कानून की कागजी इबारतें: बेअसर समाज / संतोष श्रीवास्तव
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हिंदू उत्तराधिकार कानून के संशोधित विधेयक की जो कि महिलाओं के हित में था मंजूरी देकर न केवल क्रांतिकारी कदम उठाया बल्कि इससे महिलाओं की स्थिति दृढ़ हुई है। एक समय था जब पैतृक संपत्ति पर बेटी का कोई अधिकार नहीं था। वह पराया धन समझकर पाली-पोसी जाती थी और ब्याह दी जाती थी। अगर वह विधवा हो गई है तो भाई और पिता के रहमोकरम पर पलती थी या पति गृह में अपमान, दुत्कार सहती नारकीय जीवन व्यतीत करती थी। हालांकि पैतृक संपत्ति में बेटियों को बेटों के बराबर का उत्तराधिकारी हक या हिस्सेदारी देने का कानून 1956 में ही बना दिया गया था पर केवल कागजों पर ही। हकीकत वह थी कि न तो उन्हें संपत्ति पर बराबर का हिस्सेदार समझा गया और न कानून की बारीकी लड़कियों ने खुद ही समझने की कोशिश की। इसकी वजह सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुषवादी मानसिकता है यह सच नहीं है। अपने जमाने के हिसाब से 1956 में पारित वह कानून काफी प्रगतिशील था। ऐसा कहा जा सकता है पर उस कानून में ऐसी अनेक छुपी हुई बारीकियाँ थीं जिसका नुकसान आज तक स्त्री उठा रही है।
हिंदू उत्तराधिकार कानून पैतृक संपत्ति पर संपत्ति के मालिक के देहावसान के बाद बेटों और पोतों को ही वारिस मानता है। इसका कड़ा विरोध किया गया और तब बेटी, विधवा और माँ को भी संपत्ति अधिकार की सूची में शामिल कर लिया गया। सूची में शामिल तो किया गया पर इसमें वे अपने इस अधिकार की मांग नहीं कर सकतीं जबकि बेटा या पोता कर सकता था। यानी अधिकार न मिलने पर कानूनी लड़ाई नहीं लड़ सकती थीं तो उनका पक्ष कमजोर होता चला गया। यदि वे संयुक्त परिवार की हैं तो अपना हिस्सा लेकर अलग होने की बात वे सोच भी नहीं सकतीं और यदि उनकी शादी हो गई तो वैसे भी उनकी दावेदारी कमजोर हो जाती है। हालांकि कानून में यद्यपि ऐसा प्रावधान नहीं है पर स्त्री के हित में बनाए कानून को माना कहाँ जाता है और स्त्री भी ऐसा साहस नहीं कर पाती कि वह परिवार के खिलाफ जाकर कानूनी लड़ाई लड़े। उसे तो यह कहकर चुप कर दिया जाता है कि पैतृक संपत्ति में से उसका हिस्सा दहेज के रूप में दे तो दिया गया जो स्त्री धन के रूप में उनके पास सुरक्षित है। ब्याहता बेटियाँ भी इसीलिए मायके की संपत्ति में अपना हक नहीं जतातीं।
विडंबना ये है कि पैतृक संपत्ति के बंटवारे की मिताक्षरा पद्धति के अनुसार कुटुम्ब का मुखिया ही पैतृक संपत्ति का कर्ताधर्ता होता है। इसलिए स्त्री को न तो मायके में चैन मिलता न ससुराल में। ससुराल में पति के द्वारा पत्नी को बेदखल किए जाने की हालत में वह संपत्ति पर कोई दावा नहीं कर सकती। पति की मृत्यु के बाद भी पति की संपत्ति पर वारिसों का ही हक होता है उसमें से एक छोटा-सा हिस्सा दया कि बिना पर उसे दे दिया जाता है, हक की बिना पर नहीं।
केबिनेट ने जिस संशोधन विधेयक को मंजूरी दी है वह लॉ कमीशन की सिफारिश पर आधारित है लेकिन इसमें सारा श्रेय सरकार को नहीं जाता। सुप्रीम कोर्ट भी बहुत पहले से स्त्री के कमजोर पक्ष को समझता-बूझता आ रहा है और उसे यथासंभव सुधारने की कोशिश भी करता आ रहा है। राज्यसभा में अब जो विधेयक पारित हुआ है, उसका कानून बनने के बाद बेटियों को यह अधिकार मिल जाएगा कि यदि चाहें तो वे भी पैतृक घर के लिए अपने हिस्से की मांग कर सकती है। इस पुरुष प्रधान समाज में संपत्ति पर स्त्री को बराबरी का हक मिलने की यह एक स्वस्थ शुरूआत है, बावजूद इसके राजनीतिज्ञों के चिंतन में आ रहे इस बदलाव को कम नहीं समझना चाहिए। इसके लक्ष्य तक पहुँचने की कामना करनी चाहिए। पहले सदन के ठंडे बस्ते फिर राज्यसभा फिर लोकसभा फिर राष्ट्रपति की मोहर के लंबे सफ़र को तय कर यह विधेयक पास होगा, कानून बनेगा। पता नहीं कितना समय और लेगा यह कानून लेकिन अभी से इस कानून के लागू होने के बाद की सामाजिक उथल-पुथल को लेकर बौद्धिक वर्ग परेशान है।
