किस्सा लोकतंत्र / अध्याय 3 / विभूति नारायण राय
पी.पी. के बाप और चाचा लोगों ने गिरफ्तारी के बाद शुरू के दो-तीन दिन तो उसकी सुध ली नहीं, लेकिन बाद में उसकी मां के रोने-धोने और रिश्तेदारों और पड़ोसियों के तानों से वे सक्रिय हुए। खाता-पीता घर था इसलिए उनके लिए पांच-छह हजार रुपया खर्च करना कोई मुश्किल काम नहीं था पर पी.पी. की जमानत में इससे अधिक खर्च होना था। उन्होंने अपनी एक दुधारू भैंस बेची और कुछ रुपया गांव से कर्ज लिया और थाने से कचहरी तक की सीढ़ियां फलांगते हुए सत्ताईसवें दिन उसकी जमानत करा डाली।
जेल उनके जिले में नहीं था और यहां से साठ किलोमीटर दूर मेरठ जेल में कैदियों को ले जाकर रखा जाता था। पी.पी. का बाप और चाचा रिहाई का आदेश लेकर जेल के दरवाजे पर पहुंचे तब शाम गहरा गयी थी और हल्का-हल्का अंधेरा छाने लगा था। रिहाई का समय समाप्त हो चुका था। पर वापस जाने के स्थान पर फिर से प्रयास करने का उन्होंने इरादा किया। संतरी से लेकर जेल सुपरिंटेंडेंट तक पी.पी. का चाचा दौड़ता रहा। उसका बाप चुपचाप जेल के बाहर एक नीम के पेड़ के नीचे बैठ गया। थकान और वितृष्णा से वह खामोश उदास शाम को चुपचाप झरते देखता रहा। वह अधेड़ उम्र का, मेहनत से गढ़े शरीर वाला, छह फुटा खुशमिजाज किसान था। लेकिन इस समय उसके भीतर पसरे हुए दुःख ने उसे उदास बना दिया था। उसे मौसम से लेकर बाहर के पूरे माहौल तक सब कुछ उदास-उदास- सा लग रहा था।
जेल की दुनिया उसके लिए कोई बहुत अपरिचित नहीं थी। वह खुद भी अवैध शराब बनाने के जुर्म में आधा दर्जन से अधिक बार जेल जा चुका था। उसके गांव और आसपास के इलाकों में मारपीट और कत्ल बहुत साधारण घटनाएं थीं और अकसर परिचित दुनिया में से कोई जेल जाता रहता। पर पी.पी. की कद-काठी और उसके स्वभाव के दु:साहस ने उसे अंदर से डरा दिया था। दारू के धंधे और खादर की जिंदगी की कठिनाई की वजह से अपने बेटे की दबंगई पर उसे शुरू में तो खुशी हुई पर बाद में जैसे-जैसे उसकी हरकतें बढ़ती गयीं वह धीरे-धीरे दुश्चिंताओं से घिरता गया।
खादर में उसने देखा था कि किस तरह मां-बाप दूसरों की जमीनें कब्जा करने, दारू के धंधे के पैसों की वसूली, दूसरों के जानवर चुराने या अपने जानवरों की हिफाजत करने के लिए अपने लड़कों को शरीर बनाने के लिए प्रेरित करते और छोटी-मोटी मार-पीट करने पर प्रोत्साहित करते। जिसके घर में जितने सरहंग मुस्टंडे होते, वह घर उतना ही सुरक्षित और खुशहाल होता। लेकिन साथ ही उसने यह भी देखा कि जो लड़के अपनी उम्र के साथ घर-गिरस्ती या काम-धंधे के चक्कर में नहीं पड़े और मार-धाड़ में ही लिपटे रहे, उनमें बहुत कम जवानी की दहलीज लांघ पाये। हर साल गांव से दो-तीन जवान लाशें निकलतीं। इनमें से कुछ दादागीरी की रंजिश में मारे जाते और कुछ पुलिस मुठभेड़ में।
इधर पी.पी. जितनी तेजी के साथ अपराध की दुनिया में कदम बढ़ा रहा था, उसे देखकर बाप को डर लगने लगा था। हालांकि अभी उसकी उम्र ज्यादा नहीं थी लेकिन उसकी कद-काठी और निकलती हुई मूंछें उसे किसी युवक की तरह पेश करने लगी थीं। कभी-कभी खाट पर नंगे बदन उसे सोया देखकर बाप के मन में आता कि उसके बदन पर हाथ फेर उसके कल्याण की कामना करे लेकिन कठोरता का जो आवरण उसने उसके बचपन से अपने इर्द-गिर्द बना रखा था, वह उसे हास्यास्पद होने के डर से ऐसा करने से रोकता।
पी.पी. जब राहजनी के इस मामले में फंसा तब तक उसकी मार-पीट और छोटी-मोटी उठाईगीरी के तमाम मामलों की सूचनाएं बाप को मिलती रहती थीं, लेकिन उसके मन में लगातार यह सदिच्छा बनी हुई थी कि धीरे-धीरे जवानी का जोश उतरता जायेगा और वह घर-गृहस्थी के कामों में फंसता जायेगा। पर अब उसे भय लगने लगा था। एक तो पूरी तरह से जवान हुए बिना पी.पी. ने अपनी किशोरावस्था में ही लंबे हाथ मारने शुरू कर दिये थे और दूसरे, उसके संग-साथ जो चेहरे दिखाई देते थे, उन्हें देखने पर ऐसा लगता था कि वे पेशेवर किस्म के अपराधी हैं। पी.पी. के पकड़े जाने पर उसने गुस्से और क्षोभ के मारे तय किया था कि वह उसकी जमानत जल्दी कराने का कोई प्रयास नहीं करेगा और उसे कुछ दिन जेल में सड़ने देगा, लेकिन ज्यादा दिन तक उसका हठ नहीं चला। परिवार और समाज के दबावों के चलते उसे भाग-दौड़ शुरू करनी ही पड़ी और आज वह और उसका भाई जमानत के कागजात लेकर जेल पहुंच गये थे।
जमानत के कागज लेकर वे जब जेल पहुंचे, रिहाई का वक्त खत्म हो चुका था। संतरी ने उन्हें देखकर जिस तरह से सिर हिलाया, उससे पी.पी. का बाप निराश हो गया। लेकिन पी.पी. का चाचा, जो उससे दस साल से अधिक छोटा था, ज्यादा समझदार और दुनियादारी से भरपूर था। उसने संतरी से लेकर सुपरिंटेंडेट तक न जाने क्या-क्या मंत्र फूंका कि अंत में उनका परवाना ले लिया गया। थोड़ी देर में वह भी अपने भाई के पास नीम के पेड़ के नीचे आकर बैठ गया और दोनों भाई चुपचाप एकटक जेल के फाटक की तरफ ताकते बैठे रहे और पी.पी. की रिहाई का इंतजार करते रहे।
जेल के बड़े फाटक में एक छोटा-सा फाटक किसी बड़े कपड़े पर लगे पैबंद की तरह जुडा था। वह बीच-बीच में खुलता था और कोई बाहर निकलता और फिर फाटक बंद हो जाता था। कई बार निराश होने के बाद अंत में उनकी आंखें चमकीं। छोटे गेट से पी.पी. निकल रहा था। पर उनकी आंखों की चमक बड़ी अस्थायी-सी रही। पी.पी. बुरी तरह से लड़खड़ा रहा था और हर बार जमीन पर पैर रखते ही उसका चेहरा दर्द से भिंच जाता और अजीब तरह से विकृत होने लगता था। वह एक खूबसूरत ऊंचे कद का किशोरावस्था की दहलीज पर खड़ा लड़का था, लेकिन जेल से निकलते समय झुके कंधों और तनी मांसपेशियों वाले अधेड़ की तरह लग रहा था।
बाप ने अपनी जगह से उठने की कोशिश की लेकिन अचकचाकर फिर बैठ गया। चाचा उठकर गया और सहारा देकर पी.पी. को नीम के पेड़ तक ले आया। दोनों जानते थे कि उसकी यह गत कैसे बनी है इसलिए किसी ने कुछ नहीं पूछा। बाप ने जरूर बार-बार गला खंखारकर कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन हर बार आवाज साथ छोड़ जाती।
पी.पी. भी कुछ नहीं बोला। उसके अंदर इस कदर गुस्सा और क्षोभ था कि वह सिर्फ शून्य में ताकता रहा। जेल ने उसे किसी तरह से सुधारा नहीं था, बल्कि अपराध के प्रति उसकी आस्था को और ज्यादा मजबूत बनाया था। अगर उसके अंदर झांकना किसी के लिए संभव होता तो वह देखता कि पी.पी. पहले से ज्यादा दृढ़ और निर्दय इरादों के साथ जेल के बाहर खड़ा था।
चाचा ने दो-चार औपचारिक वाक्य पी.पी. की दुर्गति और पुलिस की क्रूरता तथा जेल के खाने इत्यादि के बारे में कहे। बाप भी अस्फुट स्वर में कुछ बुदबुदाता रहा। पी.पी. सबसे निर्विकार चुपचाप खड़ा खाली और खोयी आंखों से सामने की तरफ ताकता रहा। चाचा और बाप की सहानुभूति थोड़ी देर में उसके लिए असह्य हो गयी। उसने दांत पीसकर अपने बाप को झिड़का, 'अब चलोगे भी, या यहीं बैठे रहोगे?'
दोनों बुजुर्ग घबराकर खड़े हो गये। जेल से छूटते ही उसमें एक गुणात्मक परिवर्तन हो गया था। अपने बाप के सामने भीगी बिल्ली बना रहने वाला पी.पी. एकदम से बड़ा हो गया था। अब वह बाप को डांट सकता था।
आगे-आगे दर्द का मुकाबला करने के लिए दांत पीसते हुए पी.पी. और उसके पीछे सिर झुकाये बाप और चाचा - तीनों उठकर जेल के सामने सड़क तक आये। थोड़ी देर तक खड़े रहने के बाद उन्हें एक रिक्शा मिला जिस पर वे बस स्टैंड के लिए बैठ गये।
जेल की पहली यात्रा पी.पी. के लिए अनुभव की दुनिया में इतना कुछ जोड़ गयी कि उसकी शेष जिंदगी इन्हीं अनुभवों के आधार पर निर्धारित होने वाली थी।
घर पहुंचने पर थोड़ी देर तक घर की औरतों - मां, चाचियों, बहनों - के रोने-धोने का सिलसिला चलता रहा। पी.पी. ऊब और झल्लाहट के साथ इसे झेलता रहा। उसके धैर्य का बांध तब टूटा जब एक औरत हल्दी पीस लाई और उसने उसके बदन के घावों पर यह लेप लगाने की कोशिश की।
इतनी जोर से उसने औरतों को झिड़का कि वे सहम कर चुप हो गयीं। हल्दी की कटोरी हाथ में लिए उसकी बहन का मुंह उतर गया। उसकी मां ने आँख के इशारे से सभी औरतों को बाहर जाने के लिए कहा और खुद भी बाहर निकल गयी।
इस दिन के बाद घर में सभी ने पी.पी. को बड़ा मान लिया और उसे अनुशासित करने का इरादा छोड़ दिया। पी.पी. को भी पढ़ने या घर के किसी काम-काज में पड़ने के चक्कर से मुक्ति मिल गयी। अब सिर्फ वह था, उसके दोस्त-यार थे और थी अपराध की एक सम्मोहक और विस्तृत रूप से फैली हुई दुनिया।
तीसरे दिन ओमवीर मिलने आया। हल्का-हल्का धुंधलका छाने लगा था और शाम से हल्की-सी ठंड पड़ने लगी थी कि पी.पी. को बाहर से चाचा की आवाज सुनाई दी।
'देख तो प्रेम! तुझे कौन ढूंढ़ने आया है।'
पी.पी. ने बाहर निकलकर देखा कि एक शॉल से कंधा, सिर और चेहरे का एक-तिहाई भाग ढंके बरामदे के बाहर ढोरों के पास कोई खड़ा था। बिना कुछ बोले उस नीम अंधरे में भी वह पहचान गया। चुपचाप वह अंधरे में खड़ी आकृति की तरफ बढ़ा। चाचा को कुछ संदेह हुआ। उसने पूछा, 'कौन है... किसके पास जा रहा है तू?' पी.पी. ने कोई जवाब नहीं दिया।
चाचा ने फिर पूछा। पी.पी. ने बिना पीछे मुड़कर देखे स्वर को भींचते हुए डपटकर जवाब दिया, 'चुपचाप बैठा रह। बात-बात में टांग अड़ाता है।'
शॉल में लिपटे ओमवीर के पास पहुंचकर वह रुका नहीं। चुपचाप आगे बढ़ता गया। ओमवीर भी उसके पीछे हो लिया। दोनों थोड़ी दूर चलते रहे। लगभग एक फर्लांग दूर पी.पी. के परिवार का ट्यूबवेल था। वहां पहुंचकर वे सीढ़ियों पर बैठ गये।
'कब छूटा तू?'
