सोंधे तले सुगंध फैला रहे इतने ही समोसे। मुंह में पानी आ गया। तुरंत नजर हटा ली, “सर, घर की चिंता हो रही है, हमारी गइया बीमार हो गयी है न! बच्चों को समझाकर आया हूं कि कोई परेशानी बढ़े तो तुरंत कॉल करना! अभी लगा कि जेब में मोबाइल सरसरा रहा है इसलिए निकालकर देख रहा था... पता नहीं गइया का क्या हाल है...”
“खैर, कॉल नहीं आयी है इसका मतलब कि समाचार ठीक-ठाक ही होगा...” डिप्टी डायरेक्टर ने प्लेट को आगे खिसकाया, “लीजिये, आ गये हैं तो आप भी मुंह मीठा कीजिये!”
“सर, मिष्ठांन्न तो मुझे भी प्रिय है ही! मैं भी आपकी ही तरह ब्राह्मण जो ठहरा! मधुरं प्रियं... “रामशंकर ने एक पीस उठाकर लप्-से मुंह में डाल लिया। जबड़े एक ही बार हिले और मुंह खाली। स्वर रसदार अपनापन से भर गया, “...लेकिन आप मुंह मीठा करने की बात जो बोल रहे हैं, इसका कोई खास तात्पर्य ? “डिप्टी डायरेक्टर को लगा कि कोई चमकदार चाकू सीने में उतर गया है! आंखें फैलकर रह गयीं।
रामशंकर ने इसे जैसे ही महसूस किया, सिहरन हुई, “सर! मेरे लिए चाय आसिफ साहब के कमरे में आ रही है... मैं पानी बाहर ही पी लूंगा... मुझे अब छुट्टी दीजिये, मैं बाहर चलूं...”
वह पीछे मुड़े तो डिप्टी डायरेक्टर हल्के ठनके, “यहां सवाल काहे छोड़ जा रहे हैं जनाब! अपने लिए एक अदद जवाब तो लेते जाइये! संजीदगी से जीने वालों के लिए जीवन का हर दिन उत्सव होता है”
“बिल्कुल सही! मैं अब चलूं बाहर पानी पी लूं ... प्लीज मुझे अब दीजिये छुट्टी...” कहते हुए वे बाहर लपके। डिप्टी डायरेक्टर ने पीछे से फिर एक तीर फेंका, “अरे, पानी तो मैं आपको पिला ही सकता हूं और छुट्टी भी मैं ही करूंगा आपकी...”
बाहर निकलकर उन्होने बुदबुदाते हुए रुमाल से सिर का पसीना पोंछा, “हमको तुम क्या पानी पिलाओगे! जो रवैया अपना रहे हो इससे कहीं खुद तुम्हारी ही तगड़ी छुट्टी न हो जाये!”
लौटे तो आसिफ कमरे में बैठे मिले। रामशंकर ने हवा बांधी, “अरे, गजब हो गया! मैं दरवाजे पर ज्योंही ठमका गुरुआ ने देख लिया.. नमस्ते करके मैं फंस गया.. भीतर जाना पड़ा..”
आसिफ ने बात बीच में ही काट दी, “अच्छा मैंने सुना कि आपलोगों ने मिर्जा गालिब के काशी प्रवास से संबंधित किसी कहानी पर कोई प्रोजेक्ट लिया है! यह टेली फिल्म होगी या...”
रामशंकर को यह प्रसंग-भंग बहुत नागवार गुजरा, “आसिफ भाई, अजीब बात है! आपको मिर्जा गालिब में रूचि भी हैं और इश्क- से परहेज भी! “तभी चपरासी आ गया। उसने आसिफ की ओर तो देखा किंतु रामशंकर की ओर नजर भी नहीं उठायी। दूरी बनाता हुआ दिखा। दोनों के सामने टेबुल पर करीने से कप-प्लेट रख वह चुपचाप बाहर हो गया।
रामशंकर ने चाय की हल्की चुस्की ली, “भई, गजब है! एकदम हद! गुरुआ के इस बेलगाम रंगीन अभियान पर कोई लगाम भी लगायेगा या अश्व मेध का यह घोड़ा...”
