किस्सा लोकतंत्र / अध्याय 4 / विभूति नारायण राय
ओमी और जगतपाल ने पी.पी. के सामने सबसे पहले यह रहस्य उद्घाटित किया था कि अपराध की आधुनिक शहरी दुनिया में अकूत पैसा है। वह अभी तक सिर्फ गांवों या कस्बों के छोटे अपराधियों की जिंदगी से वाकिफ था जहां कुछ हजार रुपये साल भर में मिलते थे और उन्हें कमाने के लिए बुरी तरह से मशक्कत और जलालत का सामना करना पड़ता था। हर दो-तीन महीने पर पुलिस पकड़ लेती थी, पीटती थी और जेल-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते थे। चुनाव के समय नेता लोग बूथ कैप्चरिंग या अपने विरोधियों की चुनाव-सभाओं में विघ्न डलवाने जैसा काम करवाते थे और फिर चुनाव खत्म हो जाने के बाद कतराने लगते थे। अपराध की दुनिया सिर्फ ताकतवर लोगों के लिए बनी थी जो अपने कमजोर साथियों को रौंदते-कुचलते आगे बढ़ सकते हों।
अपराध की इस दुनिया में एक बात बड़ी साफ थी - एक निश्चित हैसियत हासिल करने के बाद अपराधी पुलिस, कानून, अदालत सबकी पहुंच के बाहर हो जाता है। इस हैसियत को हासिल करने का समीकरण भी जल्दी ही उसकी समझ में आ गया। अपने इलाके की ऐसी कई बड़ी हस्तियों का उसने निकट से अध्ययन किया जिन्होंने छुटभैये अपराधी की हैसियत से काम शुरू किया और जो अब राजनीति या दौलत की ऐसी अकूत ताकत के मालिक हो गए थे जिसके आगे पूरा समाज टुकर-टुकर ताकने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। इस प्रक्रिया में लगभग एक ही जैसी कहानी दुहरायी जाती। शुरुआत में एक व्यक्ति छोटे-मोटे अपराध करता। पुलिस पकड़ती, वह पीटा जाता, जेल जाता और बमुश्किल तमाम जमानत कराकर बाहर आता। धीरे-धीरे उसका हाथ खुलता और वह एक-दो सनसनीखेज डकैती या हत्या जैसी वारदातें कर बैठता। शुरू में तो लोग उसके खिलाफ एफ.आई.आर. लिखाते और गवाही देने के लिए तैयार रहते। लेकिन जैसे ही जमानत पर छूटकर वह एकाध गवाहों को मार देता और एकाध के घर पर चढ़ बैठता, उसके आतंक का दौर शुरू हो जाता। पुराने मुकदमों के गवाह धड़ाधड़ उसके पक्ष में हलफनामे लगा देते तथा नयी वारदातों में उसके खिलाफ गवाह मिलने मुश्किल हो जाते। फिर धीरे-धीरे उसके आतंक का प्रभा-मंडल कुछ इस तरह निर्मित होता कि उसे अपराध करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। उसके एक संदेश पर व्यापारी खुद ही लाखों रुपये पहुंचा जाते, उसके टेलीफोन पर मकान खाली हो जाते और छोटे-बड़े राजनीतिक नेताओं के लिए वह अपरिहार्य बन जाता। अगर कभी किसी को सबक सिखाने या कहीं शक्ति प्रदर्शन के लिए जाने की नौबत आती भी तो उसे स्वयं हाथ-पांव हिलाने की जरूरत नहीं पड़ती। इसके लिए उसके चेले-चापड़ ही काफी होते।
इस बात को समझने के बाद पी.