'छूटा नहीं, भागकर आया हूं।'
ट्यूबवेल पर बाहर एक बल्ब जल रहा था। उसकी टिमटिमाती रोशनी में पी.पी. ने अचकचाकर ओमवीर की तरफ देखा। उसकी छ्ठी इंद्रिय बता रही थी कि अगर ओमवीर भाग कर आया था तो जल्दी ही मुसीबत उसके ऊपर आने वाली थी।
'कैसे भागा? जेल से फांदकर...?'
'जेल से नहीं, कचहरी से। आज पेशी थी, वहीं से भागा हूं।'
कचहरी से भागकर सीधा यहां आया है तो मतलब साफ था कि मुसीबत जल्दी ही आने वाली थी।
'कचहरी से सीधा आया तो हथकड़ी कहां गयी?'
'सीधा नहीं आया, रास्तें में हथकड़ी का इंतजाम करता आया हूं।'
'अब?'
ओमवीर समझ गया कि पी.पी. डर रहा है। उसने उसे कस कर एक धौल जमायी, 'अब क्या? डर गया साले। इसी बात पर जेल में डींग हांकता था। डर रहा हो तो मैं चला जाता हूं।'
पी.पी. को बुरा लगा। उसे कायर समझा गया था - इस बात से उसे झल्लाहट हुई।
'डरने की क्या बात है, ड़रा नहीं हूं मैं। मैं तो तेरे लिए सोच रहा था कि तुझे कुछ दिनों के लिए कहीं रखना होगा। कहां रखा जाए?'
थोड़ी देर में तय हुआ कि ओमवीर को रात में ट्यूबवेल पर रोका जाय। दूसरे दिन क्या व्यवस्था होगी, इस पर पी.पी. का दिमाग काम नहीं कर रहा था, लेकिन दूसरे दिन की समस्या पर अभी से सिर खपाने की जगह उसे अगले दिन पर टाल देना उसको ज्यादा सुविधाजनक लगा। ट्यूबवेल की छ्त पर एक चारपाई डाल दी गयी। वहाँ से दूर-दूर तक खेतों में से आने वाला कोई भी व्यक्ति दिखाई दे जाता था इसलिए यह जगह सुरक्षित थी। नीचे का बल्ब बुझा दिया गया। दोनों ऊपर बैठ गये।
कुछ देर बाद पी.पी. नीचे उतरा और सावधानी से घर की ओर चला। अभी तक गनीमत थी कि किसी ने उन्हें देखा नहीं था। देखा भी होगा तो किसी को संदेह होने का कोई कारण नहीं था। रात भर वहां रखने के बाद कल ओमवीर की कोई और व्यवस्था की जा सकती थी।
घर पर एक चाचा को छोड़कर और किसी के मन में कोई शंका नहीं थी। चाचा अभी बाहर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। उसने पी.पी. की तरफ प्रश्नवाचक निगाह से देखा। पी.पी. बिना किसी तरह का भाव चेहरे पर लाये मुंह ऊपर उठाये हुए सीधा घर के अंदर घुस गया। चाचा एक बार झिड़का जा चुका था। इसलिए कुछ टोकने की चाह मन में होते हुए भी उसकी हिम्मत नहीं पड़ी।
अंदर औरतें खाना बना रही थीं। पी.पी. एक कमरे में खाट पर लेटा उन्हें देखता रहा और मन ही मन भूमिका बांधता रहा। मां से ओमवीर के लिए खाना निकलवाकर ट्यूबवेल पर ले जाना था। पहली बार ऐसा हो रहा था इसलिए किस तरह बिना किसी प्रतिरोध या हंगामे के मां से पोटली में खाना बंधवा लिया जाय - इसी उधेड़बुन में वह पड़ा था। कोई बहाना न सूझने पर उसने सीधे बात करने को फैसला किया।
'मां, पोटली में एक आदमी का खाना बांध कर दे दे।'
मां को उसकी बात समझ में नहीं आयी। यही समझ आया कि वह खाना मांग रहा है। उसे आश्चर्य हुआ कि रोज कई-कई बार पुकारने पर जो लड़का नहीं आता था, वह आज स्वयं कैसे खाना मांग रहा है!
'आ जा, बैठ जा। खाना तो तैयार ही है।'
'मैंने पोटली में बांधने के लिए कहा है।' उसने अपनी आवाज की झुंझलाहट छिपाने की कोशिश की।
'पोटली में क्यूं? यहां बैठकर नहीं खायेगा?'
'मुझे नहीं खाना। किसी के लिए ले जाना है।' उसकी आवाज विकृत हो गयी। मां ने सहम कर देखा।
'किसके लिए?
'तुझे बहस करने की आदत पड़ी है। किसी के लिए ले जाऊं! जल्दी बांध दे पोटली।'
पी.पी. की आवाज इतनी कर्कश हो गयी थी कि मां के लिए और कुछ पूछना संभव नहीं रहा। दूसरी औरतों ने भी उसे नाराज होते देखा पर कुछ कहने की कोशिश नहीं की। पिछले दिनों उसके स्वभाव में आये परिवर्तन से सभी उससे डरते थे।
मां ने चुपचाप एक कटोरदान में खाना निकाल दिया और उसे एक गंदे-से कपड़े की पोटली में बांध दिया। फिर भी चूंकि यह पहली बार हुआ था कि पी.पी. किसी के लिए इस तरह से खाना बंधवाकर बाहर ले जा रहा था, उसका मन अज्ञात आशंका से भरा हुआ था। पोटली देते हुए भी उसने सहमे स्वर में पूछा :
'कौन है रे? यहीं क्यों नहीं बुला लाता, घर में खा लेगा।'
पी.पी. ने उसके हाथ से पोटली छीन ली और बाहर निकल आया। बाहर वहीं चाचा बैठा था। उसने पोटली छिपाने की कोशिश की लेकिन चाचा की निगाह पड़ गयी। चाचा ने खांस कर सवालिया निगाह से देखा। पी.पी. बिना उसकी परवाह किये तेजी के साथ खेतों की तरफ बढ़ गया।
ओमवीर को खाना खिलाकर जब पी.पी. लौटा तो रात इतनी चढ़ गयी थी कि गाँव में सोता पड़ चुका था। हल्की-हल्की सर्दी पड़ रही थी। लोग घरों के दालानों और बरामदों में सोये पड़े थे। एकाध कुत्ते भौंके लेकिन पी.पी. खामोश अपने घर की तरफ बढ़ता गया। कुत्तों का भौंकना, सर्दी और पी.पी. के शरीर की परिचित गंध के कारण बड़ा साधारण और मरियल-सा था। सोये हुए लोगों में से एक-दो ने अपने मुंह की चादर हटाकर गुजरने वाले को देखा और निष्क्रिय पड़े रहे। अपने घर के बरामदे में पहुंचकर पी.पी. ने चुपचाप खड़े होकर आहट ली। परिवार के दस-बारह मर्द और लड़के एक लाइन से सो रहे थे। बायीं तरफ से तीसरी चारपाई खाली पड़ी थी। वह पी.पी. के लिए थी। पी.पी. ने धीरे से सिरहाने पड़ा बिस्तर बिछाया और बिना कोई आहट किये उस पर लेट गया। चारपाई के बगल मे माँ ने उसका खाना ढंक कर रख दिया था। पी.पी का मन खिन्न था, वह थाली को चारपाई के नीचे सरकाकर सोने की कोशिश करने लगा ।
उत्तेजना और घबराहट के मारे उसे नींद नहीं आ रही थी। आधा सोने आधा जगने की स्थिति में अभी थोड़ी देर और रहता कि कुत्तों के एकदम तेज स्वर में भौंकने, भारी बूटों की आवाजों और माहौल में तेज इंसानी हरकत से पैदा होने वाली हलचल ने उसे झकझोर कर जगा दिया। आशंका और भय ने उसे चारपाई से उठने न दिया। वह लेटे-लेटे अंधेरे में बाहर से आने वाली आकृतियों की प्रतीक्षा करता रहा।
प्रतीक्षा ज्यादा देर तक नहीं चली। भड़भड़ाते हुए दस-बारह आदमियों ने आकर उसका पूरा बरामदा घेर लिया। टार्चों की रोशनियों के वृत्त सभी सोये हुए लोगों के चेहरे पर पड़ने लगे। अपने चेहरे पर रोशनी पड़ते ही पी.पी. ने आंखें मूंद लीं। आंखें मूंदते-मूंदते उसकी समझ में आ गया कि वे पुलिस वाले थे और उन्होंने पूरा बरामदा चारों तरफ से घेर रखा था। सोये हुए लोगों के चेहरों पर रोशनी डालकर वे किसी को पहचानने की कोशिश कर रहे थे। इतना समझने में उसे तनिक भी देर नहीं लगीं कि वे किसे तलाश रहे थे।
'कौन है... क्या चाहिए?' पी.पी. ने अपने बाप की घबरायी हुई आवाज पहचानी।
'चुप बुड्ढे! चुपचाप पड़ा रह!'
धीरे-धीरे सोने वाले उठने लगे थे, लेकिन पुलिस की वर्दी और टार्चों की रोशनी ने जैसे उनकी संज्ञा छीन ली थी। वे चुपचाप बैठे या लेटे रहे। उनकी निष्क्रियता तभी टूटती जब रोशनी का तेज हमला उनकी आंखों पर होता और वे अपने हाथों की आड़ बनाकर उसकी चौंध से बचने का प्रयास करते। ज्यादा देर नहीं लगी और रोशनी का वृत्त बार-बार पी.पी. के चेहरे पर सिमटने लगा। उसने आंख बंद कर सोने का नाटक जारी रखा, लेकिन जल्दी ही यह सिलसिला टूट गया। फिर तीन-चार बलिष्ठ हाथों ने उसे दबोच लिया। उसके दोनों हाथ और पांव दबोच लिये गये। उसने छटपटाकर उठ बैठने की कोशिश की लेकिन उन बलिष्ठ हाथों ने उसे चारपाई से जकड़ दिया था।
उठ बैठने की कोशिश एक सहज मानवीय प्रतिक्रिया मात्र थी, क्योंकि पी.पी. जानता था कि अपने ऊपर झुके इतने सारे चेहरों को परे ढकेलकर उठ बैठना उसके लिए संभव नहीं था। उसके चेहरे और शरीर के दूसरे हिस्सों पर कुछ तमाचों, घूंसों और कुहनियों के रद्दे पड़े और प्रतिरोध छोड़कर यह निष्क्रिय हो गया। फिर शुरू हुई सवालों की बौछार, 'बता साले, कहां छिपा रखा है?'