यूं तो भारतीय समाज स्त्रियों के विषय में दोमुंहा रुख अख्तियार करता है। कहते हैं जहाँ नारी की पूजा होती है, सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं। स्त्री को देवी लक्ष्मी माना जाता है लेकिन सच्चाई यह है कि यह दो वर्णों का समूह स्त्री से अच्छी-खासी ज़िन्दगी वसूल कर लेता है। जब भी अधिकारों की बात होती है पुरुष का कट्टरवादी रूप उभरकर सामने आ जाता है। संस्कृति और परंपरा कि चर्चा चलने पर वेद और उफनिषद काल में स्त्रियों को मिले महत्त्व का उदाहरण दिया जाता है। आधुनिक काल की स्त्री ने भले ही कितने मुकाम छुए हों, सफलता हासिल की हो, पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चली हो पर ज़िन्दगी उसे पुरुषों की शर्त पर ही जीनी होती है।
विरासत कानून के बारे में राज्यसभा में जो विधेयक पेश हुआ वह 1956 के हिंदू विरासत कानून में संशोधन के लिए है। इसका नाम हिंदू उत्तराधिकार विधेयक 2004 है और इसके पारित होने के बाद ही पैतृक संपत्ति में बेटियों को बराबरी का अधिकार मिल सकेगा। इतनी अड़चनें, इतने विवाद... आज जबकि भारत चांद पर घर बसाने की सोच रहा है और आईटी के क्षेत्र में अमेरिका, यूरोप में अपना परचम लहराने जा रहा है, उस भारत में बेटियों की यह दुर्दशा? सदन में बेटियों के अधिकारों पर तो बड़ी-बड़ी चर्चाएँ होती हैं। लोकसभा में प्रश्नकाल में स्त्री की सुरक्षा, आरक्षण के मसले उछाले जाते हैं पर क्या सभी कोरी बातें हैं? आखिर कब इन पर अमल होगा? कब अपने ही सगे-सम्बंधियों के बीच उपेक्षित स्त्री अधिकार पाएगी? नारी को देवी बताने वाले वेद वाक्यों से समस्या का समाधान मुश्किल है।
स्त्री को संपत्ति के अधिकार से बेदखल रखने वाली मानसिकता कि जड़े समाज में गहरे पैबिस्त हैं। यदि कोई स्त्री इस विषय में कानून का सहारा लेती है तो उसके सगे-सम्बंधी ही उसे परिवार की विरोधी या बागी समझ दुत्कारने लगते हैं। हर जगह घर के पुरुष उसे परिवार का दुश्मन करार देने लगते हैं क्योंकि उनके दांत सारी संपत्ति पर गड़े हैं। जो धन स्त्री को बंटवारे के समय उत्तराधिकारी के रूप में मिलता है उस पर अगली पीढ़ी के वारिस अपना दावा ठोकते हैं। आज से दस साल पहले सुर्खियों में आई गुंफा बनाम जयबाई के मामले में सुप्रीम कोर्ट को यह स्पष्ट करना पड़ा कि स्त्री विरासत और स्त्रीधन के रूप में मिली किसी भी संपत्ति की सिर्फ़ वारिस नहीं, बल्कि पूरी तरह से उसकी मालिक है। वह उस संपत्ति को किसी भी तरह खर्च करने के लिए स्वतंत्र है। फिर भी जब प्रसिद्ध उद्योगपति बिड़ला घराने की प्रियंवदा बिड़ला ने अपनी वसीयत लिखी तो कई सवाल फिर खड़े हुए। बिड़ला परिवार ने ही प्रियंवदा बिड़ला कि मृत्यु के बाद उनकी लिखी वसीयत पर गहरा विरोध प्रगट करते हुए कानूनी दरवाजे खटखटाए। प्रियंवदा बिड़ला ने अपनी संपत्ति का वारिस अपने निजी सचिव जो कि प्रियंवदा बिड़ला कि सारी संपत्ति का लेखा-जोखा चार्टर्ड एकाउंटेंट की हैसियत से रखते थे, को बनाया। वे बिड़ला परिवार के नहीं थे और बिड़ला परिवार के सदस्यों की दृष्टि में संपत्ति के हकदार नहीं थे।
शादी के बाद पुरुष, पति की हैसियत से स्त्रीधन में अपना अधिकार मांगता है। रश्मि के मामले में कुछ यही बात सामने आई। रश्मि ने अपने पति महेश कुमार के खिलाफ मुकदमा दायर किया कि उसका पति उसकी संपत्ति पर अपने अधिकार की बात को लेकर उसे प्रताड़ित करता है। कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि रश्मि को अपने संपत्ति पति और पुत्र की पहुँच से दूर रखनी चाहिए। उस संपत्ति पर उनका कोई हक नहीं है। सिर्फ़ स्त्रीधन पर अपने अधिकार की मांग ही पुरुष नहीं करता बल्कि अदालत के फैसले अनुसार स्त्री को दिया जाने वाला मुआवजा, गुजारा भत्ता, भरण-पोषण और नामांकन जैसे विभिन्न मामलों में भी पुरुष की ओर से बरती जाने वाली कोताही से यह साफ नजर आता है कि किस तरह भारतीय समाज स्त्री को संपत्ति के वास्तविक अधिकारों से वंचित रखता है। तब पिछली सदियों में स्त्री को अपनी संपत्ति मानने की धारणा कि जड़े उभरी हुई नजर आती हैं। बड़े-बड़े महारथियों द्वारा पत्नी को जुए की हारी हुई बाजी को जीत में बदलने के लिए संपत्ति के रूप में दांव पर लगाना और जुए में स्त्री को जीत कर भरी सभा में उसे अपनी जांघ पर अश्लीलता से बिठा लेना, नंगी करना... आखिर इसी मानसिकता में तो जीता रहा है समाज।
