किस्सा लोकतंत्र / अध्याय 6 / विभूति नारायण राय
पी.पी. को अपराधों की दुनिया में ओमी लाया था। आज पी.पी. जो कुछ था, वह ओमी की वजह से ही था। पी.पी. इस बात का एहसानमंद भी था, पर एहसान सिर पर ढोते रहकर तो कोई नंबर एक नहीं हो सकता। यह सिर्फ राजनीति या व्यवसाय के लिए ही सच नहीं था। अपराध की दुनिया के लिए भी उतना ही सच था। पी.पी. को हर हालत में नंबर एक बनना था। वह महत्वाकांक्षा से बलबला रहा था लेकिन ओमी से ज्यादा गहरा था। ओमी भी महत्वाकांक्षी था और अपनी भावनाओं को, अपनी समझ से विश्वासपात्र लोगों के सामने खोलने लगता। पी.पी. भी उसके लिए विश्वासपात्र-सा ही था। चौधरी जगतपाल को फूल-मालाएं पहने देखता तो कहता, 'वहां मुझे होना चाहिए था।'
पी.पी. मुस्कराता।
'मैंने इस गूजर को जिताया है। एक दिन मैं खुद जीतूंगा।'
पी.पी. उसे रोकता नहीं। उसकी मुस्कान ओमी को प्रोत्साहित करती।
'कब तक हम इसकी चाकरी करेंगे? पुलिस हमें दौड़ाती है। यह मजे करता है। कुछ करना चाहिए बे। तू कुछ बोलता क्यों नहीं?'
पी.पी. कुछ बोलता नहीं, सिर्फ सुनता है। और यही उसकी शक्ति है।
ऐसा नहीं कि चौधरी जगतपाल को ओमी की भावनाओं का पता नहीं चलता। कुछ बातें पी.पी. उसे बताता रहता है और कुछ वह चौधरी के विश्वसनीय दरबानों, ड्राइवरों या अंगरक्षकों को सुनवा देता है।
पी.पी. को पता है कि बिना ओमी के रास्ते से हटे वह नंबर एक नहीं हो पायेगा, सिर्फ नंबर दो ही रहेगा। उसे नंबर एक होना है। इसलिए ओमी को तो मरना ही है। ओमी के मरने के बाद जो लफड़े उत्पन्न होंगे, उन्हें सिफ चौधरी जगतपाल ही हल कर सकता है, इसलिए ओमी को मरना है तो चौधरी जगतपाल की मर्जी से मरना है; बल्कि चौधरी पर एहसान के बतौर वह ओमी को मारेगा।
वह दिन भी आ गया जिसका पी.पी. को इंतजार था। चौधरी ने पी.पी. को अकेले बुलवाया। ओमी को हल्का-हल्का आभास हो गया था कि चौधरी उससे नाखुश है, इसलिए वह चौकन्ना रहने लगा था। अब वह बजाय चौधरी के यहां रहने के अलग रहता था। ऊपर से दोनों किसी तरह का मतभेद छिपाते थे लेकिन अंदर-अंदर सतर्क रहते थे। मुलाकात अकसर अचानक किसी तीसरे के यहां होती या टेलीफोन से बात होती। ओमी ने किसी निर्धारित समय या निर्धारित जगह पर चौधरी से मिलना छोड़ दिया था। दो-एक बार चौधरी ने बुलाया भी तो वह समय तय करके नहीं गया। टेलीफोन भी किसी तीसरे का इस्तेमाल करता और बात करते ही वहां से हट जाता। शहर में उसका ठिकाना भी चौधरी के आदमियों के लगातार प्रयास के बावजूद किसी को मालूम नहीं हो पा रहा था। दरअसल वह चौधरी के साथ इतना अधिक रहा था कि अपने शत्रुओं के सफाये की चौधरी की एक-एक चाल को समझता था।
इसी तरह चौधरी भी उससे सतर्क रहता। हालांकि चौधरी के साथ सुरक्षा का सरकारी और निजी इतना तामझाम था कि ओमी के लिए उस पर वार करना बहुत मुश्किल-सा था, फिर भी चौधरी कोई जोखिम नहीं लेना चाहता था।
पहले चौधरी ने अपने दूसरे अस्त्र-शस्त्र इस्तेमाल किए। सबके फेल हो जाने पर उसने पी.पी. को बुलाया। शुरू में पी.पी. को न बुलाने के पीछे एक कारण यह भी था कि उसे इस बात का भरोसा नहीं था कि ओमी को मारने के लिए पी.पी. तैयार होगा। पर धीरे-धीरे पी.पी. ने ही होशियारी से वे बातें उस तक पहुंचवायीं जिनसे उसे विश्वास हो गया कि पी.पी. ओमी को पसंद नहीं करता।
पी.पी. को सामने बैठाकर वह अपनी पैनी बाज जैसी आंखों से उसे तौलता रहा।
'तुम्हारा गुरु तो अब ज्यादा दुखी कर रहा है।'
'कौन-सा गुरु? अजी चौधरी साहब, मैं तो आप ही को गुरु मानता हूं। आपके अलावा कौन गुरु हो गया?'