'किसे?' लेटे-लेटे उसने अपना आत्मविश्वास बनाये रखने का प्रयास करते हुए पूछा।
'किसे? बहन चो… ! अब ये भी हम बताएं। अपनी मां के यार को और किसे, बता कहां छिपाये है?'
'किसको ढूंढ़ रहे हो साहब? पूरा घर तो यहीं लेटा है। देख लो।'
'अबे घर के बच्चे, पिछली पिटाई भूल गया, फिर वही हाथ पड़ेंगे।'
'ओमवीर शाम को यहीं आया था। अब कहां है, बता?'
'ओमवीर? कौन ओमवीर?'
दो-तीन हाथ उसे कस-कस के पड़े।
'साले, बहुत बना चुका। सीधे-सीधे बता, नगले का ओमवीर आया था शाम को, उसे कहां छुपा रखा है?'
हालांकि पहला मौका था ऐसी स्थिति में फंसने का, फिर भी पी.पी. बड़ी सधी एक्टिंग कर रहा था।
'नगले का ओमवीर तो जेल में था। वहां से कब छूटा?'
'छूटा नहीं, आज कचहरी से भाग खड़ा हुआ। अब ज्यादा बनने की कोशिश मत कर, चुपचाप बक डाल।'
लगता था, पुलिस वालों के पास कोई निश्चित सूचना नहीं थी और वे केवल अंदाज से वहां आये थे। इसलिए पी.पी. की भोलेपन की मुद्रा काम आ गयी और थोड़ी-सी पिटाई से उसको छुट्टी मिल गयी। घर के और सदस्यों में सिर्फ एक चाचा को कुछ मालूम था। बाकी सब लोग वैसे भी अनभिज्ञ थे, इसलिए उनमें से कुछ को जब लात-घूंसे या डंडे पड़ते तो उनके चेहरों पर सचमुच आश्चर्य या न जानने का भाव आ जाता। पुलिस वाले थोड़ी देर में निराश हो गये। उन्होंने फर्ज अदायगी के लिए घर की तलाशी ली। दो-दो, एक-एक के जत्थे में वे घर के अलग-अलग कमरों में गये, छत और पिछवाड़ा देखते रहे, जानवरों और भूसे की कोठरियों की तलाशी ली और फिर थक-हार कर बरामदे में पड़ी खाटों पर आड़े-तिरछे बैठ या लेट गये।
भोर होने वाली थी। आसमान के काले कैनवास पर लाल रंग फूटने लगा था। घर का एक सदस्य उठकर गया और एक भैंस दुह लाया। घर की महिलाएं, जो एक कोने में सहमी चुप बैठी थीं, दूध पाकर सक्रिय हुईं। उन्होंने पीतल के बड़े-बड़े गिलास मांजे। दूध गर्म करने के लिए कंडों में आग सुलगायी और दूध गर्म करके बड़े-बड़े गिलासों में उड़ेल दिया। लड़के गर्म-गर्म गिलासों को गंदे कपड़ों से पकड़ कर पुलिस वालों के पास ले आये। दूध देख कर कुछ पुलिस वाले चैतन्य हुए और गिलास पकड़कर दूध पीने लगे। कुछ ने इतने सवेरे बिना मुंह-हाथ धोये दूध पीने में अनिच्छा व्यक्त की, उनके लिए चाय बन गयी। चाय भी क्या थी, दूध और चीनी का शर्बत जिसमें नाम के लिए चाय की पत्ती डाल दी गयी थी।
पुलिस वालों के जाने के बाद पी.पी. को लगा कि वह सस्ते में छूट गया है। पिछली पिटाई की स्मृति जोड़ों के दर्द के साथ आकर रह-रह उसके बदन को सिहराती रहती थी। आज पड़े हाथ पिछली पिटाई के मुकाबले कुछ नहीं थे।
पुलिसवालों के जाने बाद एक दूसरी तरह का हंगामा उठ खड़ा हुआ।
'जे लड़का पूरे खानदान को हथकड़ी लगवायेगा। शाम को मैं पूछ रहा था कि किसको छिपा रहा है, किसके लिए खाना ले जा रहा है, एक बार नहीं बोला। अब पिटवा दिया न अपने बाप-चाचा को। एक दिन हथकड़ी और लगवा देना।'
पी.पी. के बाप ने अचकचाकर देखा। वह शाम के घटनाक्रम से अनभिज्ञ था। खाना देने वाली महिलाओं के भी अब समझ में आया कि खाना किसके लिए गया था।
'शाम को कौन आया था?'
'इसी से पूछो। शाम को किसका खाना लेकर खेतों में गया था।'
'किसका खाना लेकर गया था? किसने खाना दिया था?'
औरतों ने दरवाजे से खिसकना शुरू किया। बूढ़ा किसान ऊंचे स्वर में अपनी बीवी को गाली देने लगा ।
पी.पी. चुपचाप सिर झुकाये चारपाई पर बैठा था। किसी सवाल का जवाब देने की उसे जरूरत नहीं महसूस हो रही थी। वह दूसरी उघेड़बुन में था। हर हाल में ओमवीर को आज ही हटाना पड़ेगा। घर के लोगों का बोलना उसे किसी तरह से प्रभावित नहीं कर रहा था। अचानक अपनी मां के चिल्लाने से उसका ध्यान भंग हुआ। उसका बाप इसी बीच में गाली-गलौज करते-करते लाठी लेकर अपनी बीवी को मारने घर में घुस गया था। दो-एक लाठी उसने जड़ भी दी थी। उसका इरादा बीवी को मारने के बाद पी.पी. को पीटने का था, लेकिन उसका यह इरादा पूरा नहीं हो पाया।
पी.पी. तड़पकर उठा और झपटता हुआ अंदर चला गया। अंदर अपने बचाव के लिए एक अंधरे छोटे-से कमरे में छिपी उसकी मां को बाप लाठी से मारने की कोशिश कर रहा था। चूंकि कमरे की छत नीची थी और उसमें लाठी घुमाने की पूरी जगह नहीं थी, मां को कसकर एक भी लाठी नहीं लग पायी, फिर भी वह आदतन जोर-जोर से चिल्ला रही थी। उसकी चिल्लाहट में पति के लिए भर्त्सना, अपने निर्दोष होने की गुहार और भविष्य में ऐसा न करने का आश्वासन - सब कुछ गड्ड-मड्ड था, इसलिए उसके रोने और चिल्लाने में क्या शब्द छिपे थे, किसी को समझ में नहीं आ रहे थे। वहां उपस्थित औरतों और मर्दों की इसे समझने में दिलचस्पी भी नहीं थी। हर तीसरे-चौथे परिवार की किसी न किसी औरत को उसका पति पीटता था और बाकी सब लोग अपने काम में निर्विकार भाव से लिप्त रहते थे। जब कभी हड्डी-पसली टूटने की नौबत आ जाती या कोई औरत अपनी चीख-पुकार से घर के किसी प्राणी को द्रवित कर देती तभी कोई हस्तक्षेप करता और गाली-गलौज करके पीटनेवाले को छुड़ाता। आज इसमें व्यवधान पड़ा पी.पी. के हस्तक्षेप से जो इस घर के पैमाने से अनावश्यक और समय से पहले हुआ था, लेकिन यह हस्तक्षेप था जोरदार।
पी.पी. ने बाप की तनी हुई लाठी को पीछे से एक हाथ में पकड़ लिया और उसे खींचता हुआ कमरे से बाहर आ गया। लाठी के साथ-साथ बाप भी खिंचता चला आया। बाहर निकलकर उसने लाठी को एक झटके के साथ फेंकना चाहा। उसी झटके के साथ बाप भी लड़खड़ाता हुआ कुछ दूर तक चला गया।
बाप के लिए यह अप्रत्याशित था। यह मान लेना कि अब वह बेटे पर हाथ नहीं उठा सकता, आसान नहीं था। हालांकि पिछले कुछ दिनों से पी.पी. में जो परिवर्तन हुए थे, उन्होंने घर के लगभग सभी सदस्यों को यह एहसास करा दिया था कि पी.पी. अब बड़ा हो गया है, लेकिन बाप के लिए स्थिति इस रूप में आयी कि उसे स्वीकार करने में दिक्कत हुई। वह एक बार संभलकर लाठी तौलते हुए पी.पी. की तरफ बढ़ा। हालांकि उसकी चाल में लड़खड़ाहट और चित्त की दुर्बलता बड़ी स्पष्ट दिखाई पड़ रहीं थी, फिर भी वह अपने चेहरे पर गुस्से और खीज का भाव लाने में सफल हो गया था, पर पी.पी. के ऊपर इन सबका कोई असर नहीं पड़ा। उसने बाप के हवा में तने हाथ को नीचे आने का मौका नहीं दिया।
ऊपर-ऊपर ही उसने लाठी रोक ली और एक झटके के साथ बाप को खाली हाथ बाहर ढकेल दिया। बाप बाहर जाकर एक चारपाई पर बैठ गया और वहीं से बैठे-बैठे उसे गाली देने लगा। बाप के ऊपर हाथ उठाने के लिए अंदर मां ने भी गाली-गलौज शुरू कर दी। पी.पी. ने दांत पीसकर एक बार उसे घुड़की दी और फिर बाहर निकल गया। बाहर बैठे किसी भी व्यक्ति पर उसने ध्यान नहीं दिया और सीधा खेतों में ट्यूबवेल की तरफ बढ़ गया।
ट्यूबवेल की छत पर चारपाई खाली पड़ी थी। लगता था कि सोने वाला उसे छोड़कर कहीं और चला गया था। पी.पी. ने छत पर चढ़कर चारों तरफ देखा। ट्यूबवेल के चारों तरफ ऊंची-ऊंची चरी लगी हुई थी। ऊंचाई से ध्यान से देखने पर पता चला कि लगभग सौ गज उत्तर की तरफ एक चरी के खेत में बीचो-बीच ओमवीर सो रहा था। उसने अपनी लुंगी जमीन पर बिछा ली थी और सिर्फ जांघिये में अपनी लंबाई के बराबर चरी दबाये वह सो रहा था। एक कंकड़ उसके पैर पर पड़ा। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसकी हड़बड़ाहट देखकर पी.पी. हंस पड़ा।
ओमवीर उठकर ट्यूबवेल पर आ गया।
'वहां कैसे पहुंच गया तू?'
'मैंने सोचा, तेरे घर का कोर्ई बता दे और मैं पकड़ा जाऊं, इसलिए रात में उठकर खेतों में सो गया।'
पी.पी. ने उसकी चालाकी को मन ही मन सराहा और बाद की जिंदगी में उसने यही चालाकी अपने व्यक्तित्व का अंग बना कर रखी।
'पुलिस आयी थी। लौट गयी।'
'कब आयी थी?'
'रात आयी थी, अभी लौटी। पूरी रात नहीं सोने दिया।'
'तेरे घर किसी ने नहीं बताया?'
'किसी को पता नहीं था। एक चाचा को पता था पर वो कुछ बोला नहीं। जाने के बाद जरूर उसने सबको बता दिया। बाप ने बहुत हंगामा किया। इसीलिए आया हूं कि अब तुझे कहीं और जाना पड़ेगा।' ओमवीर ज्यादा नहीं रुका। आसन्न खतरे ने उसे चीते की तरह फुर्तीला बना दिया। पंद्रह मिनट के अंदर वह जाने के लिए तैयार हो गया।
'कहां जायेगा?'