वैसे भी कानून स्त्री अधिकारों को लेकर संकुचित विचारधारा रखता है। यह तो सभी जानते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र में निर्णय लेने में स्त्री की भागीदारी लगभग शून्य है। व्यक्तिगत निर्णयों में भी उसकी सुनता कौन है? परिवार के लोग उसके द्वारा लिए निर्णयों को खारिज करने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते। वह तो यह भी तय नहीं कर पाती कि उसे कब शादी करनी है, कब बच्चा पैदा करना है, नौकरी करे या न करे... उसका तो अपने शरीर पर भी हक नहीं। सेक्स की कोई आजादी नहीं। ये तो फिर भी गहन मसले हैं... रोजमर्रा कि छोटी-छोटी बातों में भी उसके निर्णयों पर पुरुष की रजामंदी की मोहर नहीं लगती। उत्तर प्रदेश में लगभग 90 प्रतिशत स्त्रियों को और मध्य प्रदेश, बिहार और हरियाणा और आंध्र प्रदेश में 80 प्रतिशत स्त्रियों को मित्र या रिश्तेदार के घर जाने के लिए पुरुष की अनुमति लेनी पड़ती है। यहाँ तक कि भोजन क्या पकेगा, इसमें भी उसे स्वतंत्रता नहीं है। यह भी पुरुष की रुचि पर निर्भर है।
विधवा कि स्थिति कानून ने तो स्पष्ट कर दी है कि अपने दिवंगत पति की संपत्ति पर उसका हक एक पुत्र की तरह ही है लेकिन वास्तविकता कुछ और है व इस संपत्ति ने ही इस समाज को अनेक कुरीतियों से भर दिया है। पति की संपत्ति पर पत्नी हक न जताए इसलिए उसे पति की चिता के साथ जिंदा जला दिया जाता है और इस कुकृत्य को धर्म से जोड़कर सती का रूप दे दिया जाता है। पूरे देश में जगह-जगह चलाए जा रहे विधवा आश्रम की तह में भी संपत्ति का दैत्य विराजमान है। न स्त्री घर में होगी न संपत्ति पर हक जताएगी। क्यों पुरुषों के लिए विधुर आश्रम नहीं होता जबकि पत्नी के बिना पति बिल्कुल असहाय हो जाता है। स्त्री तो पति के बिना भी हर हाल, हर माहौल में खप जाती है, पति नहीं खप पाता। अपने ईगो को लेकर वह घुल-घुलकर मरता है।
पति द्वारा त्याग दिए जाने पर अलग रहने वाली स्त्री कानूनी तौर पर पति की संपत्ति में अवश्य हिस्सेदार मानी जाती है। भले ही पति उस पर व्याभिचार का आरोप क्यों न लगाए। यदि वह दूसरी शादी कर लेती है तब भी उसका पूर्व पति से मिली संपत्ति के हिस्से पर स्वामित्व रहेगा। उसे उस संपत्ति को पूर्व पति को वापस करने के लिए नहीं कहा जा सकता।
हिंदू धर्म के अनुसार शादी में दिए गए उपहार वधू की ही संपत्ति माने जाते हैं। स्त्री की खुद की कमाई हुई दौलत पर भी मात्र उसी का हक है। विरासत और वसीयत के तौर पर मिली संपत्ति पर भी स्त्री का ही अधिकार है। वह अपनी संपत्ति चाहे जिसे दे सकती है। चाहे जिसके नाम वसीयत लिख सकती है। यदि स्त्री की मृत्यु हो जाती है तो उसकी संपत्ति पर पति और बच्चों का हक होता है।
एक पुत्री को भी अपने पिता कि संपत्ति में पुत्र के बराबर का हिस्सा मिलता है। यही वजह है कि बेटा बेटी यदि अपने बूढ़े मां-बाप की परवरिश न करें तो वे उन पर कानूनी कार्यवाही कर सकते हैं। अजमेर निवासी 65 वर्षीया महिला को उसके तीन जवान बेटों ने घर से यह कहकर निकाल दिया कि वे इस महंगाई के जमाने में अपना पेट भरें या उसका? अपने सिर पर छत बाँधे कि उसके? असहाय महिला मजबूर होकर अदालत की शरण गई। बोर्ड ने आदेश दिया कि उक्त महिला का प्रत्येक बेटा उसे 250 रुपये प्रतिमास दे। आदेश पालन न किए जाने की अवस्था में उन्हें सजा होगी। सुनवाई के बाद महिला आंखों में आंसू भरे अदालत से यह कहते हुए बाहर निकली कि अगर आज उसकी बेटी पढ़ी-लिखी होती तो पिता कि संपत्ति पर अपना हक जता सकती थी। कानूनी लड़ाई लड़ सकती थी तब उसकी यह दुर्दशा नहीं होती।
शायद इस माँ की पुकार का ही असर हो कि... मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने बेटी की स्कूली शिक्षा के लिए उसकी फीस माफ करने और कॉलेज की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति देने की योजना बनाई है। इस योजना का सम्बंध भारतीय समाज में लड़कियों के सशक्तिकरण से है। योजना के मुताबिक यदि माता पिता कि क ही संतान है और वह लड़की है, तो उसे योजना का पूरा लाभ मिलेगा। यदि दो संतानें हैं और दोनों लड़कियाँ हैं तो दोनों को 50-50 प्रतिशत मिलेगा। लेकिन यदि किसी के एक बेटी और एक बेटा है तो इस योजना का कोई लाभ उसे नहीं मिलगा। क्योंकि यह योजना सिर्फ़ बेटियों के लिए है। इस योजना से समाज में व्याप्त लड़कियों के प्रति दूषित भावनाओं का समाधान होगा। लड़कियाँ शिक्षित होंगी। लड़की-लड़के के बीच भेदभाव की खाई पटेगी और बेटे की चाहत में एक के बाद एक लड़कियों को पैदा करने की मानसिकता पर काबू पाकर जनसंख्या नियंत्रण होगा। कन्या भ्रूण हत्याओं पर भी रोक लगेगी। जो माता पिता एक बेटी के बाद दूसरी संतान चाहेंगे उन्हें ये मालूम होगा कि दूसरी संतान के लिए उन्हें कितना खोना होगा। लेकिन दूसरी संतान यदि बेटी हुई तो वह बोझ नहीं बनेगी। यह योजना नए दंपतियों को एक संतान के लिए, वह संतान यदि बेटी है तो उसे बोझ न समझने के लिए, दो बेटियाँ होने पर उन्हें भी बोझ नहीं समझने के लिए कारगर सिद्ध होगी।