चौधरी हौले से हंसा। स्साला पूरा घाघ हो गया है। इससे भी निपटना है। पहले ओमी से निपट लिया जाय, फिर इसे देखेंगे। ज्यादा दिन इसे भी खुला छोड़ना खतरनाक है।
'अरे, वही ओमी, तुम्हारा गुरु तो असली वही है। आजकल काफी ऊंची उड़ान उड़ रहा है।'
पी.पी. सतर्क हुआ।
'क्या हुआ चौस्साब? '
'तुम नहीं जानते?' चौधरी झुंझलाया। पी.पी. के भोलेपन से उसे चिढ़ होने लगी।
पी.पी. अपनी तरफ से कुछ नहीं कहना चाहता था। वह चौधरी से सुनना चाहता था। चौधरी ने कई तरह से कोशिश की, लेकिन पी.पी. से कुछ कहलवा नहीं पाया।
चौधरी मान गया कि कुछ ही सालों में पी.पी. कितना घाघ हो गया है। उसे याद आया वह दिन जब पी.पी. गांव से नया-नया उसके पास आया था। यह उसी की ट्रेनिंग थी जिसने पी.पी. को एक उतावले, अनगढ़ और सरल ग्रामीण युवक से गहरे, चालाक और घाघ शहरी नौजवान में तब्दील कर दिया था। उसे अपनी ट्रेनिंग पर गर्व हुआ, लेकिन आज तो उसका शागिर्द उसी पर भारी पड़ रहा था।
दोनों के बीच लुका-छिपी अधिक नहीं चली। अंत में चौधरी को टूटना पड़ा।
'स्साला... कबूतर की औलाद! मैंने उसे हगना-मूतना सिखाया और मुझी को गच्चा दे रहा है।'
चौधरी कहीं से कमजोरी नहीं दिखाना चाहता था। पर गुस्से और प्रवाह के कारण उसने बहुत-सी ऐसी बातें बता दीं जिन्हें वह नहीं कहना चाहता था। मसलन ओमी ने उसे मारने के लिए किन-किन लोगों से संपर्क किया या कितनी बार चौधरी ने योजना बनायी और ओमी सतर्क होने के कारण बच गया। पी.पी. लगभग सब कुछ जानता था। उसने होशियारी से ऐसा तंत्र बुना था जो उसे दोनों तरफ की सूचनाएं पहुंचाता रहता था। पर वह चुपचाप सुनता रहा। उसने एक बार भी यह आभास नहीं दिया कि उसे कुछ पता है।
अंत में चौधरी आजिजी और अनुनय-विनय पर उतारू हो गया। वह जानता था कि ओमी को पी.पी. ही मार सकता है। अपना मतलब पड़ जाने पर वह किसी के सामने किसी हद तक गिड़गिड़ा सकता था।
पी.पी. यह जानता था। इसलिए वह मजा ले रहा था लेकिन ऊपर से गंभीर बना चौधरी को बीच-बीच में उत्तेजित करता रहा। अंत में यह तय हुआ कि पी.पी. ओमी को मार देगा। चौधरी उसके एवज में पांच लाख नकद एडवांस देगा और बाद में पैरवी की जिम्मेदारी उसकी होगी। पी.पी. जब बाहर निकला, तो उसके हाथ में एक बड़ा सूटकेस था, जिसमें पांच लाख रुपये भरे थे।
