किस्सा लोकतंत्र / अध्याय 1 / विभूति नारायण राय
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प्रेस कांफ्रेंस कुछ असाधारण किस्म की थी। भाग लेने वाले ज्यादातर पत्रकारों के लिए यह नया अनुभव था। जो सज्जन बंद गले का सूट पहने बीच में बैठे थे और पत्रकारों के सवालों के जवाब दे रहे थे, उन्हें भी यह स्थिति काफी असहज-सी प्रतीत हो रही थी। वे अभी तक सारी उम्र जिस भाषा का प्रयोग करते आये थे, वह उनके किसी काम नहीं आ रही थी। प्रेस कांफ्रेंस शुरू होने के पहले ही उन्हें बता दिया गया था कि यहाँ उन्हें विनम्र किस्स की राजनीतिक भाषा का प्रयोग करना पड़ेगा और वे बमुश्किल तमाम समय इसी भाषा का प्रयोग करने की कोशिश कर रहे थे। परेशानी की जड़ यही थी। यह भाषा बार-बार उनके धैर्य की परीक्षा ले रही थी।
'एक बात तो बताइए यादवजी, आप तो अच्छे-भले धंधे में थे, फिर अचानक चुनाव लड़ने की कैसे सूझी?'
यादवजी यानी प्रेमपाल यादव उर्फ पी.पी. कहना चाहते थे कि धंधे के ही चक्कर में चुनाव लड़ने का इरादा उन्होंने बनाया था, लेकिन अपने को जब्त करते हुए उन्होंने बड़ी शालीनता से उत्तर दिया, 'क्यों, बिजनेस वालों को देश-सेवा नहीं करनी चाहिए क्या? हमने सोचा सभी देश-सेवा कर रहे हैं, हम भी कर लें। पेट के लिए दो रोटी तो मिल ही जाती है। कुछ जनता की सेवा भी हो जाय।'
पत्रकारों में से कुछ ने एक-दूसरे की तरफ देखकर आंखें मटकायीं। प्रेस कांफ्रेंस में भाग लेने वाले ज्यादातर घाघ किस्म के लोग थे। वे इस विनम्रता के पीछे छिपे प्रयत्नों को भाँप रहे थे। इसलिए बिना किसी गलतफहमी में पड़े चुपचाप चाय-समोसे से उलझे हुए थे। कुछ अभी इस पेशे में नये आये थे, इसलिए रंगरूटों की तरह सामने वाले को अपनी पूरी प्रतिभा लगाकार परेशानी में डालकर मजा लेना चाहते थे। गलती दरअसल उन्हीं से हुई जिससे कुछ देर के लिए प्रेस कांफ्रेंस की गुरु- गंभीर शांति में दखल पैदा हो गया और प्रेमपाल उर्फ पी.पी. अपने भाषिक नियंत्रण को थोड़ी देर के लिए खो बैठे। हुआ कुछ इस तरह कि एक रंगरूट पत्रकार ने उनकी शराफत का नाजायज फायदा उठाकर चुटकी लेने की बेहूदा हरकत की।
'मान्यवर, पुलिस वाले कहते हैं कि आप माफिया हैं। शराब की तस्करी करते हैं। आपके खिलाफ कत्ल और लूट के मुकदमे हैं। लोग कह रहे हैं कि आप चुनाव इसलिए लड़ रहे हैं कि पुलिस आपको परेशान न करे।'
'कौन मादर... कहता है।' पी.पी. की मान्यता पहले भी यही थी और अब और पुख्ता हो गयी कि शराफत से ज्यादा घटिया और कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। नहीं तो इस शहर में उनके मुंह पर यह मरियल पत्रकार ऐसा दुस्साहस कैसे करता! फिर भी वक्त नाजुक था और उनका मुख्य राजनीतिक सलाहकार पीछे से उनकी पीठ में उंगली घोंप रहा था, इसलिए उन्होंने अपने ऊपर नियंत्रण किया।
'अब गुप्ताजी, पुलिस वालों की बात पर क्यों जाते हैं। आप खुद बताइए, क्या मैं बदमाश हूँ? यहां पर बैठे सभी पत्रकार भाइयों को मेरी खुली चुनौती है - बताइए, आपमें से किसी को मैं अपराधी लगता हूं -बताइए, बताइए... ' पी.पी. ने विजेता मुस्कान से सबकी ओर देखा।
घाघ पत्रकारों ने बेवकूफी में न पड़कर चाय-समोसे का सेवन जारी रखा और नौसिखुओं में से एक-दो कुलबुलाये, लेकिन उनके बगल वालों ने हाथ, आंख या सिर के इशारों से उन्हें नियंत्रित रखा।
'आप ही नहीं, शहर का कोई शरीफ इन्सान मुझे बदमाश नहीं कह सकता। अब पुलिस तो किसी को भी बदमाश बना सकती है। आप पत्रकार लोग हैं, रोज पुलिस के खिलाफ लिखते हैं। बताइए, सच लिखते हैं या झूठ? बताइए, बताइए! आप शहर में घूम आइए, कोई गरीब आदमी कह तो दे कि पी.पी. ने उसे सताया है।'
'पर आपके खिलाफ हत्या और ड़कैती के मुकदमे कैसे कायम हुए?'
'अजी मुकदमों का क्या? पुलिस जिसके खिलाफ चाहे कायम कर दे। घंटाघर पर कत्ल हुआ दिन के बारह बजे। आपमें से कोई रहा हो उस समय वहां तो बताए कि मैंने कत्ल किया या पुलिस ने झूठा मुकदमा बनाया? मरने वाले का बाप अदालत में बयान हलफी लगा गया कि मारने वाला मैं नहीं था। जज ने मुझे छोड़ दिया तो मैं क्या करूं? कहने वालों का मन नहीं भरा तो उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि मैंने बंदूक की नोक पर हलफनामा लिखा लिया। कहते रहो। अब भाई साहब, यह मुल्क ही ससुरा ऐसा है कि कुछ न कुछ तो लोग कहते ही रहेंगे। मैंने सोचा कि एक बार जनता की अदालत में मुकदमा लड़ लो। जनता के फैसले के बाद सबकी बोलती बंद हो जायेगी।'
'आपको पूरा विश्वास है, आप जीत ही जायेंगे?'
'जनता पर भरोसा तो है ही - बस, आप लोगों की किरपा मिल जाये तो।'
'अजी हमारी किरपा क्या - हमारा तो सहयोग आपके साथ है ही। बस कैप्चरिंग-वैप्चरिंग का इंतजाम कर लीजिएगा। वहां हमारा सहयोग काम नहीं आयेगा।'
'उसका तो भाई साहब, आपकी दया से इंतजाम करने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी।'
'मतलब बूथ कैप्चरिंग का इंतजाम पूरा है!' ठहाकों की एक लहर उठी और माहौल फिर से सामान्य हो गया।
चाय का दौर खत्म हो गया था और लोग दूसरी किसी चीज की अपेक्षा कर रहे थे। पी.पी.शराब का बहुत बड़ा ठेकेदार था और उसके घर पर शाम को प्रेस कांफ्रेंस रखने का मतलब प्रेस के लोगों ने यही लगाया था कि खुलकर शराब मिलेगी। चाय का दौर चलने से लोग कुछ निराश-से हुए। जैसे-जैसे वक्त बीतता रहा और मूर्खतापूर्ण सवालों के मूर्खतापूर्ण जवाब हवा में तैरते रहे, लोगों की ऊब जमुहाइयों की शक्ल में तब्दील होती रही।
होशियार मेजबान अपने मेहमानों की व्यग्रता को पहचान रहा था। लेकिन आज वक्त ऐसा नहीं था कि अपनी तरफ से शराब की दावत दी जाये। इन पत्रकारों में से ज्यादातर को वह अच्छी तरह पहचानता था। स्साले... बदमाश! सामने दुम हिलाते हैं, पीठ पीछे मखौल उड़ाएंगे। उसने मन ही मन उन्हें गाली दी। जब तक मरभुक्खे अपना मुंह नहीं खोलते, वह अपने आप दारू लाने को नहीं कहेगा।
'आपको पूरी उम्मीद है कि टिकट आपको ही मिलेगा?'
