किस्सा लोकतंत्र / अध्याय 5 / विभूति नारायण राय

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पैसा और आतंक कमाने के बाद पी.पी. का ध्यान राजनीति की तरफ गया। राजनीति में सबसे पहले उसका इस्तेमाल चौधरी जगतपाल ने किया था। चौधरी ने शुरू में तो उससे शुद्ध आपराधिक कृत्य करवाये। अपने विरोधी खेमे के लोगों का अंग-भंग करवाना या कभी मामला हद से बढ़ जाने पर किसी की हत्या करवा देना जैसे काम ओमी के साथ पी.पी. को सौंपे जाते थे। चौधरी जब कहीं निकलता उसके साथ पुलिस की गारद तो रहती ही, साथ में ओमी और पी.पी. जैसे आठ-दस लोग राइफलों और बंदूकों के साथ दो-तीन गाड़ियों में और लदे-फंदे रहते। चौधरी को हर समय मार दिये जाने का खतरा था इसलिए वह हमेशा चौकन्ना रहता। पुलिस से ज्यादा भरोसा उसे अपनी गारद पर था इसलिए कभी भी वह सिर्फ पुलिस की सुरक्षा लेकर नहीं निकलता था। उसके इर्द-गिर्द चलने वालों को उनके साहस और चौकन्नेपन के लिहाज से काफिले में आगे-पीछे जगह मिलती थी। पी.पी. कुछ ही दिनों में उसका सबसे करीबी अंगरक्षक बन गया। वह चौधरी की ही गाड़ी में आगे पुलिस के शैडो के साथ बैठता और गाड़ी रुकते ही झपटकर पिछले दरवाजे के पास आकर पोजीशन ले लेता। गिद्ध की तरह चौकन्नी उसकी आंखें चारों तरफ तेजी के साथ घूमतीं और सब कुछ ठीक होने का इशारा होता था उसका कार का गेट खोलना। दरवाजा खुलने तक चौधरी पी.पी. की हरकतें देखता रहता। पी.पी. का चौकन्नापन उसे मुग्ध कर देता। इसीलिए चौधरी उससे राजनीतिक मसलों पर भी सलाह-मशविरा करने लगा था।

राजनीति में पी.पी. ने पहला योगदान किया विधानसभा के चुनाव में। चौधरी जगतपाल अभी तक ब्लॉक प्रमुख था और पहली बार विधानसभा के लिए लड़ रहा था। ब्लॉक प्रमुख के लिए धन और बाहुबल का प्रयोग ज्यादा आसान था। उसमें वोटर मुख्य रूप से ग्राम प्रधान होते थे जिन्हें खरीदना या आतंकित करना चौधरी के लिए मुश्किल नहीं था। पिछली बार चुनाव के दस दिन पहले उसने चालीस के करीब ग्राम प्रधानों को अपने यहां उठवा लिया। गर्मियों के दिन थे। उसने एक लक्जरी बस की और सबको शिमला भेज दिया। साथ में उसके खजांची और बंदूकची थे। रास्ते भर प्रधानों को उन्होंने खाने-पीने और संगीत से तर कर दिया। रही-सही कसर शिमला में पूरी हो गयी। शहरी वैभव और ऐश्वर्य से प्रधान धन्य हो गये।

चुनाव के दो दिन पहले सभी प्रधानों को वापस लाया गया। एक बार फिर से उनके लिए दिव्य व्यवस्था की गयी। प्रधानों ने डटकर अच्छी शराब पी, मुर्गों की टांगें तोड़ीं, फूहड़ कैबरे देखा और कूलर की ठंडी हवा में कैद रहे। उनके कमरों के बाहर लगातार पहरा रहा ओर उन्हें किसी से मिलने-जुलने की इजाजत नहीं थी। चुनाव के दिन फिर वे एक लक्जरी बस में बैठाये गये और उनकी बस के आगे-पीछे दो-दो गाड़ियों में सशस्त्र लोग उन्हें लेकर मतदान केंद्र के लिए रवाना हुए। रास्ते में एक पुलिया पर विरोधी खेमे के बंदूकची गाड़ाबंदी किये बैठे थे लेकिन चौधरी जगतपाल का इंतजाम ज्यादा पक्का था। वह काफिले को दूसरे लंबे रास्ते से लेकर चला और जब तक विरोधियों को पता चलता कि उन्हें धोखा हुआ है, सभी प्रधान मतदान केंद्र के अंदर पहुंच गये।