ओमी को मारना पी.पी. के लिए एक विचित्र अनुभव था। एक ऐसा अनुभव जो उसे पहले या बाद की किसी हत्या में प्राप्त नहीं हुआ। ओमी वह शख्स था जिसके साथ पिछले कई वर्षों से वह छाया की तरह रहा था। साथ रहने के कारण न चाहते हुए भी एक रागात्मक किस्म का संबंध विकसित हो गया था जिसे अचानक झटके से तोड़ डालना निहायत मुश्किल और तकलीफदेह था। ओमी ने ही पी.पी. को दुनिया के उस अंश से परिचित कराया था जिसका सम्मोहन उसे बरसों से अपनी तरफ खींचता रहा था। यह पी.पी. भी जानता था कि अगर ओमी से जेल में वह न मिला होता तो आज भी वह देहात का छोटा-मोटा चोर या उठाईगीर होता, जिसके पीछे पुलिस कुत्ते की तरह पड़ी रहती और किसी नियमित पर्व की तरह हर साल उसका हाथ-पैर तोड़ती रहती। सत्ता, धन और ताकत की इस दुनिया में ओमी ही उसे लाया था। लेकिन वह यह भी जानता था कि यह दुनिया बहुत निर्मम है और इस दुनिया में बने रहने के लिए जरूरी था कि वह ओमी को मार डाले।
एक बार फैसला करने के बाद वापस लौटने का अब कोई चारा नहीं था। उसने तय किया कि यह काम जल्दी निपटा डाला जाये।
इसके बाद शुरू हुआ चूहे-बिल्ली का खेल। ओमी भी इसी खेल का खिलाड़ी था। उसके सारे ठिकाने पी.पी. को मालूम थे, वे ठिकाने भी जिन्हें चौधरी जगतपाल भी नहीं जानता था । पी.पी. को पता था कि अगर पहला वार ओमी बचा ले गया तो फिर उसे पाना मुश्किल होगा। और हुआ भी यही। पहला वार ओमी बचा ले गया। पी.पी. ने फैसला होने के बारह घंटे के अंदर पहला वार किया। उसने सटीक उसी कमरे पर हमला किया जहां ओमी के होने की सबसे ज्यादा संभावना थी। अपनी चालाकी की वजह से ओमी बच गया। उसने उस रात तीन जगहें बदली थीं और इस कमरे से मुश्किल से आधा घंटा पहले उठकर गया था। कमरे में सोये दूसरे दो आदमियों को पी.पी. के लोगों ने यातना दे-देकर मार डाला, लेकिन वे ये नहीं उगलवा पाये कि ओमी कहां गया। दरअसल ओमी इतना सतर्क था कि उसके आदमियों को भी नहीं मालूम था कि वह कहां जायेगा। इस हादसे से ओमी को पता जरूर चल गया कि पी.पी. उसके पीछे पड़ गया है।
अगले दो-तीन दिन ओमी और पी.पी. दोनों के लिए बड़े त्रासदायक थे। पूरे अपराध-जगत के साथ उन्हें भी पता था कि अब दो में एक ही जिंदा रहेगा। बेचैन खामोशी के साथ सांस रोके अपराध-जगत दोनों के बीच के निर्णायक मुकाबले का इंतजार कर रहा था।
पी.पी. को अब तेजी से हरकत करनी थी क्योंकि बात खुल जाने के बाद दो ही संभावनाएं थीं। एक तो ओमी किसी बिफरे हुए हिंस्र पशु की तरह पलटकर आघात करेगा और दूसरी यह कि वह बंबई या अहमदाबाद जैसे किसी महानगर में जाकर छिप जायेगा जहां उसको शरण देने वाले काफी थे। एक बार वहां छिप जाने के बाद उसे ढूंढ़ निकालना बेहद मुश्किल, लगभग असंभव था, इसलिए जो कुछ करना था, जल्दी करना था।