पी.पी. रहस्यमय ढंग से मुस्कराया। उसकी जगह उत्तर दिया उसके राजनीतिक सलाहकार ने जो उसके पीछे बैठा प्रेस कांफ्रेंस को संचालित कर रहा था :
'टिकट मिलेगा नहीं, मिल गया समझिए। पार्टी हाई कमान ने अपना मन बना लिया है। बस, अनाउंस होना भर बाकी है। पार्टी ने कहा, पार्लियामेंट उसे लड़ायेंगे जो पांच असेंबली सीटों का खर्च उठायेगा। हमने कहा, हम दस सीटों का खर्च उठा लेंगे। बस, हो गयी बात पक्की। पर ये आफ द रिकार्ड है। छापिएगा मत।'
यह राजनीतिक सलाहकार भी बड़ी ऊंची चीज था। इस औद्योगिक शहर में कोई भी चुनाव ऐसा नहीं हुआ जिसमें वह किसी न किसी उम्मीदवार का सलाहकार न रहा हो। अकसर उसका उम्मीदवार जीत भी जाता। किसी अभ्यस्त और शातिर घुड़दौड़ में भाग लेने वाले जुआरी की तरह वह दांव लगाता था और हमेशा फायदे में रहता था। अगर उम्मीदवार जीत गया तो पांच साल तक उसका लेन-देन उसी सलाहकार के माध्यम से होता था और अगर उसका उम्मीदवार चुनाव हारने वाला होता तो चुनावी प्रक्रिया के दौरान ही वह इतना धन संचित कर लेता कि चुनाव में जीतना-हारना बेमानी हो जाता। यह एक औद्योगिक शहर था और यहां के सेठ हर उम्मीदवार को पैसा देते थे। कम-ज्यादा का फैसला उम्मीदवार की न्यूसेंस वैल्यू अथवा उसकी पार्टी के जीतने की संभावना पर निर्भर करता था। शांतिप्रसाद नाम के इस राजनीतिक सलाहकार को उम्मीदवार लोग इसलिए भी खुशी से अपना चुनाव संचालक बना लेते थे क्योंकि यह आदमी सेठों को दुहने का तरीका सबसे अच्छा जानता था।
इस साल चुनावी माहौल शुरू होते ही शांतिप्रसाद ने तर माल से तृप्त अपनी थुलथुल काया को दौड़ाना शुरू कर दिया। देश की महत्वपूर्ण पार्टी के नेता का निधन हो गया था और पूरा माहौल उस पार्टी के प्रति गलदश्रु सहानुभूति से बजबजा रहा था। शांतिप्रसाद टी.वी. खोलता और रोज मृत राजनेता का दर्शन कर आश्वस्त हो जाता कि इस बार जनता अपना जनार्दन इसी राजनेता की पार्टी को बनायेगी। उसने इस पार्टी के संभावित उम्मीदवारों की तलाश शुरू की तो पहली बार उसे लगा कि उसकी राजनीतिक समझ भी चकरा रही है। इतने सारे उम्मीदवार थे कि किसी के बारे में निश्चित राय कायम करना मुश्किल था। उसने पार्टी मुख्यालय के चक्कर लगाये, नये-पुराने नेताओं का बायोडाटा एकत्र किया, उनके राजनीतिक आकाओं की हैसियत आँकने की कोशिश की और थककर बैठ गया। लेकिन अपनी आदत और पापी पेट की जरूरत के मुताबिक वह ज्यादा देर तक बैठ नहीं पाया। उसकी छठी इंद्रिय ने बताया कि इस बार उम्मीदवार कोई एकदम नया अथवा बाहरी आदमी होगा। उसका इंतजार करने में खतरा था। बाहरी आदमी अपने साथ बाहरी चुनाव-संचालकों को ला सकता था। उम्मीदवार की घोषणा करने में देर हो सकती थी। बेहतर था कि किसी स्थानीय आदमी को तलाश कर उम्मीदवार के रूप में प्रचारित कर अपने को मैदान में रखा जाय।
इसी रणनीति के तहत शांतिप्रसाद ने पी.पी. से संपर्क किया और दोनों एक-दूसरे के पुराने शत्रु होते हुए भी एक-दूसरे की जरूरत बन गये। वैसे यह शत्रुता व्यक्तिगत थी भी नहीं। एक ही पेशे में रहने के कारण यह मुख्य रूप से पेशागत प्रतिस्पर्द्धा थी। पी.पी. ने पिछले कुछ वर्षों से सक्रिय अपराध की दुनिया छोड़कर शराब की ठेकेदारी शुरू की थी। इस धंधे में पैसा बहुत था और अपने हाथ में चाकू-पिस्तौल पकड़ने की जरूरत भी नहीं थी। पी.पी. जानता था कि पैसे के बल पर सब कुछ खरीदा जा सकता है - गुंड़े भी। पहले वह भी पैसे वालों के लिए काम करता ही था।
शांतिप्रसाद भी इस धंधे में था, पर कुछ दूसरे रूप में। वह राजधानी के एक शराब के ठेकेदार के लिए इस शहर में एजेंट का काम करता था। शराब का यह ठेकेदार प्रदेश के पश्चिमी हिस्से का सबसे बड़ा ठेकेदार था। लगभग हर साल नये-नये शहर उसकी झोली में गिरते जा रहे थे। शांतिप्रसाद अफसरों और नेताओं के बीच इस ठेकेदार के एजेंट के रूप में काम करता था। शांतिप्रसाद के ही माध्यम से यह ठेकेदार हर चुनाव में जीतने वाले और नंबर दो या तीन रहने वाले उम्मीदवारों पर पैसा खर्च करता था।
पी.पी. यह खूब जानता था कि शराब के ठेके की हर नीलामी के पहले क्यों उसे पुराने मुकदमों के आधार पर गिरफ्तार कर लिया जाता है या क्यों नीलामी में बोली बोलने के पहले ही उसके समर्थकों को अपराधी होने या कागजों के फर्जी होने का बहाना कर पंडाल के बाहर कर दिया जाता है। यह सारा खेल शांतिप्रसाद जिले के आला हुक्काम से मिलकर कराता था। पिछले साल तो पी.पी. ने जयपुर से एक पार्टी बुलवायी थी और स्वयं पंडाल में नहीं गया। लेकिन बाद में वह छटपटा कर रह गया, जब उसे यह पता चला कि जिले के हाकिमों ने बड़ी बेशर्मी से जयपुर वाली पार्टी की जमानत और साख वगैरह के कागजात जाली घोषित कर दिये। जयपुर वाले चिल्लाते रहे और नीलामी दिल्ली के ठेकेदार के पक्ष में छोड़ दी गयी। पी.पी. जानता था कि सारा खेल पर्दे के पीछे से शांति प्रसाद का था लेकिन वह उसका कुछ नहीं कर सकता था। इस शहर के उसके कई विरोधी दिन या रात उजाले-अंधेरे में अचानक गुम हो जाया करते थे पर शांतिप्रसाद जिले के हाकिमों और कई बड़े नेताओं का खास था इसलिए उसके साथ कुछ भी होने का अंजाम पी.पी. जानता था। पिछले कुछ वर्षों से बड़ी मेहनत से उसने अपने लिए व्यापारी और राजनीतिक कार्यकर्ता की जो छवि बनायी थी वह एकदम से खत्म हो जाती और उसे फिर एक बार अपराध की सक्रिय दुनिया में लौट जाना पड़ता।
