कितने पाकिस्तान / कमलेश्वर / पृष्ठ 5

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छठे संस्करण की भूमिका

पाँचवे संस्करण वाली टिप्पणी में काफी विस्तार से मैंने प्रयोगशीलता और इसके उपन्यास होने की परिभाषा को लेकर अपनी बात रखी थी। पाठकों ने इसे जिस तरह स्वीकार किया है और इसका पाठकीय फलक जिस तेज़ी से विस्तृत हुआ है, उसकी गवाही यह छठा संस्करण दे रहा है।

इस बीच एक उत्साहित करने वाला प्रसंग भी उद्घाटित हुआ है। ‘कितने पाकिस्तान’ को केंद्र में रखकर मथुरा, सतना, छिंदवाड़ा, सोलापुर, लातूर, देहरादून, चंडीगढ़ आदि कई अन्य जगहों, शहरों में इस पर गोष्ठियाँ और विचार-विमर्श हुआ है। जहाँ मैं मौजूद रह सका वहाँ सवाल जबाव का लम्बा सिलसिला चला है, सुखद अनुभव यह था कि पाठकों की उपस्थिति मुझे चौंकाती थी और सबसे ज्यादा आश्वस्त करने वाली स्थिति यह थी कि मुझे उनमें से कईयों के हाथों में उपन्यास की चिह्रित प्रति दिखाई देती थी। वे पन्ने पलट कर चिह्नित अंश देखते और उपन्यास कि विविध प्रसंगों पर विचार व्यक्त करते थे या प्रतीकों, घटनाओं, वृत्तांतों के बारे में विस्तृत वर्णन चाहते थे।

यानी हर अध्याय में वे अपनी तरफ से कुछ जोड़ना चाहते थे कई और पाठक चाहते थे कि अदीब की अदालत में कुछ और इतिहास-पुरुषों को बुलाया जाता...रचना के साथ पाठक की सहभागिता की यह अनुभूति विस्मयकारी और विलक्षण थी। मेरे पाठक उपन्यास के अध्यायों के बाद स्वयं अपने मानस में रचनागत थे..यह बहुत गहरी प्रतीति थी...कि यदि पाठक के लिए रचना का मानसिक और वैचारिक अवकाश (स्पेस) पैदा करती है तो लेखक के पास से समाप्त होने के बाद उसकी पुनर्रचना पाठक-दर-पाठक करता रहता है।

और इस प्रक्रिया में अधिकांश उनका था जो नौजवान और छात्र थे ! सुखद यह भी था कि इस पर चौदह या पंद्रह लघु शोध प्रबंध (एम.फिल.) उन्हीं छात्रों ने लिखे जिन्होंने इसे ‘अपने अनुभव’ के रूप में ग्रहण किया था। एक और बात कि इस उपन्यास ने मुझे अलग-अलग जगहों पर गम्भीर समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों से मिलवाया। उन्हें इसमें इतिहास और समाजशास्त्र के कुछ वे स्रोत उजागर होते नज़र आए जिनके बारे में मुझे खुद ज्यादा पता नहीं था, हालांकि कुछ स्रोतों को मैंने खंगाला ज़रूर था और ज़रूरी लायब्रेरियों और ग्रंथों से उनकी पुष्टि की थी।

एक अन्य स्तर पर इस उपन्यास से सोच और विचार की प्रक्रिया भी शुरू हुई। सभ्यता और संस्कृति के इतिहास वाले पक्ष पर पहली नज़र हिन्दी के प्रखर आलोचक डॉ. पुष्पपाल सिंह ने डाली। इसके बाद राजस्थान विश्वविद्यालय के प्रख्यात इतिहासकार डॉ. देवनारायण आरोपा ने इसे प्राचीन इतिहास और सभ्यताओं के विकासक्रम के फलक पर इसके कथा-वृत्तांत को फैला कर विवेचित किया और कहा कि ‘‘यह पुस्तक एक पठनीय सपना भी है और सपना साकार करने की रचना भी।’’ इन दोनों जीवन्त बुद्धिजीवियों की राय से मेरा रचना-मन अभी आश्वस्त हुआ ही था कि अमृता प्रीतम जी की प्रतिक्रियाओं की लहर आ गई। अमृता जी ने ‘टाइम्स आफ इंडिया’ में कहा कि सलमान रुश्दी को अगर भारतीय साहित्य जानना है तो वे ‘कितने पाकिस्तान’ पढ़ लें।

ऐसा नहीं है कि इस उपन्यास को लेकर मैं आश्वस्त नहीं था। लिख लेने के बाद और छपने से पहले मैंने अनासक्त भाव से सोचा था पर फिर प्रतिक्रियाओं का जो आप्लावन हुआ उसने मेरे लेखन का दायित्व और उम्र बढ़ा दी। मिली दुआओं के साए तले मैं हाथ जोड़े बैठा हूँ। मैं विनत भाव से माँ की तस्वीर को देखता हूँ। माँ की नज़रें मुझे नहीं, मेरे कलम को देख रही हैं ! पिता तो थे नहीं, पहली बार मुझे कलम पकड़ा कर माँ ने ही अक्षर ज्ञान कराया था।

5/116, इरोज गार्डन

सूरजकुंड रोड, नई दिल्ली-110044

-कमलेश्वर