पी. को यह हैसियत प्राप्त करने में ज्यादा समय नहीं लगा। ओमी ने उसे अपराध की दुनिया में हासिल होने वाली अकूत धन-संपदा से वाकिफ कराया और जगतपाल के जरिये राजनीति की ताकत से उसका साक्षात्कार हुआ। शुरू-शुरू में उसने छोटे-मोटे काम ओमी के कहने पर करने शुरू किये। किसी के मकान या दुकान को खाली कराना, किसी फैक्टरी में चल रही हड़ताल को तोड़ने के लिए मालिकों की तरफ से गुंडई करना या किसी बैंक या समृद्ध कालोनी में लूट-पाट करना - यही सब अपराध थे जिसमें उसने महारत हासिल कर ली थी। कभी कोई तगड़ी रकम मिलती तो वह भाड़े पर हत्या भी कर देता था। लेकिन इन सारे अपराधों से उसे उतना पैसा नहीं मिलता जितने की उसने कल्पना कर रखी थी। वह हिंदी फिल्मों में गॉडफादर या डॉन देखता और उसके अंदर उनके जैसा सब कुछ हासिल करने का एक कोमल सपना अंगड़ाइयां लेने लगता। उन्हीं जैसा बड़ा भव्य मकान, लकदक ड्राइंग रूम, लंबी गाड़ियां, खतरनाक हथियारों वाले बॉडीगार्ड और खूबसूरत औरतें।
इन सब चीजों को हासिल करने का रास्ता तब खुला जब वह पहली बार शराब माफिया के चक्कर में फंसा। देश की राजधानी के एकदम करीब शराब के सबसे बड़े उत्पादक की फैक्टरियां थीं। मुल्क में कोई भी सरकार बने, यह उत्पादक उसमें अपने मित्र तलाश ही लेता था। अकसर बड़े सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं की दावतें उसके यहां होती थीं। लोग इन दावतों का बेसब्री से इंतजार करते और इनमें निमंत्रित होना स्टेटस सिंबल मानते। शराब का यह माफिया अफसरों और राजनेताओं पर जो कुछ खर्च करता, उससे कई गुना ज्यादा वसूल लेता। पी.पी. भी उसी वसूली की प्रक्रिया का अंग बन गया।
खेल बड़ा सीधा था। पड़ोस के राज्य में शराब पर सेल्स टैक्स कम था। एक बोतल पर लगभग 30 रुपये की बचत थी। वह जिला प्रदेश की सीमा पर स्थित था, अतः केवल सीमा पार करते ही प्रति बोतल तीस रुपये की बचत हो जाती थी। एक ट्रक पर तीन हजार बोतलें लदती थीं। मतलब एक ट्रक पार कराने का नब्बे हजार रुपये बचते। तमाम सरकारी महकमों के अफसरों-कर्मचारियों को रिश्वत और दूसरे खर्चे काटकर भी शुद्ध बचत सत्तर हजार की हो जाती। रात में चार-पांच गाड़ियां पार होना साधारण बात थी। पी.पी. इसी खेल में शरीक हो गया। अपनी दुस्साहसी प्रवृत्ति और लगन के कारण वह शराब माफिया का प्रिय हो गया। हर ट्रक के सही-सलामत पहुंचने पर उसे दस हजार रुपये मिल जाते। इस तरह से एक ही रात में चालीस-पचास हजार रुपये की आमदनी हो जाती। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि अपराध की दुनिया में इतना ज्यादा धन है।
पैसा आया तो उसके गंवई संस्कार बदले और उसने तेजी से शहरी चालाकी और चुस्ती हासिल करना शुरू कर दिया। अपने हाथ से वह सरकारी मुलाजिमों को रिश्वत देता, नेताओं से बातचीत करता, पत्रकारों को पटाता या पुलिस और आबकारी विभाग के कर्मचारियों से मिलकर अपने प्रतिद्वंद्वी तस्करों की गाड़ियां पकड़वा देता। इन सारी चीजों से उसके अंदर आत्मविश्वास बढ़ा और जिस तेजी से उसने अपने को अपने आका शराब-निर्माता के लिए उपयोगी सिद्ध किया, उसे देख-सुनकर शराब-निर्माता भी वाह-वाह करने लगता था। मसलन यह उसके दिमाग की ही उपज थी कि शराब बजाय ट्रकों पर पार किए जाने के सिर्फ कागजों पर पार होने लगी और मुनाफा भी बढ़ गया। जाड़े की कड़कड़ाती सर्दी में कोहरे से घिरी सड़कों पर ट्रक में बैठकर सफर करना और रास्ते भर चुंगी-नाकों या चेंकिग पर कंबल ओढ़कर ठिठुरते हुए उतरना बड़ा कष्टसाध्य होता था। पैसे की हवस में लगभग रोज रात भर जागना पड़ता था। इसमें खतरे भी थे। कभी कोई ट्रक दुर्घटनाग्रस्त हो जाता या रास्ते में लुट जाता। लाख सेटिंग के बावजूद विपक्षी माफिया किसी न किसी सरकारी एजेंसी को पैसा खिलाकर कभी-कभी उसकी ट्रक पकड़वा देता। एक ट्रक पकड़े जाने पर कई रातों का मुनाफा चला जाता। यह तय था कि शराब-निर्माता भुगतान तभी करता जब माल सही-सलामत पहुंच जाता। इसीलिए पी.