अपराध जगत की सरगर्मियां तब थमीं जब पहले हमले के तीसरे दिन ही सुबह सूरज निकलने के साथ सड़क के किनारे गड्ढे में ओमी का क्षत-विक्षत शव मिला। पूरे शहर में सनसनी फैल गयी। सबको मालूम था कि इस हत्या के पीछे कौन हो सकता है लेकिन बीती रात को क्या हुआ था, यह पी.पी. और उसके दो-एक विश्वसनीय लोगों के अलावा किसी को मालूम नहीं था।
अपनी आसन्न मृत्यु की जानकारी ओमी को भी तब हुई जब इतनी देर हो चुकी थी कि कुछ नहीं हो सकता था। पहला वार बचाने के बाद वह एकदम नयी जगह पर सोने लगा था। यह नयी जगह दिल्ली की एक घनी आबादी वाली कालोनी में थी जिसका पता उसके किसी घनिष्ठ से घनिष्ठ सहयोगी को भी नहीं था। पर उससे एक गलती हो गयी। वह लगातार दो रात उस कमरे में सो गया और दूसरी रात पकड़ा गया। पी.पी. जितना शातिर और तेज ढंग से काम करने वाला था, उसके लिए इतना ही काफी था।
उस रात ओमी अपने दो साथियों के साथ एक ही कमरे में सोया। सोने के पहले उन्होंने शराब पी। ओमी सतर्क था कि शराब इतनी न हो कि रात में उसे बेसुध होने की नौबत आ जाय। एक साथ तीनों ने पी लेकिन कोई बात थी जरूर कि बेहोश सिर्फ दो ही हुए। तीसरा कब धीरे से उठा और कमरे से निकल गया, उन दोनों को पता नहीं चला।
ओमी को होश तब आया तब वह एक बंद गाड़ी में यमुना पार कर रहा था। उसके हाथ पीछे बंधे हुए थे और मुंह में कपड़ा ठूंसा हुआ था। पूरा बदन शराब और उसमें हुई खतरनाक मिलावट से टूट रहा था। यमुना पुल के हिचकोलों और गाड़ी में असुविधाजनक स्थिति में ठूंस दिये जाने के कारण उसकी नींद या बेहोशी टूटी। ओमी को समझने में देर नहीं लगी कि उसका क्या अंत होगा। ऐसी स्थिति वह पहले भी कई बार देख चुका था। फर्क सिर्फ इतना था कि पहले उसका रोल शिकारी का होता था और आज वह शिकार की हैसियत से असहाय पड़ा था।
दूसरों की जान लेना आसान होता है, लेकिन जब अपनी जान देने की बारी आती है तब बड़े-बड़े पत्थर-दिल लोगों को दहशत के समुद्र में उतरना पड़ता है। ओमी को भी होश में आते ही घबराहट और आतंक की ऐसी अनुभूति हुई कि उसे सीट पर बैठे-बैठे पेशाब हो गया। उसने इतने लोगों की जान ली थी कि अगर उसे याद करने को कहा जाय तो शायद ही एक बार में सही संख्या बता पाता। पर खुद मौत की तरफ बढ़ते जाना दूसरी बात थी।