लड़कियाँ पढ़ी-लिखीं होंगी तो मां-बाप का भला ही होगा। अभी तो खर्चीली शिक्षा के कारण कमजोर आय वर्ग के अभिभावक लड़कियों को शिक्षित करने से कतराते हैं। लड़कियाँ घर में रहेंगी तो माँ क काम में हाथ बंटाएंगी। जब विद्यालय की शिक्षा मुफ्त होगी और पढ़ाई के लिए वे छात्रवृत्ति का पैसा घर लाएंगी तो दोनों बातें बेमानी हो जाएंगी। छठी क्लास से फीस माफी देने से ड्रॉप आउट का सिलसिला बंद होगा। पांचवीं तक की शिक्षा वैसे भी अनिवार्य है। लेकिन छठी से बारहवीं के बीच अभिभावकों द्वारा लड़कियों से विद्यालय छुड़वाने की संभावना अधिक रहती है। लड़कियों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति के कारण माता-पिता लड़कियों की पढ़ाई बंद होने की नौबत ही नहीं आने देंगे।
निजी विद्यालयों में यह योजना कहाँ तक अमल में लाई जाएगी, यह विचारणीय प्रश्न है। यह योजना पूरी तरह शहरी है। ग्रामीण क्षेत्रों में फीस और घर के काम-धंधे में माँ की सहायता न करना ही अड़चन नहीं है बल्कि एक बड़ी अड़चन उनकी असुरक्षा भी है। स्कूल काफी फासले पर रहते हैं और रास्ते में मनचले, आवारा लड़कों से भी सामना होता है जो कभी-कभी लड़कियों के लिए अशोभनीय घटना का रूप ले लेता है।
स्त्री को कई बात जाति को लेकर भी अजीबो-गरीब परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इस मामले में कोर्ट के फैसले हमारे सामाजिक ताने-बाने के कई व्यावहारिक पहलुओं को उजागर करते हैं। सन् 1999 में आंध्र प्रदेश के श्रीगवरापुकोरा विधानसभा क्षेत्र से जो अ्नुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित है शोभा देवी नामक महिला चुनाव लड़ी। शोभा कि माँ अनुसूचित जनजाति की थीं और उनकी शादी भी अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के साथ ही हुई थी। लेकिन बाद में उनकी अपने पति से अनबन हो गई और वे मायके चली आईं। मायके में उनका सम्बंध मुरारी राव नामक सवर्ण जाति के व्यक्ति से हुआ। शोभा कि माँ को मुरारी राव से शोभा सहित चार संतानें प्राप्त हुईं। लेकिन शोभादेवी की माँ का अपने पूर्व पति से तलाक तो हुआ नहीं था और न मुरारी राव से विधिवत विवाह ही हुआ था। इसलिए जब शोभा देवी अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित सीट से चुनाव लड़कर जीतीं तो उनके विरोधी उम्मीदवारों ने यह सवाल उठाया कि क्या वे अनुसूचित जनजाति की हैं जो उस सीट से चुनाव लड़ीं? शोभा देवी के पिता तो सवर्ण हैं। वे उस सीट से चुनाव लड़ने की अधिकारी नहीं हैं।
शोभा देवी ने खुद को अनुसूचित जनजाति का सिद्ध करने के लिए कई तर्क दिए... कि उनकी माँ अनुसूचित जनजाति की हैं, मुरारी राव के साथ उनकी शादी नहीं हुई थी और शोभादेवी के पति भी अनुसूचित जनजाति के ही हैं। लेकिन हाईकोर्ट और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इन तर्कों को खारिज कर दिया है और कहा कि उनकी जाति वही मानी जाएगी जो उनके जन्मदाता पिता कि है। जुलाई 2002 में दिए गए अपने एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि संतान कभी अवैध नहीं होती। चाहे वह माता के अवैध सम्बंधों से पैदा हुई हो या वैध सम्बंधों से। उसे अपने पिता कि विरासत के सभी अधिकार मिलेंगे। माता का जो लाभ संतान को दिया जा सकता है, वही लाभ दूसरी पत्नी को नहीं दिया जा सकता क्योंकि तमाम वास्तविकताओं को जानते हुए वह स्त्री अपने लिए ऐसी स्थिति स्वीकार करती है।