'तुझे क्या? निकल ही जाऊंगा।'
'फिर भी।'
ओमवीर चुप रहा। पी.पी. समझ गया कि वह बताना नहीं चाहता।
'कब मिलेगा?'
'शाम को सात बजे तू यहीं आ जाना। इसी ट्यूबवेल पर। यहीं मिलेंगे।'
यहीं मिलने का मतलब था कि ओमवीर कहीं आसपास ही रुकेगा। वह बताना नहीं चाहता था, यह सोचकर पी.पी. को बुरा लगा। पर उसके जाने के बाद उसने अपनी इस भावना पर काबू पा लिया। उसे लगा कि ओमवीर का सोचना सही ही था। अपराध की दुनिया में इसका बहुत महत्व था।
अगले कुछ दिनों तक ओमवीर अलग-अलग समय पर अलग-अलग जगहों पर उससे मिलता रहा। वे लंबी-लंबी बैठकें करते और अगली योजनाएं बनाते रहे। पी.पी. की अपराध की दुनिया की नयी-नयी सच्चाइयों से वाकफियत बढ़ती गयी। जो कुछ जेल में उसने देखा और सीखा था, वह सैद्धांतिक ज्यादा था, अब उसके असली रूप को समझने का मौका आ गया था।
ओमवीर, जिसे अब वह ओमी कहने लगा था, उसे धीरे-धीरे समझाने लगा था कि किस तरह केवल वही अपराधी जो पैसे, जाति या ताकत से कमजोर होते हैं, पुलिस के हाथ पड़ते हैं। जेलें औैर अदालतें सिर्फ उनके लिए ही बनी हैं। जो ताकतवर होते हैं, उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता। उन्हें कामयाबी हासिल करने के लिए सिर्फ दो काम करने थे। एक तो किसी प्रभावशाली राजनैतिक नेता की छत्र-छाया प्राप्त करना और दूसरा इतना पैसा हासिल करना जिससे सब कुछ खरीदा जा सके।
पी.पी. को शुरू-शुरू में ये बातें सम्मोहक तो लगती थीं लेकिन उसे कभी विश्वास नहीं होता था कि ऐसा हो सकता है। ओमी उसे जिस शानो-शौकत और ऐशो-आराम के सब्जबाग दिखाता, वे उसे अच्छे तो लगते लेकिन उनकी सच्चार्ई के बारे में कभी पूरी तरह उसका मन आश्वस्त नहीं होता। उसने अभी तक अपने आस-पास के अपराधियों को देखा था जो आम तौर से जलालत और गुरबत के ही दिन बिताते थे। वे छोटी-मोटी लूटमार करते, कुछ दिन ऐश करते और फिर अभावों की दुनिया में खो जाते। बीच-बीच में पुलिस उनके हाथ-पैर तोड़कर उन्हें महीनों हल्दी-तेल पीने के लिए भेजती रहती थी। पर ओमी के शब्दों में वे सब टुच्चे लोग थे। वह पी.पी. और अपने लिए ऐसी दुनिया तजवीज रहा था जहां बेशुमार दौलत थी और इस दौलत के सहारे हासिल होने वाला सामाजिक सम्मान था।
पी.पी. ने यह दुनिया फिल्मों में तो देखी थी लेकिन वास्तव में ऐसी दुनिया होगी, इसका उसे तब तक विश्वास नहीं हुआ जब तक उसने इसे अपनी आंख से देख नहीं लिया।
ओमी उसे जगतपाल के यहाँ लेकर गया। वहां जाने पर पी.पी. को पता चला कि उसके ट्यूबवेल से हटने के बाद दो-तीन अड्डे बदलने के बाद ओमी पिछले दो-तीन दिनों से जगतपाल के यहां ही रुका हुआ था। जगतपाल को पी.पी. चौधरी के नाम से जानता था। उसके इलाके में जगतपाल को लोग चौधरी साहब के नाम से पुकारते थे। दरअसल वह था तो पी.पी. के बगल के गांव का ही लेकिन पिछले कई सालों से शहर में कोठी बनाकर रह रहा था। पी.पी. के इलाके में उसका आतंक अदृश्य रूप में हर जगह मौजूद रहता था। वह गूजर था इसलिए गूजर बिरादरी के लोग उसका जिक्र गर्व से करते थे, बाकी सभी बिरादरियों के लोगों के बीच उसका नाम खौफ से लिया जाता था।
चौधरी जगतपाल की कोठी शहर के समृद्ध इलाके में थी। इसके पहले पी.पी. ने न तो उसे देखा था और न ही उसकी कोठी में घुसने का उसे मौका मिला था। लगभग पंद्रह सौ गज के क्षेत्रफल में फैली कोठी में घुसते ही उसके ऊपर आंखें खुली की खुली रह जाने का मुहावरा लागू हुआ। वह अवाक चौधरी जगतपाल के ऐश्वर्य को देखता रहा। कोठी का बड़ा-सा गेट बंद था। ओमी उसे अंधेरा हो जाने के बाद ले गया था। यद्यपि स्ट्रीट लाइट और आसपास की कोठियों की रोशनी सड़क पर पड़ रही थी फिर भी जगह-जगह अंधरे के वृत्त थे। इन्हीं में से एक वृत्त में ओमी खड़ा हो गया और उसने पी.पी. को गेट खटखटाने का इशारा किया। पी.पी. ने गेट पर दस्तक दी। बड़े गेट के दरवाजे के एक-चौथाई हिस्से में छोटा गेट था। उसे खोलकर खाकी कपड़े पहने हुए दरबान ने बाहर सिर निकालकर झांका, 'क्या है?'
पी.पी. घबराहट में कुछ भी बोल नहीं पाया।
'कौन चाहिए?'
पी.पी. ने फिर कुछ बोलने की कोशिश की लेकिन वह फिर कुछ नहीं बोल पाया। उसने अंधेरे में खड़े ओमी की तरफ इशारा किया। दरबान ने गौर से अंधेरे में खड़े ओमी को देखा। शायद वह पहचान गया। वह बाहर निकल आया और ओमी की तरफ बढ़ गया। दोनों थोड़ी देर तक फुसफुसाकर बात करते रहे। फिर दरबान अंदर चला गया और ओमी ने पी.पी. को इशारा करके अपने पास बुला लिया। दोनों थोड़ी दूर अंधेरे में डूबी एक पुलिया पर जाकर बैठ गये।
'अंदर कोई है। चला जाये तक हम लोग अंदर चलेंगे।'
दोनों खामोश बैठे रहे। थोड़ी देर बाद गेट खुला और किसी कार के हेडलाइट्स का झोंका बाहर सड़क पर पड़ा। अचानक उन्होंने देखा कि कार उन्हीं की तरफ मुड़ गयी। पर इसके पहले कि कार की रोशनी उनके चेहरों पर पड़ती, ओमी ने सड़क के किनारे लगभग छलांग लगा दी और सड़क की तरफ इस तरह पीठ करके बैठ गया मानो पेशाब कर रहा हो। पी.पी. कुछ समझ नहीं पाया कि क्या करना है, अतः चुपचाप पुलिया पर बैठा रहा।
गाड़ी निकल जाने के बाद वे लोग उठे और फिर गेट पर आ गये। दरबान ने बड़ा गेट तो बंद कर दिया लेकिन छोटा गेट खुला रखा। वह उन्हीं लोगों का इंतजार का रहा था। उनके अंदर जाने पर उसने गेट बंद कर दिया। अंदर की दुनिया ने अपने ऐश्वर्य और रंगीनी से उसे सम्मोहित कर दिया।
अंदर घुसते ही एक लंबा-चौड़ा लॉन था। हरी-भरी घास का मैदान नीम अंधेरे में डूबा हुआ था। ओमी उसे लेकर लॉन के एक कोने में पड़ी कुसियों पर बैठ गया। लॉन का यह हिस्सा पूरा तरह से रोशन नहीं था। लॉन पर तीन-चार जगहों पर तरतीब से कुर्सियां लगी हुई थीं और छह बेंत की कुर्सियों के बीच में एक बेंत की सेंट्रल टेबल लगी हुई थी। पूरा लॉन खाली पड़ा था। वहां बैठकर अंदर की चहल-पहल का कुछ नजारा दिखाई दे रहा था। सबसे पहले एक बरामदा था जिसमें कुछ कुर्सियां पड़ी थीं और उन कुर्सियों पर लोग बैठे थे। अंदर एक बड़ा कमरा था जो शायद बैठक का काम करता था। तेज रोशनी की वजह से बाहर से बरामदे और इस कमरे की गतिविधियां दिखाई पड़ रही थीं। बैठक का दरवाजा खुला था - सिर्फ जाली लगे पल्ले बंद होते तथा खुलते और बरामदे से कोई उठकर अंदर जाता या अंदर से निकलकर कोई बाहर आता। ऐसा लगता था कि अंदर कोई बैठा था और लोग बारी-बारी से उससे मिलने जा रहे थे।
वे लोग लॉन में बैठे अपनी बारी का इंतजार करते रहे। ओमी धीमे स्वर में उसे चौधरी जगतपाल के बारे बताता जा रहा था। उसने जो कुछ बताया, उसमें से कुछ पी.पी. ने सुन रखा था, कुछ उसके लिए नया था। बहरहाल सब कुछ अभिभूत कर देने जैसा था और पी.पी. पूरी श्रद्धा से चौधरी को अपने भविष्य के हीरो के रूप में स्थापित कर रहा था। इसी बीच गेट छोड़कर चौकीदार वहां आ गया और उनके पास बैठ गया।
'कल तू कहां रह गया? रात में चौधरी साहब तुझे पूछ रहे थे।'
'कल मैं इसके यहां रुक गया था।' ओमी ने पी.पी. की तरफ इशारा किया। वह झूठ बोल रहा था, यह जानते हुए भी पी.पी. चुप रहा।
'आज एम.पी. आया था। अपने साथ थानेदार को लाया था माफी मंगवाने के लिए। साले ने परसों चौधरी साहब के आदमी को बंद कर दिया था। चौधरी साहब ने कप्तान को बोल दिया था कि ये वाला थानेदार नहीं चाहिए। साला भागकर एम.पी. के पास पहुंचा और आज एम.पी. को लेकर आया था अपनी पैरवी करवाने। इसीलिए तो देर हो गयी, नहीं तो चौधरी साहब अब तक इस भीड़ को निपटा चुके होते।' उसने बरामदे में बैठे लोगों की तरफ इशारा किया।
अब पी.पी. की समझ में आया कि अभी गाड़ी में कौन कोठी से निकलकर गया था।
चौकीदार और ओमी बतियाते रहे और वह चुपचाप बैठा सुनता रहा। चौकीदार की बातचीत के लहजे से लग रहा था कि उसकी हैसियत मात्र चौकीदार की नहीं है। उसे अंदर-बाहर की काफी जानकारी थी। गेट पर किसी तरह की हलचल हुई और चौकीदार उठकर उधर चला गया।
कौन है वह, उसने ओमी से जानना चाहा। ओमी चुप रहा।
'बहुत तेज है।' पी.पी. ने छेड़ा जरूर लेकिन उसे उम्मीद नहीं थी कि ओमी अपने स्वभाव के विपरीत कुछ उगलेगा।
ओमी हल्के से हंसा। जगते में, सोते में उसे पी.पी. की उत्सुकता पर मजा आ रहा था। थोड़ा रुककर बोला, 'यहां हर आदमी तेज है। ड्राइवर, चौकीदार, चपरासी - सब। तू क्या समझता है, बिना तेज लोगों को रखे चौधरी साहब इतना बड़ा कारोबार खड़ा कर लेते? इस चौकीदार को इस बार ध्यान से देखना। हल्का लंगड़ाकर चलता है। पैर में गोली लगी थी बैंक लूटते समय। तभी से चौधरी साहब ने कोठी पर रख लिया है। नहीं तो पहले बड़े-बड़े की फूंक सरक जाती थी इसका नाम सुनकर।'
