कितने पाकिस्तान / कमलेश्वर / पृष्ठ 1
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यह उपन्यास
यह उपन्यास मन के भीतर लगातार चलने वाली एक जिरह का नतीजा है। दशकों तक सभी कुछ चलता रहा। मैं कहानियाँ और कॉलम लिखता रहा। नौकरियाँ करता और छोड़ता रहा। टी.वी. के लिए कश्मीर के आतंकवाद और अयोध्या की बाबरी मस्जिद विवाद पर दसियों फ़िल्में बनाता रहा। सामाजिक हालात ने कचोटा तो शालिनी अग्निकांड पर ‘जलता सवाल’ और कानपुर की बहनों के आत्महत्याकांड पर ‘बन्द फाइल’ जैसे कार्यक्रम बनाने में उलझा रहा। इस बीच एकाध फ़िल्में भी लिखीं। चंद्रक्रांता, युग, बेताल, विराट जैसे लम्बे धारावाहिकों के लेखन में लगा रहा।
इसी बीच भारतीय कृषि के इतिहास पर एक लम्बा श्रृंखलाबद्ध धारावाहिक लिखने का मौका मिला। कई सभ्यताओं के इतिहास और विकास की कथाओं को पढ़ते-पढ़ते चश्मे का नम्बर बदला। एक-एक घंटे की 27 कड़ियों को लिखते-लिखते बार-बार दिमाग आदिकाल और आर्यों के आगमन को लेकर सोचता रहा। बुद्धि और मन का सच मोहनजोदड़ो-हड़प्पा सभ्यता और आर्यों के बीच स्थापित किए गए ‘संघर्ष-सिद्धांत’ को स्वीकार करने से विद्रोह करता रहा। उस एपीसोड को मैंने कई बार लिखा। एक बार तो मैंने ऊब कर काम, निपटाने की नीयत से पश्चिमी विद्वानों के ‘आर्य-आक्रमण’ के सिद्धान्त को स्वीकार करके वह अंश लिख डाला। फिर लोकमान्य तिलक की इस थ्यौरी और उद्भावना से भी उलझता रहा कि आर्य भारत के मूल निवासी थे। मैंने इस उद्भावना को लेकर वह अंश फिर लिखा; लिखने के बाद भी मन निर्भ्रान्त नहीं हुआ। लगा यही कि यह बात भी रचना के सम्भावित सत्य तक नहीं पहुँचाती। सच को यदि पहले से सोचकर मान्य बना लिया जाए तो वह सत्याभास तो दे सकता है, पर आन्तरिक सहमति तक नहीं पहुँचाता। शायद, तब, रचना अपने सम्भावित सत्य को खुद तलाशती है। उसी तलाश ने मुझे यह बताया कि आर्यों के आक्रमण होने के कोई कारण नहीं थे। वे आक्रांता नहीं थे। वे आर्य आदिम कृषि से परिचित खानाबदोश कबीले थे, जो सहनशील प्रकृति और सृजनगर्भा धरती की तलाश में निकले थे। सिन्धु घाटी में सहनशीला प्रकृति तो थी ही, सृजनगर्भा धरती की भी कमी नहीं थी। इसलिए आक्रमण या युद्ध की ज़रूरत नहीं थी। आर्य आए और इधर-उधर बस गए होंगे।
वेदों में असुरों से युद्धों की जो अनुगूंज मिलती है, वह निश्चय ही सत्ता, समाज, वैभव और जीवन-पद्धति के स्थिरीकरण के बाद की उपरान्तिक गाथा है। दुनिया की सभ्यताओं के इतिहास में, किसी आक्रांता जाति समुदाय ने वेदों जैसे रचनात्मक ग्रन्थों के लिखे जाने का कोई प्रमाण नहीं दिया है। ऐसे ग्रंथ शांति, धीरज और आस्था के दौर में ही लिखे जा सकते हैं, युद्धों के दौर में नहीं। रचना के इस संभावित सत्य ने मुझे सांत्वना दी। तब ‘कृषि-कथा’ का लेखन हो सका।