शांतिप्रसाद के कारण पी.पी. को पिछले कई वर्षों से इस जिले को तो क्या, आसपास के कई जिलों को छोड़कर दूर-दराज के कुछ जिलों में ठेके लेकर संतोष करना पड़ रहा था। वह लगातार इसी इंतजार में था कि कभी तो ऐसी स्थितियां बनेंगी कि वह अपने जिले के शराब के ठेके उठा पायेगा। इस जिले का ठेका सूबे का सबसे बड़ा ठेका था और देश की राजधानी के करीब होने के कारण सबसे फायदेमंद भी। सरकारी अमलों, नेताओं, गुंडों तथा पत्रकारों इत्यादि को खिलाने-पिलाने के बाद भी मोटे अनुमान के अनुसार इसमें दो करोड़ से ज्यादा की सालाना बचत थी। एक बार - सिर्फ एक बार यह मिल जाय - पी.पी. सेाचता और उदासी में डूब जाता। जब तक शांतिप्रसाद दिल्ली के ठेकेदार के पीछे है, तब तक यह मुश्किल है। इसीलिए जब शांतिप्रसाद उसके पास एक रात बहुत देर गये पहुंचा तो वह सशंकित हो उठा। शांतिप्रसाद चुनाव में उसकी मदद करना चाहता था, यह बात आसानी से उसके गले के नीचे नहीं उतर रही थी।
अगर पी.पी. को समझा नहीं सकता तो शांतिप्रसाद किस बात का शांतिप्रसाद था। आधी रात से शुरू करके उसे कुछ घंटे जरूर लगे मगर जब भोर हो रही थी और पी.पी. सोने के लिए उठा तो यह बात उसकी समझ में आ गयी थी कि चुनाव में शांतिप्रसाद उसके लिए फायदेमन्द सिद्ध हो सकता था। शांतिप्रसाद का सहयोग लेना दो तरह से उपयोगी था। एक तो यह निश्चित था कि बिना दिल्ली के ठेकेदार की सहमति से शांतिप्रसाद उसके पास नहीं आया होगा और ऊपर से भले जितना कठोर रुख अपनाये, अंदर-अंदर पी.पी. जानता था कि आमने-सामने की लड़ाई में दिल्ली के ठेकेदार से पार पाना उसके बस का नहीं था। एक बार उससे सहयोग का सिलसिला बन जाये, फिर तो उसे कभी भी वह पटक देगा। अपराध की दुनिया में बहुत बार उसने विरोधियों को मिलाकर मारा था। शांतिप्रसाद के आने से यह संभावना बनती थी। दूसरे, शांतिप्रसाद चुनावी दंगल का पुराना माहिर था। अगर मन से लग जाये तो पी.पी. को जिता भी सकता था। दरअसल चुनाव की दुनिया उसके लिए नितांत अपरिचित थी। शराब का ठेका होता या अपराध की अंधी दुनिया - वह बड़ों-बड़ों को सलाह दे सकता था, किंतु चुनाव के दांव-पेच की सोचकर ही उसके हाथ-पैर फूलने लगते थे। इसलिए भी शांतिप्रसाद का सहयोग उसके लिए बिना मांगे वरदान जैसा था।
ऐसा नहीं था कि पी.पी. का चुनाव से एकदम ताल्लुक नहीं रहा हो। पर ताल्लुक बिल्कुल दूसरी तरह का था। पिछले दो-तीन चुनावों में विभिन्न उम्मीदवारों को उसकी उपयोगिता समझ में आने लगी थी। वह चुनाव में पैसा खर्च कर सकता था और चुनाव के दिन अपने गणों के साथ बूथ कैप्चरिंग कर सकता था। ये उम्मीदवार उसका पूरा इस्तेमाल करते थे। पी.पी. को भी पुलिस से बचने के लिए उनके सहयोग की जरूरत पड़ती थी। पिछले चुनाव में तो कई सीटों पर उसके आदमियों ने निर्णायक भूमिका अदा की थी। उन्होंने बड़े पैमाने पर बूथ कैप्चरिंग की और अपने मनपसंद उम्मीदवारों को जिता दिया। सबसे पहले चुनाव में उसका इस्तेमाल चौधरी जगतपाल ने किया था। चौधरी की जीत के बाद निकले विजय जुलूस में चौधरी के पीछे जीप पर खड़े-खड़े उसके मन में महत्वाकांक्षा के बीज उगे थे और उसे लगा था कि अगर वह अपने उम्मीदवार जिता सकता था तो स्वयं क्यों नहीं चुनाव जीत सकता है। तभी पहली-पहली बार चुनाव लड़ने का कीड़ा उसके मन में कुलबुलाया था।
आज की प्रेस कांफ्रेंस शांतिप्रसाद के दिमाग की उपज थी। वह चुनाव के मैदान में पी.पी. के प्रवेश की घोषणा धूमधड़ाके के साथ करना चाहता था। चुनाव की घोषणा ही चुकी थी और विभिन्न पार्टियाँ अपने-अपने उम्मीदवारों के चयन में लगी थीं। पी.पी. की उम्मीदवारी को कोई गंभीरता से नहीं ले रहा था इसलिए आवश्यक था कि पूरे धूमधड़ाके के साथ यह शोर मचाया जाय कि पी.पी. भी टिकट के लिए एक सशक्त उम्मीदवार है। इसी हल्ले का भाग था यह प्रेस वालों का जमावड़ा जिसे उसने प्रेस कांफ्रेंस का नाम दिया था। अब तक हर चुनाव में उसने अपने उम्मीदवार के लिए प्रेस कांफ्रेंसों का आयोजन किया था, किंतु ऐसी मुश्किल प्रेस कांफ्रेंस उसने आज तक कभी नहीं की थी। इस प्रेस कांफ्रेंस में तो उसके छक्के छूटने लगे थे। शराफत और विनम्रता से उसके उम्मीदवार का दूर-दराज तक कोई संबंध नहीं था। उसके पीछे खड़े होकर या बैठकर लगातार वह उसकी पीठ में उंगली घोंप-घोंपकर उसे नियंत्रित कर रहा था। रह-रह कर उसे इस उम्मीदवार पर दांव लगाने की अपनी मूर्खता पर रोना आ रहा था।
'आप दावे के साथ कैसे कह सकते हैं कि यादवजी का टिकट पक्का हो गया है? आज के अखबारों में छपा है कि किसी पूरब के नेता को यहां से टिकट मिलेगा।'
'घुस तो जाय कोई पुरबिया यहां,' पी.पी. को तैश आ गया, 'यहाँ क्या सब जनखे बसते है? कोई पुरबिया-वुरबिया यहाँ नहीं घुस सकता।'