चौकीदार गेट पर खड़ा किसी से बात कर रहा था। बातें खत्म कर वह उनकी तरफ बढ़ा। पी.पी. ने ध्यान से देखा। बहुत ध्यान से देखने पर ही उसकी चाल में कुछ अस्वाभाविकता नजर आती थी।
चौकीदार उसके पास आकर बैठ गया, 'आज तो ससुरे चौधरी साहब को दम मारने की फुरसत नहीं दे रहे हैं। दोपहर भी खाना चार बजे खाया। रात पता नहीं कब खाना मिले! हटते ही नहीं। इलेक्शन आ गया है, इसलिए किसी को रोका भी नहीं जा सकता।'
पी.पी. को उत्सुकता हुई कि आखिर किस काम के लिए इतने सारे लोग चौधरी को घेरे रहते हैं। लेकिन अपनी उत्सुकता को दबाये रखना ही उसे उचित लगा। चौकीदार या ओमी से यह पूछने से कोई फायदा नहीं था, क्योंकि वे लोग कुछ बताएंगे, इसकी गारंटी नहीं थी। उल्टे उसे बच्चा जरूर समझेंगे।
बहुत बाद में आकर उसे इस भीड़ का रहस्य समझ में आया। किसी दूसरे प्रभावशाली नेता की ही तरह चौधरी के पास तरह-तरह के काम लेकर भीड़ जुटा करती थी। नौकरियों के लिए, थानेदार की ज्यादती के खिलाफ, सरकारी मशीनरी के भ्रष्टाचार से छटपटाते हुए या गांवों में आपसी झगड़ों में सुलह-सपाटा करवाने की अर्जी लिए हुए लोग सुबह से शाम तक उसे घेरे रहते थे। बल्कि किसी और नेता से ज्यादा लोग उसे घेरते थे क्योंकि वह काम करवा सकता था। उसका एक सहायक लगातार अफसरों को फोन लगाता रहता था। दूसरा एक बगल के छोटे-से कमरे में बैठा सिफारिशी चिट्ठियाँ टाइप करता रहता था।
बैठक में एक आरामकुर्सी पर स्वच्छ शुभ्र धवल कुर्ते-पाजामे में वह मुलाकातियों से घिरा बैठा रहता था और उसकी धैर्ययुक्त स्निग्ध मुस्कान देखकर कोई यह अंदाज नहीं लगा सकता था कि उसके ऊपर तीन बैंक डकैतियों, दर्जनों हत्याओं, पचासों लूटपाट के मुकदमे चल चुके हैं और अभी आठ-दस साल पहले वह कुत्तों की तरह पुलिस से भागता फिरता था।
अपने अतीत को उसने इतनी खूबसूरती से भुला दिया था कि कभी-कभी उसको बहुत निकट से जानने वालों को भी आश्चर्य होता कि क्या यह वही पुराना जगतपाल है जिसके नाम से आस-पास के दो-तीन जिले कांपते थे। उसका पूरा आपराधिक जीवन मुश्किल से दस साल का रहा होगा। उसके बाद उसे फिर अपराध करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। सबसे पहले उसने अपने खिलाफ चल रहे दर्जनों मुकदमों को सुलझाया। शुरू में कुछ गवाह मारे गये, बाद में लगभग सभी गवाहों ने हलफनामे लगा दिये। उसकी तारीखों पर वकीलों के झुंड के झुंड अदालतों को घेरे खड़े रहते। पहले से बिका सरकारी वकील इस झुंड के सामने कुछ मिमियाता और विरोधी वकील उसे दहाड़कर चुप करा देते। अदालती नाटक के सभी पात्र अपनी निश्चित भूमिका निभाते रहे और वह एक-एक मुकदमे से बाइज्जत बरी होता रहा। इन भूमिकाओं के पात्रों को जो मेहनताना वह देता, उससे उसकी जेब पर जरा भी फर्क नहीं पड़ता। अब उसकी हैसियत ऐसी हो गयी थी कि एक टेलीफोन पर लाखों रुपये उसके पास पहुंच जाते। अब उसे अपराध के लिए मेहनत करने की जरूरत नहीं थी और न ही पुलिस से लुकते-छिपते भागते रहने की।
अपनी सक्रिय आपराधिक जिंदगी में ही उसने राजनीति को समझना शुरू कर दिया था। यह उसके कैरियर के शुरुआती दिनों की ही बात थी जब सब ने उसका राजनैतिक इस्तेमाल करने की कोशिश की।
विधानसभा के मध्यावधि चुनाव होने वाले थे और वह जमानत पर छूटकर घर पहुंचा था। जेल में मारपीट हो गयी थी और वह काफी चोट खा गया था। उसके पास पिछली वारदातों के पैसे अभी बचे हुए थे, लिहाजा वह बिना किसी लफड़े में पड़े घर पर आराम करना चाहता था। इलाके के थानेदार से बात हो गयी थी। अगर वह इलाके में कोई जुर्म नहीं करता तो थानेदार उसे कुछ नहीं कहने वाला था। आराम से दिन कट रहे थे कि अचानक उसे गांव के प्रधान ने बुलवाया।
प्रधान ने जो काम उसे करने के लिए कहा, वह उसकी समझ में नहीं आया। चुनाव में उसे बूथ कैप्चरिंग करनी थी। अपने गांव और आसपास के गांवों में प्रधान की पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ लड़ने वाले उम्मीदवार के पक्ष में कोई वोट न डालने पाये - इसका प्रयास करना था।
प्रधान के लिहाज से यह बहुत महत्वपूर्ण काम था और इससे उसकी जिंदगी बन जाती, लेकिन जगतपाल की समझ में नहीं आया कि बिना पैसा-कौड़ी तय किये वह इस तरह की बेवकूफी के काम में क्यों फंसे। वह वापस आ गया। इस बात का अफसोस उसे आज तक हैं, क्योंकि इस वापसी की वजह से वह अपनी जिंदगी में कई साल पीछे हो गया।
अगला चुनाव आते-आते उसे अपराध की दुनिया में राजनीतिज्ञों के महत्व का पता चल गया था। उसने देखा कि किस तरह उन लोगों पर पुलिस हाथ नहीं डालती थी जिनकी पीठ पर किसी प्रभावशाली नेता का वरदहस्त होता था। अगर वे पकड़े भी जाते तो उनका सरंक्षक नेता चीख-पुकारकर आसमान सिर पर उठा लेता और उन्हें छुड़ा लेता। जगतपाल जैसे अनाथ अपराधी दिन-रात पुलिस के डर से भागते फिरते और चार-छह महीने में एक बार जरूर पुलिस के चंगुल में फंस जाते। थाने, अदालत और जेल के चक्कर में उनका पैसा भी खर्च होता और बीच-बीच में उनका हाथ-पैर भी तोड़ा जाता।
जगतपाल को जैसे ही यह बात समझ में आयी, उसने एक मजबूत वटवृक्ष की तलाश शुरू कर दी। चौधरी भोजराज सिंह के रूप में उसे यह आश्रय भी मिल गया। चौधरी भोजराज उसकी बिरादरी के प्रभावशाली नेता थे। पिछली चुनाव में हार गये थे और अब इस बार फिर लड़ना चाहते थे। जगतपाल ने उनके यहां आना-जाना शुरू किया। पहले तो उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। जगतपाल सुबह-शाम उनकी कोठी पर जाता और नमस्कार कर आसपास किसी ऐसी जगह बैठ जाता जहां से उस पर चौधरी की निगाह पड़ती रहे। कुछ दिनों तक चौधरी ने उसकी उपेक्षा की। लेकिन जल्दी ही उसकी प्रतिभा पहचान ली गयी। चुनाव सिर पर था और ऐसे लोगों की तलाश हो रही थी जो उनके काम के साबित हो सकें। जगतपाल का नाम सूची में जुड़ गया और जल्दी ही सबसे ऊपर हो गया।
इसके बाद से जगतपाल की बहुत सारी परेशानियां हल हो गयीं। जब कभी वह पकड़ा जाता, चौधरी भोजराज उसके लिए जमीन-आसमान एक कर देते। वह उसके लिए थानों पर धरना देते, कलक्टर, कप्तान के बंगलों के चक्कर लगाते तथा थाने से न छुड़ा पाने की स्थिति में कचहरी में वकीलों की लाइन लगा देते। उसकी वजह से जगतपाल के लिए जेल अब दुःस्वप्न नहीं रह गया था। अब जेल में उसे सारी सुविधाएं मुहैया की जाती थीं। जेल का सुपरिंटेंडेट दूसरे-तीसरे दिन खुद उसका हाल पूछता। वह कोई मेहनत-मशक्कत न करता, उसे घर का खाना मिलता और कभी-कभी तो उसके पास शराब भी पहुंच जाती। अपराध की मामूली स्थिति से उठाकर इस सम्माजनक स्थिति तक पहुंचाने में चौधरी भोजराज का बहुत बड़ा हाथ था।
'चलो चौस्साब बुला रहे है।' चौकीदार, जो बीच में उठकर कहीं चला गया था, यह संदेशा लेकर फिर आ गया।
दोनों उठ खड़े हुए। ओमी चेहरे पर बिना किसी भाव के और पी.पी. उत्सुकतामिश्रित उत्तेजना और अपरिभाषित भय के साथ। अचानक उसे पेट में मरोड़-सी उठती लगी और मन करने लगा कि बाहर जाकर पेशाब कर आये। लेकिन वह कुछ कह नहीं पाया और ओमी के पीछे खिंचा चला गया।
बरामदे में अब इक्का-दुक्का लोग ही रह गये थे। उन्हें पार करते हुए वे उस कमरे में पहुंच गये जहां चौधरी जगतपाल बैठा था। उसके पास भी सिर्फ दो लोग बैठे थे जो उसके साथ दबे स्वर में एकदम करीब झुककर बात कर रहे थे। वे इन्हें देखते ही चुप हो गये। ओमी ने लॉन से चलते समय एक रूमाल जेब से निकालकर हाथ में ले लिया था और बरामदे की सीढ़ियों पर चढ़ते समय उससे अपना मुंह इस तरह ढंक लिया था कि उसकी पहचान भी छिपी रहे और देखने वालों को लगे कि वह मुंह पोंछ रहा है। कमरे में पहुंचकर दोनों ने जगतपाल का अभिवादन किया। कुर्सियां खाली पड़ी थीं। किसी ने बैठने को नहीं कहा। वे कुछ देर खड़े रहे फिर पहले ओमी एक कुर्सी पर बैठ गया और उसके बाद पी.पी. दूसरी पर।
थोड़ी देर खोमीशी रही। पी.पी. लगातार महसूस करता रहा कि चौधरी की तेज, अंदर तक वेध देने वाली निगाहें उसके चेहरे पर गड़ी हुई थीं। थोड़ी देर तक तो वह इन निगाहों का मुकाबला करता रहा पर जल्दी ही उसने अपनी निगाहें नीचे झुका लीं।
'यही है?'
'हां, चौस्साब यही है। बहादुर लड़का है।' ओमी ने उसकी पैरवी की।
पी.पी. ने निगाहें उठाकर एक बार फिर चौधरी की आंखों में झांकने की कोशिश की। उन आंखों में कुछ पढ़ पाना मुश्किल था।
'हूं... क्या करता है रे छोरे?'