पी. का दिमाग लगातार ऐसी उधेड़बुन में लगा रहता था जिससे रात भर की उस भागदौड़ से मुक्ति मिल सके। अंत में उसने एक ऐसी योजना पेश की जिससे उसके आका भी चमत्कृत हो गये।
देश के कई छोटे-छोटे प्रांत ऐसे थे जहां शराब पर एक्साइज ड्यूटी बहुत कम थी। इस प्रदेश में उनके मुकाबले बहुत अधिक थी। एक्साइज ड्यूटी शराब के फैक्टरी से निकलते समय लगती थी। अगर शराब प्रदेश के किसी शहर की दुकान के नाम निकलती तो वह महंगी होती लेकिन अगर यही शराब पांडिचेरी या नागालैंड के नाम निकलती तो सस्ती होती। पी.पी. के दिमाग ने इसके लिए एक बेहतरीन योजना बनायी। पांडिचेरी की किसी दुकान के नाम शराब के ट्रक की निकासी होती और यह शराब पचास-साठ किलोमीटर की परिधि में ही किसी दुकान पर उतार दी जाती। एक कार पांडिचेरी तक जाती और रास्ते भर की चुंगियों पर ट्रक के नंबर का इन्दराज होता जाता। पांडिचेरी की दुकान पर माल की आमद हो जाती और माल बिक भी जाता। सब कुछ कागज पर होता। असली माल ऊंची कीमत पर प्रदेश की ही किसी दुकान पर बिकता। बाद में यह व्यवस्था इतनी पुख्ता और दोषरहित हो गयी कि किसी को पांडिचेरी भेजने की जरूरत भी नहीं पड़ती और सिर्फ टेलीफोन से ही सभी कागजों का पेट भरता जाता और पांडिचेरी या नागालैंड तक के सरकारी अमले संतुष्ट होते जाते। इसमें खतरा कम और फायदा ज्यादा था। शराब के निर्माता और पी.पी. दोनों ने इसमें अकूत धन कमाया।
अपराध की दुनिया में कितना पैसा है, इसका पहला एहसास पी.पी. को शराब की इसी तस्करी में हुआ।
शराब की तस्करी का उसका साथ ज्यादा दिन नहीं चला। जिन लोगों के लिए वह काम कर रहा था, उन्हें लगातार लगने लगा कि पी.पी. उनके धंधों के बारे में कुछ ज्यादा ही जानने लगा है। पी.पी. को हमेशा यह कसक रहने लगी थी कि उसका इस्तेमाल हो रहा है और उसका पूरा मेहनताना उसे नहीं मिल रहा है। दोनों पक्ष एक-दूसरे से छुटकारा पाना चाहते थे। मालिकों ने उसकी गतिविधि लीक कर दी और बाद में उसे पकड़वा भी दिया। एक बार हमला भी कराया गया जिसमें वह सिर्फ आदतन चौकन्ना होने के कारण ही बाल-बाल बच पाया। उसे जल्दी ही पता चल गया और उसने मालिकों का माल पकड़वा दिया और उनके विरुद्ध इस्तेमाल किए जा सकने वाले कागजात सरकारी एजेंसियों तक पहुंचा दिए। मालिकों को बचने के लिए काफी पैसा खर्च करना पड़ा। दोनों पक्ष एक-दूसरे से सतर्क रहने लगे और एक-दूसरे से अलग हो गए।
