किसी भी जगह की पहचान हैं वहाँ के मूल निवासी, आदिवासी / संतोष श्रीवास्तव

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मैं मुम्बई के अतीत की गलियों से गुज़र रही हूँ... यहाँ गेटवे ऑफ़ इन्डिया और ताज महल की भव्यता और सजधज नहीं है। फिर आँखें चकित क्यों हैं? कहाँ है मेरी मुम्बई. ये तो हरे भरे जंगलों, खेतों और आदिवासियों से भरी कोई अनजानी जगह है। यहाँ की दो जनजातियों से मैं रूबरू होती हूँ। कोली और अगरिया। जो ईसा पूर्व से यहाँ रहती आई हैं। इनके वंशज मछुआरों और नमक बनाने वाले मज़दूरों के रूप में जाने जाते हैं। यह वंश परम्परा आज भी कायम है। कोली मस्त मलंग जनजाति है जो सारे दिन खटने के बावजूद रात को अपने खेमे में नशा करके नाचते गाते हैं। इनके नृत्य को कोली नृत्य कहते हैं। ये मछली पकड़ने का व्यवसाय करते हैं। अगरिया जनजाति यहाँ की दूसरी प्रमुख आदिवासी जाति है जो नमक उत्पादन से रोज़ी रोटी कमाती है।

मीरारोड के पश्चिम में नमक के खेत ही खेत हैं जो अपनी शुभ्रता के कारण बर्फीला इलाक़ा नज़र आते हैं। मैं जब मीरा रोड में रहती थी तो कॉलेज आते जाते रोज़ इन आदिवासी औरत मर्दों को नमक के खेतों में काम करते देखती थी। घुटनों तक प्लास्टिक बाँधे रबर की चप्पलें पहने ये दिन रात नमक की ढुलाई करते हैं। नायगाँव इगतपुरी नासिक रोड के आसपास इन दोनों जनजातियों की बस्तियाँ हैं। दोनों आदिवासी समुदाय की आराध्य देवी मुम्बा देवी ही हैं। अपने पर्वों को ये धूमधाम से मनाते हैं। समुद्र इनका देवता है क्योंकि समुद्र ही इन्हें नमक और मछली देता है। नारियल पूर्णिमा के दिन कोली मछुआरे अपनी नौकाओं को रंगबिरंगे कपड़ों और झण्डियों से सजाते हैं और नाचते गाते समुद्र देवता को नारियल की भेंट चढ़ाते हैं। इस दिन न तो ये समुद्र के अंदर जाते हैं और न ही मछलियाँ पकड़ते हैं। लोकनृत्यों के संग गाये जाने वाले गीतों में मुम्बा देवी एवम् इनका इतिहास समाहित नज़र आता है। वैसे आदिवासियों की एक और जनजाति यहाँ कतकारी के रूप में जानी जाती है। कतकारी बनजारे हैं जो भ्रमण करते हुए मिट्टी, बाँस एवम् जंगली पेड़ पौधों से खिलौने, मूर्तियाँ तैयार कर बेचते हैं और अपनी आजीविका चलातेहैं। बनजारों की परम्परा के अनुसार ये भी पंद्रह दिन से ज़्यादा एक जगह नहीं टिकते। चूँकि गाँवों में रहना इनकी परम्परा के विरुद्ध है अतः ये गाँव की सीमा से बाहर बनी मुख्य सड़क के किनारे अपने तम्बू लगाते हैं। ज़िन्दग़ी के हर पल को जीना कोई इनसे सीखे। भविष्य के प्रति लापरवाह वर्तमान को जीते ये बन्जारे अपनी रातें देसी दारू, नाच गाने से रंगीन कर लेते हैं।