इन और ऐसी तमाम रचनाओं, विचारों, इतिहास की सैकड़ों सृजनात्मक दस्तकों और व्यवधानों के बीच रुक-रुक कर ‘कितने पाकिस्तान’ का लिखा जाना चलता रहा। उन तमाम विधाओं की तकनीकी सृजनात्मकता का लाभ भी मुझे मिलता रहा। शब्द-स्फीति पर अंकुश लगा रहा।
इसे मैंने मई, सन् 1990 में लिखना शुरू किया था। घने जंगल के बीच देहरादून के झाजरा वन विश्राम गृह में सुभाष पंत ने व्यवस्था करा दी थी। रसद वगैरह नीचे से लानी पड़ती थी। गायत्री साथ थी ही। साथ में हम अपने 4 बरस के नाती अनंत को भी ले गए थे। एक कुत्ता वहाँ आता था, उससे अनंत ने दोस्ती कर ली थी। उसका नाम मोती रख लिया था। कभी-कभी वहां बहुंरगी जंगली मुर्गे भी आते थे। अनंत उन्हें देखने के लिए दूर तक चला जाता था।
जंगल की पगडंडियों से यदा-कदा लकड़हारे आदिवासी गुज़रते रहते थे। एक दिन अनंत मुर्गों का पीछा करते-करते गया तो नजर से ओझल हो गया। गायत्री बहुत ज्यादा चिंतित हो गई। तलाशा, आवाजें लगाईं, घबरा के इधर-उधर दौड़े-भागे पर अनंत का कहीं कोई पता नहीं चला। तभी एक गुजरते बूढ़े ने बताया कि उसने जंगल में कुछ दूर पर एक छोटे बच्चे को लकड़हारे के साथ जाते देखा था...यह सुनकर गायत्री तो अशुभ आशंका और भय से लगभग मूर्छित ही हो गई। आदिम कबीलों की नरबलि वाली परम्परा की पठित जानकारी ने गायत्री को त्रस्त कर दिया था। आशंकाओं से ग्रस्त मैं भी था। मैं गायत्री को संभाल कर, पानी पिला कर, उसे नौकर के हवाले करके फौरन निकला। बूढ़े ने जिधर बताया था, उधर वाली पगडंडी पर उतर कर तेजी से चला, तो कुछ दूर पर देखा-एक लकड़हारे के कन्धों पर पैर सामने लटकाए उसकी पगड़ी पर बाँहें बाँधे, किलकारी मारता अनंत बैठा था। लकड़हारे के बायें हाथ में कुल्हाड़ी थी, और वह उसे लिए हुए सामने से चला आ रहा था। जान में जान आई। पता चला, वह अनंत को हिरन और भालू दिखाने ले गया था।
इस घटना ने मुझे आदिम कबीलेवालों को जानने, पहचानने और उनके बारे में पठित तथ्यों से अलग अनुभवजन्य एक और ही सोच दी थी। सात-आठ बरस बाद अनुभव के इसी अंश ने मेरा साथ तब दिया जब मैं उपन्यास में माया सभ्यता के प्रकरण से गुज़र रहा था। बहरहाल...
मेरी दो मजबूरियाँ भी इसके लेखन से जुड़ी हैं। एक तो यह कि कोई नायक या महानायक सामने नहीं था, इसलिए मुझे समय को ही नायक-महानायक और खलनायक बनाना पड़ा।
और दूसरी मजबूरी यह कि इसे लिखते समय लगातार यह एहसास बना रहा कि जैसे यह मेरी पहली रचना हो...लगभग उसी अनकही बेचैनी और अपनी असमर्थता के बोध से मैं गुज़रता रहा..आखिर इस उपन्यास को कहीं तो रुकना था। रुक गया। पर मन की जिरह अभी भी जारी है...
दिल्ली: 29-12-99
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