शांतिप्रसाद ने बात संभाली, 'कब तक हम पर बाहर के लोग थोपे जाते रहेंगे? अब यहां की जनता बाहरी लोगों को बरदाश्त नहीं करेगी। हर बार कोई न कोई बाहरी उम्मीदवार आ जाता है। हम लोग उसे जिताते हैं और फिर वह पांच साल तक हमें लूट-खाकर भाग जाता है। हम हाथ मलते रह जाते हैं। इस साल ऐसा नहीं होगा।'
'लेकिन शांतिप्रसादजी, बाहरी उम्मीदवारों के लोकल एजेंट तो आप ही बनते है।' लोग एक-दूसरे की तरफ देखकर कनखियों से मुस्कराये।
'उसी गलती का परिमार्जन कर रहा हूं भाई साहब।'
पत्रकारों में से कुछ हंसना चाहते थे, लेकिन वह प्रेस कांफ्रेंस पी.पी. के घर पर हो रही थी और उसकी भलमनसाहत के बारे में अभी पत्रकारों की निश्चित राय नहीं कायम हो सकी थी, इसलिए हंसना जोखिम भरा था। अतः कोई नहीं हंसा।
प्रेस कांफ्रेंस कुछ ज्यादा लंबी खिंच रही थी और पत्रकारों में से कुछ ने जमुहाई वगैरह लेकर खुले रूप में अपनी ऊब प्रदर्शित करना शुरू कर दिया।
पी.पी. उनकी बेचैनी समझ रहा था। उसे उन्हें सताने में मजा आ रहा था। दरअसल सफेदपोशों से उसे कुछ अंदर से ही चिढ़ थी। उसकी निगाह में सफेदपोशों से ज्यादा मक्कार और झूठा दुनिया में कोई नहीं था। ये बदमाश डटकर उसके घर दारू पियेंगे और बाहर जाकर उसे गुंडा-बदमाश और न जाने क्या-क्या कहेंगे! जिन शहरों में उसके शराब के ठेके थे वहां के पत्रकार उसके पास मुफ्त शराब के लिए अकसर पर्चियाँ भेजते रहते थे। उनके हाथ की लिखी पर्चियाँ वह सुरक्षित रखता जाता था और वक्त जरूरत उन्हें ठीक करने के लिए इस्तेमाल करता था। अपने शहर के पत्रकारों से उसका यह पहला साबका था। उसे पता था कि ये लोग बाहर उसके बारे में क्या बातें करते हैं। उसकी शराब पीकर उसके सामने ये लोग दांत निपोरेंगे और बाहर निकलते ही इस बात पर ठहाके लगायेंगे कि उन्होंने उसे किस तरह बेवकूफ बनाया। वह चाहता था कि वे लोग मुंह खोलकर उससे कहें ताकि बाद में ये न कह सकें कि उसने जबरदस्ती उन्हें पिला दी। थोड़ी देर में यह स्थिति आ भी जाती कि पत्रकारों में से कुछ स्वयं ही मुंह खोल देते, लेकिन शांतिप्रसाद का खयाल कुछ दूसरा ही था। उसे इन पत्रकारों से अकसर काम लेना पड़ता था, इसलिए वह उन्हें ज्यादा जलील करने के पक्ष में नहीं था। उसने पी.पी. को आंखों ही आंखों में बरजा और चाय के बर्तन उठा रहे लोगों को कुछ इशारे किये।
थोड़ी देर में मेज पर से कप-प्लेट गायब हो गये और उनकी जगह बोतलें, गिलास, भुने हुए काजू, मुर्गे की टांगें, सलाद और तरह-तरह की तमाम दूसरी चीजें आकर लग गयीं। पत्रकारों के चेहरे स्निग्ध हो गये। वे एक-दूसरे को देख-देखकर मुस्करा रहे थे और आंखें मटका रहे थे। प्रेस कांफ्रेंस के दौरान थोड़ी-बहुत जो तल्खी पैदा हुई थी वह भी दूर हो गयी। शांतिप्रसाद के अभ्यस्त हाथों ने पेग बनाना शुरू कर दिया और कमरे में मौजूद लोग भुने हुए काजुओं और मुर्गों की टांगों से जूझने लगे।
30 फुट लंबा और 22 फुट चौड़ा यह कमरा अपनी भव्यता में किसी फिल्मी सेट की तरह लगता था । मकान के बाहरी हिस्से में स्थित यह कमरा पी.पी. का ड्राइंग रूम था। पूरा फर्श मोटे मखमली कालीन से ढका हुआ था। मैरून रंग के इस कालीन पर शराब, सिगरेट की राख या खाने के टुकड़े अकसर गिरते रहते थे इसलिए बीच-बीच में उसका रंग उड़ गया था। पी.पी. और उसके साथियों के पास पैसा बहुत हो गया था, लेकिन मूल रूप से वे अभी भी देहाती ही थे। इसलिए मोटे गद्देदार सोफों पर बैठने के मुकाबले वे फर्श पर कालीन पर ही बैठना पसंद करते थे। अकसर दोपहर की गर्मियों में वे उसी पर सो जाते। कालीन पर जगह-जगह उनकी हरकत के निशान थे। सोफे बहुत महंगे और बड़े थे। उन पर चटख रंगों के लिहाफ चढ़े थे। इन कवर्स का भी कालीन जैसा ही हाल था। उन पर चटनी, सास और तेल के बड़े-बड़े धब्बे थे। दीवाल पर एक बड़ी-सी आलमारी थी, जिस पर सजावट की अगड़म-बगड़म चीजें भरी हुई थीं। किस्म-किस्म के खिलौनों से लेकर प्लास्टिक की पत्तियों और फूलों जैसी तमाम चीजें थीं जिनसे बकौल पी.पी. की पत्नी के, इस कमरे की शोभा बढ़ती थी। परदों से लेकर फर्नीचर तक सभी कुछ जो इस कमरे में मौजूद था, महंगा और कुरुचिपूर्ण था।
एक कोने में एक बड़े पीपल के प्लांटर में रखे हुए गमले में एक रबर प्लांट लगा हुआ था। उपेक्षा और लापरवाही के कारण उसकी शाखों पर पीले और हरे रंगों के सम्मिश्रण वाले कमजोर पत्ते थे। प्लांटर के अंदर गमले की मिट्टी जगह-जगह पान की पीक से लाल हो गयी थी।
कमरे में तेरह लोग पत्रकार के रूप में तथा चार लोग पी.पी. के सहायकों की हैसियत से मौजूद थे। पत्रकार अलग-अलग श्रेणी के थे। वे स्थानीय दैनिकों से लेकर देश और प्रदेश की राजधानियों से निकलने वाले अखबारों का प्रतिनिधित्व करते थे। इनमें एक ही बात सामान्य थी। सभी शराब के बेहद शौकीन थे और शराब पीने के लिए लगातार ऐसी प्रेस कांफ्रेंसों के चक्कर में रहा करते थे। इनमें बीस-बाईस साल के नौजवानों से लेकर साठ-पैंसठ साल के बूढ़े तक शामिल थे। वैसे तो इस शहर से बीसियों दैनिक और साप्ताहिक अखबार निकलते थे और बाहरी अखबारों के प्रतिनिधियों को मिलाकर सौ से अधिक लोग पत्रकार होने का दावा करते थे, किंतु शांतिप्रसाद ने उनमें से तेरह लोगों को उनके महत्व के अनुसार निमंत्रित किया था । इनमें से ज्यादातर लोग पी.पी. के घर पर पहली बार आये थे। बाहर अभी तक वे उसे एक गुंडे के रूप में कोसते आये थे किंतु आज उसके वैभव से निकट से देखकर लगभग सभी अभिभूत थे।