लेकिन प्रभा देवी का मामला कुछ और था। प्रभादेवी के दोस्त द्वारिका प्रभादेवी के साथ लिव इन रिलेशनशिप के तौर पर रह रहे थे। इस बीच प्रभादेवी ने द्वारिका के बच्चे को जन्म दिया। द्वारिका ने यह कहकर प्रभादेवी से किनारा कर लिया कि न तो वे प्रभादेवी के पति हैं और न ही बच्चे की जिम्मेदारी उठाने को तैयार हैं। इस धोखे से तिलमिलाई प्रभादेवी ने कानून का सहारा लिया। आधुनिक युग में विज्ञान ने पिता कि पहचान की जो तकनीक ईजाद की है उससे कोई भी पिता अपनी संतान को नकार नहीं सकता। लिहाजा डीएनए टेस्ट से जब यह सिद्ध हो गया कि द्वारिका ही प्रभादेवी के बच्चे का पिता है तो कानून ने प्रभादेवी को सहारा दिया। सुप्रीम कोर्ट ने द्वारिका को आगाह किया कि चाहे उसने प्रभादेवी से शादी नहीं भी की है तब भी वह प्रभादेवी की संतान का पिता ही कहलाएगा और प्रभादेवी का पति क्योंकि उसने प्रभादेवी को माँ बनाया है। उसे ही पति और पिता कि जिम्मेदारी निभानी होगी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से प्रभादेवी को तो राहत मिली पर द्वारिका कितना इसे निभा पाएगा यह समय ही बताएगा क्योंकि वह पुरुष है और उसके पास छल और बल दोनों हैं।
भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में महिला विरोधी विधेयक बिल पारित किया गया है। यह बिल देश के लिए नहीं बल्कि राज्य के लिए है। जहाँ एक ओर पूरे देश में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में महिलाओं के अधिकारों को लेकर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर विधानसभा में मुफ्ती सरकार द्वारा विवादास्पद स्थायी निवासी अयोग्यता विधेयक पारित कराने का काम किया जा रहा है। इस बिल के अंतर्गत उन कश्मीरी महिलाओं को राज्य की स्थायी निवासी होने, कश्मीर में रोजगार, सरकारी नौकरियाँ पैतृक संपत्ति पर अधिकार और दूसरे अधिकारों से वंचित किया जा रहा है जिन्होंने दूसरे राज्यों के निवासियों से विवाह किया है। मुफ्ती मुहम्मद सईद की मौजूदा सरकार ने इस अति संवेदनशील और विवादास्पद विधेयक को सर्वसम्मति से पारित करा इसे कानून बनाने का षडयंत्र रचा है। यह कैसा कानून है जिसने आजाद देश को गुलाम बनाने की कोशिश की है। जिसमें महिलाओं को ये भी अधिकार नहीं कि वे अपने ही देश के किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से विवाह करें और अगर करती हैं तो न तो उन्हें जम्मू-कश्मीर राज्य में कोई रोजगार मिलेगा... न ही सरकारी नौकरियों पर कार्यरत रहने दिया जाएगा और तो और पैतृक संपत्ति से भी उम्हें बेदखल कर दिया जाएगा और तो और पैतृक संपत्ति से भी उन्हें बेदखल कर दिया जाएगा। ऐसा ही बिल पुरुषों के लिए भी क्यों नहीं पारित किया गया? आज कितने ही भारतीय युवक अपने देश से बाहर शादियाँ रचा रहे हैं क्योंकि उन्हें विदेश में नौकरी करने के लिए वहाँ की नागरिकता पानी आवश्यक है और इसके लिए ज़रूरी है ग्रीन कार्ड पाना जो विदेशी युवतियों से शादी रचाकर सहज उपलब्ध हो जाता है। भारत में फिर भी उनकी पैतृक संपत्ति पर उनका हक बना रहता है। सरकारी नौकरियों के द्वार उनके लिए खुले रहते हैं बल्कि विदेशी फर्म में नौकरी करने का अनुभव उनकी अतिरिक्त योग्यता बन जाता है।
जम्मू-कश्मीर राज्य से बाहर किसी युवक से शादी करके अपने समस्त अधिकारों से वंचित की गई महिला यदि विधवा हो जाए या तलाकशुदा हो जाए तो उसके पास जीवन जीने का कोई विकल्प नहीं बचता। उसके पुश्तैनी राज्य और पैतृक मकान के दरवाजे सदा के लिए बंद हो चुके होते हैं... यह बिल नहीं बल्कि एक अमानवीय कृत्य है इस इक्कीसवीं सदी का, जब यह दावा किया जा रहा है कि औरतें मुक्त हो, उन्हें उनके अधिकार मिलें और उन्हें आरक्षण मिले और सरकार स्वयं, निजी और सरकारी संस्थाएँ इस दिशा में प्रयासरत हैं।
मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य होने के बावजूद इस इस्लामी कानून की अनदेखी की जा रही है जिसमें महिलाओं को पति और पिता दोनों जगह संपत्ति तथा विरासत में अधिकार दिए गए हैं। जबकि लद्दाख और जम्मू के हिंदू तथा सिक्ख परिवारों के पारिवारिक सम्बंध पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हमेशा होते रहे हैं। यह बिल पुरुषवादी कट्टरता, लिंग के आधार पर भेदभाव तथा भारतीय संविधान में दिए गए मूल अधिकारों का खुला उल्लंघन है। यह घटना है उच्चतम तकनीक को विकसित करने वाली इक्कीसवीं सदी की जो द्वार युग की उस घटना को अंगूठा दिखाती है जब कांधार देश की कन्या गांधारी को भारतीय नरेश धृतराष्ट्र ब्याह लाए थे।
