कितने पाकिस्तान / कमलेश्वर / पृष्ठ 4
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पाँचवे संस्करण की भूमिका
इतनी जल्दी फिर यह संस्करण ! प्रतिक्रियाओं की भरमार और विचारों की उथल-पुथल। विराट वैचारिक फलक पर इस रचना के इतने विस्तार ने इस ‘मिथ’ को भी तोड़ा है कि हिन्दी में पाठक नहीं है, हिन्दी में गम्भीर पाठक नहीं है। अगर नहीं है तो इस उपन्यास को कौन खरीद रहा है और पढ़ रहा है ? प्रकाशन के समय (फरवरी 2000 से जुलाई 2001) से अब तक इन अट्ठारह महीनों में मैं प्रतिक्रियाओं से आप्लावित रहा हूँ। और यह सारी प्रतिक्रियाएँ या तो साधारण पाठकों की हैं या उन पाठकों की, जो हिन्दी के वैचारिक और रचना परिदृश्य से एक साज़िश के तहत अदृश्य रहते या रखे जाते हैं। अब मैं यह कहने में क़तई संकोच नहीं करूँगा कि इस रचना ने हिन्दी आलोचना के शिविरबद्ध संस्थानों की प्राचीरों के पार जाकर पाठक से वह रिश्ता कायम किया है जो इन व्यक्ति-संस्थानों ने खण्डित कर दिया था। इसने साहित्य के पुरोहितवाद को ख़ारिज किया है।
बहस के कई मुद्दे भी उठे हैं। सन्तोष की बात यह है कि यह मुद्दे पाठकों ने उठाए हैं या रचनाकारों ने पाठकों की तरह उठाए हैं। एक ख़ास मुद्दा इसकी प्रयोगशीलता को लेकर उठा है। अनेक पाठक मित्रों ने देश के कोने-कोने से लिखते हुए इसकी प्रयोगशीलता की पहचान और सराहना की है। अग्रज लेखक विष्णु प्रभाकर जी ने जब यह लिखा कि ‘इसने उपन्यास के बने-बनाए ढाँचे को तोड़ दिया है और लेखकीय अभिव्यक्ति के लिए सब कुछ सम्भव बना देने का दुर्लभ द्वार खोलकर एक नया रास्ता दिखलाया है..यह एक नया प्रयोग है !’ तब मैं सचमुच आश्वस्त हुआ कि यदि इसकी प्रयोगशीलता को इस रूप में लिया जा रहा है तो यह मात्र प्रयोग के लिए प्रयोग नहीं बल्कि यह इसका प्रयोजन भी है।
फिर स्वयंप्रकाश जैसे गम्भीर और सृजनरत समकालीन का पत्र मिला। उन्होंने लिखा-‘कहना चाहिए कि यह नाटक की ब्रेख्तियन पद्धति का उपन्यास में पहली बार निवेश करता है-और बेशक खतरे उठाते हुए और इसकी क़ीमत चुकाते हुए भी अपने मक़सद में कामयाब रहता है...इसलिए इसे क्या कहें ? अनुपन्यास ? या प्रतिउपन्यास ? लेकिन ऐसा कहने से कलावादी-रूपवादी प्रतिक्रियावाद की बू आती है, लेकिन उन्हें देखना चाहिए कि शिल्प के उनसे बड़े और ज़्यादा जोखिमवाले प्रयोग प्रगतिशील लेखक कर सकते हैं।’
परिभाषावाली बात को फिलहाल स्थगित रखते हुए प्रयोगवाले मुद्दे पर कालीकट (केरल) से लिखित कोविद अन्नतमूर्ति अनंगम की चन्द सतरें देना चाहता हूँ। इसमें अतिरेक और अतिरंजना है पर वह स्वत:स्फूर्त भी हैं। वे कहते हैं कि ‘इस उपन्यास ने प्रेमचन्द से बहुत आगे जाकर जिस वैश्विक चिन्ता से हमें जोड़ा है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रयोग के धरातल पर तो (इसने) कमाल किया है। प्रेमचन्द प्रयोगवादी नहीं थे, लेकिन प्रयोगवादी वात्स्यायन को उन्होंने सदियों पीछे छोड़ दिया है। (इनकी) भाषा ने जैनेन्द्र की निजी भाषा से हिन्दी को मुक्त करके उस भाषा और मुहावरे को पकड़ा है जो भविष्य की भाषा है।