शहर कुछ ही वर्षों पहले तक एक कस्बा था और अचानक पिछले एक दशक में प्रदेश के सबसे बड़े औद्योगिक नगर के रूप में उभरा था। अभी भी उसकी चेतना कस्बाई अनौपचारिकताओं से भरपूर थी। शराब के साथ पत्रकार खुल गये। वे दो-तीन पेग में ही माँ-बहन पर आ गये थे। पी.पी. भी इस माहौल में खुश था। शराब के बहाने अब वह सायास ओढ़ी शराफत से मुक्त हो सकता था और वह हो गया। उसने शांतिप्रसाद के इशारों को समझने से इनकार करना शुरू कर दिया और पत्रकारों के हंसी-मजाक में शरीक होने लगा।
कुल जमा तेरह पत्रकारों में दो पत्रकार दूसरे सारे पत्रकारों की नजर में चूतियानंदन थे। ये दो शराब नहीं पी रहे थे। ऐसा नहीं कि वे शराब नहीं पीते थे। दोनों खूब शराब पीते थे लेकिन आज सिद्धांततः शराब नहीं पी रहे थे। उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस में आने के पहले ही घोषित कर दिया था कि वे एक गुंडे के यहां शराब नहीं पियेंगे। लिहाजा इसी सिद्धांत के चक्कर में वे लिम्का पी रहे थे और दूसरों की निगाहों में लतीफा बने हुए थे।
पी.पी. काफी देर तक उनकी इस हरकत को निर्दोष आदत के रूप में लेता रहा। अचानक पत्रकारों की आपसी चुहलबाजियों से उसकी समझ में आया कि बृजेंन्द्र भारद्वाज और हरिप्रसाद गुप्ता नामक दो पिद्दी पत्रकारों ने उसे उसके घर में ही अपमानित कर दिया है। और कोई दिन होता तो वह उनकी छाती पर चढ़कर मुंह में दारू की बोतल उड़ेल देता किंतु आज इसका वक्त नहीं था। दोनों टुटपुंजिया पत्रकारों को शहीदाना अंदाज से मुस्कराता देखकर पी.पी. जल-भुनकर राख हो रहा था, किंतु शांतिप्रसाद दोनों को बड़े आत्मीय ढंग से भुने हुए काजू पेश कर रहा था और लगातार बात को इस प्रसंग से हटाने की कोशिश कर रहा था।
'साले शराब नहीं पियेंगे। लिम्का पीने और काजू खाने में कोई शर्म नहीं।' साठ साल की उम्र का बागी वहाँ पर मौजूद पत्रकारों में सबसे बुजुर्ग था और इन छोकरों की हरकत से स्वयं को ओछा महसूस कर रहा था। उसकी आवाज इतनी तेज थी कि कमरे में बैठे हर आदमी ने सुनी। न सुनने का बहाना सभी ने बनाया किंतु खुश सभी हुए। जो नहीं पी रहे थे, उनका स्वयं को दूसरों से विशिष्ट मानने का बोध और पुख्ता हुआ।
'यादवजी, अपना चुनाव निशान क्या रखेंगे - बम या कट्टा?'
प्रश्न बहुत धीमे से पूछा गया था इसलिए एक कोने में बैठे लोगों के ओठों पर ही मुस्कान आ सकी। गनीमत थी कि पी.पी. ने नहीं सुना था। शांतिप्रसाद ने सुना जरूर पर इतनी जल्दी धैर्य खोने वाला वह नहीं था, 'भाई साहब, सिंबल तो इलेक्शन कमीशन देता है। जिस पार्टी का टिकट हमें मिलेगा, उसी का चिह्न भी मिल जायेगा।'
'जिस पार्टी का! अभी आप जिस पार्टी का जिक्र कर रहे थे, उसका टिकट नहीं मिलगा क्या?'
'अजी उसी पार्टी का मिलेगा।' शांतिप्रसाद ने बात संभाली, 'जिस पार्टी का तो बस कहने वाली बात हुई। मिलना तो उसी पार्टी का है।'
'लेकिन उस पार्टी का टिकट तो किसी पुरबिये को मिलने की खबर है!'
'किस भडुवे के पास खबर है?' पी.पी. गुर्राया।
शांतिप्रसाद ने अपना सिर पकड़ा। कहां से फंस गया वह इस गधे के चक्कर में। अब तक का सबसे मुश्किल इम्तहान था यह !
'किस भडुवे के पास खबर है?' पी.पी. की आवाज लड़खड़ा रही थी। बहरहाल जिस भडुवे के पास खबर रही हो वह यहां अनुपस्थित था, इसलिए वह बच गया और दौर आगे बढ़ा।
साठ साल का बागी शराब पीकर अकसर बच्चों जैसी हरकत करने लगता था। वह पिछले तीस सालों से राजधानी के एक उर्दू अखबार का प्रतिनिधि था। उसका अखबार या उसकी छपी हुई चीज लोगों ने सालों से नहीं देखी थी, पर हर उस प्रेस कांफ्रेंस में जो शाम को होती थी और जहां पीने का इंतजाम होता था, वह बिना नागा पहुंचता था। आज उसने थोड़ा नशा चढ़ते ही एक बचकानी हरकत की। सबकी आँख बचाकर वह ड्राइंग रूम से उठकर मकान के अंदर वाले हिस्से में दाखिल हो गया।
अंदर घुसते ही हरप्रसाद बागी, जिसका पूरा नाम बहुत कम लोग जानते थे और सालों से जो सिर्फ बागी के नाम से शहर में जाना जाता था, का नशा हिरन हो गया। वह आंखें फाड़े-फाड़े उस अद्भुत अलौकिक प्रासाद की भूलभुलैया में खोने लगा, जिसके बारे में शहर में तरह-तरह की चर्चा थी।
यह मकान पी.पी. ने लगभग तीन साल पहले ही बनवाया था। इसके बनने के दौरान ही भांति-भांति की चर्चा इसके बारे में फैलने लगी थी। लगभग आधे एकड़ में फैला यह मकान शहर की सबसे समृद्ध कालोनी रामनगर में था । इसके चर्चा में आने के कई कारण थे । सबसे पहले तो उसकी लागत का विवाद था। सही लागत कितनी रही होगी यह तो पी.पी. ही जानता होगा, लेकिन शहर की अफवाहें पचास लाख से लेकर एक करोड़ तक विस्तार पाती थीं। यह बात अलग है कि ईंटों, लकड़ी, लोहा वगैरह जो सामान स्थानीय दुकानदारों से लिया गया, उसमें ज्यादातर की कीमत न दुकानदारों ने मांगी और न ही पी.पी. ने उन्हें दी, पर लोग मकान की लागत का अनुमान करते समय सारे सामान का मूल्य जोड़ लेते थे।