गाड़ी में घुप अंधेरा था और काले शीशे खिड़कियों में चढ़े होने के कारण इस बात की संभावना भी कम थी कि बाहर से कोई उसे पिछली सीट पर पड़े देख सकता है। होश में आने के बाद उसने लेटे-लेटे यह समझ लिया कि कार में उसके अतिरिक्त पांच आदमी थे। दो पिछली सीट पर दोनों दरवाजों परभग लग उसको दबाये हुए उसके किसी-न-किसी अंग पर सवार थे। शेष तीन अगली सीट पर थे। यद्यपि उसका मुंह नीचे की ओर दबा था और वह देख नहीं सकता था फिर भी आवाजों से उसने पांचों को पहचान लिया। ये वही लोग थे जिन्हें पिछले कुछ वर्षों में उसने अपराध के विभिन्न आयामों की ट्रेनिंग दी थी। इनमें से एक तो उसके साथ रात में सोया ही था। इन सबके साथ उसने कितनी ही वारदातें की थीं। जेलों में साथ रहे थे। कितनी ही बार विरोधी गैंगों या पुलिस के साथ मुठभेड़ों में अपनी जान पर खेलकर एक-दूसरे की जान बचायी थी। आज ये उसकी जान लेने जा रहे थे। अपराध की दुनिया थी ही ऐसी बेहद निर्मम और अप्रत्याशित। उसके मन में आतंक के ऊपर अवसाद की एक परत छा गयी।
ओमी जानता था कि इनमें से कोई उसकी आंख का सामना नहीं कर सकता। अगर एक बार, सिर्फ एक बार उसके मुंह से कपड़ा निकल सके और उसका मुंह ऊपर को आ सके तो पांसा पलट सकता है। उससे आंख मिलते ही हत्यारों का इरादा बदल सकता है। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पा रहा था। उसने कई बार हल्के से ऊपर करवट लेने की कोशिश की लेकिन उन्होंने उसे बुरी तरह दबा रखा था। अपनी हरकत से वह उन्हें यह आभास नहीं देना चाहता था कि वह होश में आ गया है। वे उसे कार में ही मार सकते थे। मुंह में ठूंसे कपड़े को उसने धीरे-धीरे चबाना शुरू कर दिया।
उन्होंने उसे दिल्ली में सोये-सोये क्यों नहीं मार दिया इसका जवाब भी उसे लेटे-लेटे उनकी बातों से लग गया। दिल्ली में लफड़ा हो सकता था। वहां उनकी पूरी सेटिंग नहीं थी। अपने सूबे में उनके ज्यादा अच्छे ताल्लुकात थे। फिर चौधरी जगतपाल का रसूख और पैसा भी काम आने वाला था।
गाड़ी सड़क पर हिचकोले खाने लगी। स्पष्ट था कि राजधानी की अच्छी सड़कें छोड़कर अब किसी खराब देहाती सड़क पर उनकी गाड़ी मुड़ गयी थी। ओमी अंदाज लगाने लगा कि वे कहां जा रहे थे। बहुत स्पष्ट नहीं हो पा रहा था फिर भी कुछ-कुछ आभास उसे होने लगा था।
लगभग एक ही साथ उसके मुंह का कपड़ा हटा और गाड़ी रुकी। वह काफी देर से मुंह के कपड़े को चबा-चबाकर ढीला कर रहा था। जब तक उसे इसे ढीला करने में कामयाबी मिली तब तक शायद उनका गंतव्य भी आ गया। गाड़ी रुकी। बाहर पूरी तरह अंधेरा था। शायद किसी अंधेरी खड़ंजे की सड़क पर आबादी के बाहर गाड़ी खड़ी की गयी थी। तो क्या उसका अंत समय आ गया है? आतंक उसे शरीर पर एक दुखते फोड़े की मानिंद लग रहा था।
ओमी को थोड़ी राहत मिली। उनमें से चार गाड़ी से उतर गये थे और सिर्फ एक पीछे की सीट पर उसके पैर के पास बैठा था। 'क्यों बे जग्गे, तू मेरे ऊपर क्यों लदा है?'
