किस्सा लोकतंत्र / अध्याय 2 / विभूति नारायण राय
पत्रकारों और चमचों से पूरा हॉल खाली हो जाने के बाद भी पी.पी. काफी देर तक आंखें मूंदे बैठा रहा। जो कुछ हो गया था, उसके बारे में कोई राय बनाने में वह बहुत कोशिश करने पर भी कामयाब नहीं हो पा रहा था। कई बार लगता था कि उसने उत्तेजना और लापरवाही के कारण जीवन में कुछ हासिल कर पाने का स्वर्णिम मौका गंवा दिया था। अब ये पत्रकार अगले कुछ दिनों तक उसके अतीत के परखचे उड़ाते रहेंगे और उसने बड़ी मेहनत से राजधानी में अपने पक्ष में जो माहौल बनाया था, वह नष्ट हो जायेगा। लेकिन फिर वह उस अपमान के बारे में सोचकर तिलमिलाने लगता जो उसे उसके घर में बैठकर इन टुच्चे पत्रकारों ने पहुंचाया था। अपमान बर्दाश्त कर राजनीति करना उसके वश में नहीं था। वह फैसला नहीं कर पा रहा था कि उसने सही किया या गलत । तनाव और दर्द से उसका सिर फटा जा रहा था और उसे लग रहा था कि बड़ी मुश्किल से उसने अपने लिए जिस सम्मानजनक रास्ते का निर्माण करने की कोशिश की थी, उसे छोड़कर एक बार फिर उसे अपराध और आतंक की पुरानी भूलभुलैया में गुम हो जाना पड़ेगा।
शांतिप्रसाद पता नहीं कब उठकर चला गया। बीच में एक बार पी.पी. ने आंखें खोलकर कनखियों से उसे देखा था। वह बदहवास-सा शराब के बड़े-बड़े घूंट ले रहा था। उसने दो-एक असंबद्ध किस्म के वाक्य बोलकर पी.पी. को सहज करने की कोशिश की लेकिन पी.पी. ने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप आंखें बंद किये पड़ा रहा।
शांतिप्रसाद के चले जाने के बाद उसने अपने आगे रखी बोतल से एक बड़ा पेग बनाया, सामने दीवाल पर अपनी खाली दृष्टि टिका दी और धीरे-धीरे शराब पीने लगा।
पी.पी. का अतीत ऐसे किसी मौके पर उसे सबसे ज्यादा हान्ट करता था। आज भी यही हुआ। जैसे-जैसे शराब का नशा तेज होता गया वह अतीत के तकलीफदेह दलदल में धंसता गया।
उसका बचपन किसी भी दशा में गरीबी में बीता हुआ नहीं कहा जा सकता। बचपन में उसे बहुत आराम नहीं मिला, फिर भी अपने आस-पास के गांवों में उसका परिवार मजे के खाते-पीते परिवारों में गिना जाता था। यमुना के खादर में बसा हुआ उसका गांव मुख्य रूप से अहीरों और गूजरों का गांव था। खादर में खेती-बारी तो कोई खास हो नहीं पाती थी लेकिन दो धंधे बड़ी प्रमुखता से हो सकते थे और उसके और अलग-बगल के गांवों के लोगों के लिए अच्छी आय के साधन थे। ये धंधे थे डेरी और कच्ची शराब चुआने के। हर परिवार में हट्टी-कट्टी भैंसें और गायें थीं और हर घर की दो-चार भट्टियां खादर में चलती थीं। दोनों धंधों का बाजार दिल्ली था।
घरों की औरतें रात ढाई-तीन बजे से ही उठकर गायों, भैंसों में जुट जातीं। तीन-साढ़े बजे तक दूध दुहवाकर मर्द स्टेशन की तरफ डिब्बे लिये दौड़ते। मुंह अंधेरे एक रेल गाड़ी दिल्ली के लिए जाती थी। यह गाड़ी मुख्य रूप से दूधियों के लिए ही चलती थी। अलीगढ़ से आने वाली इस गाड़ी में खचाखच दूधिये और उनके डिब्बे भरे होते। भोर होते-होते यह गाड़ी पुरानी दिल्ली स्टेशन पर पहुंच जाती और दूध को आढ़तियों तक पहुंचाकर दस-ग्यारह बजे तक दूधिये लौट आते। दिन में शराब की भट्टियों की देखभाल होती। पूरे खादर में बालू में मटके दबे होते और उनमें महुआ सड़ रहा होता। दोपहर में यदि कोई नदी में नाव पर चढ़कर देखता तो उसे दूर तक भट्टियों और उनसे निकलने वाला धुआं दिखाई देता। आबकारी और पुलिस के लोग बीच-बीच में फर्ज अदायगी के लिए आते और भट्टियां नष्ट कर देते या जमीन में गड़े मटके लाठी अंदर डाल-डालकर तोड़ देते। लेकिन दूसरे दिन से फिर सब कुछ सामान्य और पुरानी चाल पर आ जाता। दरअसल सरकारी अमले और उसके गांव के लोगों के बीच एक खास तरह की दोस्ताना दुश्मनी का संबंध था। वे नियमित रूप से सरकारी अमले को रिश्वत देते, अपना धंधा करते, पकड़े जाते और रिश्वत देते, फिर धंधा करते - यही सब चलता रहता।
बचपन में चौदह साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उसकी पढ़ाई छूट गयी। पढ़ने में उसकी दिलचस्पी थी भी नहीं। घर में दूध-घी का आराम था और उसका एक चाचा कुश्ती लड़ने का शौकीन था। बहुत छुटपन से ही पी.पी. उसके साथ अखाड़े में जाकर रियाज करने लगा था। इसलिए उसकी कद-काठी ऐसी निकल आयी थी कि क्लास में अपने हमउम्र लड़कों में वह काफी बड़ा लगता था। पढ़ाई-लिखाई में तो अपने खानदान की परंपरा के अनुसार उसकी दिलचस्पी नहीं थी पर मार-पीट में जरूर वह आगे रहता। रोज किसी-न-किसी लड़के को उठाकर पटक देता। मार-पीट के लिए उसे बहाने की जरूरत नहीं थी। हमेशा उसे लगता कि उसकी हथेलियां खुजला रही हैं। जबर्दस्ती खोद-खोदकर वह झगड़ा करता और किसी-न-किसी लड़के को धुन देता। अकसर तो कोर्इ इसकी शिकायत ही नहीं करता। कभी-कभी शिकायत होती तो पिटाई हो जाती। खास तौर से एक मास्टर बहुत पिटाई करता। एक बार जब उसने एक लड़के का सिर फोड़ दिया तो इसी मास्टर ने उसे इतना धुना कि उसका पूरा चेहरा सूज गया। सूजा चेहरा लिये वह काफी देर तक एक बाजरे के खेत में छुपा रहा, फिर अंधेरा होने पर घर गया। वह बाप के सामने नहीं पड़ा लेकिन चाचा सामने पड़ गया।
'क्या हुआ रे छोरे? कहां से पिटकर आया है?'
पी.पी. सिर झुकाये खड़ा रहा।
'बोल, बोलता क्यों नहीं? किन्ने मारा?'
'मास्टर ने।'
चाचा ने कारण नहीं पूछा। दूसरे दिन स्कूल खुलने पर उसे पीटने वाले मास्टर के सामने खड़ा कर दिया।
'तन्ने क्यों मारा म्हारे छोरे को?' चाचा दहाड़ा।
मास्टर बेचारा टुकुर-टुकुर ताकता रहा। उसने कमजोर आवाज में सफाई देने की कोशिश की :
'ये लड़का पढ़ता-लिखता नहीं। हमेशा मार-पीट करता है। कल एक लड़के का सिर फोड़ दिया।'
'सिर नहीं फोड़ेगा, तो क्या पूजा करेगा? पढ़ाते-लिखाते तो हो नहीं, बस पीटना आता है। खबरदार जो आगे हाथ उठाया !' उसके बाद उसने जो फोह्श किस्म की गालियां सुनायीं कि मास्टर रुआंसा हो गया।
उस दिन से पी.पी. की फिर पिटाई नहीं हुई। उसका मन और बढ़ गया और वह और अधिक उद्दंड हो गया। गनीमत यह हुई कि बोर्ड की परीक्षा में पहली बार फेल होते ही उसके पिता ने उसकी पढ़ाई छुड़वा दी और वह अपने पैतृक धंधे में लग गया।
दूध के कारोबार से उसे शराब का धंधा ज्यादा अच्छा लगता। कम मेहनत में ज्यादा फायदा। दूध के लिए आधी रात बीतते-बीतते उठना पड़ता और आंखों में नींद भरे, दो-तीन मील लगभग दौड़ते हुए जाकर ट्रेन पकड़नी पड़ती। जाड़ों और बरसात में तो पूरा नरक होता। ठिठुरते जाड़े में दूध के केन पर जमी उंगलियां लगता था कटकर गिर जायेंगी। कोट पर कंबल लपेटे हुए बुरी तरह कांपते हुए वह रोज अपने बाप को कोसता। बरसात में मेड़ों पर अपना संतुलन बनाये रखने का प्रयास करते हुए बार-बार वह पानी भरे खेतों में गिरता। जब कभी जाड़ों में बारिश हो जाती तो यह पूरी कार्यवाही एकदम नरक में तब्दील हो जाती। हर बार ट्रेन में बैठकर दिल्ली जाते या वहां से लौटते समय वह यही फैसला करता कि वह अब ज्यादा नहीं सहेगा और अपने बाप के खिलाफ विद्रोह कर देगा लेकिन उसका बाप बड़ा जालिम था। उसके सामने पड़ते ही पी.पी. की आवाज लड़खड़ाने लगती और एक घुड़की में वह फिर दूध और ट्रेन के समीकरण में मशगूल हो जाता।
अंत में इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए उसने दूसरा उपाय अपनाया। दूध का केन लेकर रेलवे स्टेशन की तरफ दौड़ते हुए अकसर उसे ठोकर लगने लगी। दूध गिरने पर बाप उसकी ठुकाई करता, लेकिन दो-तीन दिन बाद फिर उसे ठोकर लग जाती। एक बार बाप ने जब ज्यादा पिटाई कर दी तो वह बीमार पड़ गया और कई दिन बीमार पड़ा रहा। उसकी मां, जो वैसे तो बड़ी मजबूत कद-काठी की महिला थी और सभी गायों-भैंसों का दूध खुद निकालती थी, उसके बाप से बहुत डरती थी। शराब पीकर वह उसे इस तरह पीटता जैसे वह खुद कोई गाय हो। लेकिन इस बार मां ने सख्त रुख अपनाया। शायद यह उसकी जिंदगी का पहला मौका था जब अपने मर्द की इच्छा के खिलाफ वह खड़ी हुई थी। पता नहीं यह उसका प्रतिरोध था या बेटे की ममता, बाप ने पी.पी. का पिंड छोड़ दिया।
इस तरह रोज आधी रात के बाद उठकर दूध का केन हाथ में पकड़कर स्टेशन के लिए दौड़ने की परेशानी और तकलीफ से पी.पी. को मुक्ति मिल गयी लेकिन एक दूसरा काम उसे सौंप दिया गया। घर में काफी तादाद में गायें, भैंसें और बैल थे। घर की औरतें उनके लिए सानी करतीं, उन्हें एक खूंटे से दूसरे खूंटे पर बांधतीं और दुहती थीं। जानवरों को बाहर चराने या नदी तक ले जाने का काम अकसर लड़कों पर छोड़ दिया जाता। खाली होने पर पी.पी. को यही काम मिला। इस काम में कोई परेशानी नहीं थी। पूरी मस्ती थी। जानवरों को कछार में चरने के लिए छोड़कर अपने हमउम्रों के साथ मटरगश्ती का पूरा मौका था।