इस मकान की चर्चा होते समय उन दिलचस्प घटनाओं का जिक्र भी होता था जो जमीन पर कब्जा लेते समय से निर्माण खत्म होने तक घटी थीं। मसलन किस तरह 800 गज के प्लाट की रजिस्ट्री कराकर उसने 1200 गज जमीन पर अपनी चहारदीवारी खिंचवा ली। अतिरिक्त 400 गज में सरकारी से लेकर पड़ोसियों तक की जमीनें शामिल थीं।
सबसे दिलचस्प घटना तो उसके पड़ोस के एक इंजीनियर के साथ घटी थी। उसकी दीवाल के साथ लगा हुआ प्लाट इस इंजीनियर का था। इंजीनियर ने नींव भरकर छुड़वा रखा था। उसका इरादा बाद में इस प्लाट पर मकान बनवाने का था। लेकिन जैसे ही उसे यह खबर मिली कि बगल वाला प्लाट पी.पी. ने खरीद लिया है, उसका माथा ठनका। पी.पी. के मकान का काम शुरू होते ही उसने अपना भी काम शुरू करवा दिया। पी.पी. ने उसके पास खबर भिजवायी कि वह अपना प्लाट उसे बेच दे। इंजीनियर डरा हुआ जरूर था, लेकिन उसने अपने चेहरे पर लापरवाही और विनम्रता का भाव लाकर दूत को वापस कर दिया। फर्क सिर्फ यह आया कि उसने अपने काम की रफ्तार बढ़ा दी। पर यह ज्यादा दिन नहीं चला।
एक दिन पी.पी. के लड़के की गेंद इंजीनियर के अधबने मकान में चली गयी। इंजीनियर साहब अपनी पत्नी के साथ छाता लगाये चिलचिलाती धूप में पसीने से नहाये, मजदूरों से जूझ रहे थे। गेंद लाने बेटे की जगह पी.पी. गया। गेंद तो दूसरे कोने में पड़ी थी पर उसे उठाकर वह सीधा इंजीनियर दंपति के पास चला गया।
'देखो जी, आप तो साहब लोग हो। पड़ोस में रहोगे तो हमारा पड़ोस सुधरेगा। हमें तो अच्छा है पर आपको दिक्कत होगी। जैसे अब इस गेंद की ही ले लो। आपके बच्चे भी गेंद खेलेंगे और हमारे बच्चे भी। अब गेंद चाहे आपके शीशे में लगे और चाहे हमारे शीशे में, मुसीबत तो आपकी ही होगी। इसीलिए मैंने खबर भेजी थी कि आप जमीन हमें बेच दो और कहीं अच्छी जगह दूसरी जमीन ले लो।'
पी.पी. चला गया पर उसका तर्क इंजीनियर पति-पत्नी की समझ में आ गया, खास तौर पर पत्नी की। उनका काम बंद हो गया। काम आज तक बंद था। अफवाह थी कि बाद में पी.पी. ने बहुत कम कीमत लगायी इसलिए अभी तक सौदा नहीं हुआ था। पर यह सभी को पता था कि उस जमीन को लेगा तो पी.पी. ही। अगर चुनाव का चक्कर नहीं होता तो पी.पी. आज तक बीच की दीवाल तोड़ भी चुका होता। रजिस्ट्री तो बाद में होती ही रहती।
इस मकान की भव्यता को लेकर शहर में जो चर्चाएं थीं उन्हीं के चक्कर में आकर साठ साल के बूढ़े बागी ने बच्चों वाली यह हरकत कर डाली। वहां बैठे किसी व्यक्ति ने नहीं देखा कि कब वे धीरे से अंदर सरक गये।
अंदर पूरा तिलिस्म था। पहला कमरा, जिसमें वे घुसे, संभवतः बेडरूम था। पूरे कमरे में महंगा फर्नीचर पसरा हुआ था। वाल-टू-वाल कारपेटिंग थी। कालीन भी ऐसा कि उस पर पैर रखते ही धंसता चला जाय। कमरे में कोई नहीं था। यह पी.पी. का बेडरूम था और पी.पी. की अनुमति के बिना शायद कोई अंदर नहीं आता था। सामान निश्चित रूप से बड़ा महंगा था लेकिन उसमें कुरुचि झलक रही थी। चटख रंगों वाली दीवालों के बीच गहरे भड़कीले रंगों के पर्दे और फर्नीचर मकान मालिक की अमीरी और फूहड़ता की कहानी एक साथ कह रहे थे। बड़ा-सा कमरा सामान से ठसाठस भरा था। हल्की मद्धिम रोशनी वाले कमरे में जब देखने की स्थिति हुई तो बागी ने देखा कि डबल बेड मैले पाजामे, गंदी बनियान औरं जांघिये के साथ शोभायमान था। महंगी आरामकुर्सी पर फटा कवर चढ़ा था। कालीन पर पैर भले ही धंस रहा हो किंतु चाय और शोरबे के धब्बे उसे मखमल पर टाट के पैबंद की तरह लग रहे थे। बरहलाल बागी को कमरे की अस्त-व्यस्तता से कोई मतलब नहीं था। इससे ज्यादा उन्हें पूरे कमरे में मौजूद सामान की कीमत आंकने में मजा आ रहा था।
अचानक बागी की रूह थर्रा उठी। नशा पूरी तरह उनके सिर पर सवार था फिर भी वे घबराहट की उस स्थिति में पहुंच गये जब आदमी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। कमरे में उनके अतिरिक्त और भी कोई मौजूद था। सामने वाली दीवाल से सटकर कोई उन्हें घूर रहा था। उनकी घिग्घी बंध गयी। हड़बड़ाकर वापस लौटने में निश्चित रूप से वे कमरे में फर्नीचर से टकराते और गिर पड़ते। उन्होंने धीरे-धीरे हौसला कर सामने दीवाल की तरफ देखा। उस मद्धिम रोशनी में उन्हें थोड़ा वक्त यह समझने में लगा कि सामने की पूरी दीवाल शीशों से जड़ी थी और यह उनकी अपनी परछाई थी जो उन्हें घूर रही थी। उनका मन हुआ कि ठठाकर हँसें लेकिन पूरे घर में पसरे आतंक ने उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी।