आदिवासियों की ज़िन्दग़ी से अनेक दिलचस्प पहलू जुड़े हुए हैं। इनके पाड़ों के नामों के पीछे भी कोई न कोई दिलचस्प इतिहास जुड़ा हुआ है। यानी आरे कॉलोनी का केल्टी पाड़ा। जहाँ यह पाड़ा है वहाँ आज से सदियों पहले बंदरों के झुंड रहा करते थे। ऐसा ही इतिहास है फुट क्या तड़ीचा पाड़ा। बरसों पहले यहाँ का तालाब फूट गया था। इसे ठीक करने जो मज़दूर आये वे यहीं रहने लगे और बाद में नाम पड़ गया फुटक्या तड़ी चा पाड़ा यानी टूटा फूटा तालाब। इसी तरह इमली के पेड़ों की भरमार होने की वजह से नेशनल पार्क में बना चिंचपाड़ा। चिंच यानी इमली। ऐसा ही नवपाड़ा है जो नया बसा था। तब से यही नाम प्रचलित हो गया। तुमनी पाड़ा, रावण पाड़ा, प्रजाकुरपाड़ा आदि नाम भी संभवतः इसी तरह की घटनाओं की वजह से रखे गये हैं। मुम्बई में मुख्यतः वारणी, कोंकणा, कारतरी, कोली, मल्हार, धोड़ी, दुबड़े आदि आदिवासी जातियाँ हैं। नृत्य इनके जीवन का अभिन्न अंग है। साथ ही यह भी कि स्त्री, पुरुष दोनों नाचते हैं, अगर पुरुष अकेले नाचते हैं तो वह नृत्य पूरा नहीं माना जाता। नृत्य में पैरों की थापों का सबसे ज़्यादा महत्त्व होता है। नृत्य के समय कमर में हाथ डालकर या कंधे पर हाथ रखकर नाचा जाता है। नृत्यांगनाएँ बालों में जंगली फूल, गजरे, पत्तियाँ आदि लगाती हैं। तारपा, तूर, गवरी, कांबड़ी आदि इनके मुख्य नृत्य हैं। त्यौहार ये बहुत उत्साह से मनाते हैं। बारिश का मौसम इनके पाड़ों में त्यौहारों का मौसम होता है। महिला, पुरुष दोनों ही एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। महिलाएँ परिवार के लिए सूखी लकड़ियाँ बीनने और शहरी लोगों के घरों में जाकर बर्तन भांडे माँजने, साफ सफाई आदि काम करती हैं। इनकी झुग्गियाँ बाँस पर मिट्टी की परत चढ़ाकर बनाई जाती है। आँगन को गोबर से लीपा जाता है।

आदिवासी समुदाय जिन देवताओं को पूजता है उनके नाम हैं हिमय, नारण, वाघाय। शादी के वक़्त दहेज लड़की अले नहीं बल्कि लड़के वाले देते हैं। वैसे तो इनकी जीवनचर्या में शहरी जीवन को देखकर काफी कुछ बदलाव आया है लेकिन फिर भी अभी तक इनकी लोक संस्कृति शादी ब्याह के तौर तरीके आदि वही पुराने ढर्रे पर चले आ रहे हैं। लेकिन नये ज़माने के बिल्डरों ने इनकी ज़मीनें हड़पने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि हमेशा आर्थिक तँगी में जीने वाले इन आदिवासियों की ज़मीनें बिल्डरों के हाथ में आते ही इतनी महँगी कैसे हो गईं। ये भोले भाले आदिवासी नहीं जानते कि बिल्डरों ने इनकी ज़मीने हड़पकर या औने पौने दामों में ख़रीदकर उस पर कुकुरमुत्तों की तरह शॉपिंग मॉल खड़े कर लिये हैं, बिग बाज़ार बना लिए हैं और शॉपिंग सेंटर खोल लिये हैं। जहाँ की सजधज, ऑर्केस्ट्रा और विद्युत चालित सीढ़ियाँ ख़रीददारों को सीधे मंज़िल दर मंज़िल पहुँचा कर तमाम देशी विदेशी वस्तुओं का ज़खीरा उनकी नज़रों के सामने खोलती हैं। कई शॉपिंग मॉल मल्टीप्लेक्स थियेटरों के संग बने हैं जहाँ एक ही समय में तीन चार फ़िल्में प्रदर्शित की जाती हैं। बिल्डरों ने पूरी तरह मुम्बई को विकसित देशों की तर्ज़ पर बनाने की कोशिश में एक ओर तो महानगर को बदल कर रख दिया है वहीं दूसरी ओर आदिवासी जो कि हर देश-प्रदेश की धरोहर होते हैं और जो जंगलों में अपने कबीलों के संग पुरातन परम्परा को बरकरार रखे हैं उन्हें महानगरीय जीवन जीने पर मजबूर कर दिया है और यही वजह है कि वे आधुनिक जीवन को अपना नहीं पा रहे हैं और उनकी संख्या दिनोंदिन कम होती जा रही है।