आसिफ ने चुप्पी ओढ़ ली। चाय खत्म की और खड़े हो गये। रामशंकर चुस्कियां लेते रहे। अचकचाये, “जा रहे हैं क्या! अरे भैया, न मेरी बात खत्म हुई है न चाय!”
“असल में बीवी-बच्चों के साथ रथयात्रा चैराहे जाना है। कुबेर में कुछ खरीदारी होगी, इसके बाद जायेंगे रेवड़ीतालाब .. एक रिश्तेददार के यहां बर्थ डे पार्टी है.. साहब से मैंने इंटरकॉम पर पूछ लिया... उन्होंने छुट्टी दे दी है, तो तुरंत निकल जाना ही ठीक है... रूकूंगा तो कोई न कोई लफड़ा आ ही जायेगा और मुझे फंस जाना पड़ेगा... मुझे तो निकलने ही दीजिये! “आसिफ चल पड़े, “यों भी मुझे क्या लेना-देना इन सबसे...किसी की यौन लिप्सा में सिर खपाना वक्त जाया करना है.. और भी गम है जमाने में मोहब्बत के सिवा...
रात में घर लौटते-लौटते नौ बज गये। खाना खाते समय उन्होंने रुखसाना से कहा, “मुझे एक बात समझ में नहीं आ रही है...”
“क्या ?”
“अखबारों में रोज आ रहा है कि बनारस से बुनकर पलायन कर रहे हैं... रोज एक न एक की खुदकुशी की खबर दर्दनाक तस्वीर सहित छप रही है... उन पर सूदखोरों के जुल्म की बातें भी सामने आती रहती हैं... यह भी शोर है कि बनारसी साड़ी उद्योग मर रहा है... लेकिन इसकी मार्केटिंग करने वालों के रुतबे पर तो कोई असर नहीं! इसमें तो कोई कमी नहीं दिख रही! अब इस रेवड़ी वाले को ही देखिये न! बगल का दो बिस्से पर बना-बनाया चरतल्ला मकान अभी पिछले माह ही खरीदा है! अपना यह मकान पहले से कैसा महलनुमा खड़ा किये ही हुए था! आज मामूली बर्थ डे पार्टी में उसने जैसे पानी की तरह पैसा बहाया ऐसी शाहखर्ची तो हमलोग शादी-ब्याह के मौकों पर भी नहीं कर सकेंगे! कैसी जबरदस्त गैदरिंग...! बताइये, इतनी लाइटिंग, ऐसा आर्केस्ट्राी और नाश्तेक में ही कितने तरह के चाट, कैसी बड़ी-बड़ी महंगी मिठाइयां... आप क्या समझती हैं क्रीम वाली वह एक बड़ी मिठाई दस-बारह रुपये से कम की नहीं होगी... ठंडई भी बीस रुपये से कम वाली नहीं थी, आइसक्रीम, पेप्सी-कोक....”
रुखसाना महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से जुड़कर बनारस के बुनकरों पर ही शोध कर रही हैं। उन्होंने खास तवज्जो के साथ बातें सुनी। मुस्कुरायीं, “आपने बहुत रियायत बख्शी और ऐसों को बनारसी साडि़यों की मार्केटिंग करने वाला कहा, जबकि असल में तो ये दलाल ही हैं! ऐसे में... “तभी लैण्ड लाइन फोन की घंटी घनघनाने लगी, बातों की कड़ी टूट गयी। रुखसाना के चेहरे पर औचक मुस्कान आ गयी, “कई दिनों बाद आज सुनने को मिली है तो कितनी अच्छी लग रही है इसकी घंटी! “वह उठकर फोन के पास गयीं।
आसिफ ने कहा, “मोबाइल का जमाना चल-मचल रहा है! इंटरनेट का मामला नहीं होता तो हमलोग भी दो मोबाइलों के साथ इसे भी थोड़े ही ढो पाते! देखिये तो किसका कॉल है, कौन है...”
बतियाने के बाद उन्होंने फोन का मुंह ढंक लिया, “... आपके किसी दोस्त की बेटी है, गोरखपुर से आ रही है... कैण्ट रेलवे स्टेशन से बोल रही है...”