अलग होने तक पी.पी. ने इतना पैसा कमा लिया था कि अपराध की दुनिया में उसकी एक हैसियत बन गयी थी। उसने अब जमीनों का धंधा करना शुरू कर दिया । देश की राजधानी के चारों तरफ पहले जो छोटे-मोटे कस्बे थे वे अब तेजी के साथ आधुनिक नगरों में तब्दील होते जा रहे थे। पंजाब में आतंकवादी घटनाओं की वृद्धि ने एकदम से जमीनों पर दबाव बढ़ा दिया। राजधानी में अब एक इंच भी जमीन उपलब्ध नहीं रह गयी थी, लिहाजा लोग तेजी के साथ पड़ोसी नगरों में बसने के लिए जमीन तलाश रहे थे। हर साल राजधानी और उसके उपग्रह नगरों की आबादी में कई लाख का इजाफा हो जाता। पंजाब की भगदड़ के अलावा पूरे मुल्क से रोजगार की तलाश में लाखों लोग निकलते और उस भीड़ का अंग बन जाते जो रेलवे स्टेशनों, फुटपाथों और गंदी बस्तियों में सिर छिपाने की जगह तलाशती रहती। एक अदद मकान या छोटा-बड़ा भूखंड इनकी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना था और इस सपने को हासिल करने के लिए वे अपने जीवन भर की पूंजी लुटाने के लिए तैयार रहते। उनके इसी सपने की तिजारत के लिए रातों-रात बिचौलियों की एक फौज खड़ी हो गयी थी। ये बिचौलिये प्रॉपर्टी डीलरों का बोर्ड लगाकर गली-गली में बैठ गए थे। ये किसी की जमीन किसी और के नाम से किसी को बेच सकते थे, एक-एक जमीन की चार बार रजिस्ट्री करवा सकते थे, सरकारी जमीन किसी के नाम चढ़ा सकते थे, गरज यह कि पैसा कमाने के लिए कुछ भी कर सकते थे।
भोले-भोले जरूरतमंद लोगों की एक लंबी कतार थी, जो बार-बार ठगे जाने पर भी समाप्त नहीं होती थी। लोग ठगे जाते, अखबारों में ठगी के किस्से पढ़ते, धड़कते दिलों से दूसरों के लुटने के किस्से सुनते लेकिन फिर भी बार-बार धोखा खाने के लिए इन्हीं प्रॉपर्टी डीलरों के दफ्तरों के आगे लाइन लगाकर खड़े हो जाते। पी.पी. भी पूरे जोर-शोर से प्रॉपर्टी डीलिंग के धंधे में कूद गया। जल्दी ही उसने इस पेशे में लगे दूसरे सभी लोगों को पीछे छोड़ दिया।
पी.पी. की कामयाबी के पीछे कारण भी बड़ा स्पष्ट था। दूसरे सिर्फ दिमाग की खाते थे, पी.पी. दिमाग और बाहुबल दोनों की खाता था। शहर के व्यस्त भीड़ भरे इलाके में हसन मंजिल के नाम से एक बहुत पुरानी इमारत थी। इसके मालिकान देश के विभाजन के साथ पाकिस्तान चले गये थे। एक वकील साहब, जो इस इमारत में दूसरे पचासों किरायेदारों की तरह छोटे-से टुकड़े में किरायेदार थे, मालिक मकान के रिश्तेदार बनकर किराया वसूलने लगे। जो कमजोर किरायेदार थे, वे किराया देने लगे और जो जरा भी सरहंग थे, उन्होंने वकील को घुड़क कर हर महीने भगाना शुरू कर दिया। इमारत बहुत पुरानी और जर्जर हो गयी थी। पी.पी. ने सैकड़ों बार इस इमारत को देखा था लेकिन इसका महत्व उसे प्रापर्टी डीलिंग के धंधे में जाने के बाद ही पता चला।
एक दिन दो जीपें हथियारों से लदे-फदे लोगों से भरी हसन मंजिल के अहाते में आकर रुकीं।
'मैं यहां नौमंजिला इमारत बनवाऊंगा। नीचे दुकानें और ऊपर फ्लैट।' पी.पी. ने हवा में घोषित किया।
उसके आदमी चारों तरफ फैल गये। इमारत की तमाम खिड़कियां खुलीं और बंद हो गयीं। खेलते हुए बच्चे सहमकर खड़े हो गये। घबरायी हुई औरतों ने अपने पतियों को बाहर निकलने से रोक दिया।
'क्या हो रहा है? यहां तुम लोग बिना मेरी इजाजत के कैसे आ गये?' बूढ़ा वकील छड़ी पर दोनों हाथों का बोझ डाले कांप रहा था।
'मैं यहां बहुत ऊंची इमारत बनवाऊंगा। नीचे दुकानें होंगी, ऊपर फ्लैट।' पी.पी. ने आसमान की तरफ हाथ उठाकर इमारत की ऊंचाई बताने की कोशिश की।
'लेकिन तुम हो कौन? मेरी जमीन पर तुम कैसे इमारत बनाओगे?'