कछार में दूर-दूर तक पड़े मटकों को पी.पी. ललचायी आंखों से देखता। उसका बाप और दूसरे चाचा लोग लड़कों से बेखबर शराब की भट्टियों और मटकों में उलझे रहते। पूरी फिजा में एक खास तरह की गंध पसरी रहती थी। पी.पी. को सब कुछ इतना सम्मोहक लगता कि बड़ों की डांट और दुत्कार के बावजूद वह उन्हीं के आसपास मंडराता रहता।
बच्चों का इस्तेमाल इस धंधे में दूसरी तरह से था। उन्हें कछार के किनारे-किनारे नदी के तट पर तथा उधर आने वाली कच्ची-पक्की सड़कों पर ढोरों के साथ छोड़ दिया जाता। उनका काम पुलिस और आबकारी विभाग की गतिविधियों पर दृष्टि रखना था। दूर से ही नदी में अगर किसी नाव या कच्ची सड़क पर जीप में बैठे खाकी वर्दी के लोग दिखाई देते तो वे लड़के खास तरह से आवाजें निकालते और अगर उनकी आवाजें कछार में काम करने वालों तक नहीं पहुंचतीं तो कोई लड़का हाथ में लाठी लिये दौड़ लगा जाता। आवाज या दौड़ आसन्न खतरे का संकेत होती। चंद मिनटों में ही लोग न जाने कहां बिला जाते। पुलिस वालों के हाथ कोई औरत या बूढ़ा लगते तो लगते, नहीं तो उन्हें अपना गुस्सा उतारने के लिए सिर्फ कुछ मटके और भट्टियाँ ही मिलते। हालांकि ऐसे मौके बहुत कम आते थे फिर भी साल में दो-चार बार तो वे आ ही जाते और तब लड़कों की उपयोगिता सिद्ध हो जाती।
पी.पी. जल्दी ही भैंस चराने के अपने रोल से ऊब गया। अपने हम-वयस्क लड़कों के मुकाबले वह काफी हट्टा-कट्टा था। देखने में भी बड़ा लगता था। पढ़ाई की ही तरह वहां भी वह साथ के लड़कों के साथ मारपीट में ही ज्यादा दिलचस्पी लेता था। जब तक उसे खुद चोट न लगे, उसके बाप और चाचा लोगों को उसकी मारपीट पर आपत्ति नहीं थी। पर जिस घटना ने उसे ढोर चराने से मुक्ति दिलायी, उसका मारपीट से दूर-दूर तक संबंध नहीं था। हुआ कुछ ऐसे कि एक दिन वह भैंस की पीठ पर बैठा मस्ती से गाना गाते हुए नदी की तरफ जा रहा था। अचानक न जाने क्या हुआ कि भैंस बुरी तरह भड़की और संतुलन संभालते-संभालते पी.पी. नीचे जा गिरा। नीचे गिरने से उसकी कलाई की हड्डी टूट गयी।
'साला भैंस से गिर गया। खानदान की नाक कटवायेगा। किसी काम का नहीं है, इसे पढ़ने शहर भेज दो।' उसके बाप की प्रतिक्रिया थी।
चोट लगने से ज्यादा बाप को पी.पी. के भैंस पर से गिर जाने का अफसोस हुआ। चार-पांच साल की उम्र से ही उसके परिवार के लड़के भैंस की पीठ पर बैठकर संतुलन बनाये रखना सीख जाते थे। ढोरों को चराने जाने वाले लड़के ऊबड़-खाबड़ खेतों, खादर या पानी में दौड़ते हुए भैंसों की पीठ पर बड़े मजे से संतुलन बनाये रखते। भैंस की पीठ से गिर जाने पर सवार की हंसी उड़ायी जाती।
उसके भैंस से गिरकर कलाई की हड्डी तुड़वा लेने से उसका मजाक जरूर उड़ाया गया लेकिन उसे ढोर-डंगर से छुटकारा भी मिल गया। पढ़ने के लिए शहर भेजने की धमकी भी गलत साबित हुई क्योंकि यहां गांव के स्कूल में ही पढ़ने के प्रति अपनी दिलचस्पी का व्यापक परिचय वह दे चुका था। पढ़ाई और भैंस-चराई के अतिरिक्त गांव में सिर्फ एक काम और था जिसमें उसका इस्तेमाल हो सकता था और जिसमें उसकी दिलचस्पी भी थी, और यही काम उसे मिला।
कलाई की हड्डी जुड़ने के फौरन बाद उसे दारू के धंधे में लगा दिया गया। आज जहां नयी औद्योगिक बस्ती की जगमगाती बत्तियां दिखाई देती हैं और हजारों कारखाने जिस क्षेत्र को गतिविधियों से भरपूर रखते हैं वहां पहले सिर्फ यमुना का विस्तृत और अनुपजाऊ खादर फैला था। उस जमाने में यमुना के खादर में यही अकेला उद्योग था जिसमें हजारों लोग लगे थे। राजधानी के बगल में स्थित होने के कारण इस धंधे के उत्पादकों के लिए बाजार की कोई कमी नहीं थी। नदी के दोनों तरफ कुछ ओपन-एअर बार चलते थे जिनमें रात के चार-छह घंटों को छोड़कर लगातार पीने वालों की भीड़ लगी रहती थी। पीने वालों में ज्यादातर औद्योगिक मजदूर और झुग्गी-झोपड़ी वाले होते। बिक्री के ये स्थान खुले आम चलते और उनके आसपास अंडा या तली-भुनी मछली-मुर्गा बेचने वालों की दुकानें लग जातीं। लेकिन इन दुकानों पर तो काफी कम माल की खपत हो पाती थी। मुख्य रूप से दारू अलग-अलग तरीकों से दूर-दराज की औद्योगिक बस्तियों, झुग्गी-झोपड़ी या गरीबों की कालोनियों में पहुंचायी जाती। वहीं इसकी असली खपत होती।
दारू पहुंचाने के काम में पी.पी. को बड़ा मजा आता। पहले दारू जरीकेनों में भरी जाती फिर उसे नावों के माध्यम से दरिया के दूसरी तरफ पहुंचाया जाता। दरिया पार उसे साइकिल के ट्यूबों में भरा जाता। वैसे तो थोड़ी-बहुत मात्रा बोतलों और छोटे-मोटे दूसरे बर्तनों में भरकर भी ठिकानों पर पहुंचायी जाती, लेकिन बड़ी मात्रा में ले जाने के सबसे सुरक्षित साधन साइकिल ट्यूब ही थे। बहरहाल, पी.पी. का काम सिर्फ दरिया पार तक ही शराब पहुंचाकर खत्म हो जाता था, इसलिए बाद में वह किस चीज से ले जायी जाती है, इससे उसे कोई मतलब नहीं रहता।
इस धंधे में आमदनी खूब थी। उस अपेक्षाकृत कम महंगाई के जमाने में भी वह रोज कम से कम सौ रुपये अपने बाप के हाथ में बचत के रखता था। इसके अतिरिक्त दस-बीस रुपया खुद के लिए भी बचा लेता था। बचत के रुपयों से वह खूब मटरगश्ती करता। रात आठ-नौ बजे तक उसका काम खत्म हो जाता और दूसरे दिन दोपहर बाद दो-तीन बजे तक उसकी जरूरत नहीं पड़ती, इसलिए वह आराम से आवारागर्दी करता रह सकता था।
पैसा और शराब दो ऐसी चीजें उसके पास थीं जिनके कारण उसके खूब दोस्त बन सकते थे और बने भी। इन दोस्तों में ज्यादातर उससे बड़े थे और छोटी-मोटी ऐसी कारगुजारियों में लिप्त रहते थे जिन्हें आपराधिक कैरियर की शुरुआत कहा जा सकता है। पी.पी. उम्र में छोटा जरूर था लेकिन कद-काठी में बड़ी उम्र के लड़कों के बराबर लगता था। उम्र में छोटे होने का एहसास उस पर इस कदर तारी था कि अकसर वह अपनी औकात से बड़ा ऐसा काम करने की फिराक में रहता था जिससे उसके साथी उसे बड़ा मानने लगें। शराब पीते समय वह दूसरों से ज्यादा शराब पी जाता। मारपीट में खतरनाक परिस्थिति में भी नहीं भागता और दोस्तों के भाग जाने पर अकसर पिटता। शेखी बघारने में वह बढ़-चढ़कर बात करता। एक बार तो डींग हांकने के चक्कर में वह अपने बाप की लाइसेंसी बंदूक उठा लाया। बाप को पता चला तो उसने जमकर पिटाई की। इन सारी हरकतों के चलते शुरू में तो वह हास्यास्पद बन जाता था लेकिन बाद में उसके दोस्त उसे गंभीरता से लेने लगे।
इन सारी हरकतों की तार्किक परिणति वही हुई जो इस परिस्थिति में हो सकती थी। पी.पी. ने हौले-हौले अपराध की दुनिया में कदम रखना शुरू कर दिया। अपराध की दुनिया शुरुआती दौर में बड़ी सम्मोहक लगती है और पी.पी. की उम्र और अनुभव के हर नौजवान को यह दुनिया बड़ी शिद्दत के साथ अपनी तरफ खींचती है। पी.पी. इस दुनिया की तरफ जब खिंचा तो उसे रोकने वाला भी कोई नहीं था। उसके बाप और चाचा लोगों के लिए घर के एक लड़के का अपराधी होना गांव की मुश्किल जिंदगी में मजबूत सहारे की तरह था। नतीजा यह हुआ कि पी.पी. जब एक बार इस प्रवाह में बहा तो फिर बहता ही चला गया। किसी उद्दाम लहर की तरह जिंदगी उसे उछालती-पटकती रही और इस पूरे माहौल में सिर्फ एक चीज उसकी समझ में आयी कि किसी भी तरह से अपनी जान बचाते हुए दुश्मन को खत्म करना है। दुश्मन को इसलिए भी खत्म करना है कि अगर वह बचा रहा तो उसे खत्म कर देगा। अपराध की दुनिया में अपने शुरुआती सालों में वह लगातार अपने दुश्मनों को खत्म करता रहा। बाद में तो वह लगभग अपराजेय हो गया।
अपने जीवन का पहला अपराध उसे आज तक याद है। उसकी मित्र-मंडली में जयकिशन नाम का एक लड़का सबसे दुस्साहसी था। अकसर वह रास्ता चलते मार-पीट कर लेता था। यद्यपि वह उम्र में उससे काफी बड़ा था फिर भी साथियों का नेतृत्व करने के चक्कर में पी.पी. उससे स्पर्धा करता था, हालांकि लाख स्पर्धा के बावजूद कहीं भीतर से वह उससे डरता भी था। जयकिशन के पास एक देशी पिस्तौल थी जिसे वह कट्टा कहता था और जिसे ललचायी आंखों से पी.पी. देखा करता था। वह बार-बार उसे छूना चाहता था। जयकिशन उसकी इस कमजोरी को समझता था और उसे तरसाने में उसे मजा आता था। बार-बार पी.पी. के मनुहार के बावजूद वह अपना कट्टा उसके हाथ में नहीं देता और अगर देता भी तो झपटकर फौरन वापस ले लेता। इसी जयकिशन ने उसे अपराध की दीक्षा दी।
हुआ कुछ ऐसा कि लड़कों के साथ खेलने में एक बार पी.पी. तीन दिन की कमाई एक साथ हार गया। उसका बाप कहीं रिश्तेदारी में गया हुआ था और चौथे दिन लौटने वाला था। दारू की कमाई पी.पी. को उसी के हाथ में रखनी होती थी इसलिए तीन दिन तक वह रोज शाम को बिक्री के बाद जुआ खेलता रहा। पहले दिन की कमाई हारकर उसने दूसरे दिन इस उम्मीद में जुआ खेला कि पहले दिन की हार वापस ले लेगा लेकिन दूसरे दिन भी वह हार गया। तीसरे दिन वह और कटिबद्ध होकर खेला कि दोनों दिनों का बदला ले लेगा लेकिन तीसरे दिन फिर हार गया। चौथे दिन बाप वापस आने वाला था। बाप के यहां सारे गुनाह माफ हो सकते थे, लेकिन बिक्री के पैसे हारने या गायब होने की सिर्फ एक ही सजा थी - चार-पांच दिन चारपाई पर लेटे रहने लायक कुटम्मस। बाप की कुटम्मस आज भी पी.पी. को दुःस्वप्न की तरह याद है। लिहाजा घर खाली हाथ जाने का सवाल ही नहीं था।