पी.पी. सीधे सवाल के लिए प्रस्तुत नहीं था। वह थोड़ा लड़खड़ाया पर ओमी ने बात संभाल ली, 'अभी तो छोटे-मोटे काम कर रहा है पर बड़ा काम मिले तो उसे भी कर लेगा।'
चौधरी इससे संतुष्ट नहीं लगा। यह शायद सीधे पी.पी. से सुनना चाहता था। पी.पी. के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। उसे लगा कि उसके शरीर का सारा खून उसकी कनपटी के पास इकट्ठा हो रहा है। कुछ लड़खड़ाहट के साथ आवाज को संयत करने की कोशिश करते हुए उसने कहा, 'कुछ भी कर सकता हूं चौस्साब। जो काम मिले, कर लूंगा।'
'अच्छा!' उसकी उम्र और अभी तक पूरी परिपक्व न हुई आवाज को लक्ष्य कर व्यंग्य-सा करते हुए चौधरी ने अपनी आंखें नचायीं।
पी.पी. तिलमिला गया। अगर एक अपरिचित माहौल में न बैठा होता तो वह किसी भी क्षण उबलकर गाली-गलौज करने लगता। चौधरी निर्विकार बैठा रहा और सिर्फ अपनी निगाहों से पी.पी. को तौलता रहा।
'अच्छा... कल आना।'
चौधरी ने जिस तरह से कहा, उससे पी.पी. को उठ जाना चाहिए था लेकिन वह नासमझ-सा बैठा रहा।
'तू बाहर चल। गेट के बाहर इंतजार कर... मैं आता हूं।'
पी.पी. उठकर बाहर चला आया। बाहर दो-एक अपरिचित-से चेहरे थे। वह समझ नहीं पाया कि क्या करे। थोड़ी देर असहज-सा इधर-उधर टहलता रहा, फिर गेट के पास चौकीदार दिखाई दे गया तो उसी तरफ लपक लिया।
'हो गयी बात?'
'हो गयी।'
'क्या हुई?'
पी.पी. को समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दे। वह लड़खड़ा गया। पर चौकीदार के सामने स्वीकार करने में कि उसकी चौधरी से कोई खास बात नहीं हुई उसे शर्म लगी। वह जबर्दस्ती गंभीर बना रहा।
'खुशकिस्मत है, तेरी जल्दी बात हो गयी। हम लोगों को तो चौस्साब ने कितने चक्कर लगवाये। शायद इसलिए तुझे पहले ही दिन बात करने का मौका मिल गया कि तुझे ओमी लेकर आया था।'
पी.पी. कुछ नहीं बोला। उसे ओमी के जरिये यहां तक पहुंचना खराब लगा। उसने उसी दिन तय किया कि वह अपनी स्वतंत्र पहचान बनायेगा। हालांकि यह मौका उसे काफी दिन बाद में मिला, पर जब मिला तो वह बिल्कुल नहीं चूका और उसने ओमी के साथ कोई मुरव्वत नहीं की।
थोड़ी देर बाद ओमी बाहर निकल आया। उसने पी.पी. को एक किनारे ले जाकर कहा, 'तू घर चला जा। मैं यहीं रुकूंगा। मेरे यहां रात में रहने का किसी से जिक्र मत करना। कल सुबह आ जाना। चौस्साब ने एक काम बताया है। परसों करना है। कल बात कर लेंगे।'
'करना क्या है?' पी.पी. ने कई तरह से जानने की कोशिश की।
लेकिन ओमी हर बात टालता रहा, 'जल्दी क्या है! कल बता दूंगा। अरे मैंने तेरी इतनी तारीफ कर रखी थी कि चौस्साब ने पहले ही दिन काम बता दिया, नहीं तो कितने चक्कर लगवाते हैं। जा... अब निकल जा। देर हो रही है।'
पी.पी. चला आया। पर उत्सुकता और रोमांच से उसे रात भर नींद नहीं आयी।
दूसरे दिन इतना सवेरे उठकर वह घर से चल दिया कि शहर पहुंचते-पहुंचते उसे खुद ही संकोच होने लगा। इतनी जल्दी चौधरी के घर पहुंच जाने पर चौकीदार या ओमी के सामने हास्यास्पद हो जाने का खतरा था। वह बस से उतरकर निरुद्देश्य बस अड्डे की चाय की दुकान पर बैठा रहा। वहां से उठकर बस अड्डे पर ही एक बस से दूसरी बस में ताका-झांकी करता रहा। इसके बाद भी जब वह चौधरी की कोठी पर पहुंचा, तो वहां के लिहाज से अभी दिन नहीं शुरू हुआ था।
कोठी पर दूसरा चौकीदार था। वह बंद फाटक के बाहर पुलिया पर बैठा दातून कर रहा था। पी.पी. थोड़ी देर संकोच में खड़ा रहा। चौकीदार अपनी गिद्ध दृष्टि से उसे तौलता रहा और बिना कुछ बोले दातून करता रहा।
'मुझे ओमी से मिलना है।'
चौकीदार का हाथ दातून मुंह में छोड़कर नीचे आ गया। उसने अपनी भौंहें सिकोड़ीं और ध्यान से पी.पी. का चेहरा देखते हुए कहा, 'कौन ओमी? यह चौधरी जगतपाल की कोठी है।'
'मालूम है। ओमी को बुलवा दो।' पी.पी. ने अपना आत्मविश्वास बनाये रखने का प्रयास करते हुए कहा।
'यहां कोई ओमी नहीं रहता।' चौकीदार ने फिर दातून करना शुरू कर दिया।
'ओमी जाट, नंगले का रहने वाला। कल रात मुझे यहां लाया था। आज सुबह बुलाया था।'
चौकीदार के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। पी.पी. की समझ में नहीं आया कि उसे किस तरह विश्वास दिलाया जाये। एक बार तो उसे लगा कि वह किसी गलत जगह पर आ गया है। लेकिन फिर उसने ध्यान से आसपास के माहौल का जायजा लिया। रात अंधेरी जरूर थी लेकिन बिजली की रोशनी पर उसने गेट के एक खंभे पर 'गुर्जर भवन' तथा दूसरे खंभे पर चौधरी जगतपाल के नाम संगमरमर की पट्टियों पर लिखे देखे थे। खंभों पर वही पट्टियां मौजूद थीं, गेट भी वही था। आस-पास के मकान और सड़क भी वही थी, फिर कैसे चौकीदार मना कर रहा था? उसने एक बार समझाने का प्रयास किया, 'हापुड़ के पास नंगला गांव का ओमी - अभी पिछले महीने कचहरी से भागा है। मुझे आज सुबह बुलाया था।'
लेकिन इस प्रयास का असर कुछ उलटा हुआ। चौकीदार का चेहरा कुछ विकृत-सा लगने लगा। उसने खंखारकर दातून समेत सब कुछ गेट के किनारे सड़क की तरफ थूक दिया और पी.पी. को घूरता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते-जाते उसने गेट जरूर पूरी तरह बंद कर दिया।
पी.पी. को कुछ अजीब लगा। उसने न रुकने को कहा था, न जाने को। वह अपमानित-सा सड़क के किनारे खड़ा रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि रुके या वापस चला जाय। गनीमत हुई कि बहुत देर तक ऐसे नहीं खड़ा होना पड़ा। थोड़ी देर में ही गेट का एक दरवाजा थोड़ा-सा खुला और रात वाले चौकीदार का झांकता हुआ चेहरा दिखाई पड़ा। पी.पी. खुश हो गया और उसके चेहरे पर खुशी साफ झलकने भी लगी। पर उसे बड़ी अपमानजनक निराशा की अनुभूति हुई जब उसने देखा कि इस चौकीदार का भी चेहरा लटक गया था । पर धीरे-धीरे चौकीदार के चेहरे की कठोरता कुछ कम हुई और उसने अंदर आने का इशारा किया। गेट का दरवाजा बस इतना खुला कि पी.पी. उससे सटकर अंदर जा सकता था और वह अंदर चला गया।
अंदर का माहौल रात से पूरी तरह से भिन्न था। अभी शायद इस घर के लोगों के लिए सुबह नहीं हुई थी। लॉन में कुर्सियां बेतरतीब-सी उलटी-पुलटी पड़ी थीं। बरामदा भी बेरौनक और गर्द से अटा था। अभी लगता था कि सफाई शुरू नहीं हुई थी। अंदर कोई प्राणी नजर नहीं आ रहा था। सिर्फ बछड़े के आकार का विशालकाय कुत्ता जंजीर से बंधा एक किनारे सो रहा था और एक आदमी अंदर अलग-अलग आकार-प्रकार की खड़ी गाड़ियों में से एक की सफाई कर रहा था। चौकीदार पी.पी. को कुत्ते के बगल से लेकर गया। कुत्ते ने जरा-सा आंख खोलकर उन्हें देखा। पी.पी. अपना कलेजा कड़ा कर उसके पास से आगे बढ़ गया। कुत्ता फिर आंख बंद कर ऊंघने लगा। आगे गाड़ियों को खड़ा करने के लिए एक बड़ा गैराज बना हुआ था। गैराज के अंदर वे दोनों घुसे और गाड़ियों के पीछे एक कोने में खड़े हो गये।
पी.पी. को अजीब लग रहा था। एक खास तरह की रहस्यात्मकता से भरपूर पूरा वातावरण मोबिल, डीजल तथा पेट्रोल की गंध से महक रहा था। चौकीदार उसे छोड़कर चला गया। वह गाड़ियों के पीछे इस तरह खड़ा था कि बाहर से उसे कोई देख नहीं सकता था। पूरा गैराज मोटे कंक्रीट के खंभों पर टिका था। वह चुपचाप खड़ा गाड़ियों और खंभों के पार देखने की कोशिश करता रहा।
'आ, मेरे पीछे चला आ।' ओमी की आवाज सुनाई दी। उसने चौंककर देखा। उसके थोड़ा ही पीछे एक खंभे की आड़ से निकलकर ओमी उसके बायीं तरफ चला जा रहा था।
पी.पी. उसके पीछे हो लिया। ओमी उसके पास ही एक खंभे के पीछे खड़ा था और उसे पता भी न चला। इससे माहौल उसे और भी रहस्यमय लगने लगा था।
गैराज के बायें किनारे पर ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां थीं। ओमी और उसके पीछे यंत्रचालित पी.पी. उन सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गये। गैराज के ऊपर कई छोटे-छोटे कमरे बने थे। इनमें ड्राइवर और चौकीदार वगैरह रहते थे। वे दोनों इनमें से एक कमरे में घुस गये। ओमी ने दरवाजा बंद कर दिया।
पी.पी. ओमी के साथ जिस कमरे में घुसा, वह एक छोटा-सा कमरा था, जिसमें एक चारपाई, एक छोटी मेज और एक स्टूल आने भर जगह थी और यह सामान इसमें इस बेतरतीबी से रखा था कि पूरा कमरा भरा नजर आ रहा था। चारपाई पर एक हरे रंग की गंदी-सी चादर थी और एक कोने पर तेल से चीकट तकिया था। ओमी ने आंख से उसे दरवाजा बंद करने का इशारा किया और खुद चारपाई पर बैठ गया। वह दरवाजा बंद करके अभी मुड़ा ही था कि ओमी की दांत पीसती आवाज उसके कान से टकरायी, 'क्या कह दिया तूने चौकीदार से?' वह भरसक आवाज दबाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन कटुता थी कि छलकी पड़ रही थी।
'कुछ तो नहीं कहा। मैं तो बार-बार तुम्हें बुलाने के लिए कह रहा था।'
'बुलाने के लिए कह रहा था... चूतिया... जेल से भागने की क्या बात कही... ।'
पी.पी. समझ गया कि कहां गलती हुई थी। यह सबक उसे पूरी जिंदगी काम आने वाला था। जिस दुनिया में वह प्रवेश करने जा रहा था, वहां इस बात का बहुत महत्व था कि दाहिने हाथ को कभी मालूम न पड़े कि बायें हाथ ने क्या किया है। आज तक इस बात को वह नहीं भूला था।
'अच्छा हुआ, चौधरी साहब अभी सो रहे हैं और अभी तक यह बात उन तक नहीं पहुंची। उन्हें पता चल जाता तो तू तो बाद में फाटक के अंदर घुसता, मैं पहले बाहर कर दिया जाता।'
पी.पी. चुपचाप सुनता रहा।
'मुझे तेरे लिए चौकीदारों की मस्का पालिश करनी पड़ी। सालों को बाप बनाना पड़ा। कोई भी चौधरी को बता देगा तो सब बंटाधार हो जायेगा।'
वे दिन भर उस कोठरी में पड़े रहे। ओमी ने दो-तीन बार कोशिश की कि चौधरी से उसकी मुलाकात करा दे लेकिन यह संभव नहीं हो सका। चौधरी देर तक सोता रहा और उठने के फौरन बाद कहीं निकल गया। अब उसके रात से पहले लौटने की उम्मीद नहीं थी।
वे दोनों दिन भर दरवाजा बंद कर कमरे में पड़े रहे। चारों तरफ से बंद सीलन-भरे कमरे में फुसफुसाते हुए बात करने में पी.पी. का दम घुटता रहा। लेकिन कोई चारा नहीं था। ओमी उसे न तो खिड़की-दरवाजा खोलने दे रहा था और न ही बाहर जाने दे रहा था। बीच में दो-एक बार वे पेशाब करने बाहर निकले और दोपहर में एक चौकीदार ओमी का खाना दे गया। उस खाने को दोनों ने मिलकर खाया। उसका पेट नहीं भरा। पी.पी. ने प्रस्ताव रखा कि वह बाहर से खरीदकर कुछ ले आये, लेकिन ओमी ने झिड़क दिया।
दिन में कई बार वे सोये, कई बार उठे, बातें करते रहे और निरुद्देश्य समय काटने से जो बोरियत हो सकती थी, उसे झेलते रहे।
शाम को अंधेरा होने के बाद वे बाहर निकले और नीचे उतरे। नीचे आकर ओमी उसे रोशनी से बचाते हुए लॉन की तरफ ले गया। लॉन में पिछली रात का-सा ही माहौल था। तमाम बेतरतीब पड़ी कुर्सियों पर लोग बैठे थे। वे एक खंभे की आड़ में खड़े होकर बैठे हुए लोगों का मुआयना करने लगे। शायद ओमी कुछ आश्वस्त होना चाहता था। अचानक रात वाला चौकीदार उधर आ निकला। वह आंख के इशारे से ओमी को एक कार की आड़ में ले गया। वे दोनों कुछ देर फुसफुसाते रहे, फिर ओमी लौटा और सीधा वापस ऊपर की तरफ बढ़ गया। उसके पीछ-पीछे पी.पी. भी चला गया। उसे दिन भर कमरे में बंद रहने के बाद वापस फिर उसी में बंद होने में कोफ्त हो रही थी लेकिन विवशता में कुछ कह नहीं पा रहा था।
'ऊपर क्यों आ गया?'