यह उद्धरण मैं प्रशस्ति-गायन के लिए नहीं, ‘प्रयोग’ के मुद्दे को सुलझाने के लिए दे रहा हूँ। मैं कहना चाहता हूँ कि जो भी प्रयोग इस रचना में हुआ या हो गया है, वह मेरे कारण नहीं बल्कि ‘कथ्य’ के कारण हुआ है। लेखक प्रयोगवादी होने का दम्भ पाल सकता है पर प्रयोग की सारी सम्भावनाएं केवल कथ्य में निहित होती हैं।
अब परिभाषा का सवाल। यह उपन्यास है या कुछ और, तो मैं यही कह सकता हूँ कि इसे मैंने उपन्यास की तरह ही शुरू किया था और उपन्यास मानकर ही पूरा किया है। इसे उपन्यास की तरह ही पढ़ा गया है। मेरी समझ से यह परिभाषा का कोई संकट खड़ा नहीं करता। यदि थोड़ा-सा संकट खड़ा भी होता है तो इसलिए कि इसमें राष्ट्रीय, सभ्यतागत, समयगत समस्याओं का विस्तार हुआ है। वैश्विक चिन्ताओं के बीच इसमें हर देश में मौजूद ‘अपने देश’ को पहचानने की कोशिश की गई है।
भाषा को लेकर जो सवाल उठे हैं उनको स्पष्ट करने के लिए अहिन्दी भाषाओं के मात्र दो पाठकों के विचार ही काफ़ी होंगे। मराठी भाषी डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे ने कहा है कि बहुत अच्छा मराठी अनुवाद मौजूद होने के बाद भी वे इसे हिन्दी में पढने के लिए उत्सुक हुए और उन्हें यह लगा कि यह (यानी इसकी) हिन्दी उन सबकी हिन्दी है जो हिन्दीवालों की वैयक्तिक हिन्दी नहीं बल्कि भविष्यमुखी राष्ट्रीय हिन्दी होगी। ओड़ीशा में गौरीभुवन दास ने बताया कि ‘यह उपन्यास ओड़िया में सम्भवत: अगस्त में आ रहा है, पर इसके हिन्दी संस्करण के आधार पर कुछ समीक्षाएँ ओड़िया में पहले ही छप रही हैं। उन्हें पढ़कर मैंने बड़ी कठिनाई से हिन्दी संस्करण प्राप्त किया। इसकी हिन्दी हमें सब कुछ सहजता से समझा देती है। यह साम्राज्यवादी हिन्दी नहीं, यह भारतीय हिन्दी है, यह भारत की जनवादी हिन्दी है।’
कुछ जगहों से इसके शीर्षक ‘कितने पाकिस्तान’ को लेकर उत्कट विरोध के स्वर भी सुनाई दिए। प्रमाणस्वरूप कुछ संस्थागत खतो-किताबत मेरे पास है पर उसे मैं फ़िलहाल विवाद का विषय नहीं बनाना चाहता। हिन्दी के प्रतिष्ठानी ‘साहित्यिक स्वयंसेवकों’ ने भी कुछ बौद्धिक-दंगा-फ़साद करवाना चाहा, पर व्यापक पाठक वर्ग पर उसका कोई असर नहीं हुआ। एक अपुष्ट समाचार मिला कि जोधपुर में इस उपन्यास की एक प्रति को विरोधस्वरूप जलाया गया। एक प्रति के कारण आग दर्शनीय नहीं बनी, तो जो भी किताबें-कागज हाथ लगें, उन्हें झोंककर आग को प्रचण्ड बनाया गया। बहरहाल...
मेरा प्राप्य यही है कि मेरे रचनाकार के मन में जो बैचेनी पल रही थी...दिमाग़ पर जो दस्तकें लगातार पड़ रहीं थीं और जिरह जारी थी, उसमें अब देश के हर कोने का पाठक मेरा सहभागी और सहयात्री है। यही मेरा भरपूर प्राप्य है। इसने मेरी रचनात्मक उम्र को बढ़ाया है। वामधर्मी होने की मेरी आस्था को भारतीयता के सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य में रेखांकित किया है। इससे अधिक और मैं क्या चाह सकता हूँ ! सिवा इसके कि रचना मुझे रचना के प्रति प्रतिश्रुत बनाए रहे...और इसके आगे की दास्तान को लिखने की ताक़त देती रहे...लेखक-पाठक का यह जरूरी और कारगर रिश्ता क़ायम रहे ! विनम्र भाव से पाठकों को फिर प्रणाम करते हुए-
5/116, इरोज गार्डन,
सूरजकुंड रोड, नई दिल्ली-110044
-कमलेश्वर
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