यद्यपि पिछले कई दिनों से प्रधानों की सेवा हो रही थी और उन्हें इसके अतिरिक्त काफी पैसा भी दिया गया था, फिर भी उनमें से कुछ का भरोसा नहीं किया जा सकता था। इसलिए उनमें से तीन के लिए डॉक्टरी सर्टिफिकेट प्राप्त किये गये कि उनकी आंखों में इतनी रोशनी नहीं है कि वे स्वयं वोट दे सकें। अतः उन्हें एक-एक सहायक प्रदान किया गया जिसकी सहायता से उन्हें अपने मतपत्र पर निशान लगाना था। चार दूसरे प्रधान भी ऐसे निरक्षर भट्टाचार्य घोषित किये गये जिन्हें वोट देने के लिए सहायकों की नितांत आवश्यकता थी। उन्हें भी एक-एक सहायक प्रदान किया गया। इस तरह सातों प्रधानों के साथ जिनके ऊपर चौधरी को पूरा विश्वास नहीं था, चौधरी का एक-एक आदमी सहायक के रूप में लग गया। विरोधी खेमा शोर मचाता रहा लेकिन निर्वाचन अधिकारियों को चौधरी ने पहले से ही खुश कर रखा था।

चौधरी ब्लाक प्रमुख का चुनाव जीत गया और इस तरह उसकी राजनीतिक यात्रा शुरू हुई। पर इस बार चुनाव विधानसभा का था और मामला कुछ टेढ़ा था।

चौधरी जगतपाल देश की राजनीति में पिछले दो दशकों में आये गुणात्मक परिवर्तन की उपज था। 1967 के आम चुनावों में बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनाव क्षेत्रों में पहली बार एक नया प्रयोग शुरू हुआ। पहली बार बूथ कैप्चरिंग जैसे शब्द से देश का व्यापक परिचय हुआ। सभी राजनीतिक दलों को एहसास हुआ कि वे जोर-जबर्दस्ती करके अपने पक्ष में वोट डलवा सकते हैं। उन्होंने स्थानीय दबंग भूस्वामियों और अपराधकर्मियों की मदद लेना शुरू किया। ये लोग मतदान केंद्रों से अपने विरोधी वोटरों को भगा देते। अपने वोटरों को सुरक्षा प्रदान करते और एक-एक वोटर से कई-कई वोट फर्जी डलवाते। अकसर मतदान केंद्र से दूर गांव की सरहद पर ही इनके आदमी पहरा देते और विरोधी उम्मीदवार के समर्थकों की गाड़ी बाहर ही रोककर उनसे लगभग एक जैसा प्रश्न पूछा जाता - वोट डालकर हाथ-पैर तुड़वाना है या सही-सलामत घर वापस जाना है? ज्यादातर लोग दूसरे विकल्प के पक्ष में राय देते। जो लोग अंदर गांव में जाकर मतदान केंद्रों तक जाने का प्रयास करते उनके हाथ-पैर टूटते या सिर फूटते।

धीरे-धीरे बूथ कब्जे ने एक संगठित और निर्णायक हस्तक्षेप का रूप ले लिया। जो राजनीतिक दल जहां मजबूत था, वह वहीं कब्जा करने का प्रयास करने लगा। बूथ कब्जा शब्द भी अप्रासंगिक हो गया। उसकी जगह बूथ डकैती शब्द का प्रयोग होने लगा। आवश्यकता के अनुसार इस बूथ डकैती में नये-नये आयाम जुड़ने लगे। शुरुआती दिनों में जहां बूथ से दूर अपने मुखालिफ वोटरों को रोका जाता था, बाद में बूथ पर पहुंच चुके और लाइन में खड़े विरोधी वोटरो को भी बम फोड़कर या फायरिंग करके खदेड़ा जाने लगा। कुछ दिनों बाद इसकी भी जरूरत नहीं रही। जीपों में भरकर हथियारबंद लोग मतदान शुरू होने के प्रारंभिक घंटों में ही आते और मतदान अधिकारियों से बैलेट पेपर छीनकर उन पर ठप्पे लगाते और उन्हें बक्सों में भर देते। वे एक के बाद एक मतदान केंद्र पर लूटपाट करते आगे बढ़ते चले जाते।