दीवाल का सहारा लेकर सरकते हुए बागी जिस छोटे-से कमरे में पहुंचे वहां पूरी तरह अंधेरा था। चारों तरफ अंधेरे में टटोलने के बाद उन्हें स्विच मिला। कांपते हाथों से जब उन्होंने स्विच दबाया और रोशनी हुई तब उन्होंने पाया कि वे गुसलखाने में थे। संगमरमर की कलेजी और टाइल्स से जड़ा हुआ गुसलखाना अपनी गंदगी और खास तरह की गंध के बावजूद बागी को मोहता रहा। बाहर किसी के चलने की आवाज सुनाई दी। कोई इसी तरफ आ रहा था। हड़बड़ाहट में बागी ने अपने पाजामे का नाड़ा खोलना-बांधना शुरू कर दिया। दरवाजा भड़ाम से खुला। कोई बहुत ज्यादा पीकर लड़खड़ाते कदमों से भीतर घुसा। बागी उससे लगभग टकराते हुए बाहर निकल आये।
बाहर वही बेडरूम था जिससे होकर बागी गुसलखाने में पहुंचे थे। उनके मन में उत्सुकता थी कि अंदर के कमरों में भी घुसकर तमाशा देखें लेकिन पकड़े जाने पर कुछ भी हो सकता था। हालांकि आज का माहौल और शराब का नशा, ये दो चीजें ऐसी थीं जिनसे पिटने-पिटाने की संभावना नहीं थी, फिर भी कुछ कहा नहीं जा सकता था। बाहर से देखकर यह घर जितना बड़ा लगता था उससे ऐसी संभावना थी कि अंदर कम-से-कम एक दर्जन कमरे जरूर होंगे। इन कमरों को भीतर से देखने की उत्सुकता बागी के मन में थी पर डर से पैदा झिझक के कारण वे कोई फैसला नहीं कर पा रहे थे। अंदर लोगों के चलने-फिरने और बोलने की आवाजें आ रही थीं। बाहरवाले कमरे में जहाँ प्रेस कांफ्रेंस चल रही थी, खाने-पीने का सामान अंदर से ही जा रहा था।
एक बार बागी का पूरा शरीर फिर हिल गया। पीछे से किसी ने जोर का धौल उनके कंधे पर मारा। उन्होंने घबराकर पीछे देखा तो कमिश्नरी हेडक्वार्टर से निकलने वाले अखबार 'आजाद भारत' का प्रतिनिधि शर्मा शराब के नशे में आधा सीधा, आधा तिरछा उनका कंधा पकड़कर झूल रहा था। इसका मतलब यही कमबख्त बाथरूम में घुसा था! बागी ने चैन की सांस ली और शर्मा के साथ लड़खड़ाते हुए बाहर के कमरे की तरफ बढ़ा।
दो-तीन कदमों के बाद ही दोनों धड़ाम से जमीन पर गिर पड़़े। हुआ यह कि नशे और धुंधले प्रकाश के कारण उन्हें रास्ते में पड़ा स्टूल नहीं दिखाई दिया और तेज आवाज के साथ वे जमीन पर थे।
'क्या हुआ बागीजी, दंडवत क्यों करने लगे?' अंदर से भागकर शांतिप्रसाद आ गया था।
हालांकि बागी का नशा इतना नहीं था कि वे ढंग से उत्तर नहीं दे सकते थे, लेकिन हालात को देखते हुए उन्होंने अपने को शर्मा की श्रेणी में डालना ही उचित समझा।
शांतिप्रसाद ने एक-दो नौकरों को बुलाकर दोनों को उनके हवाले किया और खुद अपनी हंसी रोकते-रोकते गुसलखाने में घुस गया।
बाहर के कमरे से ठहाके का स्वर आया। नौकरों के सहारे बाहर कमरे के दरवाजे पर पहुंचते-पहुंचते बागी फिर सीधे हो गये। सिर्फ शर्मा झूलता रहा। बागी नहीं चाहते थे कि पत्रकार बाद में उनका मजाक उड़ायें। इसलिए जब वे कमरे में घुसे तो तने हुए थे। अंदर माहौल काफी अनौपचारिक था और ठहाके लग रहे थे। यह बात अलग थी कि अब ठहाके लगाने की स्थिति में एक-तिहाई से भी कम लोग थे।
'अब फैसला आप ही करो, बागीजी! आपके ये पत्रकार बंधु बाहर खूब शराब पीते हैं। मेरे यहां इसलिए नहीं पी रहे हैं क्योंकि मैं शराब का ठेकेदार हूं। वैसे ही हुआ न कि जैसे पुराने जमाने में ब्राह्मण चमार के हाथ की रोटी नहीं खाता था लेकिन उसका पैदा किया हुआ गेहूं पिसवाकर खुद रोटी बना लेता था।'
बागी की समझ में पूरी बात तो नहीं आयी, लेकिन इतना जरूर समझ में आ गया कि भारद्वाज और गुप्ता नामक दो नौसिखुओं ने शराब न पीने का कोई मूर्खतापूर्ण कारण जरूर जताया है। पी.पी. भी नशे में पूरी तरह से उदार और मजाकिया मूड में था। उसके इसी मूड को देखकर भारद्वाज और गुप्ता को क्रांति बघारने का मौका मिल रहा था।
'जी, बात तो आपकी सही है,' भारद्वाज मिमियाया, 'लेकिन आपका सारा पैसा नंबर दो का है, इसलिए।'
पी.पी. ठठाकर हंसा, 'नंबर दो का तो पूरा मुल्क है, भैये। कहां-कहां नहीं पियोगे? अपनी पगार की तो तुम पीते नहीं हो। जो अफसर या ठेकेदार तुम्हें पिलाता है, उसका पैसा क्या नंबर एक का होता है? ले आ रे, साहब लोगों के लिए भी दो गिलास ले आ।' बात खत्म करने के लिहाज से उसने एक नौकर को ललकारा।
भारद्वाज और गुप्ता ने एक-दूसरे को अर्थपूर्ण नजरों से देखा। उनकी क्रांतिकारिता खतरे में थी। पीकर आधे-पूरे धुत्त पत्रकारों को इस खेल में मजा आने लगा था।
'डटे रहना बेटे! हम सब तुम्हारे साथ हैं।' यह वाक्य शराब-डूबे किसी कंठ से निकला और और लोगों ने अपनी हंसी या मुस्कान इस ढंग से छिपायी कि कम से कम भारद्वाज और गुप्ता को वह जरूर दिखाई पड़ जाय।
नौकर ने कोने में पड़ी मेज से उठाकर दो गिलास सामने रख दिये। पी.पी. ने आहिस्ता-आहिस्ता अपने हाथ से दो बड़े पेग बनाये, उनमें बर्फ डाली, 'सोडा या पानी?' पूछा और कोई जवाब न मिलने पर सोडा मिला दिया।
पी.पी. ने शिकार पर झपट पड़ने के लिए तैयार बिल्ली की-सी आंखों से दोनों को देखा। उसकी आंखों में अब विनोद की जगह हिंस्र उत्सुकता भरती जा रही थी। इन पिद्दी के शोरबों की ये मजाल कि उसके घर में बैठकर उसकी शराब पीने से इनकार कर दें!
वातावरण धीरे-धीरे तनावपूर्ण होने लगा। जो लोग अभी तक मजा ले रहे थे, उन्हें भी लगा कि ज्यादा देर तक यह स्थिति सहज नहीं रह सकती थी।
'पी ले मेरे बाप, क्यों अपने साथ-साथ दूसरों का हक मारता है!'