पैसा जो गंवाया जा चुका था उतना बल्कि उससे भी ज्यादा हासिल करने का जो तरीका था वह बताया जयकिशन ने। जयकिशन के बताये अभियान में शरीक होने के लिए छह लड़के चुने गये। तैयार तो बहुत-से हो गये थे लेकिन चुने गये सिर्फ छह। चुनाव जयकिशन ने किया। चुनाव की कसौटी शरीर और मन से मजबूत होना था। जयकिशन ने ही सबका अलग-अलग टेस्ट लिया और पास होने वाले लड़कों को रात नौ बजे गांव के बाहर एक पुलिया पर इकट्ठा होने के लिए कहा। जो लड़के नहीं चुने गये, मुंह लटकाये अपने-अपने घर लौट गये और जो चुने गये, वे अपनी खुशी को छिपाने की कोशिश किये बिना जयकिशन की योजना को सरअंजाम देने की तैयारी में जुट गये।
गांव के बाहर से गिट्टी वाली एक सड़क गुजरती थी। इस सड़क को गांव वाले दसियों सालों से इसी प्रकार देख रहे थे। सालों पहले इस सड़क पर गिट्टी पड़ी थी और उम्मीद हुई थी कि जल्दी ही यह सड़क पिच हो जायेगी। लेकिन सालों से इस पर कोई काम नहीं हुआ था और सड़क की मिट्टी-धीरे-धीरे बेतरतीब होती गयी और छितराती रही। यह सड़क आगे तीन-चार किलोमीटर दूर मुख्य पक्की सड़क से मिलती थी। मुख्य सड़क के दोनों किनारों पर बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों के लिए राजधानी के उद्योगपतियों ने जमीनें लेना शुरू कर दिया था। कुछ फैक्ट्रियों में आधा-तिहाई इमारती काम हो भी गया था। हमेशा से उदास सूनी पड़ी गिट्टी वाली सड़क हल्के-हल्के गुलजार होने लगी थीं। दिन में हर दस-पंद्रह मिनट बाद यहां से कोई न कोई छोटी-बड़ी गाड़ी गुजरती। इन्हीं दिनों गांव वालों ने पहली बार लंबी विदेशी गाड़ियों को देखा। शुरू-शुरू में तो लड़के शोर मचाते हुए कई-कई फर्लांग इन गाड़ियों के पीछे दौड़ते। अब तो आदी हो जाने के कारण गांवों के कुत्ते भी इनकी ज्यादा परवाह नहीं करते और दो-एक बार भौंककर या दस-पांच कदम दौड़कर औपचारिकता पूरी कर लेते।
अंधेरा होने के बाद गाड़ियों की संख्या बहुत कम हो जाती। आधे-पौने घंटे बाद कहीं कोई गाड़ी गुजरती। गिट्टियों के अव्यवस्थित हो जाने के कारण सड़क पर जगह-जगह गड्ढे हो गये थे। इसके अतिरिक्त गिट्टियां भी बड़े खतरनाक ढंग से तीखी नोकें निकाले हुई थीं। इसलिए दिन में भी गाड़ियों की रफ्तार काफी कम रहती। रात में तो लगभग रेंगती-सी चलती गाड़ियां तीन-चार किलोमीटर लंबी यह दूरी पार करने में आधा घंटे से ज्यादा समय ले लेतीं। इसी सड़क पर कुछ कर गुजरना तय हुआ।
तय तो हुआ था नौ बजे इकट्ठा होना, लेकिन साढ़े आठ बजे तक सभी लड़के इकट्ठे हो गये थे। दो-एक ऐसे लड़के भी आ गये जिनका चयन जयकिशन ने नहीं किया था और जिन्हें नहीं आना था। उन्हें उसने डांटकर भगाने की कोशिश की लेकिन वे थोड़ी दूरी पर जाकर खड़े हो गये। असंतुष्ट होने पर वे बाद में फूट सकते थे इसलिए जयकिशन ने उन्हें वापस बुला लिया। अब इस अभियान में दस लड़के शरीक हो गये।
सड़क एकदम सूनी थी। लड़कों ने जल्दी-जल्दी कुछ पत्थर उठाये और सड़क पर डाल दिये। पुलिया के पास बायीं तरफ सड़क पर एक बड़ा खड्डा था और दाहिनी तरफ पत्थर रख देने से सड़क पूरी तरह बंद हो गयी और उधर से गुजरने वाली किसी भी गाड़ी को वहां रुकना पड़ता। जयकिशन और पी.पी. पुलिया पर बैठ गये, बाकी लड़कों को सड़क के दोनों किनारों पर खड़ी बेहया की झाड़ियों के पीछे छिपा दिया गया।
काफी देर तक कोई गाड़ी नहीं आयी। झाड़ियों के पीछे बैठे लड़कों का धैर्य चुकने लगा और जयकिशन के डांटने के बावजूद उन्होंने आपस में बातचीत करना शुरू कर दिया। जयकिशन झल्ला-झल्लाकर उन्हें गालियां देता रहा और थोड़ी देर में वह भी ऊंघने लगा। सबसे ज्यादा उत्तेजित पी.पी. था और इसलिए वह एकटक सड़क की दोनों दिशाओं में क्षितिज तक आंखें गड़ाये बैठा देखता रहा। जयकिशन की बीच-बीच में उसे दी जाने वाली हिदायतें, शोर मचाने वाले लड़कों के साथ गाली-गलौज या सड़क पर आवारा कुत्तों के भौंकने की आवाजें - सब कुछ उसे बहुत दूर से आती लगती। उसका गला खुश्क हो रहा था। उत्तेजना और सनसनी ने उसकी छाती में एक अजीब किस्म की हलचल पैदा कर रखी थी। उसे जीवन का एक ऐसा अनुभव प्राप्त होने जा रहा था, जिसके लिए वह कुछ भी कुर्बानी कर सकता था।
सबसे ज्यादा एकाग्रचित्त वह था इसलिए सबसे पहले नजर भी उसी की पड़ी। दूर-बहूत दूर पीले प्रकाश का एक धुंधला-सा वृत्त गाढ़े ठोस अंधेरे में से उभर रहा था। पी.पी. की आंखें फैलीं, ओठ हल्के-हल्के फड़के और उसने कुछ कहना चाहा लेकिन आवाज की जगह उसके हाथों ने हौले-हौले जयकिशन को ऊँघते से जगाया। बेहया के पीछे छिपे लड़कों ने पुलिया पर होने वाली हलचल भांपी और वे सतर्क हो गये। जयकिशन ने सड़क से उतरकर वहां पड़े पत्थरों का मुआयना किया। सब कुछ ठीक था। कोई गाड़ी वहां से निकल नहीं सकती थी। वह वापस पुलिया पर आकर बैठ गया।
पी.पी. को सब कुछ तिलिस्म की तरह रहस्यमय लग रहा था। उसके लिए प्रतीक्षा अब असह्य हो उठी थी। गाड़ी अभी भी बहुत दूर थी और पीली रोशनी का वृत्त बहुत धीमे-धीमे फैल रहा था। दूरी इतनी थी और रोशनी इस कदर मरियल कि इस बात का अंदाज लगाना कि वह किस किस्म की गाड़ी है, बहुत मुश्किल था। पी.पी. को यह बड़ा ऊबाऊ लग रहा था कि कार्यवाही का क्षण इतनी देर बाद आयेगा। उसने अपनी जेब में हाथ डालकर टटोला। जयकिशन का दिया हुआ चाकू सुरक्षित था। उसने चाकू बाहर निकाला। निकालकर उसने दो-एक बार उसे खोला और बंद किया। जयकिशन के घुड़कने पर फिर उसे जेब में डाल दिया।
टूटी ऊबड़-खाबड़ पर गाड़ी धीरे-धीरे रेंग रही थी। प्रकाश वृत्त धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था और अब स्पष्ट रूप से दो पीली गोलाइयां चमकने लगी थीं। हालांकि अब भी यह स्पष्ट नहीं था कि यह गाड़ी किस प्रकार की है। कभी लगता ट्रक है, कभी ट्रैक्टर और कभी कार। तय हुआ था कि यदि कार नहीं हुई तो वे पुलिया से उतरकर पत्थर हटा देंगे और ऐसा दिखायेंगे कि जैसे पत्थर सड़क पर पड़े रहने के पीछे कोई राज नहीं है। अगर कार होगी तभी बेहया के पीछे छिपे लड़के उसके धीमी होते ही उस पर हल्ला बोल देंगे।
गाड़ी जब बहुत करीब आ गयी तब जाकर स्पष्ट हुआ कि यह कार थी। सबसे पहले जयकिशन पुलिया से कूदकर झपटा। उसके पीछे यंत्र-चालित-सा लड़खड़ाते कदमों और खुश्क गले वाला पी.पी. था। सड़क के किनारे बेहया की झाड़ियों में भी हलचल हुई। लेकिन लगता था, उनसे जल्दबाजी हो गयी है। कार अभी पंद्रह-बीस गज दूर ही थी। उन्हें हरकत में आते दखकर संभवतः कार में बैठे लोग कुछ सतर्क हो गये थे। उन्होंने कार में तेजी के साथ ब्रेक मारा और कार को बैक करने की कोशिश की। कार इतनी रफ्तार से बैक हुई कि लड़कों को निराशा घेरने लगी। लेकिन संयोग अच्छा था कि कार पीछे हटते हुए एक बड़े पत्थर के टुकड़े से टकरायी और घर्र-घर्र की आवाज के साथ बंद हो गयी। केवल उसकी हेडलाइट्स जलती रहीं। अंदर बैठे ड्राइवर ने घबराहट में उसे फिर से स्टार्ट करने की कोशिश की लेकिन उसकी घबराहट ने कुछ इस तरह गड़बड़ी की कि लड़कों के चारों तरफ से घेर लिए जाने तक कार आगे-पीछे नहीं बढ़ी, सिर्फ घुर्र-घुर्र की आवाज करती रही।
हेडलाइट्स के जलते रहने के कारण बाहर आंखों को चौंधिया देने वाली रोशनी थी और भीतर कार में घटाटोप अंधेरा। बाहर से यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि भीतर कितने लोग होंगे। जयकिशन ने ड्राइवर की खिड़की से अपनी देशी पिस्तौल अंदर डाल दी।
'बुझा, लाइट बुझा दे।'
लाइट बुझ गयी।
'बाहर निकल आ।'
सिर्फ कहने भर से कोई बाहर नहीं निकला। जयकिशन ने मां-बहन की चुनिंदा गालियां दीं और पिस्तौल की बट से ड्राइवर के मुंह और कनपटियों पर कुछ प्रहार किये। ड्राइवर एक हाथ से कनपटी दबाये और दूसरा हाथ प्रहार रोकने की मुद्रा में मुंह को सामने किये उतरा। उसके उतरते ही लड़कों ने उसे दो-चार हाथ मारे और उसके दोनों हाथों को दो-दो लड़कों ने पकड़ लिया और वह काबू में आये परिंदे की तरह हौले-हौले कांपता हुआ सिसकने लगा।
'मां के यार, तू भी निकल आ।' जयकिशन ने पिछली सीट पर छुपने की कोशिश कर रहे दूसरे यात्री को ललकारा। हेडलाइट्स बुझा दिये जाने के बाद थोड़ी ही देर में लड़कों की आंखें साफ-साफ देखने में समर्थ हो गयीं। अंदर ड्राइवर के अतिरिक्त सिर्फ एक आदमी और था जो पिछली सीट पर बायीं खिड़की के पास दुबका बैठा था।
'उतरता है या करें तेरी भी सेवा?'