देश में धीरे-धीरे ऐसे मतदान केंद्रों की संख्या बढ़ती जा रही थी जिनमें सुबह दस-ग्यारह बजे तक ही चुनाव समाप्त हो जाता था। वोटरों के नब्बे-पच्चानवे प्रतिशत वोट लेकर जीतने वाले बड़ी बेशर्मी से फूलमालाएं अपने गले में डाले विधानसभाओं और लोकसभा में पहुंच रहे थे।

बूथ कब्जा करने की यह पूरी प्रक्रिया बिना गुंडों, बदमाशों या डकैतों के पूरी नहीं हो सकती थी। चुनाव की घोषणा होते ही दादा लोगों की बांछें खिल जातीं। हथियारों की देशी फैक्टरियों में रात-दिन काम होने लगता। जिस तरह निर्वाचन आयोग और प्रशासनिक मशीनरी युद्ध स्तर पर काम करके चुनाव की सभी तैयारियां पूरी करते उसी तरह बूथ कब्जा करने वाले भी अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए पूरे विस्तार के साथ योजनाएं बनाते और साधन जुटाते। देश के बहुत सारे चुनाव क्षेत्रों में बिना इन दादाओं के चुनाव लड़ने की कल्पना भी असंभव लगने लगी थी।

चुनावों में इस्तेमाल बढ़ने के साथ-साथ अपराधियों की सामाजिक स्थिति में भी गुणात्मक परिवर्तन आया। पहले अपने साथ जुड़े सारे आतंक और दबंगई के बावजूद एक अपराधी की समाज में कोई हैसियत नहीं होती थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण जमींदार का लठैत था। जमींदार और लठैत दोनों जानते थे कि बिना लठैत के जमींदार को कोई नहीं पूछेगा, फिर भी दोनों का आपस में संबंध मालिक और चाकर का रहता। लठैत कभी भी जमींदार के सामने बैठने की कल्पना नहीं कर सकता था। वह हाथ बांध के कोने में खड़ा रहता और जमींदार के इशारों का इंतजार करता।

आजादी के बाद के राजनेताओं की पहली पीढ़ी आदर्शवाद के नशे से पूरी तरह गाफिल नहीं हुई थी। उसके लिए अपराधियों से खुला संबंध रखने की कल्पना भी असंभव थी। दो-तीन आम चुनावों के बाद चुनाव के मैदान में जो नयी पौध आनी शुरू हुई उसके लिए किसी तरह का आदर्शवाद बेमानी अवधारणा की तरह था। लेकिन इतनी आंख की शर्म उसके पास भी थी कि अपराधियों से खुलेआम उसके संबंध उजागर न होने पायें। वे रात के अंधेरे में अपराधियों से मिलते, चुनावों में उनका इस्तेमाल करते, उन्हें भरपूर भुगतान करते लेकिन सार्वजनिक रूप से इसका पर्दाफाश होने से डरते। अपराधियों के साथ किसी उत्सव या कार्यक्रम में अगर कोई फोटो खिंच जाती तो उसे किसी तरह हासिल करके नष्ट करने का प्रयास करते।