औरतों के हित में बने कानून अखबारों के कई-कई पेज घेर लेते हैं पर विडम्बना यह है कि उन्हीं पेजों पर ऐसी घटनाएँ भी छपती हैं जिनके खिलाफ कानून बना है। बिहार के समस्तीपुर जिले में एक औरत के इस इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में सती होने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना जिसकी चिता के अंगारे भी अभी ठंडे नहीं हुए होंगे, अंधे समाज अंधे कानून के तमाम दावों पर सवालिया निशान लगाती है। उन्नीसवीं सदी में राजा राम मोहन राय द्वारा छेड़ी गई सती प्रथा के विरोध की मुहिम से लगा था कि अब यह प्रथा हमेशा के लिए समाप्त हो गई है। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने भी इस प्रथा का विरोध करते हुए कड़ा रुख अपनाया था। कानून तो कागजों में बन गया पर समाज नहीं बदला। जब भी कोई औरत सती होती है सामाजिक न्याय का खूब ढिंढोरा पीटा जाता है। एक रुढ़िग्रस्त समाज अपने राजनीतिक अधिकारों को भला कैसे समझ सकता है? कानून के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन के दावे भरभरा कर टूट पड़ते हैं। परिवारों को ही अपने संकुचित दायरे से बाहर आकर नई सोच को अपनाना चाहिए। उसे यह भी देखना चाहिए कि नया कानून औरत के हित में है या अहित में। इस दिशा में एकजुट होकर उठे कदम ही भारतीय संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं, वरना मुफ्ती सरकार जैसे अहितकारी कानून बनते रहेंगे। अपने ही राज्य से, घर से, देश से औरत बेदखल होती रहेगी। रुढ़ियों को समाप्त करना और सही-गलत को समझने की स्वस्थ सोच ही देश और समाज को सही दिशा देगी।
महिलाओं को लेकर अरब देशों में सदियों से जड़ जमाए पुरुषवादी मानसिकता ने एक बार पुन: सिद्ध कर दिया है कि वह औरत के प्रति कितनी भयानक उपेक्षा रखता है। इस्लाम धर्म में औरत और बकरी में आत्मा नहीं मानी जाती। औरत मरती है तो नष्ट हो जाती है जबकि मर्द मरता है तो कब्र में दबे ये मुर्दे जिंदा होकर अल्लाह के दरबार में पेश होंगे। लेकिन अभी तो हाल ये है कि कुवैत में मतदान केंद्र पर भी एक भी औरत नजर नहीं आती क्योंकि देश की संविधान अदालत ने उन्हें मतदान का अधिकार दिया ही नहीं। वर्ष 1962 के चुनाव अधिनियम की इस धारा में कहा गया है कि सिर्फ़ पुरुषों को ही मतदान का अधिकार है और सिर्फ़ वे ही सार्वजनिक पदों के उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव लड़ सकते हैं। इसके विरोध में महिलाओं ने आवाज भी उठाई और महिला कार्यकर्ता कि ओर से याचिका भी दायर की गई पर संविधान अदालत ने यह याचिका खारिज कर दी। हालांकि याचिका कर्ता महिलाएँ जोर-शोर से आवाज उठा कही हैं कि देश के संविधान में सभी नागरिकों को समान माना गया है, इसलिए चुनाव कानून की यह धारा असंवैधानिक है।
मुस्लिम देशों के कानून के अनुसार बेटी का पिता कि जायदाद में हिस्सा बेटे को दिए हिस्से का आधा माना जाता है। यह हिस्सा भी बस कागजों की शोभा बढ़ा रहा है। अगर कोई अपराध हुआ है और औरत उसकी चश्मदीद गवाह है तो उसकी गवाही का महत्त्व मर्द की गवाही की तुलना में आधा माना जाता है। औरत अगर दुर्घटना में मरी है तो उसकी मौत का मुआवजा मर्द की तुलना में आधा दिया जाता है। एक तरह से औरत आधी-अधूरी मानी जाती है। उसकी अहमियत आधी, वजूद आधा, कानूनी अधिकार कागजों पर आधे... मगर आधे गुनाह की सजा पूरी। कभी-कभी तो मर्द के (पति, पिता, भाई) गुनाहों की सजा भी औरत ही पाती है। पाकिस्तान की मुख्तारिन माई को कौन भूला होगा?
परिवार की इज्जत के नाम पर पाकिस्तान की औरतों के घर के मर्द ही बकरी की तरह हलाक कर देते थे। अभी पिछले दिनों ही दो लड़कियों को मौत के घाट उतार दिया गया। ये लड़कियाँ आधी रात को घर से निकलकर अपने प्रेमियों से मिलने गई थीं और इनके चाचाओं ने इन्हें रंगे हाथ पकड़ लिया था और अपनी इज्जत पर बट्टा मान दोनों की हत्या कर दी। ऐसा कानून नहीं है वहाँ पर। लेकिन ऐसी वारदातों पर समाज की, कानून की चुप्पी के कारण इन कुरीतियों को बढ़ावा तो मिलता ही है। ग्रामीण इलाकों में तो हालात और भी खराब हैं। सरकार ने पिछले दिनों महिला संरक्षण कानून पारित किया था। पक्ष और विपक्ष दोनों इस कानून के पक्ष में थे। लेकिन ऐसे प्रयास कामयाब कहाँ हो रहे हैं वरना ऐसी घटनाएँ होती ही क्यों?