'उतर आयेगा तब भी सेवा तो होगी ही। हम तो मेहनत की कमाई खाते हैं, बिना सेवा किये नही मानेंगे। लेकिन सीधे से उतर आयेगा तो कम सेवा होगी।'
'चुप बे!' जयकिशन ने मजाक करने वाले लड़के को डांटा। माहौल का तनाव कम नहीं होना चाहिए।
कार में दुबका आदमी और दुबक गया। उसके ओठ कुछ इस तरह फड़फड़ा रहे थे कि वह कुछ बोलना चाहता था लेकिन डर ने उसकी घिग्घी बांध रखी थी।
दो-तीन लड़के उस खिड़की पर पहुंच गये जिसके पीछे वह छिपा बैठा था। उसने खिड़की का शीशा घटना के शुरू होते ही चढ़ा दिया था। लड़कों ने शीशे को कसकर पीटा तो अंदर बैठा आदमी और दुबक गया। एक लड़के ने सड़क पर पड़ा ईंट का टुकड़ा उठा लिया और पूरी शक्ति से उसे शीशे पर पटक दिया। शीशा एकदम से चकनाचूर हो गया। उसकी किर्चें अंदर की तरफ बिखर गयीं। अंदर बैठे आदमी के मुंह और सीने पर कांच के छोटे-बड़े टुकड़े पड़े और वह पहले से ज्यादा घबराहट में उन्हें झाड़ने लगा।
लड़कों में से किसी ने इसके पहले कार का दरवाजा नहीं खोला था। उन्होंने बाहर के हैंडिल को खींचा, अंदर हाथ डालकर कल-पुर्जे टटोले और झुंझलाकर अंदर बैठे आदमी को दो-तीन घूंसे मारे लेकिन दरवाजा न खोल पाये और न खुलवा पाये।
जयकिशन ही इस मौके पर भी काम आया। उसने पिस्तौल ड्राइवर की कनपटी पर अड़ा दी और उसे लेकर टूटे शीशे वाली खिड़की तक आया। ड्राइवर ने बाहर से दरवाजा खोलने की कोशिश की। दरवाजा अंदर से लॉक था। उसने हाथ अंदर डालकर दरवाजा खोल दिया।
घबराया हुआ आदमी बाहर खींच लिया गया। इतनी देर तक दरवाजा न खोलने की झुंझालहट लड़कों ने उसे अच्छी तरह पीटकर निकाली। जयकिशन खुद पीटने वालों में था लेकिन उसने जल्दी ही लड़कों को डांटकर रोक दिया।
'इसकी जेबें टटोलकर देख।' जयकिशन ने पी.पी. को ललकारा। पी.पी. किंकर्तव्यविमूढ़-सा पूरे नाटक को देख रहा था। बीच-बीच में मारपीट और भागदौड़ में वह शरीक जरूर हो रहा था लेकिन उसे पूरा घटनाक्रम स्वप्नलोक में घटित होता-सा लग रहा था। अपने हाथ-पैर या किसी भी अंग पर उसका वश नहीं था। पिटाई के लिए हाथ उठाते या भागने-दौड़ने के लिए पैरों का इस्तेमाल करते समय उसे लग रहा था कि उसके शरीर में ताकत ही नहीं बची है और उसके हाथ-पांव लुंज-पुंज हो गये हैं। जयकिशन की आवाज उसे कहीं दूर से आती लगी। उस आवाज की कड़क ने उसे एकदम से चैतन्य कर दिया। उसने कार से उतरे आदमी की पैंट की दोनों जेबों को बारी-बारी से टटोला। कुछ नोट और कुछ कागजात निकल के उसके हाथ में आये। जयकिशन ने झपटकर दोनों उससे ले लिये। कागजों को उसने बिना देखे जमीन पर फेंक दिया और नोट अपनी जेब में डाल दिये। जो धन मिला था, वह आशा से बहुत कम था। जयकिशन ने उसकी कमीज की जेब में हाथ डाला, वह खाली थी। वह निराशा और गुस्से से भर उठा।
'साले इतना कम पैसा लेकर चलते हो! इतना कम नहीं हो सकता। और पैसा कहां है, बोल!'
मार खाये हुए आदमी की आवाज डर और घबराहट से रुंध गयी थी। उसने हकलाते हुए जो कहने का प्रयास किया, उसका आशय यह था कि उसके पास इससे ज्यादा कुछ नहीं है।
जयकिशन ने उसकी और ड्राइवर की घड़ी कलाई से उतरवा ली। इतना कम पैसा मिला था कि उसे बार-बार लग रहा था कि सारी मेहनत बेकार गयी। उसने दोनों सवारियों को लड़कों के हवाले किया और स्वयं कार की तलाशी लेने में जुट गया। उसने पहले अगली सीट का बारीकी से मुआयना किया। ड्राइवर की सीट पर एक डायरी पड़ी थी। उसने गुस्से से उसे उठाकर बाहर फेंक दिया। अगली सीट से उतरकर वह पिछली सीट की तरफ बढ़ा ही था कि लड़कों ने शोर मचा दिया। सामने दूर फिर से पीली रोशनी का एक कमजोर वृत्त दिखाई देने लगा था। वक्त बहुत कम था और अगले सात-आठ मिनटों में ही गाड़ी इतने करीब आ जाने वाली थी कि उनकी हरकत साफ-साफ दिखाई देने लगती।
जयकिशन ने फुर्ती दिखायी। वह तेजी से पिछली सीट में घुसा। उसने सीट पर हाथ फेरा। कुछ नहीं था। पीछे शीशे के पास वाली जगह पर भी कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। वह निराश होकर लौट ही रहा था कि उसका पैर दोनों सीटों के बीच की तंग जगह में किसी चीज से टकराया। उसने उत्सुकता से हाथ उस पर फेरा। उसकी आंखों में चमक आ गयी। एक ब्रीफकेस था जिसे लगता था कि लूटपाट शुरू होते ही उसके मालिक ने सीटों के बीच में घुसेड़ने की कोशिश की थी। ब्रीफकेस लेकर वह बाहर आ गया। उसके पिछले अनुभव बताते थे कि सेठ लोग ब्रीफकेस में ही पैसा रखते हैं। पता नहीं यह मुसाफिर सेठ है भी कि नहीं। बहरहाल यह सब सोचने का वक्त नहीं था। सामने वाली गाड़ी अब इतने करीब आ गयी थी कि किसी भी वक्त उसके प्रकाश की जद में लड़के आ जाते। उसने लड़कों को इशारा किया और दोनों मुसाफिरों को छोड़कर सभी ने खेतों में छलांग लगा दी।
खेतों में चरी की अच्छी घनी फसल थी। पिछली रात उनमें पानी चलाया गया था इसलिए जमीन काफी हद तक दलदली थी। लड़कों के लिए भागना मुश्किल हो रहा था, लेकिन वे भागते चले जा रहे थे। चरी के खेतों को रौंदते हुए उन्होंने देखा कि दूसरी आने वाली गाड़ी पहली गाड़ी के पास आकर रुक गयी है। दूसरी गाड़ी की हेडलाइट्स बुझायी नहीं गयी थीं और उसके कुछ तिरछा होने के कारण रोशनी एक खास कोण से खेतों पर पड़ रही थी। हालांकि लड़के इस रोशनी की जद के बाहर हो गये थे फिर भी खेतों का कुछ हिस्सा रोशन हो रहा था। दोनों गाड़ियों के चार-पांच लोग इस रोशनी के सहारे खेतों की तरफ हाथ उठाकर थोड़ी देर तक कुछ इशारेबाजी करते रहे। लेकिन जल्दी ही वे वहां से चल दिये। सबसे पहले बाद में आयी गाड़ी रवाना हुई और फिर उसके फौरन बाद पहले आयी हुई गाड़ी भी रवाना हो गयी।
खेतों-खेतों लड़के काफी दूरी निकल गये और जब नदी के किनारे पहुंचकर खेतों से बाहर निकले तो बुरी तरह हांफ रहे थे। हाथ में ब्रीफकेस लिये सबसे पहले जयकिशन नदी के किनारे रेत पर बैठ गया। धीरे-धीरे उत्तेजना से लड़कों की सांस धौंकनी की तरह चल रही थी। जयकिशन को छोड़कर बाकी सबने जिंदगी का पहला शिकार किया था। इसलिए सभी पूरी भाग-दौड़ का नतीजा जानने के लिए उत्सुक थे।
जयकिशन ने लड़कों की उत्सुकता का खूब मजा लिया। वह स्वयं भी बेहद उत्सुक था, लेकिन दूसरों के सामने गंभीर बनकर लापरवाही दिखाने में उसे मजा आ रहा था। थोड़ी देर तक यह खेल चलता रहा लेकिन उसकी स्वयं की उत्सुकता ने उसे ब्रीफकेस खोलने पर मजबूर कर दिया। किसी भी लड़के को ब्रीफकेस खोलना नहीं आता था, लेकिन थोड़ी-बहुत जोर आजमाइश करने पर ब्रीफकेस खुल ही गया।
अगर मुहावरे की भाषा में कहा जाय तो ब्रीफकेस की तलाशी लेने पर लड़कों की आंखें फटी की फटी रह गयीं। अंदर दो-तीन फाइलों के कागज भरे थे और सबसे निचली फाइल के नीचे सौ-सौ रुपयों की एक गड्डी थी। चारों तरफ से घिरी ललचायी आंखों और बेचैन हाथों के बीच जयकिशन ने नोटों को गिना। पूरे दस हजार रुपये थे। बीच-बीच में डपटकर वह सबको नोटों से दूर रखता रहा और फिर ईमानदारी से उसने पैसों का बंटवारा कर दिया। बंटवारे में एक हजार रुपये पी.पी. के हाथ लगे। खुशी और उत्तेजना से वह भर उठा। उसे पहली बार पता चला कि इतनी कम मेहनत करके इतना ज्यादा कमाया जा सकता है। जुए में हारे बाप के पैसे देकर भी उसके पास इतने पैसे बचते कि वह दो-तीन दिन ऐश कर सकता था। वह यही करता, लेकिन दूसरे दिन शाम तक गिरफ्तार हो जाने के कारण उसकी योजना में विघ्न पड़ गया।
दूसरे दिन बाप के पैसे वापस कर, तीन दिन तक घर से बाहर रहने के कारण बाप के हाथों पिटकर और दोपहर में डटकर सोने के बाद वह अपने दो-तीन साथियों के साथ गांव के बाहर एक चाय के ढाबे पर बैठा ही था कि अचानक पुलिस की एक जीप ठीक उनकी चारपाई के पास आकर रुकी। पुलिस की गाड़ी देखते ही उसके साथ के लड़के भागे लेकिन पी.पी. सूखे हलक और फक्क पड़े चेहरे के साथ पुलिस वालों को झपटकर अपनी तरफ आते हुए देखता रहा। एक सिपाही ने उसे कालर पकड़कर उठा लिया और दूसरे ने कसकर एक डंडा उसके पैरों पर जमाया। वे उसे खींचते हुए जीप की तरफ ले जाने लगे। पी.पी. ने बिना किसी उद्देश्य के अपने को उल्टी दिशा में तानना शुरू किया, लेकिन ताबड़तोड़ कई डंडे और झापड़, घूंसे शरीर पर पड़ने से उसका प्रतिरोध ढीला पड़ गया। जल्द ही घसीटकर उसे जीप के पिछले हिस्से में फेंक दिया गया।
ढाबे पर बैठे ट्रकों के ड्राइवरों और तमाशबीनों ने जीप के इर्द-गिर्द भीड़ लगाना शुरू कर दिया था। पुलिस वाले बीच-बीच में उन्हें हांकते रहे और भीड़ छंट-छंट कर फिर इकट्ठी होती रही। भागने वाले पी.पी. के साथियों के पीछे दौड़ने वाले पुलिस वाले थोड़ी देर में लौट आये। उनके हाथ एक ही लड़का गया था। वे उसी को बालों से पकड़कर घसीटते और लात-घूंसों से पीटते जीप तक ले आये। उसकी कमीज के सारे बटन टूट चुके थे, सिर्फ एक पैर में चप्पल बची थी और गाल तथा ओठ कट जाने से खून सना चेहरा वितृष्णा पैदा कर रहा था। लगता था, उसने पुलिस वालों को बहुत दौड़ाया था इसलिए उन्होंने उसकी मरम्मत खूब तबीयत से की थी। उसे भी पी.पी. के बगल में फेंक दिया गया। उसके बाद जीप में पुलिस वाले चढ़ गये।