'चौस्साब रात में मिलेंगे। तब तक यहीं रहना है। आज नीचे कई पहचानने वाले लोग हैं।' उसने अपनी बुशर्ट उतारकर दीवाल पर गड़ी एक कील पर टांग दी और चारपाई पर लेट गया।
पी.पी. जलता-भुनता रहा और कुर्सी पर पीठ टिकाये अपनी आंखें बंद किये ज्यादातर वक्त निष्क्रिय पड़ा रहा। उसे भूख लग आयी थी लेकिन चुपचाप पड़े रहने के सिवाय कोई चारा नजर नहीं आ रहा था। ओमी बाहर जाने नहीं दे रहा था और दोपहर की तरह खाना देने अभी कोई आया नहीं था। एक ही चारपाई थी जिस पर ओमी अधलेटा पता नहीं क्या सोच रहा था। वह कुर्सी पर पड़े-पड़े सो गया। पता नहीं, कब तक वह उसी तरह पड़ा रहा। उसकी नींद तब टूटी जब ओमी ने उसे झिंझोड़कर उठाया। नीचे चौधरी बुला रहा था।
वे जब चौधरी के सामने पहुंचे, भीड़ पूरी तरह से छंट चुकी थी। चौधरी बैठक में दो आदमियों से बैठा कुछ बातें कर रहा था। उनके पहुंचने पर बातें बंद हो गयीं।
चौधरी ने उन्हें बैठने के लिए कोई इशारा नहीं किया, पर ओमी एक कुर्सी खींचकर बैठ गया। पी.पी. ने भी यही किया। चौधरी ने पहली मुलाकात की तरह पी.पी. के चेहरे पर अपनी निगाहें गड़ा दीं। न जाने क्यों पहले दिन की तरह पी.पी. को फिर सिहरन हुई।
'क्या कहा तन्ने चौकीदार से?'
पी.पी. के गले में आवाज अटक गयी। इसका मतलब चौधरी से कोई बात छिपायी नहीं जा सकती।
'गलती हो गयी चौस्साब! फिर नहीं होगी।'
ओमी को आश्चर्य हुआ कि पी.पी. ने कैसे इतनी जल्दी समझ पैदा कर ली! चौधरी के सामने बहस या सफाई देने का कोई अर्थ नहीं था। गलती अगर बदनीयती से न हुई तो चौधरी माफ कर देता था। इसलिए माफी मांगने से अच्छा कोई और विकल्प नहीं था। चौधरी के चेहरे से भी लगता था कि वह आश्वस्त हो गया था।
ओमी के लिहाज से पी.पी. भाग्यशाली था कि चौधरी ने उसे दूसरी मुलाकात में ही काम बता दिया। औरों को तो वह महीनों ठोंकता-बजाता था। उसके बाद किसी छोटे-मोटे काम के लिए कहता था। पी.पी. को कल वाले अभियान में शरीक करने का आदेश खुद ओमी के लिए काफी चौंकाने वाला था। कल का काम बड़ा था और उसमें पी.पी. कितना कामयाब हो सकेगा, इसके बारे में उसके अपने मन में संदेह था। लेकिन जब चौधरी ने उसे कल के काम में पी.पी. को शरीक करने के लिए कहा और उठने का इशारा किया तो वह समझ गया कि अब बहस करने का कोई अर्थ नहीं है और चौधरी पी.पी. को अपने मुंह से काम के बारे में कुछ बताना भी नहीं चाहता। यह चौधरी की खास शैली थी। उसे ही पी.पी. को सब कुछ बताना पड़ेगा, अतः वह पी.पी. को लेकर उठ गया।
वे उठकर ऊपर कमरे में आ गये। पी.पी. को इतना एहसास तो हो गया कि उसे कोई महत्वपूर्ण काम करना है, लेकिन चौधरी ने जिस रहस्यात्मकता के साथ उससे गोपनीयता बरती थी, उससे उसके मन में एक बेचैन उत्सुकता भर गयी। वह ओमी के पीछे घिसटता ऊपर चला आया। रास्ते भर उसके मन में एक ही इच्छा थी कि ओमी कुछ बोले और उसे रहस्य से उबारे लेकिन अपने स्वभाव के अनुकूल ओमी चुपचाप ऊपर आया। पी.पी. के अंदर घुसने पर दरवाजा अच्छी तरह से बंद किया और कमीज उतारकर खूंटी पर टांगकर चारपाई पर अधलेटा-सा पसर गया। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद बिना किसी भूमिका के उसने पी.पी. के सामने कल की योजना रख दी।
योजना जितने कम शब्दों में उत्तेजनारहित तरीके से रखी गयी, उसने पी.पी. को उतना ही उत्तेजित और अंदर से आंदोलित कर दिया।
शेरपाल नाम के एक आदमी को मारना था। सिर्फ इतनी जानकारी थी कि कल वह इंडिया गेट से शाहजहां रोड और औरंगजेब रोड से होता हुआ चाणक्य सिनेमा तक जायेगा। समय होगा शाम चार से छह बजे के बीच। राजधानी में भीड़-भाड़ वाले इलाके में दिन-दहाड़े किसी को मारना और सही-सलामत भागने का प्रयास करना - पी.पी. को अचानक लगने लगा कि कमरे में उमस और ज्यादा बढ़ गयी है। पर अब किसी तरह की कमजोरी दिखाने का मतलब था हमेशा के लिए जिंदगी में पिछड़ जाना और ओमी की नजरों में हास्यास्पद बनना। चौधरी भी दुबारा उसे विश्वास नहीं देगा। वह गंभीर बना रहा।
खाना-पीना निपटाने तक ओमी दूसरी बातें करता रहा। शेरपाल के कत्ल की योजना का उसने कोई जिक्र ही नहीं किया। खाना खाकर वह दीवाल की तरफ मुंह करके लेटा और इतनी जल्दी गहरी नींद में सो गया कि पी.पी. आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा से भर उठा। इतनी गंभीर बात को कोई इतनी बेफिक्री से ले सकता है, यह विचार ही उसके लिए अकल्पनीय था। उसकी पूरी रात सोते-सोते जगने या जगते-जगते सोने में बीती। वह शेरपाल को नहीं जानता था। आज तक कभी उससे नहीं मिला। कोई दुश्मनी नहीं - कोई दोस्ती नहीं। ऐसे आदमी को जान से मारने का खयाल ही उसे अजीब लग रहा था। पर अब कुछ नहीं हो सकता था।
कुछ इसी तरह के खयाल उसे दूसरे दिन तब तक परेशान करते रहे जब तक शेरपाल उन्हें दिख नहीं गया। वे इंडिया गेट के पास फैले घास के मैदानों में से एक में अधलेटे इस तरह पड़े थे कि सामने की सड़क पर गुजरने वाले हर वाहन पर उनकी निगाह पड़ रही थी। उनकी मोटरसाइकिल सड़क के किनारे उनसे थोड़ी ही दूर पर खड़ी थी। ओमी गिद्ध की तरह सड़क पर नजरें गड़ाये था और पी.पी. लगातार अपनी उत्तेजना पर काबू पाने का प्रयास करता हुआ पूरी तरह से सहज दिखने की कोशिश कर रहा था। वह ओमी की लापरवाही और तटस्थता से मुग्ध था और उस्ताद की प्रतिभा से प्रभावित किसी चेले की तरह रह-रहकर उसके चेहरे को निहार रहा था। अचानक उसे ओमी के चेहरे पर परिवर्तन नजर आया और वह सतर्क हो गया। ओमी की आंखें सिकुड़ीं, थोड़ी देर तक सड़क पर स्थिर रहीं और उसके चेहरे पर सख्ती का भाव आ गया। पी.पी. को अपने अंदर झुरझुरी-सी दौड़ती नजर आयी। निर्णायक घड़ी आ पहुंची थी।
ओमी उठा, पी.पी. भी यंत्रचालित-सा उसके पीछे खड़ा हो गया। अब उसके अंदर का अंतर्द्वंद्व समाप्त हो गया था। ओमी के झपटते ही वह भी उसके पीछे-पीछे मोटरसाइकिल की तरफ दौड़ा। कब मोटरसाइकिल स्टार्ट हुई और कब चालक ओमी के पीछे वह उछलकर बैठ गया, उसे पता भी नहीं लगा।
सड़क पर इतने ज्यादा वाहन थे कि उसे मालूम ही नहीं चल रहा था कि किसका पीछा किया जा रहा है। दो-तीन सौ गज की भागदौड़ के बाद उसे यह एहसास हुआ कि चूहे-बिल्ली के इस खेल में वह और ओमी सिर्फ दो ही पीछा नहीं कर रहे थे, दो और मोटरसाइकिलें रास्ते में चील की तरह झपटीं और उनकी हमराह हो गयीं। इन पर सवार लोग समान उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस समय सड़क पर थे, यह जानकारी पी.पी. को उन पर सवार लोगों और ओमी के मध्य हाथों और आंखों की इशारेबाजी से मिली। योजना इतनी गोपनीय थी कि न तो पी.पी. को इन मोटरसाइकिल सवारों की भागीदारी की खबर थी और न ही वह उनमें से किसी को पहचानता था।
तीनों मोटरसाइकिलें राजधानी की चिकनी सड़कों पर भागती चली जा रही थीं। वे कभी समानांतर हो जातीं, कभी एकदम चिपक जातीं, लेकिन ज्यादातर एक-दूसरे के आगे-पीछे रहतीं। कई किलोमीटर बाद दौड़ का स्वरूप स्पष्ट होने लगा। उसे किसी ने बताया नहीं लेकिन उसे खुद-ब-खुद समझ में आ गया कि उनका शिकार कौन है। ट्रैफिक की कई रोशनियों को लांघते-फलांगते वे लगातार एक मोटरसाइकिल और अपने बीच पच्चीस गज की दूरी बनाये हुए थे। कई बार ऐसा हुआ कि किसी ट्रैफिक लाइट पर वह मोटरसाइकिल निकल गयी और पीछा करने वाली मोटरसाइकिलों को रुकने की नौबत आ गई किंतु तीनों में से कोई न कोई मोटरसाइकिल खतरनाक ढंग से ट्रैफिक सिगनल पार कर पीछा करने का सूत्र जारी रखती। अभी तक ऐसा नहीं हुआ था कि वह क्रम टूटा हो।