यह स्थिति कम समय तक रही। अपराधियों पर निर्भरता कुछ इस कदर बढ़ी कि यह चुनाव के दिनों तक ही सीमित नहीं रही। चुनावों के अतिरिक्त भी अपने विरोधियों को आतंकित करने के लिए उनका इस्तेमाल होने लगा। इस दौरान अपनी ही पार्टी के संगठनात्मक चुनावों में अपराधियों का इस्तेमाल शुरू हुआ। एक पार्टी में जितने गुट होते, वे सभी पार्टी दफ्तर में मुखालिफ गुट के लोगों से इन अपराधियों की मदद से निपटने लगे। चुनाव भी ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक इतने होने लगे कि शायद ही किसी वर्ष चुनाव नहीं होते। हर समय तैयारी की हालत में रहना पड़ता और हर समय अपराधकर्मियों की जरूरत पड़ती।

इसी के साथ शुरू हुआ अपराधी और राजनेता का खुला गठबंधन। खुले आम नेता ने अपराधियों को पालना शुरू कर दिया। अपराधी उसकी सभाएँ कराने लगे, उसके विरोधियों के मुंह पर कालिख पोतने लगे, उसे चुनाव जिताने लगे और एवज में नेता उनके लिए थाने पर टेलीफोन करने लगा, गिरफ्तार होने पर उनकी जमानत कराने लगा, उन्हें हथियारों के लाइसेंस दिलाने लगा और ऐसे सरकारी अधिकारियों के तबादले कराने लगा जो उनके रास्ते में अड़ंगा लगाते। जुलूस में मालाओं से लदी गर्दन वाले नेता के ठीक पीछे जीप पर उसी तरह हाथ जोड़े कोई अपराधी खड़ा होता। कार्यक्रमों के संचालक के रूप में मोहल्ले का सबसे बड़ा दादा माइक पर मौजूद होता। रेलवे स्टेशन पर या हवाई अड्डे पर सबसे आगे स्वागत करने वाला भी इलाके का कोई सबसे बड़ा अपराधी होता। नेता के घर शादी पड़ती, अपराधी आगे-आगे सारे इंजताम में लगा रहता। अपराधी के बच्चे का जन्मदिन पड़ता, नेता राजधानी के अपने व्यस्त कार्यक्रम छोड़कर भागता हुआ आता।

नेता पुराने जमाने का जमींदार था और गुंडा लठैत, लेकिन दोनों के बीच का संबंध अब पुराने जमाने के जमींदार और लठैत के संबंधों जैसा नहीं रह गया था। बल्कि कई मामलों में तो वह उलटा होने लगा था। बड़े माफिया सरगना खुद नेता पालने लगे। वे अलग-अलग क्षेत्रों से अपने नेताओं को लड़ाते और उन्हें जिताते। ये नेता उनके सामने हाथ बांधे खड़े रहते। अपने आका पर संकट आता देखकर ये कटखने कुत्ते की तरह अफसरों पर झांव-झांवकर टूट पड़ते।

चौधरी जगतपाल और पी.पी. ऐसे वक्त की उपज थे जब अपराधकर्मियों की उमंगें एक कदम और आगे के धरातल पर उड़ानें भर रही थीं। वे अपराधियों की उस पीढ़ी की उपज थे जिन्हें दूसरों के लिए बूथ लूटते-लूटते यह इलहाम हो गया था कि अगर वे दूसरों को विधायक या सांसद बना सकते हैं तो स्वयं क्यों नहीं बन सकते। समाज के पूरे दृष्टिकोण में एक खास तरह का फर्क आ रहा था। अब वे किसी तरह की घृणा के पात्र या अछूत नहीं रह गये थे। उनके घर जाने में या उन्हें अपने घर बुलाने में पहले वाली झिझक नहीं रह गयी थी। उन्हें सामाजिक स्वीकृति हासिल होने लगी थी और लोग उनसे संबंध बनाने या उन संबंधों का इजहार करने में फख्र का अनुभव करने लगे थे।

ऐसे ही महत्वपूर्ण समय में अवतरित हुए थे चौधरी जगतपाल और पी.पी. जब पूरा देश लुटने के लिए अपराधियों के सामने प्रस्तुत था। इन अपराधियों ने दूसरों को शासक बनाते-बनाते खुद शासक बनने की ठान ली थी और एक-एक करके मुल्क की मनसबदारियां उनके कदमों में गिरने लगी थीं।