'मैंने यह जमीन और इमारत खरीद ली है।'
'बॉस ने पाकिस्तान जाकर हसन साहब से रजिस्ट्री करवा ली है।' पी.पी. के एक चेले ने बूढ़े को समझाया।
'लेकिन कैसे? हसन साहब तो पाकिस्तान जाने के दो साल बाद ही मर गये। तुमने किससे जमीन लिखवायी ?'
'मेरे ऑफिस आ जाना ताऊ। सब समझा दूंगा।' पी.पी. ने अपने चेलों को इकट्ठा किया और दोनों जीपें बूढ़े के परेशान और असहाय चेहरे पर धूल उड़ाती चली गयीं।
उसके बाद बूढ़ा बहुत दौड़ा। सरकारी अधिकारियों से लेकर शहर के मोअज्जिज लोगों तक। उसने कई प्रॉपर्टी डीलरों से भी बातचीत की कि औने-पौने भाव में संपत्ति उन्हें बेच दे। पूरे शहर को मालूम हो गया था कि हसन मंजिल पी.पी. ने खरीद ली है। कई प्रॉपर्टी डीलरों ने आश्वासन दिया, लेकिन कोई खरीदने आगे नहीं आया। बूढ़ा दौड़ता रहा, दौड़ता रहा और एक दिन पी.पी. के लोग उसे पी.पी. के दफ्तर में उठा ले गये।
पानी में भीगे चूहे की मानिंद बूढ़ा सहमा हुआ एक छोटी-सी कुर्सी पर बैठा था। सामने बड़ी घूमने वाली कुर्सी पर बैठा हुआ पी.पी. उसे किसी शातिर शिकारी बाज की तरह लग रहा था। बोलता हुआ वह डैने फैलाये झपट पड़ने को आतुर पक्षी-सा लग रहा था और बूढ़े को बार-बार हकलाने या गिड़गिड़ाने पर मजबूर कर रहा था।
'ताऊ, जो मैं दे रहा हूं, यह भी ज्यादा है। तेरा हक क्या बनता है? हसन साहब के जाने के बाद तूने जबर्दस्ती किराया वसूलना शुरू कर दिया। अब मालिक की तरह पूरा दाम मांग रहा है। लेना हो तो बता, नहीं तो ये भी नहीं मिलेगा। मैं इतनी देर बात नहीं करता।' पी.पी. ने दो टूक फैसला सुनाते हुए जब बात खत्म की तब तक बूढ़ा खूब समझ गया था। उसने अपने बच्चों से सलाह-मशवरा करने की मोहलत मांगी। पी.पी. ने दे दी। उसकी अनुभवी आंखों ने ताड़ लिया था कि शिकार पूरी तरह से दम तोड़ने के लिए तैयार था।
बच्चों से सलाह करने की बात एक बार फिर से प्रयास करने का बहाना था। वह एक बार फिर बंगलों, कोठियों और दफ्तरों के चक्कर लगाता रहा। इस बार के चक्कर जल्दी खत्म हो गये। इस बार इस फैसले पर पहुंचने में उसकी बीवी का हाथ था। शहर में पिछले कुछ सालों में लूट-पाट और हत्या की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई थी। हाल के दिनों में अपराध की दुनिया में एक नया नाम जुड़ गया था - अपहरण। खास तैार से सूबे के पश्चिमी जिलों में जहां समृद्धि बहुत आ गयी थी, अपहरण काफी तेजी से बढ़ा था। सामान्य अपराध से कई गुना पैसा अपेक्षाकृत कम मेहनत से इसमें मिलता था। एक अपहरण में चार-छह लाख मिलना तो मामूली बात थी, अकसर पच्चीस-तीस लाख वाली पार्टियां भी मिल जाती थीं। पी.पी. कभी पकड़ा तो नहीं गया, लेकिन आम शोहरत थी कि उसका भी हाथ इन घटनाओं में था। यह भी आम शोहरत थी कि अपहरण का पैसा अपराधियों, राजनेताओं, पत्रकारों, सरकारी कर्मचारियों - सबके बीच बंटता था। बूढ़े वकील को सभी दफ्तरों और बंगलों ने टरका दिया। जिस तरह की उपेक्षा और दुनियादारी वाली नसीहतें उसको इन दफ्तरों और कोठियों से मिलीं, उन्हें सुन-सुनकर उसकी पत्नी का दिल बैठता गया। ज्यादातर घर की चहारदीवारी में बंद रहने के बावजूद वह अपने शौहर से ज्यादा अक्लमंद थी। उसने एक बार निर्णयात्मक रूप से अपने शौहर को समझाया और बूढ़ा मान गया। शायद उसे अब ऐसी ही किसी सलाह की जरूरत भी थी।