अगली मोटरसाइकिल बेखबर थी और पीछा करने वाले शायद सन्नाटे के इंतजार में थे। राजधानी की सड़कों पर सन्नाटा आसानी से नहीं मिलता इसलिए चूहे-बिल्ली की दौड़ का अंतहीन-सा सिलसिला चल रहा था। पी.पी. को सब कुछ एक तिलिस्म की तरह लग रहा था। अचानक एक ट्रैफिक सिगनल पर वह तिलिस्म टूट गया। अगली मोटरसाइकिल पर पीछे बैठे हुए आदमी ने पीछा करने वालों में से किसी को देख लिया। उसने कुहनी से चलाने वाले को कुरेदा और उसके कान में जल्दी-जल्दी कुछ कहा। चौराहे पर विपरीत दिशाओं का ट्रैफिक चल रहा था। सामने लाल बत्ती जल रही थी लेकिन इसके बावजूद खतरनाक ढंग से अगली मोटरसाइकिल लपकी और ट्रैफिक की भीड़ से सनसनाती हुई निकल गयी। पीछे से देखने पर पी.पी. का चेहरा फक्क पड़ गया। दो-तीन बार लगा कि किसी बस या कार की चपेट में वे लोग अब आये - तब आये लेकिन वे सुरक्षित निकल गये। पीछा करने वाली मोटरसाइकिलें भी तड़पीं, लेकिन अगली मोटरसाइकिल के कतार तोड़कर भागने से जो अस्तव्यस्तता उत्पन्न हुई थी, उसने चौराहे पर खड़े पुलिस वालों को अतिरिक्त रूप से सतर्क कर दिया। उन्होंने इतनी तेज और इतनी ज्यादा सीटियां बजायीं कि पीछा करने वाले मन मसोसकर रुके खड़े रहे। पीली बत्ती जलते-जलते ओमी ने अपनी मोटरसाइकिल दौड़ा दी। अभी भी चौराहा पार करना निरापद नहीं था लेकिन वह आड़ा-तिरछा काटता बिना किसी दुर्घटना के निकल गया।
चौराहा पार करने पर ओमी ने गालियां देना शुरू कर दिया। वह किसको गाली दे रहा था, यह पता करना मुश्किल नहीं था। वह अपने उस साथी को गाली दे रहा था जिसकी मोटरसाइकिल चौराहे की रोशनी पर रुकने पर शिकार के एकदम पास तक चली गयी थी और जिससे सारा खेल बिगड़ गया था। चौराहे के दूसरी तरफ आने के बाद ऐसा लगा कि उनका प्रयास असफल हो गया और वे अब उन्हें नहीं ढूंढ़ पायेंगे। थोड़ी देर बाद पी.पी. को लगने लगा कि वे बेकार प्रयास कर रहे हैं और अब उन्हें लौट जाना चाहिए। ओमी मोटरसाइकिल चलाने के ढंग से जितना उत्तेजित लग रहा था उससे पी.पी. की हिम्मत वापस लौटने की सलाह देने की नहीं पड़ रही थी। वह उस तेज रफ्तार की मोटरसाइकिल पर सीट से चिपका बैठा निरुद्देश्य-सा चारों तरफ निगाहें दौड़ा रहा था।
अचानक एक गली के सामने से गुजरते समय पी.पी. को सनसनाहट के अपने कानों से होकर गुजरने का एहसास हुआ। हुआ यह कि मुख्य सड़क से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर गई गलियां फूटी थीं। उन्हीं में से एक के सामने से गुजरते हुए उसे एक मोटरसाइकिल और उस पर बैठे दो लोगों की पीठ दिखाई दी। कपड़ों से उसे कुछ देर पहले देखे गये पीछा किये जाने वालों का भ्रम हुआ। उसने ओमी को लगभग झकझोर डाला और ओमी ने एक झटके से मोटरसाइकिल रोक दी। सड़क पर हॉर्न और ब्रेक की चीखों का स्वर गूंज उठा। बिना किसी की परवाह किये ओमी ने मोटरसाइकिल दाहिने मोड़ी और खतरनाक ढंग से सड़क पार करते हुए उसके दाहिने बाजू से निकली हुई गली में घुसा दी। गली काफी लंबी थी और सीधे जाकर दूसरी मुख्य सड़क से मिल गयी थी। वे झपटते हुए-से गली पार करते गये। गली अपेक्षाकृत शांत और निर्जन थी और दोनों तरफ बड़ी-बड़ी कोठियां थीं जिनके गेट बंद थे।
गली पार करते ही उनकी मुलाकात अपने शिकार से हो गयी। जहाँ गली खत्म होती थी, वहीं पर बायीं तरफ डी.टी.सी. का एक बस स्टैंड था। दिन का ऐसा वक्त था जब अधिक भीड़भाड़ नहीं रहती थी इसलिए वहां मुश्किल से चार-पांच आदमी-औरतें खड़े थे। उनकी मोटरसाइकिल शायद खराब हो गयी थी। उनमें से एक मोटरसाइकिल खड़ा करके उससे छेड़छाड़ कर रहा था और दूसरा पास खड़ा होकर सतर्क दृष्टि से चारों तरफ देख रहा था। ओमी और पी.पी. की मोटरसाइकिल इतने अप्रत्याशित रूप से पहुंची कि उसका चेहरा एकदम सफेद हो गया। उसने घुटे स्वर में कुछ कहने का प्रयास किया लेकिन उसकी आवाज कुछ साफ नहीं निकली। मोटरसाइकिल ठीक करने वाले को खतरे का एहसास उसकी अस्फुट आवाज से नहीं बल्कि उसके सरपट सड़क पर भागने से हुआ। उसने बैठे-बैठे पीछे मुड़कर देखने का प्रयास किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ओमी लगभग अपनी मोटरसाइकिल खड़ा कर चुका था।
बस स्टाप पर खड़े हुए लोगों की समझ में स्थितियां बाद में आयीं और घटनाएं पहले घटित हो गयीं। बैठे हुए आदमी ने उठने की कोशिश की। खड़े हुए दोनों लोगों के हाथों में पिस्तौलें थीं और वे लगातार आग उगल रही थीं। बैठा हुआ आदमी आधा उठने की मुद्रा में ही लुढ़क गया। दहशतजदा लोग मुंह बाये देखते रहे। सड़क पर गुजरने वाले वाहन धीमे हुए और फिर तेज रफ्तार से भाग निकले।
पी.पी. के गले में कांटे उग आये थे। वह बार-बार ओठों पर जबान फेरकर उन्हें तर कर रहा था। सड़क पर खड़े लोग या दौड़ते वाहन उसे धुंधली आकृतियों की शक्ल में नजर आ रहे थे। उठने की कोशिश करते हुए आदमी के दोनों हाथ हवा में लटक गये और जमीन पर गिरते समय उसका चेहरा आतंक, घबराहट और दर्द की लकीरों से भर गया था। काफी दिनों तक वह चेहरा पी.पी. को परेशान करता रहा। बाद के सालों में जब ऐसी घटनाएं आम हो गयीं तभी उसे इस चेहरे से मुक्ति मिली।
वहां से वापस भागते हुए पी.पी. एक बदला हुआ इंसान था। थोड़ी देर तो वह बेसुध-सा बैठा रहा। भागती हुई मोटरसाइकिल पर बैठे हुए उसकी सारी इंद्रियां सुन्न-सी पड़ गयी थीं। किस तरह भीड़ चीरती हुई मोटरसाइकिल आगे बढ़ती रही और किस तरह लाल-हरी बत्तियों वाले चौराहे पार करती रही, काफी देर तक तो कुछ पता ही नहीं चला। लेकिन जल्दी ही उसने अपने ऊपर काबू पा लिया और अपनी घबराहट को छिपाने के लिए गुनगुनाने लगा। बाद में बहुत बड़े-बड़े काम उसने किये लेकिन फिर कभी ऐसी घबराहट नहीं हुई।
इसके बाद की कहानी पी.पी. के निरंतर अपराध की इस दुनिया में आगे और आगे बढ़ते जाने की है। वह इतनी तेजी से आगे बढ़ा कि खुद उसके संरक्षक या गॉडफादर भी उससे घबराने लगे। वह धीरे-धीरे सूबे के पश्चिमी इलाकों के अपराध-जगत का बेताज बादशाह बनता जा रहा था। उसके रास्ते में सिर्फ दो रोड़े थे और उसने दोनों को बिना किसी माया-मोह के बड़ी निर्ममता से साफ कर दिया। उसे मालूम था कि अगर उसने उन्हें नहीं मारा तो वे उसे मार देंगे। अपराध की दुनिया का यही दस्तूर था। कोई गुरु अपने शिष्य का आगे बढ़ना बर्दाश्त नहीं कर सकता था। ये दोनों लोग थे - ओमी और चौधरी जगतपाल।
ओमी को उसने खुद मारा। मारने के पहले जगतपाल को यह एहसास जरूर करा दिया कि ओमी का मरना चौधरी के लिए जरूरी था। उसने ओमी की हत्या की योजना इस तरह बुनी कि चौधरी जैसा घाघ भी बिना यह भांपे कि उसे फंसाया जा रहा है, इसमें फंसता गया और अंत में खुद ही उसने पी.पी. को बुलाकर ओमी को मारने के लिए कह दिया। पी.पी. ने उस पर एहसान जताते हुए यह काम किया और उसी का पैसा हत्या के पहले तैयारी और बाद की पैरवी पर खर्च कराया। कुछ दिनों बाद जब तक चौधरी की समझ में आया कि उसे धोखा दिया गया है, जब तक पी.पी. बहुत ताकतवर और उसकी पहुंच के बाहर हो गया था। फिर भी ऊपर से दोस्ताना संबंध रखते हुए दोनों ने एक-दूसरे को मारने की कई योजनाएं बनायीं और असफल हुए, लेकिन अंत में पी.पी. सफल हुआ।