छोटी-सी जीप में उसकी क्षमता से अधिक लोग ठुंस गये थे। वे सभी अंदर नहीं समा पा रहे थे। इसलिए दो-तीन पुलिस वाले तो गाड़ी के चारों तरफ लटके हुए थे। किसी की टांग बाहर निकली हुई थी, किसी का पूरा धड़। उनके डंडे और लाठियां भी अंदर-बाहर इस तरह बेतरतीब थे कि गाड़ी के हिलने के साथ ही उनके शरीर में जगह-जगह टकराने का खतरा पैदा हो रहा था। जीप के चलने से हवा का झोंका भीतर आया तो अंदर बैठे लोगों को कुछ राहत महसूस हुई। थाने तक पहुंचने में जीप ने पौन घंटा लगाया और वह यात्रा पी.पी. के लिए नरक की तरह रही। उसके पंजों और घुटनों पर बूट समेत कई लोग चढ़े हुए थे और लगातार उसे लग रहा था कि तनाव से उसकी जांघों की नसें फट जायेंगी। बीच-बीच में लाठी का कोई हिस्सा उसके पेट से टकराता और दर्द से वह बिलबिला उठता। थाने पहुंचने पर उसकी इस यातना का तो अंत हो गया, लेकिन दूसरी यातना शुरू हो गयी।
अपनी इतनी जल्दी गिरफ्तारी का सबब भी उन्हें फौरन ही पता चल गया। अपराध की योजना बनाते समय जिन लड़कों को जयकिशन ने अपने साथ शरीक करने से इनकार कर दिया था, उन्हीं में से एक लड़का उनकी गिरफ्तारी का कारण बना। ईर्ष्याजन्य क्रोध के कारण उसने गांव के चौकीदार से जयकिशन का नाम बता दिया। उसका नाम किसी को न बताने का वायदा करके चौकीदार ने बहला-फुसलाकर और लड़कों के नाम पूछे, लेकिन फिर उसने चुप्पी साध ली और कहना शुरू कर दिया कि उसे कुछ नहीं पता। चौकीदार ने उसका नाम पुलिस को बता दिया और रात में ही पुलिस ने उसे उठा लिया। पुलिस के दो-तीन झापड़ों ने ही उससे सब कुछ उगलवा लिया। सबसे पहले जयकिशन के घर पुलिस की दबिश पड़ी, लेकिन वह गायब था। उसे ऐसी स्थिति की आशंका पहले से थी, इसलिए वह रात घर में सोया ही नहीं था। बाद में पी.पी. पकड़ा गया।
उन्हें पकड़वाने वाला लड़का सामने बेंच पर सिर झुकाये बैठा था। पुलिस वालों के बार-बार ललकारने के बावजूद उसने उन लोगों की आंखों में आंखें डालकर नहीं देखा। उसकी फिसलती हुई निगाह पी.पी. के सिर के ऊपर से गुजर गयी और सीधे दीवाल पर टिक गयी।
पहली गिरफ्तारी ने पी.पी. को काफी मजबूत और शिक्षित किया। उसकी जबर्दस्त पिटाई हुई। हाथ-पैर के सभी जोड़ टूट-फूट या सूज गये। उसका पूरा चेहरा कई जगह से कट-फट गया। मुंह सूज कर अजीब ढंग से विकृत हो गया। इतना सब होने के बावजूद वह कुछ नहीं बोला। सिर्फ अपने पास बचे चार सौ रुपये उसने पैंट की चोर जेब से निकालकर पुलिस वालों के हवाले किये और फिर खामोश हो गया।
पी.पी. की खामोशी अनुभवी पुलिस वालों के लिए आश्चर्यजनक थी। पहला अपराध करने वाला इतना सख़्तजान लड़का उन्होंने नहीं देखा था। पी.पी. के साथ पकड़े गये लड़के ने तो सब कुछ बता ही दिया था, वे तो केवल पी.पी. के मुंह से सुन कर उसके दिये विवरणों की ताईद करना चाहते थे, लेकिन पी.पी. नहीं बोला तो नहीं बोला।
थाने के आंगन में नीम का एक पेड़ था। चिढ़े हुए पुलिस वालों ने उसे पेड़ की एक मोटी डाल से उलटा लटका दिया। मुश्किल से पांच-सात मिनट पी.पी. लटका होगा लेकिन उसे याद करके अभी भी उसे थरथरी छूट जाती है। ऐसा लगा कि पूरे जिस्म का खून निचुड़ कर उसके सिर में भर गया हो। यदि वह थोड़ी देर इसी स्थिति में रहता तो शायद यह खून उसकी आंखों से टपकने लगता। दिमाग पर, लगता था, जैसे कोई हथौड़े मार रहा था और जिस तरह के टन-टन की आवाज पी.पी. को अपने कानों से टकराती सुनाई दे रही थी। वह अजीब तरह की खौफनाक आवाज थी और आज तक वह आवाज उसने फिर कभी नहीं सुनी। जितनी ऊंचाई से उसे लटकाया गया था, वह इतनी थी कि हाथों की उंगलियां जमीन से महज पांच-छह इंच ऊपर रह गयी थीं। जब तक वह होश में रहा, उसने लगातार कोशिश की कि किसी तरह उसका हाथ जमीन पर टिक जाये लेकिन वह कोशिश निरर्थक ही रही और इससे उसके शरीर का तनाव और बढ़ गया। पहली बार उसे पता चला था कि दर्द की ऐसी किसी लहर का झिंझोड़ा हुआ आदमी आजिजी के साथ सिर्फ अपनी मृत्यु की कामना कर सकता है।
चंद मिनटों के बाद ही आ जाने वाली बेहोशी ने उसे मुक्ति दिलायी। वह ज्यादा चीखा-चिल्लाया नहीं था, सिर्फ दांत भींचे दर्द की लहरें झेलने की कोशिश कर रहा था, इसलिए उसके आसपास खड़े पुलिस वालों का ध्यान एकदम से उसके चेहरे की बदलती रंगत पर नहीं गया। अचानक एक पुलिस वाले ने देखा कि पेड़ से लटके-लटके उसकी आंखें उलट गयी हैं और उसके मुंह से गाज की तरह पानी खुले ओंठों के किनारे से निकलकर बह रहा है। धरती छूने की कोशिश करती हुई उंगलियां कुछ ऐंठ-सी गयी हैं। वह बदहवास-सा झपटा और उसने पी.पी. के लटके हुए हाथों को थामकर उसे ऊपर उठा दिया ताकि पूरे शरीर का खिंचाव कम हो सके। इतनी देर में और पुलिसवाले भी झपटकर पहुंच गये। दो-तीन ने मिलकर उसे कमर के पास से टेढ़ा कर दिया और सिर बांहों में लेकर ऊपर कर दिया।
एक सिपाही पेड़ के ऊपर चढ़ गया और थोड़ी-सी मेहनत से उसने रस्सी की गांठ खोल डाली। नीचे उतारकर पी.पी. को बरामदे में लिटा दिया गया। उसकी आंखें तो कुछ ठीक हो गयी थीं, लेकिन उसकी बेहोशी बरकरार थी। रह-रहकर पूरा शरीर अजीब तरह से ऐंठता था। पुलिस वाले दहशत में पड़ गये। एक ने दौड़कर स्टेशन ऑफिसर को ख़बर दी। वह अपने क्वार्टर में खाना खा रहा था। खाना छोड़कर हाथों पर पानी डालता हुआ वह भागता आया।
'साले भोंसड़ी वाले मुझे जेल भिजवा कर छोड़ेंगे। किसने कहा था इसे लटकाने को?' वह अपने क्वार्टर से ही चीखता-चिल्लाता पहुंचा।
'अबे, अब खड़े-खड़े मुंह क्या देख रहे हो! डॉक्टर बुलाने क्या तुम्हारे बाप जायेंगे?'
एक दरोगा बाहर की तरफ लपका।
'गाड़ी लेता जा। कस्बे में जो भी डॉक्टर मिले, उठा ला।' दरोगा गेट पर रुक गया। ड्राइवर ने जल्दी से जीप स्टार्ट की और गेट पर खड़े दरोगा को बैठाते हुए कस्बे की तरफ लपका।
इस बीच एक सिपाही पानी ले आया और उसने कुछ छींटे बेहोश पी.पी. के मुंह पर मारे। पी.पी. थोड़ा कुनमुनाया लेकिन उसकी बेहोशी बरकरार रही।
स्टेशन ऑफिसर, जिसे लोग बड़े दरोगा जी कहकर बुलाते थे, लगातार झल्लाता और गरियाता रहा। उसे लग रहा था कि उसके नालायक मातहत उसे जेल भिजवाकर रहेंगे। वह धीरे से थाने के दफ्तर में खिसक गया और उसने रोजनामचे में पी.पी. के थाने में आने के समय से पहले ही अपनी दूसरी जगह के लिए रवानगी अंकित कर दी। रवानगी लिखने के बाद भी वह आश्वस्त नहीं हुआ और बेचैनी से डॉक्टर का इंतजार करता रहा।
डॉक्टर आया और पी.पी. की जान बचाने की मुहिम में जुट गया। उसने ताबड़तोड़ उसे कई इंजेक्शन दिये। थाने के एक कमरे में पलंग डालकर उसे लिटा दिया गया और डॉक्टर ने अपनी क्लीनिक से उपकरण और ग्लूकोज की बोतलें मंगाकर उसे ग्लूकोज चढ़ाना शुरू कर दिया। पी.पी. की जान बच गयी और उसने थोड़ी देर में आंखें खोल दीं।
होश में आने के दो-तीन घंटे बाद ही पी.पी. को पुलिस की गाड़ी में बैठाकर मजिस्ट्रेट के पास भेज दिया गया। छुट्टी का दिन था, इसलिए उसे मजिस्ट्रेट के घर ले जाया गया।
बड़ी मुश्किल से डगमगाते कदमों से उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। मजिस्ट्रेट ने उसके वारंट पर दस्तखत कर दिये और पुलिस वाले अपनी गाड़ी से ले जाकर उसे जेल में दाखिल कर आये।
इस तरह उसके जीवन में अपराध के प्रथम अनुभव का पहला अध्याय समाप्त हुआ। इस अनुभव का दूसरा अध्याय जेल में शुरू हुआ। जेल ने सही अर्थों में उसे दीक्षित किया और अपराध के प्रति उसके मन में मौजूद आकर्षण को एक मूर्त आकार दिया।
जिस समय हाथ की हथकड़ी खोलकर पुलिस के सिपाहियों ने उसे जेल के स्टाफ के हवाले किया, उसका पूरा शरीर पका फोड़ा बन चुका था। जहां से छुआ जाय, वहीं दर्द होता था। जितनी देर वह जीप में बैठा यात्रा करता रहा, उसे लगातार लगता रहा कि कोई उसके ऊपर चढ़कर बेलन चला रहा है। जीप का हर हिचकोला उसे यातना और पीड़ा की धुंध में डुबो देता। यह धुंध जैसे उसके पूरे जिस्म से टकरा-टकराकर उसकी आंखों में घुस जाती और उसे नीम बेहोशी के झटके देती। होश में आने पर वह बार-बार कहना चाहता कि जीप धीमे चलायी जाय लेकिन पुलिस थाने पर अब तक मिला अनुभव उसे रोक लेता। पुलिस वालों की बातचीत से उसे पता चला था कि जेल का रास्ता चार घंटा लंबा है, लेकिन यह चार घंटा बीतने में युग लग गया।
जीप से उतरकर जेल के फाटक के अंदर जब उसने पहला कदम रखा, वह बायीं तरफ को हल्का झुका हुआ कांपती टांगों वाला एक ऐसा किशोर था जिसे अगर हल्की-सी सहानुभूति भी किसी कोने से मिलती तो वह फूट-फूटकर रो पड़ता, लेकिन उसे किसी से भी सहानुभूति नहीं मिली और वह थोड़ी देर में पूरी तरह से पत्थर बन गया। सबसे पहले उसकी तलाशी ली गयी। जेल का एक बाबू एक कुर्सी पर बैठा लिख रहा था। एक पक्के ने उसे सीधा खड़ा करके उसकी तलाशी लेना चाहा। लाख कोशिश करने के बावजूद वह सीधा खड़ा नहीं हो पा रहा था। बार-बार उसके बायीं तरफ लुढ़कने से चिढ़कर पक्के ने उसके बाल कसकर पकड़ लिये और उसे सीधा करने की कोशिश की। दर्द से बिलबिलाकर वह स्वयं ही सीधा हो गया, लेकिन रोकने के बावजूद उसके मुंह से अस्फुट-सी गाली निकल गयी, 'मादर... ।'
'क्या बोला बे... ?' पक्के ने, जो खुद अपने जमाने का बड़ा खूंखार अपराधी रह चुका था और पिछ्ले कुछ वर्षों में जेल अधिकारियों का विश्वास प्राप्त कर पुराने कैदियों को प्राप्त होने वाले इस ओहदे तक पहुंचा था, हल्की-सी कुहनी उसके पेट में छुआयी। दर्द से वह दोहरा हो गया। फिर उसने प्रतिरोध नहीं किया। उसकी तलाशी का विवरण नोट कराने के बाद पक्के ने उसकी चोटों का विवरण नोट कराया। चोटों का विवरण नोट कराते समय पक्के के हाथ उसके बदन पर फिरे तो उसे ऐसा लगा कि कोई पके फोड़ों को दबाकर उनसे पीब निकाल रहा हो। सीधा खड़ा होने के चक्कर में वह झुक-झुक जाता और अचानक पक्के को कोई हरकत करते देखकर सीधा तन जाता।