ओमी का निशाना सही बैठा। वे उसे सोते में मार सकते थे, लेकिन उसकी आंख या आवाज का सामना नहीं कर सकते थे।
थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा। अचानक जग्गा सरक कर कार के बाहर चला गया।
ओमी उठ बैठा। उसके हाथ पीछे बंधे थे। यही अंतिम मौका था। उसने हाथों को झटककर खोलने की कोशिश की, लेकिन उन्हें इतनी मजबूती से बांधा गया था कि रस्सियां लगभग उसके मांस में गड़-सी गयी थीं। हाथों को हिलाने-डुलाने से कोई फायदा नहीं हुआ, केवल दर्द और बढ़ गया। समय गंवाने का कोई अर्थ नहीं था। वह कार से नीचे उतर आया।
नीचे उतरते ही उसने अंधेरे में भागने की कोशिश की। पर वे भी सतर्क थे। वे उसका सामना नहीं कर सकते थे पर उसे जिंदा भी नहीं छोड़ सकते थे।
'मारो साले को!' यह पी.पी. की आवाज थी। इसका मतलब है कि पी.पी. पहले से ही यहां मौजूद था और वे उसी से बात करने के लिए उतरे थे।
भागता हुआ ओमी लड़खड़ाकर गिरा। धायं की आवाज हुई और एक लपकता हुआ शोला उसकी कमर में घुस गया। अंधेरे ने उसका साथ दिया। वह अंधेरे का फायदा उठाता हुआ घनी और कमर तक उगी घासों में सरक गया।
चारों तरफ दौड़ती पद-चापों के बीच वह दम साधे पड़ा रहा। खून उसकी कमर में लगे जख्म से तेजी से गिर रहा था लेकिन इस समय उसके बारे में सोचने का वक्त नहीं था। जिंदगी और मौत के बीच बहुत कम फासला रह गया था। वह मरना नहीं चाहता था और बचने का एक ही रास्ता था कि वह अंधेरे में भागे और उनसे बचता हुआ दूर निकल जाय। लेकिन क्या यह संभव था? कई जोड़ा कदमों की आहट बार-बार दूर जाते-जाते एकदम पास आ जाती। चारों तरफ से हिंस्र पशुओं से घिरे किसी जख्मी मृगछौने सदृश वह अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करता हुआ-सा उनके दूर चले जाने की कामना कर रहा था।
'अबे सालो! गाड़ी की हेडलाइटें जला दो।'
बहुत करीब से ही पी.पी. की आवाज सुनाई दी। इसका मतलब पी.पी. उसके पास ही कहीं खड़ा था। ओमी को अपनी सारी इंद्रियां सुन्न होती-सी जान पड़ीं।
कार का इंजन स्टार्ट होने की आवाज आई। प्रकाश के दो वृत्त उभरे और घासों के ऊपर तैरने लगे। ओमी ने प्रकाश में पी.पी. को देखा। अभी वह रोशनी की जद के बाहर था लेकिन पी.पी. लगभग प्रकाश में नहा रहा था। उसके हाथ में रिवाल्वर था। पी.पी. के चेहरे पर वही तटस्थ ठंडापन था जिसे ऐसे मौकों पर ओमी देखता आया था और जिसका वह प्रशंसक रहा था। यह ठंडापन मजबूत से मजबूत दुश्मन की रीढ़ की हड्डियों में झुरझुरी पैदा कर देने के लिए काफी होता था। उसकी आंखों में इस भाव को देखते ही ओमी को विश्वास हो गया कि वह बचेगा नहीं, फिर भी अंतिम समय तक उसे प्रयास करना था।
'गाड़ी को चारों तरफ घुमाओ।'
पी.पी. के आदेश पर गाड़ी को अलग-अलग दिशाओं में घुमाया जाने लगा। हेडलाइट्स से निकले वृत्त पूरे निर्जन क्षेत्र के ऊपर नाचने लगे।