ब्लॉक प्रमुख का चुनाव जीतने के बाद चौधरी जगतपाल ने विधायक की कुर्सी पर नजर जमायी और उस चुनाव में पहली बार पी.पी. के बाहुबल की परीक्षा हुई। जाड़ों के दिन थे और मतदान सुबह आठ बजे से शाम चार बजे तक होना था। पी.पी. की मंडली मुंह अंधेरे ही सक्रिय हो गयी। जिन गांवों के हरिजनों के वोट मिलने की आशा नहीं थी, उनमें रात को ही पी.पी. का गैंग घूम आया था। हरिजनों को बता दिया गया था कि उन्हें वोट देने जाने की जरूरत नहीं है। उनका वोट पड़ गया है। सुबह एक बार उन गांवों में फिर घूमकर देख लिया गया कि हरिजन घर से निकल तो नहीं रहे। सिर्फ दो गांवों में चेतावनी के बावजूद हरिजन निकलते हुए दिखाई दिये। वहां पी.पी. को सख्ती करनी पड़ी। कुछ को लठियाया गया, कुछ जगहों पर बम फोड़े गये और कहीं हवाई फायर करने पड़े। बिना अधिक प्रतिरोध के इस मोर्चे पर कामयाबी मिल गयी।

जो गांव विपक्षी उम्मीदवार के गढ़ थे वहां दूसरी तरह से निपटा गया। मतदान के लिए खड़े मतदाताओं की कतारों के पास पहुंचकर अचानक हल्ला बोला जाता। एक साथ बम पटकने और फायरिंग की इतनी घटनाएं होतीं कि लोग लाइन तोड़कर भागते और फिर घंटों वापस नहीं आते। ऐसे पोलिंग स्टेशनों पर सबसे बड़ी सफलता यही होती कि कम से कम वोट पड़े।

अपने प्रभाव के क्षेत्र चुनाव केंद्रों पर अपने उम्मीदवार को शत प्रतिशत मत पड़े - इसके लिए बड़ा आसान तरीका था। केंद्र के बाहर गांव के रास्ते पर दो लोग चारपाई डालकर बैठ जाते। बाकी गैंग आस-पास छितरा जाता। जैसे ही कोई ऐसा वोटर आता दिखाई पड़ता जिसका वोट मिलने का पूरा विश्वास नहीं होता, चारपाई पर बैठा एक व्यक्ति पूछता, 'क्यों ताऊ, किसे वोट देगा?'

'जिसको कहो। तुम्हीं को दे दूंगा।'

'हमें देगा तो चल हमने ले लिया! बेकार क्यों परेशान हो रिया है। वापस चला जा, तेरा वोट हमें मिल गया।'

समझदार के लिए इशारा काफी होता। विरोधी वोटर वापस चला जाता। जो खुशी से वापस जाने में झिझकता, उसे मजबूती से समझा दिया जाता। वापस गये सभी के वोट अपने लोगों से फर्जी नामों से डलवा दिये जाते ।

कुछ चुनाव क्षेत्र काफी अंदर दुर्गम मार्गों पर थे। वहां बाहर से किसी का जल्दी पहुंच पाना असंभव था। ऐसी जगहों पर बूथ डकैती डाली गयी। जीपों पर भरकर पी.पी. का गिरोह पहुंचता। पहुंचते ही वे हवाई फायर करते और गोलियों की बौछार करते। जो लोग कतारों में होते थे, भाग खड़े होते। विपक्षियों के जो एजेंट बूथ के अंदर मौजूद होते उन्हें मारकर भगा दिया जाता। बच रहते सिर्फ थर-थर कांपते चुनाव कराने वाले सरकारी कर्मचारी। उनसे बैलेट पेपर छीनकर एक आदमी आराम से ठप्पे मारता और बक्सों में भर देता। चुनाव कर्मचारियों को बता दिया जाता कि अगर उन्हें अपने बच्चों की जान प्यारी हो तो इसकी शिकायत किसी से नहीं करें।