जेल में उसकी असली दीक्षा हुई। पहली बार जेल आने के कारण पी.पी. को पूरा मौहाल बड़ा तिलिस्मी और रहस्यमय लग रहा था। हिंदी फिल्मों के तमाम नायक वहां मौजूद थे। उनके चेहरे से टपकने वाली क्रूरता और ओछेपन को वह ईर्ष्या से देखा करता था। जेल में उसने देखा कि किस तरह बड़ा अपराधी सामाजिक स्वीकृति और प्रतिष्ठा हासिल करता है। जेल में ही मश्क की उसने वह भाषा जो अंडरवर्ल्ड या अपराध-जगत की परत-दर-परत उसके सामने उघाड़ती चली गयी।
जेल के अपने नायकों के सामने उसने देखा कि किस तरह जेल के आला हुक्काम उनके आगे हाथ बांधे बिछे पड़ते थे। मामूली अपराधियों के लिए जेल दारुण यातना की एक ऐसी अमानवीय अंधी प्रक्रिया थी जिसका अंग बन जाने के बाद किसी को भी अपने इंसानी अस्तित्व पर शर्म आने लगती।
जेल की अवधारणा जिन परिस्थितियों में भी हुई होगी और उसके पीछे जो भी मूल्य रहे हों, आधुनिक समय में निश्चित रूप से बंदियों के नैतिक विकास की एक सदिच्छा भी उससे जुड़ गयी है। पर जिस जेल से पी.पी. की अपराध-यात्रा शुरू हुई, वह भी देश की उन अधिसंख्य जेलों की तरह थी जहां आकर किसी अपराधी में सुधार की आशा करना व्यर्थ ही था। यहां आने पर पी.पी. जैसे अपराध के कच्चे खिलाड़ी को एक ऐसा प्रशिक्षण केंद्र प्राप्त होता था जहाँ से वह और पक्का होकर निकलता। यहाँ तक कि जेल की मुश्किल जिंदगी भी, जो सड़े-गले भोजन और कठोर मेहनत-मशक्कत से अमानवीय हदों को छूती थी, इन कैदियों के मनोबल को तोड़ नहीं पाती थी। पी.पी. को याद है कि पहली जेल-यात्रा के पूर्व कई बार वह अपने गांव या पड़ोस के किसी जेल-बंदी से मिलने यहां आता तो मजबूत पत्थरों की ऊंची दीवारों से घिरी यह इमारत उसे किसी रहस्यलोक की तरह लगती। उसके अड़ोस-पड़ोस में तमाम लड़के ऐसी हरकतों में लिप्त थे, जिनमें उन्हें समय-समय पर पकड़कर पुलिस जेल भेजती रहती थी। अपराध की दुनिया को लेकर पी.पी. के मन में जो मोह था, वह उसे बार-बार इन लड़कों से मिलने के लिए मौके तलशवाता। कभी बाप की इजाजत लेकर और अकसर बिना इजाजत के ही पी.पी. घर से भाग आता और यहां दाखिल लोगों से मिलता। कई बार पता चल जाने पर बाप ने पीटा भी, लेकिन उसके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता।
इस बार खुद जेल में आ जाने पर उसे इस इमारत से ज्यादा सीखने का मौका मिला। यह इमारत थी भी दरअसल एक स्कूल ही। शुरू के एक-दो दिन तो पूरी तरह से नरक थे। पक्के ने दर्द से बिलबिलाते उसके शरीर की जिस तरह तलाशी ली, उसे आने वाले वक्त का आभास हो गया। तलाशी में उसके पास जो कुछ रुपये-पैसे थे, सब पक्के ने निकालकर रजिस्टर पर विवरण दर्ज करने वाले बाबू को थमा दिये। उसकी कलाई घड़ी भी उतरवा ली गयी। उसके एक-एक जख्म का विवरण लिखा गया।
लिखा-पढ़ी के बाद पी.पी. को एक वार्डर के हवाले कर दिया गया। उसने उसकी दाहिनी कलाई पकड़ी और लगभग घसीटता हुआ-सा एक तरफ ले चला। दर्द से बिलबिलाते हुए पी.पी. ने उससे अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश की। जिस कलाई को उसने पकड़ रखा था, वह बुरी तरह सूजी हुई थी। एक तो पंजों में दबते ही कलाई से कंधों तक दर्द की लहरें उठनी शुरू हो गयीं, दूसरे जरा खिंचाव पड़ते ही पूरा शरीर बुरी तरह ऐंठने लगा। पी.पी. ने पूरा जोर लगाकर अपने को छुड़ाने की कोशिश की लेकिन अशक्त, दर्द से बिलबिलाते शरीर के लिए यह संभव नहीं था। लाख वयस्क पके अपराधियों की नकल करने की कोशिश करे, पर था तो पी.पी. अभी किशोर ही। उसने चीख-चीखकर रोना शुरू कर दिया।
'बहन... ! साले! इतना ही दम है।' वार्डर ने उसका हाथ छोड़ दिया।
पी.पी. को लगा, उसकी गैरत को ललकारा गया है। उसने चीखना बंद कर दिया। पर पीड़ा की ऐसी गठरी बन चुका था उसका शरीर कि आंखों से आंसू टपकते ही रहे।
वार्डर उसे रास्ते भर धमकाता-गरियाता जिस इमारत में छोड़ गया, वह जेल का अस्पताल था। यह एक लंबी-सी खपड़ैल की पुरानी बैरक थी। बैरक काफी पुरानी और जीर्ण-शीर्ण हालत में थी। बैरक की शुरुआत में ही दो-तीन कमरे थे। एक कमरा, जो बंद जाली के दरवाजे से झांकने पर अपेक्षाकृत साफ-सुथरा और ठीक-ठाक मेज-कुर्सी वाला लगता था, संभवतः डॉक्टर का था। एक दूसरा कमरा, जिसमें पी.पी. को ले जाया गया, टूटी कुर्सियों और ईंट के चौथे पाये वाली मेज और किस्म-किस्म के अगड़म-बगड़म सामान से भरा था। इसमें बैठे एक दूसरे वार्डर के हवाले करके पहला वार्डर चला गया। कमरे में एक कंपाउंडर भी मौजूद था, उसने दूर से ही उपेक्षा से पी.पी. की चोटों का मुआयना कर लिया। वार्डर ने रजिस्टर पर कुछ लिखा और पी.पी. को बाहर जाने का इशारा कर दिया। पी.पी. समझ नहीं पाया कि उसे कहां जाना है। वह अचकचाया इस उम्मीद में खड़ा रहा कि शायद उसे कोई दवा वगैरह दी जायेगी।
'भाग साले! यहां सिर पर क्यों खड़ा है? बाहर बरामदे में जाकर बैठ।'
'मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा। मुझे दवा चाहिए!' उसने सहमते हुए कहा।
'यहां तेरे ताऊ बैठे हैं, दवा देने के लिए? बाहर जाकर लेट जा! कल डाक साहब आयेंगे, तभी दवा मिलेगी।'
पी.पी. एक क्षण के लिए ठिठका लेकिन फिर निराश होकर बाहर निकल आया।
अस्पताल की बैरक के चारों तरफ चौड़ा-सा बरामदा था। बैरक के अंदर कुछ कैदी पत्थर के तख्तों पर पड़े थे। बरामदे के एक कोने में कुछ कैदी बैठे ताश खेल रहे थे। बीच-बीच में वे उत्तेजित होकर फोह्श किस्म की गालियाँ देने लगते या ठहाका मारकर हंसते। उनमें से कोई बीमार नहीं लग रहा था। फिर उन्हें क्यों अस्पताल में रखा गया है, पी.पी. नहीं समझ सका। बैरक के चारों तरफ कुछ कैदी क्यारियों में फूल-पत्ते निरा रहे थे। वे जरूर बीमार लग रहे थे। उनकी पीठ पर खड़ा एक वार्डर उन्हें तेज काम करने के लिए बीच-बीच में ललकार रहा था।
पी.पी. लंगड़ाता हुआ बायीं तरफ को आधा झुका बरामदे में आया तो कुछ देर के लिए दोनों स्थितियों में ठहराव आया। ताश खेलने वालों के खेल में व्यतिक्रम आया। जिनकी पीठ पी.पी. की तरफ थी, उन्होंने पीछे मुड़कर उसकी तरफ देखा। पी.पी. नया बछेड़ा था, यह समझने में उन्हें देर नहीं लगी। उनमें से किसी ने एक गंदा-सा जुमला फेंका। वे ठठाकर हंस पड़े। पी.पी. का चेहरा शर्म से लाल हो गया। वह घबराकर बरामदे में एक खंभे का सहारा लेकर इस तरह बैठ गया कि ताश खेलने वालों की तरफ उसकी पीठ हो गयी।
खंभे से शरीर टिकाये पी.पी. न जाने कितनी देर तक बैठा रहा। उसका पूरा शरीर पके फोड़े की तरह था। जो हिस्सा जमीन पर खंभे के साथ अधिक देर तक सटा रहता, वही दर्द की उन्मत्त तरंगें उत्पन्न करने लगता। किशोर पी.पी. कराहते-कराहते रोने लगता। अगल-बगल बैठे लोगों की निगाहों में हास्यास्पद होने के भय से वह चुप होता और मुद्रा बदलकर दर्द से मुक्ति पाने का प्रयास करता। थोड़ी देर में फिर पुरानी स्थिति आ जाती।
अपने दर्द के आगे पी.पी. को इस समय पूरा ब्रह्मांड क्षुद्र लग रहा था। थोड़ी दूरी पर ताश खेलते लोग या बगल के कमरे में बैठे कंपाउंडर और उसके साथी या सामने क्यारियों में बेखबर काम करते हुए कैदी उसे निकृष्ट और अधम प्राणी लग रहे थे जो उसकी तकलीफ से पूरी तरह तटस्थ होकर अपनी-अपनी गतिविधियों में लिप्त थे। बीच-बीच में उनके ठहाके या जोर-जोर से बोलने की आवाजें सुनाई देतीं तो उसे अपने दर्द के और सघन होने की अनुभूति होती। बार-बार उसका मन करता कि हंसने-बोलने वालों का मुंह नोच डाले, और कुछ न हो तो पास में पड़ी गिट्टियों से मार-मार कर उनका सिर फोड़ डाले। यह तो उसे बहुत बाद में पता चला कि जेल में उसके जैसे दर्द में डूबे लोगों का आगमन इतना रूटीन है कि वहाँ की जिंदगी में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
पी.पी. को इस समय मरहम से ज्यादा सहानुभूति की जरूरत थी। अगर कोई जरा भी देर उसके पास बैठ जाता और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसकी चोटों के बारे में पूछता तो निश्चित था कि किशोर पी.पी. फूट-फूटकर रो पड़ता और यह भी निश्चित था कि आंसुओं के साथ उसके अंतर्मन की वह कठोरता भी पिघलकर बह निकलती जो धीरे-धीरे परिवेश की उपेक्षा से उसके अंदर उत्पन्न हो रही थी। कोई नहीं आया उसके साथ सहानुभूति प्रकट करने और वह रात भर में ही गंवई-गांव के खिलंदड़े किशोर से, जिसके लिए अपराध क्रूर अमानवीय कर्म से अधिक रूमानी औत्सुक्य और सनसनीखेज मजे से भरा कौतुक था, एक कठोर पत्थर-दिल इंसान में तब्दील हो गया।
अस्पताल में उसकी कच्ची भर्ती की गयी थी और यह निश्चित था कि कल सुबह डॉक्टर के आने तक उसे कोई दवा नहीं मिलनी थी। अंधेरा होने के समय खाना बंटा। इस समय तक उसे तेज भूख लग आयी थी और दर्द के साथ-साथ उसकी भूख से ऐंठती अंतड़ियां भी उसे व्याकुल कर रही थीं। अभी तक उसे कोई बर्तन नहीं दिया गया था। भूख के आगे उसने बर्तनों की परवाह नहीं की। दर्द से थरथराते हाथों की टूटी उंगलियों से अजीब तरह का दोना बनाते हुए उसने रोटियां उसमें रोप लीं और उनके ऊपर दाल गिरवा ली। उसके ऊपर सब्जी डालने का कोई जरिया नहीं था इसलिए परोसने वाले अंदर बैरक में परोसने चले गये। विभिन्न अंगों में लगी चोटों और दर्द के बीच ऐंठते हुए शरीर को भिन्न-भिन्न प्रकार का आकार देते हुए उसने जिस तरह मुंह-हाथ के दोने में झुका-झुका कर खाना खाया उसे अगर स्वयं ही वह कुछ दूर खड़ा होकर स्वस्थ किशोर के रूप में देख पाया होता तो उसके मुंह से एक ही शब्द घृणा के साथ निकलता, 'जानवर!'