शिया मॉडल निकाहनामा आॅल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से जारी एक ऐसा क्रांतिकारी कदम है जिसने मुस्लिम महिलाओं के जीवन को बदल कर रख दिया है। हर समय सिर पर लटकती तलाक की तलवार से महिलाओं को निजात दिलाने वाला यह निकाहनामा स्वागत के योग्य है। मुस्लिम समाज में तलाक शब्द औरत को निरीह बना देता है क्योंकि इसका तरीका ग़लत है। जब भी शौहर की मर्जी हुई वह तीन बार तलाक कहकर औरत की धड़कनें तेज कर देता है। एक तो अधिकतर मुसलमान औरतें स्वावलंबी नहीं हैं, दूसरे प्राय: यह देखा जाता है कि मेहर की रकम सुहागरात के दिन शौहर के द्वारा बीवी को प्यार सहित वश में करके माफ करा ली जाती है। तो इस तलाक शब्द के तीन बार उच्चारण से वह तो बेचारी कहीं की नहीं रही। न केवल वह खुद बल्कि उसके बच्चों को भी तलाक का खामियाजा भुगतना पड़ेगा। इस कम्प्युटर युग में तो ई-मेल, एसएमएस और फोन के जरिए भी तलाक दिया जाने लगा है। मॉडल निकाहनामा लागू होने पर नशे की झोंक में तीन बार तलाक कहने भर से तलाक मान्य नहीं होगा। अब निकाह के वक्त उसका पंजीकरण भी अनिवार्य कर दिया गया है। कुरान व हदीस की रोशनी में तैयार यह निकाहनामा शिया और सुन्नी दोनों पर समान रूप से लागू होगा। यह हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में जारी हुआ है ताकि आम आदमी भी इसे अच्छी तरह समझ सकें। इसे औरतों के लिए और भी बेहतर इसलिए कहा गया है क्योंकि उन्हें भी मर्द को तलाक देने का अधिकार मिल गया है।
बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना मिर्जा मोहम्मद अतहर ने बताया कि मॉडल निकाहनामा को ईराक के सर्वोच्च शिया उलेमा अयातुल्ला सिस्तानी तथा संविधान के विशेषज्ञों ने अनुमोदन दे दिया है और यह प्रभावी भी हो गया है। इस विवाह अनुबंध में दूल्हा-दुल्हन शादी के मौके पर अपनी शर्तें रख सकते हैं। दुल्हन प्रतिकूल परिस्थितियों में तलाक के लिए अपने अधिकार का उपयोग कर सकती है। शौहर से धोखा मिलने पर, शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने पर, जीवन स्तर में सुधार के लिए, ग़लत और भ्रामक जानकारी देकर शादी कर लेने पर बीवी तलाक ले सकती है। वह पति के लगातार दो साल तक घर से गायब रहने पर तलाक ले सकती है। इसके अलावा महीनों तक हालचाल नहीं लेने, ज़रूरतों को पूरा नहीं करने या शारीरिक हिंसा या गैर मर्द के साथ यौन सम्बंध बनाने के लिए विवश करने पर भी वह तलाक ले सकती है। लेकिन पत्नी ऐसी फिजूलखर्ची नहीं कर सकती। जिससे पति के लिए कर्ज लेने की नौबत आ जाए। इसके साथ ही तलाक के लिए वह सीधे अदालत में मामला नहीं भेज सकती बल्कि उसे दस्तावेज में वर्णित मध्यस्थ से संपर्क करना होगा।
दहेज से सम्बंधित अपराधों को देखते हुए मॉडल निकाहनामा में स्पष्ट किया गया है कि दूल्हा किसी भी रूप में नकद या अन्य तरीके से दहेज की मांग नहीं कर सकता। इस निकाहनामे का नजरिया स्वस्थ और परिपक्व है, औरतों के अधिकारों का रक्षक है, अन्याय व शोषण से काफी हद तक मुक्ति दिलाने वाला है।
पश्चिमी देशों में या एक तरह से पूरे विश्व में सामंती व्यवस्था के बाद जो कानून बने उसमें लगातार ये प्रयत्न होता रहा कि स्त्री को पुरुष की बराबरी के अधिकार न दिए जाएँ। यहाँ तक कि वह नागरिक अधिकारों से भी वंचित रहे। विश्वविख्यात फ्रांसीसी लेखिका सीमोन द बोउवार अपनी क्रांतिकारी पुस्तक द सेकेंड सेक्स में लिखती हैं-यदि औरत अविवाहित है तो पिता के संरक्षण में रहे या फ्रि धार्मिक मठों में उसे भेज दिया जाए और यदि वह विवाहित है तो वह अपनी संपत्ति और संतान के साथ पूर्णतया पुरुष के अधीन रहे।
जब स्त्री पुरुष के अधीन होगी तो कानूनी अधिकारों का भला क्या औचित्य? वह उन अधिकारों का उपयोग स्वतंत्र होकर ही तो कर सकती है। जितने भी यूरोपीय कानून और अध्यादेश बने सभी में औरत को हाशिए पर ढकेला गया। यूरोपीय कानूनों पर भी कैनन का कानून, रोमन का कानून और जर्मन का कानून असरदार तरीके से मौजूद था। ये सभी कानून औरत के लिए अहितकर थे।
शायद यही वजह थी कि मोनालीजा ने अपने अंतिम दिन एक नन की तरह गुजारे। अपनी रहस्यमय मुस्कान से लाखों को दीवाना बना देने वाली मोनालीजा... 16वीं शताब्दी में लियोनार्दो द विंची द्वारा बनाई गई मोनालीजा कि अमर पेंटिंग को एक अनुसंधानकर्ता ने वास्तविक मानते हुए अपने शोध से यह सिद्ध किया है कि मोनालीजा ने अपने अंतिम दिन इटली के मध्य प्लॉरेंस में गुजारे थे। वहाँ वह ईसाइयों के मठ में नन की तरह रहती थी और अपनी बेटी जो कि अविवाहित थी, को भी अपने साथ रखा। थोड़े समय के बाद उसकी बेटी मारियेटा भी नन बन गई। मोनालीजा अपने पति की मृत्यु के पश्चात बेटी सहित मठ में चली गई थी।