ओमी का चेहरा जर्द पड़ गया। रोशनी आगे-पीछे होती हुई सीधे उसके ऊपर मार करने लगी। अब छिपने से कोई फायदा नहीं था। उसे उठकर एक बार पी.पी. की आंख में आंख डालकर बात करने का मौका चाहिए। वह लड़खड़ाता हुआ उठा। पीछे बंधे हुए हाथ और प्राणों का भय उसे सीधे खड़े होने से रोक रहे थे। वह सामने की तरफ आधा झुका था। उसने पी.पी. को संबोधित करने की कोशिश की। घबराहट से उसकी जुबान लड़खड़ा रही थी।
'पी.पी., मेरे यार, मुझे छोड़ दे! तू चौधरी के कहने से मुझे मार रहा है। तेरे लिए मैं पहले हूं या चौधरी?' उसकी आवाज रुंध गयी।
यह आखिरी मौका था। उसने सुबकना शुरू कर दिया। पर पी.पी. की कोई प्रतिक्रिया उसे नहीं दिखाई दी। रोशनी कुछ इस तरह पड़ रही थी कि इस बार ओमी उसकी जद में था और पी.पी. बाहर। पी.पी. अंधेरे में सिर्फ एक बुत की तरह खड़ा था। उसकी आंखों और चेहरे पर क्या भाव था, यह जानना ओमी के लिए संभव नहीं था। पर उसने अंतिम हथियार के रूप में भावुकता का इस्तेमाल जारी रखा :
'तुझे मैं लाया था इस दुनिया में। कितनी बार हम साथ-साथ लड़े हैं। चौधरी साला हरामी का पिल्ला है। दो यारों को लड़ा रहा है।'
बोलते-बोलते उसकी आवाज रुंधी जा रही थी। अचानक वह थर्राकर चुप हो गया। उसके बोल गले में अटक गये और सिर्फ गों...गों...जैसी कुछ अस्फुट आवाजें निकलीं। हुआ यह कि पी.पी. अपनी जगह से कुछ आगे बढ़ आया और रोशनी में इस तरह खड़ा हो गया कि ओमी को उसकी आंखों का ठंडापन साफ-साफ दिखने लगा। उसका चेहरा पूरी तरह से भावशून्य था और आम तौर से उस पर रहने वाली धूर्तता और चौकन्नापन भी वहां से गायब था।
इसके बाद ओमी को सब कुछ दूर किसी दूसरे के साथ घटित होता-सा लगा। पिछले कई मौकों पर जब पी.पी. किसी शिकार को मारता था और वह कुछ दूरी से खड़ा होकर देखता था तो कुछ-कुछ ऐसी ही अनुभूति उसे होती थी। उसने जड़ भाव से देखा कि पी.पी. का रिवाल्वर वाला हाथ कुछ ऊपर उठा। उसके अंदर यह समझने की शक्ति भी नहीं रह गयी थी कि यह हाथ उसी की वजह से हिला है। वह अजीब उदासीनता से देखता रहा कि ट्रिगर पर उंगली का दबाव पड़ा और रिवाल्वर की नली से एक लपट-सी उठी। हालांकि सेकंड के एक छोटे-से हिस्से का ही फासला था लेकिन जब तक गोली उसके पेट में घुस नहीं गयी, वह यही समझता रहा कि अंत किसी और का होना है। इसके बाद उसे दूर कहीं बहुत दूर से गोलियों की आवाजें आती सुनाई दीं। उसका शरीर एक बार हल्के से उछला और जमीन पर गिरकर बिना तड़पे ही शांत हो गया।
ओमी की हत्या से पी.पी. का रुतबा एकबारगी बहुत बढ़ गया। अब वह सूबे के पश्चिमी जिलों के अंडरवर्ल्ड का बेताज बादशाह बन गया था। बहुत जल्द स्थिति यह हो गयी कि इन जिलों में शराब या बालू का कोई ठेका ऐसा नहीं था जो बिना उसकी मर्जी के उठता। या तो ये ठेके वह खुद लेता या उसके आदमी लेते। अगर कहीं भूल-चूक से किसी और को कोई ठेका मिल जाता तो पी.पी. को चौथ मिलती। पुलों की चुंगी वसूली के ठेके उसकी सहमति से उठते। मादक औषधियों के तस्कर या शराब के अवैध विक्रेता बिना मांगे उसे उसका हिस्सा पहुंचा जाते। कोई मकान या दुकान गुंडई के बल पर खाली होती तो उसे दो में से एक पक्ष चौथ जरूर देता। ओमी के मरते ही जैसे अपराध की पूरी दुनिया उसकी हो गयी।