दरअसल यह उसके पशु बनने की ही शुरुआत थी। कम उम्र में जेल आने से यह प्रक्रिया जल्दी शुरू हो गयी।
रात में उसे भी अस्पताल की बैरक में बंद कर दिया गया। कंपाउंडर ने एक फटा-सा कंबल उसे दे दिया था जिसे लेकर वह बैरक में अपने लिए जगह तलाशने लगा।
अस्पताल की बैरक एक लंबी-सी इमारत थी। इसमें दोनों तरफ पत्थर के तख्त बने थे। बीच में एक गलियारा छूटा था। इन तख्तों पर कंबल बिछाकर कैदी लेटे थे। बैरक के एक किनारे नल लगा था जिसमें से लगातार पानी गिर रहा था। उसके इर्द-गिर्द भी पानी पीने वालों और जूठे बर्तन धोने वालों की भीड़ थी। पी.पी. ने बैरक में खड़े होकर अपने लिए खाली तख्त की तलाश की। सभी तख्तों पर बिस्तर या बर्तन जैसे सामान पड़े थे, सिर्फ कोने में एक तख्त उसे खाली-सा दिखाई दिया। वह उसी तरफ बढ़ चला।
'मादर… ! देख नहीं रहा है हमारा सामान रखा हुआ है?'
पी.पी. ने आहत और कातर नजरों से देखा। खाना खाते हुए लोगों में से एक ने घूरकर देखा और फिर से ललकारा, 'अबे, यहां क्यों मरने चला आया? भाग यहां से! अपना कंबल उठा और कहीं और रख।'
अपमान का दंश चोटों की पीड़ा से अधिक था लेकिन पुलिस की हिरासत में आने से लेकर जेल के इस मरीज वार्ड तक पहुंचने तक पी.पी. का मनोबल इतना टूट चुका था कि उसके लिए किसी तरह का प्रतिरोध संभव नहीं रह गया था। उसने अपना कंबल उठा लिया और पूरी बैरक की उपहास और उपेक्षा-भरी निगाहें अपने ऊपर महसूस करता हुआ डबडबायी आंखों से बैरक में जगह तलाशने लगा। वह जानता था कि पूरी बैरक में एक भी तख्त खाली नहीं है, फिर भी अपमान और उपेक्षा की मार से टूटा हुआ वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे, इसलिए अपने को व्यस्त दिखाता हुआ वह वैसे ही निरुद्देश्य निगाहें चारों तरफ दौड़ाता रहा।
'आ जा रे छोरे! इधर आ जा!' हॉल के एक कोने से आवाज आयी।
दूसरे किनारे से कोई उसे पुकार रहा था। उसे लगा, जैसे बहुत बड़ा संबल मिल गया हो। वह घिसटते शरीर से उधर बढ़ा। हॉल में बंद कैदियों के लिए यह बहुत साधारण-सी रोजमर्रा की घटना थी और वे फिर अपने खाना खाने या दूसरे कामों में व्यस्त हो गये थे, पर पी.पी. को उनके बीच के गलियारे से गुजरते हुए लगातार यह लग रहा था कि सबकी निगाहें उसी पर टिकी हैं और सभी उसका मजाक उड़ा रहे हैं। दर्द से ज्यादा इस एहसास से उसकी चाल लड़खड़ाने लगती।
जिसने पी.पी. को आवाज दी थी, वह एक अधेड़ उम्र का खिचड़ी बालों वाला कमजोर-सा आदमी था। बड़े-बड़े रूखे बालों और हफ्तों की बढ़ी दाढ़ी ने पिचके गालों वाले उस कैदी को किसी गंभीर मर्ज का मरीज घोषित कर रखा था। साधारण स्थिति में उसे देखकर पी.पी. को वितृष्णा होती लेकिन इस समय तो वह उसे किसी देवदूत की तरह लग रहा था।
'यहां लगा ले अपना बिस्तर।' उसने अपने दो तख्तों के बीच की खाली जगह की तरफ इशारा किया।
पी.पी. ने अपना कंबल वहां बिछा दिया और कराहते हुए उस पर बैठ गया।
'साले अस्पताल में आ जाते हैं मटरगश्ती करने। रोज दारू पियेंगे और रात भर लड़ेंगे-झगड़ेंगे।' उसका मददगार बड़बड़ा रहा था।
पी.पी. ने ध्यान से उन लोगों की तरफ देखा। जब वह उनके पास वाले तख्त पर कब्जा लेने गया था तो उसे बैरक की मद्धिम रोशनी और अपनी घबराहट में उसने यह ध्यान ही नहीं दिया था कि उन लोगों के पास वाली तख्त पर जो गिलासें रखी थीं, उनमें दारू भरी थी। उनका खाना भी दूसरों से अलग था।
यह उसे बाद के दिनों में पता चला कि अस्पताल की इस बैरक में सिर्फ बीमार नहीं आते थे। यह कहना ज्यादा उचित था कि उनमें भर्ती लोगों में से ज्यादातर बीमार नहीं थे। यहां पर जो कैदी थे उनमें से कुछ तो राजनीति और पैसे से मजबूत थे, कुछ इतने बड़े अपराधी थे जिन्हें जेल के अधिकारी जेल में घुसते ही अस्पताल ले आते थे और कुछ दूसरे कारणों से डॉक्टर को मिलाकर इस बैरक में पहुंच गये थे। यहां आने के बाद भी उनकी हैसियत उनके काम आती थी। दूध, मक्खन, फल या मांस उन्हें इसी हैसियत के मुताबिक मिलता था। जो लोग बैठे शराब पी रहे थे और जिनके लिए बाहर के सबसे अच्छे होटल से तंदूरी मुर्गे मंगाये गये, उनके बारे में पूरा पता पी.पी. को दूसरे दिन चला।
'बहनचो... इनके लिए सारे ऐश हैं। हमें दवा भी पानी मिलेगी।' वह इतनी धीमी आवाज में बड़बड़ा रहा था कि सिर्फ पी.पी. सुन पा रहा था।
'अभी साले झगड़ना शुरू करेंगे। रात भर शोर होगा।'
सचमुच रात भर शोर हुआ, लेकिन पी.पी. दर्द के समंदर में एक बार नींद के साथ उतरा तो फिर डूबता चला गया।
दूसरे दिन पी.पी. की तकलीफों का निवारण हो गया। सुबह डॉक्टर को दिखाकर उसने दवाएं पायीं और धूप में जमीन पर लेट गया। कुछ तो दवाओं का असर था और कुछ धूप की गर्मी का, उसका दर्द कुछ कम हो गया। डॉक्टर ने उंगलियों के एक्स-रे की बात कही थी और दूसरे दिन शहर अस्पताल भेजने का तय हुआ था। खाना भी उसने पहले दिन के मुकाबले बेहतर ढंग से खाया। उसे जेल से बर्तन मिल गये थे। दिन भर जमीन पर लेटे-लेटे वह अस्पताल में भरती कैदियों को देखता रहा। कल जो लोग ताश खेल रहे थे, वे आज भी दिन भर ताश खेलते रहे। ये वही लोग थे जिन्होंने उसे रात अपमानित किया था और शराब के साथ मुर्गा खाया था।
बैरक में बंद साधारण मरीजों को बैरक के चारों तरफ लगी घास या फूल-पत्तों को ठीक करने का काम सौंप दिया गया था, जबकि विशिष्ट मरीज आजादी के साथ घूम रहे थे, ताश खेल रहे थे या इधर-उधर अलसाये लेटे थे।
शाम को जब कैदियों की खेप आयी तो पी.पी. ने आश्चर्यमिश्रित हर्ष के साथ देखा कि अस्पताल में जयकिशन दाखिल हो रहा था।
पी.पी. को ऐसा लगा जैसे किसी कठोर मुश्किल दुनिया में अचानक कोई सहृदय अवलंब मिल गया हो।
'तुझे सालों ने बहुत मारा?'
पी.पी. को जयकिशन की आवाज में छिपी शरारत बुरी लगी।
'होता है... शुरू-शुरू में ऐसा होता है। मैं तो इसीलिए आज कचहरी में हाजिर हो गया।'
'तुझे मार नहीं पड़ी?'
'मुझे कौन मारेगा बे!' जयकिशन ने ऐंठते हुए कहा, 'तुझे धीरे-धीरे सब कुछ बता दूंगा। जब गिरफ्तारी से बचना मुमकिन न हो तो हमेशा अदालत में हाजिर हो जाना चाहिए। पुलिस के हाथ पड़ेगा तो पिटाई होगी ही।' वह उसे छोड़कर कंपाउंडर के कमरे में चला गया।
जयकिशन पहले कई बार जेल आ चुका था इसलिए उसके पूरे व्यवहार में एक तरह की बेफिक्री-सी थी। उसे जेल के अधिकारी जानते भी थे, इसीलिए उसे बिना किसी चोट के जेल के अस्पताल में ले आया गया था। अस्पताल के वार्डर और कंपाउंडर का व्यवहार भी उसके साथ बदला हुआ था। कल उन्होंने पी.पी. के साथ जिस तरह रूखा व्यवहार किया था उसका जयकिशन के साथ किये जाने वाले व्यवहार में कहीं अता-पता नहीं था। जयकिशन उनके साथ दोस्ताना ढंग से बातचीत कर रहा था।
बाहर आकर जयकिशन ने चारों तरफ व्यग्र होकर देखा, 'कंपाउंडर साहब कह रहे थे कि ओमी अस्पताल में है।'
'कौन ओमी?' पी.पी. ने पूछा।
ओमी नामक व्यक्ति को ढूंढ़ते हुए जयकिशन अस्पताल की बैरक के अंदर चला गया।
पी.पी. उत्सुकता से बरामदे में खंभे से पीठ टिकाये बैठा रहा। वह जानना चाहता था कि कौन है ओमी जिसे जयकिशन ने अंदर जाते-जाते जेल का असली हाकिम घोषित किया था।
जल्दी ही जयकिशन बाहर निकला, 'आ जा, बॉस अंदर है, वहीं बुला रहा है तुझे।'
पी.पी. उठकर अंदर चला गया। जयकिशन उसे जिस कोने की तरफ लेकर बढ़ा, वह वही हिस्सा था जहां कल रात वह अपमानित हुआ था। जिस व्यक्ति से उसने बॉस कहकर परिचय कराया वह वही व्यक्ति था जिसने कल रात जलील करके पी.पी. को वहाँ से खदेड़ दिया था। पी.पी. ने स्याह चेहरे से 'बॉस' नामक व्यक्ति को देखा।
'ये चिड़ीमार है तेरा दोस्त? अबे कल रात को क्यों नहीं बताया कि तू जयकिशन का दोस्त है?'