इन देशों में औरत को इस योग्य भी नहीं समझा जाता था कि वे वोट दे सकें। सदियों के बाद फ्रांसीसी औरतों को 1945 में वोट देने का कानूनी अधिकार मिला। अंग्रेज औरतों को लंबे संघर्ष के बाद और जब उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान खुद को योग्य साबित किया तब जाकर 1928 में मतदान का अधिकार मिला। अमेरिका में यह अधिकार 1933 में मिला। लेकिन अन्य देशों में औरत को यह अधिकार पाने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ रहा है। कहीं सफलता मिल रही है? कहीं वह नकारी जा रही है।
भारत में अंग्रेज़ी शासन के दौरान औरतों में चेतना आई कि उन्हें भी मतदान का अधिकार मिलना चाहिए। वीमेन्स इंडियन एसोसिएशन एवं थिमोलोफीकल सोसायटी ने मिलकर 10 मार्च 1921 में हीराबाई टाटा के नेतृत्व में यह निर्णय लिया कि महिलाओं का एक दल लंदन जाकर ब्रिटिश संसद के सम्मुख यह गुहार लगाए कि भारतीय महिलाओं को न केवल विधानसभा और संसद में मतदान का अधिकार मिले बल्कि उनके लिए कुछ बैंठकें भी आरक्षित की जाएँ। पांच वर्ष पश्चात 1926 में प्रांत की महिलाओं को मतदान का अधिकार मिल गया। 1931 की जनगणना रपट बतलाती है कि मुंबई नगर में 50, 000 महिलाओं ने मतदान किया था। पूरे भारत में मुंबई ही वह नगर था जहाँ से महिलाओं द्वारा मतदान की शुरूआत हुई।
मिशनरियों, चर्च में कुछ ऐसे धार्मिक और सामाजिक कानून बने कि औरत हमेशा निकृष्ट दर्जे की रही। हमेशा दोहरे बंधनों में बंधी रही, दोहरी भूमिका निभाती रही। जर्मनी में हिटलर का नात्सीवाद बुर्जुआ संस्थाओं के खिलाफ था इसलिए उसका नजरिया खुला रहा। उसने बिना ब्याही माँ को कानूनी संरक्षण दिया जबकि विवाहित स्त्री द्वारा गर्भपात कराना अन्य देशों में अवैध था। औरत और मर्द के सामाजिक रिश्तों को कानूनी संरक्षण मिला, तलाक का अधिकार मिला और धीरे-धीरे गर्भपात को वैध करार दिया गया।
सोवियत रूस में 1936 के संविधान की धारा 122 के अंतर्गत स्त्री को आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और सार्वजनिक सारे अधिकार पुरुषों जैसे ही प्रदान किए गए जा रहे हैं। कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल में स्त्री के हित में कई मांगें पेश की गईं जैसे कानून की नजर में स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा मिले। स्त्री का गर्भ धारण करना एक पवित्र कृत्य है जो ईश्वर की बनाई दुनिया को आगे बढ़ाता है। अत: इसे कानूनी मान्यता दी जाए और पैदा हुए बच्चों की शिक्षा कि जिम्मेदारी कानून यानी सरकार ले। औरत को गुलाम बनाकर रखने वाली परंपरा खत्म की जाए। पूरे विश्व में केवल रूस ही ऐसा देश था जिसमें स्त्री मजदूर को पुरुष मजदूर की बराबरी का वेतन मिलता था वरना अन्य देशों में पुरुषों की तुलना में स्त्री मजदूरों को आधा वेतन ही मिलता है। इस दृष्टि से महिलाओं की स्थिति रूस में बेहतर थी।
अन्य देशों में स्त्री मजदूरों को वेतन कम मिलने और काम लगभग पुरुष की बराबरी का करने के अतिरिक्त वह आर्थिक शोषण के साथ-साथ यौन शोषण का भी शिकार थी। पुरुष के कार्यक्षेत्र में वह मजदूर कम औरत अधिक है। उसका शरीर ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है। फिर चाहे वह सात वर्ष की हो, या सत्तर वर्ष की, क्या फर्क पड़ता है। ऐसा ही एक मामला माँ और बेटी के बीच जमीनी विवाद को लेकर सामने आया। घटना नथालपुर की है जहाँ सत्तर वर्षीया विधवा ने अपने बेटों द्वारा अपने खेतों को हड़पते देख आवाज उठाई तो बेटों ने अपनी जन्मदाता माँ के खिलाफ गाँव में रहने वाले एक दबंग घराने की मदद ली। इस दबंग घराने के 25 वर्षीय युवक और उसके 40 वर्षीय नौकर ने खेतों पर से अपना अधिकार वापस लेने के लिए विधवा को डराया धमकाया और उसके घर में घुसकर उसके साथ बलात्कार किया। यह एक ऐसा कृत्य था कि पूरी मानवता कराह उठी। नथालपुर में महिलाओं के लिए काम कर रही संस्था दिशा ने इस अशोभनीय, जघन्य कृत्य और जमीन के लिए गैरकानूनी दावे को लेकर अदालत के दरवाजे खटखटाए। जब अदालत ने भी गवाहों के झूठे बयानों के आधार पर दोषियों को निर्दोष करार देकर छोड़ दिया तब संस्था ने इस मामले को उच्च न्यायालय तक पहुँचाने की ठानी। बहुत मुमकिन है कि विधवा कि गुहार वहाँ सुन ली जाए पर कानून उसके दिल पर लगे उस घाव को मिटा पाएगा जो इस उम्र में उसके अपने ही बेटों की बदौलत उसे मिले।
बालजाक लिखता है-स्त्री वह जंगल संपत्ति है जिसको पुरुष जहाँ चाहे, हांककर ले जा सकता है। वह केवल एक स्त्री को नहीं बल्कि संपूर्ण स्त्री समाज को अपनी विक्षिप्त मानसिकता में सदियों से हांक रहा है। उसे रोकने वाला ब्रेक अब तक तैयार नहीं हुआ... न समाज में, न कानून में।