बागी ने हल्के-फुल्के ढंग से भारद्वाज को समझाने की कोशिश की।
'खूब वसूलो अपना हक बागीजी! सफेदपोश अपराधियों के साथ बैठकर शराब पियो और बाहर निकलकर समाज-सुधार का उपदेश बांचो।'
भारद्वाज की आवाज बिना पिये लड़खड़ा रही थी।
उपस्थित पत्रकारों में से ज्यादातर को लगा कि भारद्वाज की आवाज अनावश्यक रूप से तेज हो गयी है। उसका चेहरा घबराहट और उत्तेजना से जर्द हो गया था और वह समर्थन के लिए गुप्ता को बीच-बीच में देख ले रहा था। आश्चर्य की बात थी कि गुप्ता पूरी तरह से खामोश और तटस्थ-सा बैठा था। यह भी हो सकता था कि अपने अंदर की कमजोरी छिपाने के लिए उसने सायास तटस्थता ओढ़ रखी हो।
'लो पियो।' पी.पी. ने अपनी कठोर आवाज को भरसक मृदु बनाने की कोशिश की।
'नहीं।' भारद्वाज ने कमजोर आवाज में कहा।
'ले पकड़ गिलास!' पी.पी. ने गिलास उठाकर भारद्वाज के सामने कर दी। भारद्वाज ने सहमकर गिलास पकड़ लिया।
'ले, तू भी पकड़ गिलास!' पी.पी. ने गुप्ता के आगे गिलास कर दी। उसकी आंखों और आवाज दोनों से हिंस्र उत्तेजना छलक रही थी।
'नहीं।' गुप्ता ने हाथ पीछे कर लिया। भारद्वाज ने भी गिलास मेज पर रख दिया।
इसके बाद उस प्रेस कांफ्रेंस में वही हुआ जिसका डर बागी जैसे अनुभवी पत्रकारों को था। पी.पी. उठा। शराब और गुस्से ने उसकी आंखें सुर्ख कर रखी थीं। इसी बीच शांतिप्रसाद भी अंदर से आ गया था। उसकी समझ में फौरन आ गया कि अब बोलने से कोई फायदा नहीं है। उसने आंख के संकेत से गुप्ता और भारद्वाज को बाहर भाग जाने का इशारा किया। दोनों को जैसे सांप सूंघ गया था। वे अवाक बैठे पी.पी. का हल्के-हल्के लड़खड़ाते कदमों से अपनी तरफ बढ़ना देख रहे थे। पी.पी. और उनके बीच में एक मेज भर थी और वह मेज का लंबा चक्कर लगाकर उनकी तरफ बढ़ रहा था। इसलिए बीच की दूरी कुछ कदमों की हो गयी थी। पर यह दूरी तो खत्म होनी ही थी और हुई भी। पी.पी. ने भारद्वाज को कालर पकड़कर उठा लिया। उसकी लड़खड़ाहट और भारद्वाज के प्रतिरोध ने बायें हाथ में पकड़े गये गिलास की आधी से ज्यादा शराब जमीन पर गिरा दी थी। केवल गिलास की तली में कुछ शराब बाकी थी।
'पी... पी जा।' पी.पी. ने गिलास भारद्वाज के मुंह से लगाकर उसकी गर्दन पर अपने हाथ की पकड़ गहरी कर दी।
भारद्वाज को लगा, उसकी आंखें बाहर आ जायेंगी। गर्दन पर दबाव के कारण उसका मुंह भी खुल गया। पी.पी. ने गिलास टेढ़ी कर उसके मुंह में शराब डालने की कोशिश की। भारद्वाज के मुंह में कुछ ही बूंदें गयी थीं कि उसने अजीब तरह से गों-गों की आवाज मुंह से निकाली। ऐसा लगा जैसे वह उल्टी कर देगा। पी.पी. ने घबराकर उसकी गर्दन छोड़ दी। उसने उल्टी तो नहीं की लेकिन मुंह में जितनी शराब हलक के नीचे जाने से बची थी, वही कालीन पर कुल्ला कर दी।
तमाशा देखने वालों में कई लोग हंस पड़े। गुस्से से झुंझलाकर पी.पी. ने एक लात उसके घुटनों पर जमायी। दर्द से बिलबिलाता हुआ वह एक कुर्सी पर लुढ़क गया। पी.पी. गुप्ता की तरफ बढ़ा, लेकिन वह सतर्क था। इस पूरे नाटक के दौरान वह सरकता हुआ दरवाजे के करीब तक पहुंच गया था। पी.पी. को अपनी तरफ बढ़ता देखकर वह दरवाजे से टकराता हुआ बाहर की तरफ भागा। बाहर खड़े पी.पी. के चौकीदार, दरबान जब तक कुछ समझें, वह फाटक के बाहर सड़क पर था।
अंदर भारद्वाज अकेला था पर अब तक वक्त की नजाकत को भांपकर शांतिप्रसाद उसकी रक्षा के लिए आ चुका था। उसने पी.पी. को बांहों में भरकर हल्का-सा धकेलते हुए सोफे पर बैठा दिया। अपने पूरे शरीर से उसने पी.पी. का चेहरा लगभग ढक दिया। पी.पी. पीछे खड़े भारद्वाज को देख नहीं पा रहा था। शांतिप्रसाद ने हाथ के इशारे से उसे भाग जाने का संकेत किया।
भारद्वाज अपने को अजीब-सी परिस्थिति में पा रहा था। वह अपमान, शर्म और भय की ऐसी स्थिति में था कि उसे अपने पैर जमीन में गड़ गये-से प्रतीत हो रहे थे। सबसे ज्यादा अफसोस उसे इस बात पर हो रहा था कि अपने साथियों के सामने वह पिटा और कोई भी उसे बचाने के लिए आगे नहीं आया। अपने को सामान्य रखने के प्रयास में उसके ओठ कांप रहे थे। वह बाहर जाना चाहता था लेकिन उसके पैर हिलने से इनकार कर रहे थे।
'ये तो कोई कायदे की बात नहीं हुई, यादवजी! हम इस प्रेस कांफ्रेंस का बायकाट करते हैं।'
लोगों को आश्चर्य हुआ कि बायकाट की पहली आवाज बागी की तरफ से उठी। उसका नाम जरूर बागी था, लेकिन वहां उपस्थित लोगों में से शायद ही किसी ने उसे इसके पहले बगावत करते देखा हो। तमाम उम्र अच्छी शराब पीने के लिए न जाने कितने जोड़-तोड़ वह करता रहा था और आज भी वह चाहता था कि कोई अनावश्यक पंगा न ले और उसको आराम से पीने-खाने दे। लेकिन भारद्वाज की पिटाई ने उसके अंदर पता नहीं क्या झकझोरा कि वह विद्रोह के मूड में आ गया।
काफी शराब पेट में जा चुकी थी। बागी की आवाज सुनकर तमाशा देखने वाले अंदाज में बैठे कई पत्रकारों को लगा कि प्रेस की आजादी खतरे में पड़ गयी है। एक-एक करके सभी उठ खड़े हुए। अगर किसी मंत्री या अफसर के यहां यह घटना हुई होती, तो अब तक उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया होता। पी.पी. के यहां से बड़बड़ाते हुए बायकाट का साहस करना भी कम क्रांतिकारी नहीं था।
'चलो बिरादर!' बागी ने मुलायमियत के साथ भारद्वाज का हाथ पकड़ा।
'बागी जी, मैं इनकी तरफ से माफी मांगता हूं,' शांतिप्रसाद ने हाथ जोड़कर स्थिति को संभालने की कोशिश की, 'इनकी मंशा ऐसी नहीं थी।'
'भैया, पहले मार लो, फिर मंशा स्पष्ट करो। ऐसा खेल तो हमने पहली बार देखा है।' बागी ने तल्ख आवाज में कहा और भारद्वाज का हाथ पकड़े-पकड़े बाहर की तरफ बढ़ा। उसके पीछे-पीछे बाकी पत्रकार भी बाहर निकल आये।
शांतिप्रसाद को एहसास हो गया था कि गलती इतनी बड़ी हो गयी है कि अब माफी मांगने या मनाने का कोई अर्थ नहीं रहा। पी.पी. के चक्कर में उसके संबंध भी पत्रकारों से खराब हो रहे थे। उसने एक बार फिर उस कुघड़ी को कोसा जब उसने पी.पी. पर दांव लगाने की सोची थी। बहरहाल अब तो जो नुकसान होना था, हो गया था।
इसके बारे में तो बाद में भी सोचा जा सकता था। पहला काम था पत्रकारों से अपने संबंध ठीक करना। उसे तो रोज इनसे काम पड़ना था। वह भी पत्रकारों के पीछे-पीछे बाहर आ निकला और गेट पर खड़े होकर उन्हें एक-एक कर विदा करने लगा।
जब शांतिप्रसाद वापस अंदर आया, पी.पी. एक सोफे पर आंख मूंदे पसरा हुआ था। पता नहीं नशे का असर था या अपने किये का पछतावा - शांतिप्रसाद के दो-तीन बार पुकारने पर भी उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मारे क्षोभ के शांतिप्रसाद ने उसे ज्यादा नहीं पुकारा और अपने लिए बड़ा पेग बनाने लगा।
इस तरह वह असाधारण प्रेस कांफ्रेंस समाप्त हुई।
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