जयकिशन ने पी.पी. की तरफ उत्सुक दृष्टि से देखा । पी.पी. अपमानित-सा जमीन पर निगाहें टिकाये खड़ा रहा। वह चाहता था कि कल रात का प्रसंग न उठे और जयकिशन को उसके अपमान का पता न चले।
'खैर, कोई बात नहीं, आज से तू भी अपना यार हुआ। ले आ अपना कंबल।'
उस रात ओमी और उसके साथियों के लिए जो खाना और शराब आयी उसमें पी.पी. को भी हिस्सा मिला।
अगले कुछ दिन जो उसने जेल में काटे, उनमें उसकी सभी तकलीफें समाप्त हो चुकी थीं और वह ठाठ से रहा।
ओमी सचमुच जेल का असली हाकिम था। जेल के सभी वार्डर और पक्के उसके हुक्म पर दौड़ते रहते थे। उसका रहन-सहन देखकर लगता ही नहीं था कि वह जेल में बंद है। सिर्फ जब जेल का बड़ा साहब राउंड पर होता तभी वह अनुशासित अथवा विनम्र दिखता अन्यथा एक उद्दंड सामंत की तरह उसका व्यवहार जेल के दूसरे कैदियों और छोटे कर्मचारियों के साथ होता।
पी.पी. को जेल के अंदर आकर पता चला कि बाहर की दुनिया को जेल के बारे में कितनी कम जानकारी है। यहां आकर उसे पता चला कि ओमवीर उर्फ ओमी जैसे कैदी जेल के भीतर आकर भी बाहरी दुनिया से अपना संपर्क कायम रखते हैं। शहर का अपराध-जगत, जेल में बंद ओमी किस तरह अपने इशारों से परिचालित करता है, इसका पता उसे परिचय के दूसरे दिन ही चल गया।
दूसरे दिन दोपहर को जब वह और जयकिशन अस्पताल के अहाते के एक पेड़ के नीचे धूप से बचते हुए गप लड़ा रहे थे, उन्होंने पुलिस के एक दरोगा के साथ दो लोगों को अहाते के अंदर आते देखा। उनमें से एक पैंतीस-चालीस साल का खूबसूरत इंसान था। खद्दर के कुर्ते-पाजामे में उसकी उद्धत मुखमुद्रा और अकड़ू चाल देखकर कोई भी कह सकता था कि वह कोई महत्वपूर्ण नेता होगा। उसके साथ जो दूसरा व्यक्ति था वह बहुत कीमती सूट पहने हुआ था। उसकी उम्र भी चालीस के ही आसपास लग रही थी, पर खद्दर पहने व्यक्ति की तरह उसका आत्मविश्वास छलका नहीं पड़ रहा था। वह अजीब तरह से रुआंसा और घबराया हुआ लग रहा था। एक कीमती सिगरेट उसकी उंगलियों में फंसी थी। अपनी घबराहट छिपाने के लिए जल्दी-जल्दी वह सिगरेट का कश लेता और जरूरत न होने पर भी उसकी राख झाड़ता। उसकी पांचों उंगलियों में कीमती अंगूठियां थीं और जब वह सिगरेट अपने मुंह की तरफ ले जाता, धूप में अंगूठियां उसकी समृद्धि की शहादत देती हुई चमक उठतीं।
ये लोग जेल में क्यों लाये गये हैं? पी.पी. और जयकिशन दोनों ने उत्सुकता से देखा।
वे तीनों अस्पताल के अहाते के एक कोने में खड़े हो गये। उनके साथ आया जेल का वार्डर अस्पताल की बैरक में चला गया।
जहां पी.पी. और जयकिशन बैठे थे, उसी के सामने थोड़ी दूर पर वे तीनों भी खड़े थे। पी.पी. गौर से उनकी गतिविधियों को देख रहा था। बीच-बीच में नेता और दरोगा थोड़ा अलग हटकर एक-दूसरे से फुसफुसाकर बात करने लगते और तीसरा आदमी अपनी परेशानी छिपाने के लिए और जल्दी-जल्दी सिगरेट पीने लगता। पूरे समूह में वही एक ऐसा प्राणी लगता था जो पहली बार जेल आया था, इसलिए वह अजीब-सी घबराहट और चौकन्नेपन के साथ जेल की इमारतों, कैदियों और वनस्पतियों को देख रहा था।
जल्दी ही उनके साथ आया वार्डर अस्पताल के बाहर निकल आया। उसके साथ ओमी था। ओमी को देखने से लग रहा था कि उसे सोते से जगाया गया है और वह उसे सख्त नागवार लगा है। उन दोनों के पीछे ओमी के और दो-तीन साथी भी निकल आये ।
ओमी के साथी अस्पताल के बरामदे में ही रुक गये और ओमी एक कोने में खड़े तीनों लोगों की तरफ बढ़ा।
पी.पी. को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सब कुछ रहस्यलोक की तरह था। ओमी और दरोगा ने एक-दूसरे का अभिवादन किया। नेतानुमा आदमी ने पूरे दांत निपोरते हुए ओमी से हाथ मिलाया। उसने तीसरे आदमी के बारे में कुछ कहा। ओमी ने तीसरे आदमी की तरफ देखा तो उसने भी लगभग आधा शरीर झुकाते हुए एक व्यापारिक किस्म की विनम्रता से ओमी को नमस्कार किया। फिर दरोगा और ओमी अस्पताल के दूसरे छोर की तरफ चले गये। वे वहीं खड़े होकर देर तक बात करते रहे। उन्होंने नेता को भी हाथ के इशारे से बुला दिया। तीसरा आदमी फिर अकेला हो गया और वह व्यग्रता से नयी सिगरेट जलाने के लिए माचिस की तीलियां रगड़ने लगा। ऐसा लगता था कि ओमी के साथ दरोगा और नेता की बातचीत पर उसका कोई बड़ा हित अटका था और निरंतर उनकी बातचीत का निर्णय जानने को उत्सुक उसकी आंखें आस-पास की चीजों से फिसलती हुई उन्हीं तीनों पर टिक जाती थीं।
'गुरू, कुछ सीरियस मामला है। पता लगाता हूं।' जयकिशन ने कहा और पी.पी. को वहीं छोड़कर अस्पताल के बरामदे में खड़े ओमी के चेलों की तरफ चला गया। वे भी उत्सुकता से ओमी को दूसरों से बातचीत करते देख रहे थे।
पी.पी. के लिए सब कुछ नया और सम्मोहक था। वह लगातार इस घटनाक्रम के एक-एक पात्र के चेहरे पर निगाहें टिकाये उनके भावों को पढ़ने की कोशिश करता रहा। पात्र बीच-बीच में अपनी जगह बदल रहे थे। दरोगा या नेता ओमी के पास से तीसरे व्यक्ति के पास आते, फुसफुसाकर बातें करते और फिर ओमी के पास चले जाते। ऐसा लगता था कि ओमी और इस व्यक्ति के बीच किसी मसले का फैसला होना है और शर्तें तय नहीं हो पा रही हैं।
'ओमी और यह आदमी सीधे बात क्यों नहीं करते... ' पी.पी. ने सोचा। उसकी इस शंका का समाधान तभी हुआ जब जयकिशन फिर उसके पास लौट आया।
पी.पी. ने उत्सुकता से जयकिशन की तरफ देखा। लेकिन वह गंभीर बना बैठा रहा। जाहिर था कि वह पी.पी. की उत्सुकता का मजा ले रहा था और एक बड़ा रहस्य जानने के बड़प्पन का मारा उसका चेहरा किसी गुरु-गंभीर चिंता में डूबा हुआ-सा लग रहा था।
'बता दे मेरे बाप! क्यों सता रहा है… ' पी.पी. ने अधीरता से पूछा।
जयकिशन कुटिलता से मुस्कराया, 'तू मन में तो कुछ रखता नहीं, ओमी बाद में मुझे खा जायेगा।'
'किसी से नहीं कहूंगा। आज तक कभी मैंने कोई भेद खोला हो तो बता दे... ।' पी.पी. को एक-एक पल भारी लग रहा था।
थोड़ी देर मजा लेने के बाद जयकिशन खुल गया। उसके लिए भी चुप रहना उतना ही मुश्किल था।
'ये जो सूटेड-बूटेड देख रहा है न, यह मालदार आसामी है। इसके दर्जनों भट्टे हैं, लोहे की मिल है और न जाने क्या-क्या है। शहर में इसकी कोठी देख आ कभी, आंखें खुल जायेंगी। इसका बेटा परसों स्कूल गया तो लौटा नहीं। एक चिठ्ठी आ गयी कि पचास लाख पहुंचा दो तो जिंदा मिलेगा, नहीं तो लाश ले जाओ। वही चक्कर है।'
'पर इसमें ओमी क्या करेगा? ओमी तो कई दिन से जेल में बंद है! उससे क्या मतलब?'
'तू अभी बच्चा है।' जयकिशन मुस्काराया, 'ओमी अगर कुछ नहीं कर सकता तो ये लोग यहां क्यों आये हैं?'
पी.पी. भौचक्का होकर सुन रहा था। अपराध की एक नयी, समर्थ और अपरिचित दुनिया उसके सामने उद्घाटित हो रही थी।
'अबे इस शहर में जो कुछ होता है, अपने बॉस को सब पता रहता है। अगर उसके आदमियों ने नहीं किया तब भी जिसने किया उसका इसे पता चल जायेगा। फिर कोई इससे बाहर है क्या? तुझे धीरे-धीरे सब पता चल जायेगा।'
सचमुच पी.पी. को धीरे-धीरे सब पता चला।
थोड़ी देर बाद जब इस नाटक के तीनों बाहरी पात्र ओमी को अभिवादन करके वापस गये, उसे पता चल गया कि सेठ का बेटा दूसरे दिन सुबह तक उसके पास पहुंच जायेगा। सेठ ने जाते समय जिस तरह ओमी का पैर छुआ, उससे यह भी पता चल गया कि सेठ सस्ते में छूट गया। निश्चित रकम का तो पता नहीं चला, पर यह मालूम हुआ कि बीस लाख से कुछ ज्यादा की राशि सेठ आज रात नेता के हवाले कर देगा। इस तरह की बहुत-सी चीजों का पता पी.पी. को अगले कुछ दिनों में होता रहा।
अकसर दिन में ओमी से मिलने अलग-अलग किस्म के लोग आते। जितनी देर वे ओमी से अलग किसी कोने में बात करते, अधिक जानने के बड़प्पन से भरा जयकिशन उसे नयी-नयी बातें बताता रहता :
'ये जो बंद गले का कोट पहने बॉस से बात कर रहा है, शहर कोतवाल है। कोई बड़ी वारदात हुई है इसके थाने में। अफसरों ने डंडा किया होगा तो भागा आया है बॉस से मदद मांगने। बॉस का पुराना यार है।'
या
'ये जो सफेद खादी का कुर्ता-पाजामा पहने आ रहा है, इसे तू नहीं पहचानता? अबे बिल्कुल गधा है तू! अरे ये चौधरी जगतपाल है। एम.एल.ए. है - एम.एल.ए.। अपने बॉस की वजह से एम.एल.ए. बना है। उसी के घर से रोज मुर्गा बनकर आता है।'
या
'इसे पूछ रहा है? ये सेठ तो अपने बॉस का सगा है, बाजार भर का टैक्स वसूल कर दे जाता है। इस तरह मुंह बाये देख रहा है? टैक्स नहीं जानता? कभी गुंडा-टैक्स का नाम सुना है? नहीं सुना... सुन लेगा। बाजार के सभी बनिये बॉस को टैक्स देते हैं। अखबार तू पढ़ता नहीं। अब तो अखबार में भी छपता है - गुंडा टैक्स ... रंगदारी टैक्स। धीरे-धीरे समझ जायेगा।'
या
'ये जो बॉस का पैर छू रहा है बार-बार... एक नंबर का हरामी है। बॉस ने इसका मकान खाली कराया था। बीस साल से एक किरायेदार इससे मुकदमा लड़ रहा था। कोर्ट-कचहरी में तो यही होता है। बीस साल से मुकदमा चल रहा है। एक अदालत से जीतो तो दूसरी में अपील, दूसरी में जीतो तो फिर पहली में नया मामला। अंत में बॉस की शरण में आया। बॉस ने किरायेदार को सामान सहित सड़क पर फेंक दिया। इससे तीन लाख का सौदा हुआ था। मकान खाली होने के बाद इधर-उधर करने लगा। इस बीच बॉस जेल आ गया तो और शेर हो गया। लगता है, बॉस ने बाहर किसी से ... में डंडा करवाया है तो फिर भाग आया है।'
इसी तरह की तमाम चीजों की जानकारियां उसे ओमी के बहाने अपराध-जगत के बारे में होती गयीं। ये जानकारियां उसके जीवन भर काम आने वाली थीं।
ओेमी ने भी संभवतः उसके अंदर छिपी हुई प्रतिभा को पहचान लिया था और इसीलिए धीरे-धीरे उसे जयकिशन की आवश्यकता खत्म होती गयी और वह खुद ही ओमी के करीब आता गया। जेल के अंदर उसकी तकलीफें भी खत्म हो गयीं और वह अच्छी दवा-दारू और लजीज खाने के साथ स्वास्थ्य-लाभ करने लगा। टूटे हुए हाथों-पैरों की वजह से चलने में वह लंगड़ाता जरूर था और उसे तकलीफ भी होती, पर अब नियमित रूप से उसे डॉक्टर देखता और दवा देता।
ओमवीर उर्फ ओमी से जो संबंध उसने जेल के अपने सत्ताईस दिनों के पहले प्रवास के दौरान बनाये, उसने उसके जीवन के बाद के वर्षों का स्वरूप काफी हद तक निर्धारित किया।