बहुत-से गांवों में तो पहले से ही चुनाव पार्टियों को मिला लिया गया था। चौधरी ऊंचा खिलाड़ी था। उसे साम-दाम-दंड-भेद से चुनाव जीतना ही था इसलिए जहां जिसकी जरूरत पड़ी वहां उसने उसका इस्तेमाल किया। मसलन दाम का प्रयोग करके उसने कुछ मतदाता केंद्रों पर पूरी पार्टी ही अपनी बिरादरी या समर्थकों की बनवा दी थी। ये पार्टियां चुनाव के एक शाम पहले संबंधित गांव में पहुंचतीं। गांव में उनके ठहरने की व्यवस्था पंचायत घर या स्कूल में की जाती, लेकिन वे ठहरते किसी प्रभावशाली व्यक्ति के आरामदेह घर में। वहां उनके लिए मुर्गे और शराब की व्यवस्था होती थी और वे रात भर जश्न मनाते रहते। जश्न के दौरान ही ज्यादातर मतपत्रों पर चौधरी जगतपाल के नाम पर ठप्पा मारकर उन्हें बक्सों में भर दिया जाता था। दूसरे दिन सुबह अव्वल तो विपक्षी उम्मीदवार के एजेंटों को पता ही नहीं चलता और अगर पता चल भी गया तो उन्हें मार-पीटकर चुप करा दिया जाता। कई जगहों पर हल्ला-गुल्ला होता, लेकिन पूरी मतदान पार्टी कहने को तैयार थी कि चुनाव ठीक समय से शुरू हुआ था और चुनाव शुरू होने के पहले बैलेट बक्से उलटकर सभी उम्मीदवारों के एजेंटों को दिखाये गये थे, अतः कुछ भी नहीं किया जा सकता था। बड़े सरकारी अधिकारी विपक्षी उम्मीदवारों को सलाह देते कि वे मतदान के बाद हाई कोर्ट में पिटीशन दाखिल करें। इसी हल्ले-गुल्ले के बीच चार बज जाते। जहां लोग बैलेट बक्सों को रोकने की कोशिश करते, वहां अतिरिक्त कुमुक भेज कर लाठी-गोली चलाते हुए बक्से वापस ले आये जाते।

मतदान केंद्रों पर औसतन एक सिपाही, एक होम गार्ड और एक चौकीदार होते। न इनके बस में था कि ये धांधलियों और बूथ डकैतियों को रोक सकते और न ही उनमें कर्तव्यपालन करने की ऐसी पागल दिलचस्पी थी कि अपनी जान पर खेलकर वे बूथ कैप्चरिंग का प्रतिरोध करते। घंटे-दो घंटे पर कोई बड़ा अफसर आता तो सब कुछ शांत हो जाता। अफसर बूथ के अंदर घुसकर एक कोने में खड़ा होकर अपने हाथ का बेंत हल्के-हल्के अपने पैरों पर मारता रहता और अंदर की स्थिति का जायजा लेता रहता। उसकी मौजूदगी में सब कुछ व्यवस्थित-सा लगता। उसके जाने के बाद फिर खेल शुरू हो जाता।

चौधरी जगतपाल विधानसभा का चुनाव जीत गया। उस चुनाव में चौधरी की टक्कर के बहुत-से खूंखार अपराधी चुनाव जीते। पहली बार अपराधियों के हाथों खुल जा सिमसिम लगा था। उनकी समझ में यह आ गया था कि अगर वे दूसरों को जिता सकते हैं तो खुद भी जीत सकते है। अखबार चिल्लाते रहे, लोग नाक-भौं सिकोड़ते रहे, एक से एक दादा किस्म के लोगों ने खद्दर पहनकर विधानसभाओं की शोभा बढ़ाना शुरू कर दिया।