आसिफ लपक कर आये और फोन पकड़ लिया, “हां, बेटा! कैसे हैं तुम्हारे पापाजी? ..अच्छा..अच्छा.... तुम्हारे पापा ने तो बताया था कि तुम सुबह मेरे से मिलोगी... क्या...? “वे जैसे चिहुंक-से गये। फिर खुद को संभालते हुए कहा, “कोई बात नहीं, सीधे यहीं आ जाओ सुबह...”
वह रुखसाना के पास लौटे, “मेरे पुराने दोस्त श्रीनिवास जी की बेटी है, डीडी में सेलेक्ट हुई है.. यहीं कल ज्वायन करेगी.. अभी किसी रिश्तेतदार के साथ गोदौलिया चली गयी, सुबह आयेगी.. उसकी नौकरी का कल पहला दिन होगा! दिन में श्रीनिवास का फोन आया था... बात तो खुशी की ही है लेकिन यहां की जो भीतरी हालत है इससे चिंता भी हो रही है!”
“क्या ?”
“अरे यही कि यह दोस्त की बेटी है और यहीं आकर नौकरी शुरू करेगी! हमारे यहां जो एक खूंखार जानवर है उसकी खुराफात लगातार जारी है... आज ही आफिस में उसकी दिन भर किरकिरी होती रही.. नौ लेडी स्टाफों में दो सीनियरों को छोड़ बाकी छह को तो उसने पहले से अपने लपेटे में ले रखा था, आज दिन में एक बची हुई को भी शिकार बना लिया.. यह पिछले ही महीने पटना से तबादला होकर आयी है! उसे उसने लगातार चार घंटे तक अपने चेम्बर में बिठाये रखा... कभी रसगुल्ले, आलूचॉप आ रहे थे तो कभी काला जामुन और समोसे... कॉफी तो कई बार...”
“इसमें चिंता की कोई बात नहीं... वह सुबह आये तो यहीं ठीक से समझा दिया जायेगा! मेरे पास कुछ देर बैठ लेगी.. मैं उसे सब खोलकर साफ-साफ बता दूंगी कि डिप्टी डायरेक्टर एकदम जानवर है, उसी से बचकर रहना है! “रुखसाना की आवाज में उबलता रोष। कुछ यों जैसे डिप्टी डायरेक्टर यहीं कहीं आसपास हो और वह उस पर वार करने जा रही हों!
आसिफ संजीदा थे, “श्रीनिवास जी की यह बिटिया रोली शर्मा जेएनयू की प्रोडक्ट है.. स्टूडेण्ट लीडर रही है... जरुर तेज-तर्रार होगी!”
“हां, हां! जब डीडी में सलेक्ट हो गयी है तो टैलेण्टेड भी होगी ही!”
“हो सकता है वही इस जानवर को औकात बताये! जेएनयू वाले जुझारु होते हैं।”
“मुझे भी लग रहा है... अब शायद डिप्टी डायरेक्टर के गुनाहों का घड़ा भर गया है!”
“खुदा करे, ऐसा ही कुछ हो जाये! “मियां-बीवी को जैसे जे.एन.यू. ने उबार दिया हो।
सुबह सात बजे ही रोली हाजिर। टाइट जींस-टॉप में छरहरी-छरकती काया। हंसमुख चेहरा। बोली-बानी में पंजाबी बांकापन। उसने आते ही रुखसाना से ऐसे मुलाकात की जैसे खास सहेली हो। पहले तो उर्दू के शब्द ठीक-ठाक उच्चारण के साथ बोलती रही किंतु जैसे ही मालूम चला कि रुखसाना काफी पढ़ी-लिखी हैं और रिसर्च कर रही हैं तो खनखनाती स्मार्ट अंग्रेजी झमकाने लगी। एकदम यूरोपियन प्रोनाउंसियेशन के साथ। वह मिठाई का पॉकेट और बच्चों के लिए अलग से टॉफी लेकर आयी थी।
आसिफ ने सामान्य औपचारिक बातों के बाद पूछा, “गोदौलिया वाले तुम्हारे कौन हैं?”
“मौसी-मौसा! मैं अभी वहीं रहूंगी। उनके यहां कार-वार भी है। मुझे ऑफिस आकर छोड़ भी देंगे और समय पर आकर ले भी जायेंगे!”