बूढ़े वकील को पी.पी. ने इतने पैसे दे दिये कि वह दो कमरों का फ्लैट खरीदकर उसमें चला गया। उसके रास्ते से हटने के बाद पी.पी. के लोगों ने बड़ी तेज गति से कार्यवाही की। ज्यादातर किरायेदार थोड़े-बहुत पैसे लेकर खुद ही चले गये। कुछ का सामान पी.पी. के आदमियों ने सड़क पर फेंक दिया। वे बिना पैसा लिये चले गये। पी.पी. के एक विरोधी माफिया ने लोगों को पैसे देकर अगल-बगल की दुकानें बंद करवाकर चक्का जाम करवाने की कोशिश की। उन्हें पुलिस ने लाठियां भांज कर भगा दिया। दुकानदारों के घरों पर रात में पी.पी. के लोग गये। दूसरे दिन दुकानें भी खुल गयीं।
केवल एक प्रतिरोध कुछ दिनों तक उपस्थित रहा। बिल्डिंग के गेट के पास छोटी-सी कोठरी में एक कुबड़ी अपने तीन बच्चों के साथ रहती थी। उसका सामान फेंका गया तो वह अपने बच्चों के साथ गेट पर ही अनशन करने लगी। पी.पी. के लोग सुबह-शाम उसके चक्कर काटते रहे। रात में पुलिस वाले उसे धमका जाते। अगर वह मानती तो शायद इस बिल्डिंग में सबसे ज्यादा पैसा उसी को मिलता लेकिन वह तो जिद पकड़कर बैठ गयी तो बैठ गयी। उसकी एक ही जिद थी कि उसे रहना है तो उसी कोठरी में जिसमें तीस साल से वह रहती आयी थी। तीन-चार दिन मनाने के बाद डॉक्टरों से उसकी दशा चिंताजनक घोषित करवाकर उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। पर वहां से डिस्चार्ज होकर वह फिर बच्चों के साथ गेट पर बैठ गयी।
शहर को कुबड़ी के खेल में मजा आने लगा। पी.पी. के आतंक से किसी की हिम्मत नहीं थी कि बुढ़िया के पास सहानुभूति के लिए बैठ सके। विरोधी माफिया ने जरूर कुछ नेताओं को भेजने की कोशिश की, लेकिन किसी ने जरूरत से ज्यादा बोलने की जुर्रत नहीं की। स्थानीय अखबारों ने भी बुढ़िया के अनशन की खबर बिना किसी टिप्पणी के बीच के पृष्ठों में छापी। पर एक बात जरूर थी कि पूरे शहर में एक अजीब तरह की सनसनी थी। घरों में, दफ्तरों में, चायखानों या बसों में घूम-फिरकर बात बुढ़िया पर जरूर आ जाती। अदृश्य लेकिन महसूस की जा सकने वाली सहानुभूति बुढ़िया को शहर से मिल रही थी।
पर अचानक एक दिन शहर को अपनी रगों में झुरझरी-सी दौड़ती महसूस हुई। लोग आतंक और नपुंसक गुस्से से स्तब्ध रह गये। बुढ़िया और उसका कुनबा एक रात न जाने कहां गायब हो गया। उन्हें फिर कभी नहीं देखा गया।
मुहावरे की भाषा में कहें तो दिन दूनी रात चौगुनी खड़ी हुई पी.पी. की इमारत। कई मंजिला इमारत में नीचे दुकानें थीं। पहली मंजिल दफ्तरों और बैंकों के लिए थी और ऊपरी मंजिलों में रिहायशी फ्लैट थे। मौके की जगह पर होने के कारण इतनी जबर्दस्त मांग थी कि हफ्ते-दस दिन में सब बिक गये। ज्यादातर की बुकिंग तो निर्माण शुरू होते ही हो गयी थी। पगड़ी और कीमत मिलाकर उससे इतनी आय हुई जिसकी उसने कल्पना नहीं की थी। आगे भी इस धंधे में बाहुबल, तिकड़म और दिमाग ने उसे बेशुमार दौलत का मालिक बनाया।