मजेदार बात यह थी कि इनमें से ज्यादातर जनता द्वारा बड़े बहुमत से चुनकर आये थे। मूल्यों के स्तर पर परिवर्तन इतना तेज हो रहा था कि जातियों के नेता के रूप में अपराधी प्रतिष्ठित हो रहे थे। प्रदेश के पूर्वी हिस्से में एक ब्राह्मण अपराधी था जिसे ब्राह्मणों ने अपना नेता मान लिया था। उसी के समानांतर एक ठाकुर हत्यारे पर ठाकुरों को गर्व होने लगा था। उनके लिए अधिकारी, पत्रकार और नेता सभी पंडितजी और बाबू साहब जैसे आदरसूचक शब्द इस्तेमाल करते। इसी तरह सूबे के मध्य हिस्से में यादव डकैत यदुवंशियों के नायक बने बैठे थे। पश्चिम में जाटों और त्यागियों ने लुटेरों और डकैतों में अपने-अपने नेता तलाश लिये थे। जो जितना दुर्दांत अपराधी था, वह अपनी जाति का उतना ही बड़ा रत्न था।

इस परिदृश्य में अगर चौधरी जगतपाल धीरे-धीरे अपनी जाति का नेता बन रहा था और पी.पी. अपनी जाति का नेता बनने का सपना पाले हुए था तो यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी।

चुनाव के परिणाम तो काफी हद तक मत पड़ने के दिन ही स्पष्ट हो गये थे लेकिन फिर भी उसकी घोषणा तो मतगणना के बाद ही हो सकती थी। मतगणना हुई और चौधरी जगतपाल विजयी घोषित हुआ।

परिणाम घोषित होने के बाद चौधरी खुली जीप में खड़ा था। उसकी पूरी गर्दन फूल-मालाओं से भर गयी थी। उसी जीप में उसके पीछे पी.पी. और ओमी खड़े थे। दोनों के ऊपर कई ऐसे मुकदमे थे जिनमें वे फरार घोषित हो चुके थे। चुनाव के दौरान अपनी सारी गतिविधियां उन्हें छिपाकर करनी पड़ी थीं लेकिन परिणाम घोषित होते ही उनकी दुनिया बदल गयी थी। वे खुले आम खड़े थे। लोग टूट पड़ रहे थे चौधरी को बधाई देने के लिए। उनमें पत्रकार थे जो चौधरी, पी.पी. और ओमी की तस्वीरें खींच रहे थे, पुलिस वाले थे जो चौधरी जगतपाल से हाथ मिलाने की होड़ में पी.पी. और ओमी को नजरअंदाज कर रहे थे और समाज के तथाकथित बुद्धिजीवी थे जिनका जीवन इन तीनों को बधाई देने में धन्य हो रहा था।

जिस विनम्रता से चौधरी हाथ जोड़े अभिवादन और बधाइयाँ स्वीकार कर रहा था, उसी भावना से पी.पी. और ओमी भी लोगों की बधाइयाँ हाथ जोड़-जोड़कर स्वीकार कर रहे थे। बहुत-से लोग उन्हें ही बधाइयाँ दे रहे थे। दरअसल वे इसके हकदार थे भी। आज की जीत उन्हीं की वजह से संभव हो पायी थी।

'एक दिन मैं जीप के आगे इसी तरह खड़ा होऊंगा। दरअसल इस भैंसे की जगह मुझे ही होना चाहिए था।' ओमी ने पी.पी. के कान में फुसफुसाकर कहा।

पी.पी. का चेहरा फक पड़ गया। उसने घबराकर चारों तरफ देखा। उसे लगा जैसे उसके मन का चोर पकड़ा गया हो। जिस समय ओमी उसके कान में फुसफुसा रहा था, उस समय लगातार उसके कान में एक आवाज गूंज रही थी, 'वहां मुझे होना चाहिए, जीप की अगली सीट पर मुझे खड़ा होना चाहिए था। एक दिन मैं वहां खड़ा होऊंगा।'

पी.पी. बड़ी मुश्किल से मुस्कराया। ओमी ने उसके मन का चोर नहीं पकड़ा था, बल्कि अपने मन का भेद उसके सामने खोल दिया था। यह एक ऐसी भूल थी जिसे अपराध की दुनिया में कभी माफ नहीं किया जाता।