“यहां तुम ज्वायन कर रही हो यह बहुत खुशी की बात है.. तुम कोई चिंता-फिक्र दिमाग में मत लाना.. मुझे श्रीनिवास जी से जरा भी कम मत समझना! यहां दफ्तर में लोग भी अच्छे हैं.. “आसिफ बहुत इत्मीनान से उसे समझाते हुए कह रहे थे।
रुखसाना ने बीच में अपनी बात जोड़ दी, “बस एक को छोड़कर!”
रोली अचकचाकर ताकने लगी। कभी रुखसाना तो कभी आसिफ की ओर। कुछ पल सभी चुप। सबकी आंखों में सरासराता हुआ मौन। अचानक आसिफ पीछे मुड़े व तेज गति के साथ बाहर की ओर निकल गये। रुखसाना ने अपनी बात आगे जारी रखी, “यहां का डिप्टी डायरेक्टर बहुत खतरनाक है। खासकर औरतों के मामले में। तुम्हें उससे कोई मतलब भी नहीं। सबका बॉस तो डायरेक्टर है, जो अदर स्टेट के कहीं के हैं इसलिए बीच-बीच में कभी-कभी ही छुट्टी पर निकलते हैं! ऐसे में डिप्टी डायरेक्टर से क्या मतलब! ...अंकल तुम्हारे साथ हैं ही।...वैसे वह जैसा खूंखार है, एक बार गलत कोशिश जरूर करेगा! ...तुम पहली ही बार पूरी ताकत के साथ डपट देना! ...कुछ ऐसे कि उसे डर हो जाये। ...उसे यह लग जाना चाहिए कि तुम न ऐसी -वैसी हो, न छुई-मुई ! ...उसमें ऐसा डर भी जरूर जगा देना कि मौका आने पर तुम किसी के भी जबड़े तक तोड़ सकती हो! ... एक बात गांठ बांध लो... इस तरह के जो गलत लोग होते हैं वे कड़ा प्रतिरोध और सैण्डिल की बारिश से बहुत बेजोड़ डरते हैं! ... असल में उन्हें अपना भांडा फूटने का हमेशा डर जो बना रहता है!”
कुछ ही देर बाद आसिफ भीतर आ गये, “अरे, इससे पूछो कि यह नाश्ते. में क्या पसंद करती है! इसकी नौकरी का आज पहला दिन है, इसे ऐसा नाश्ताे कराओ कि यादगार बने।”
रुखसाना ने हाथ लहराया, “वो सब सम्भालने के लिए मैं यहां अभी हूं न! ...आप फिक्र नही करिये... यह यहां से हंसी-खुशी निकलेगी, यह मेरी जिम्मेवारी! आप अपनी यही जिम्मेवारी निभाइये कि ऑफिस में इसका खास ख्याल रखियेगा... उस खूंखार को तो साफ-साफ आज ही जता दीजियेगा कि यह कोई और नहीं, बल्कि आपकी बेटी है! मैं समझती हूं कि इतने के बाद वह गलती करने की हिम्मत नहीं करेगा!”
आसिफ ने बेफिक्री दिखायी, “... जहां फर्स्ट् अफसर कड़ा होता है वहां सेकेण्ड की तो यों भी कभी कोई औकात नहीं बन पाती! ... हमारे डायरेक्टर हैं भी बहुत कड़े... गड़बड़ी एक ही है कि वे हर डेढ़-दो माह पर लम्बी छुट्टी पर निकल लेते हैं... उनकी भी मजबूरी है! यहां अकेले रहते हैं... मिसेज आईपीएस हैं, दिल्ली पुलिस में...! तो डाइरेक्टर के छुट्टी पर निकलते ही यह डिप्टी डायरेक्टर फुल पावर में आ जाता है... इसी तरह बीच-बीच में उसका रुतबा इतना बढ़ जाता है कि छोटे-छोटे कर्मचारियों के लिए तो वह बाघ हो जाता है... वैसे डायरेक्टर साहब उसके लिए ज्यादा गुंजाइश कभी नहीं छोड़ते क्योंकि वे उसके रवैये को ठीक से जानते हैं... खैर तुमको इस मामले में कुछ सोचना ही नहीं है... मैं हूं ना!”
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