पर जितनी तेजी से पी.पी. का विस्तार हुआ, इससे स्वाभाविक था कि चौघरी जगतपाल को उससे खतरा महसूस होने लगता। इस दुनिया में यही होता था। चौघरी के सामने यह जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि पी.पी. उसके अब तक के सभी बाहुबलियों में सबसे काइयां और शातिर था। चौधरी का अनुभव था कि कम बोलने वाले ज्यादा खतरनाक होते हैं और पी.पी. बहुत कम बोलता था। अगला चुनाव आने वाला था और पी.पी. की महत्वाकांक्षाओं के बारे में उसे खबरें मिलने लगी थीं। इसलिए पी.पी. का खत्म होना जरूरी था।
चौधरी जितना सोचता था, पी.पी. उससे कहीं ज्यादा चालाक था। वह शतरंज के उस खिलाड़ी की तरह था जो अगली दो-तीन चालें पहले से ही सोचकर रखता हो। जिस दिन उसने ओमी को मारा, उसी दिन से वह चौधरी से सतर्क रहने लगा। चौधरी ने कई बार कोशिश की कि उसे दावत या काम के सिलसिले में अपने घर पर बुलाये, लेकिन हर बार वह गच्चा दे जाता। वह अपनी तरफ से चौधरी को शक का कोई मौका नहीं देना चाहता था, लेकिन कोई ऐसी गफलत भी नहीं पाल सकता था जिसमें चौधरी को उस पर वार करने का मौका मिलता।
पी.पी. को मारने का एक ही तरीका था कि उसे असावधान कर दिया जाय। चौधरी ने उसे एक दिन किसी तीसरे के घर पकड़ा :
'क्यों भई पी.पी., तू अब हमसे ही इतना खिंचा-खिंचा रहता है। क्या नाराजगी हो गयी! बतायेगा नहीं तो दूर कैसे होगी?'
'कुछ नहीं, चौस्साब, आपसे नाराज होकर कहां रहेंगे। हम तो आपके बालक हैं।'
'नाराज तो है, भले बताये ना। दो बार खाने पर बुलाया, नहीं आया। मिलता भी नहीं, सिर्फ टेलीफोन पर बात करने से कैसे चलेगा!'
'आप भी चौस्साब, क्यों जूते मारते हो! आपके घर की जूठन खाकर तो हम बड़े हुए हैं।'
'फिर खाने पर क्यों नहीं आया?'
'दोनों बार कुछ न कुछ लफड़ा फंस गया। मैंने हर बार माफी तो मांगी थी।'
'अच्छा, बता, अब कब आयेगा?'
'जब आप हुक्म करो।'
'मैं अब कुछ नहीं कहूंगा। तू खुद टाइम तय कर दे। तेरी भाभी कई बार कह चुकी कि तुझे खाना खिलाये कितने दिन हो गये।'
'और शार्मिंदा मत करो चौस्साब! मैं बाहर से लौट आऊं तो आते ही आपसे खुद ही बात करके तय कर लूंगा।'
'कहां जा रहा है?'
'लखनऊ कुछ काम पड़ गया है। कल सुबह मारुति से निकल जाऊंगा और परसों रात तक लौट आऊंगा।'
पी.पी. का शक सही था। दूसरे दिन उसकी मारुति कार पर हमला हुआ। हमलावरों ने यह जाने बिना ही कि उसमें पी.पी. नहीं बैठा है, कार को छलनी कर डाला। पी.पी. का ड्राइवर और दो आदमी मारे गये, लेकिन पी.पी. को चौधरी के इरादों के बारे में सही जानकारी मिल गयी।
इसके बाद खुली जंग शुरू हो गयी। एक बार फिर सूबे के पश्चिमी जिलों, दिल्ली और हरियाणा के सीमावर्ती नगरों के अपराध-जगत ने सांस रोकर दो दिग्गजों की लड़ाई देखी। पुलिस, प्रेस और अपराधी - सभी दो खेमों में बंट गये। चौधरी राजनीतिक रूप से ताकतवर था इसलिए शुरू में वही भारी पड़ा। पी.पी. के खिलाफ कई झूठे-सच्चे मुकदमे दायर हुए। उसके कई आदमी मारे गये। अगर पी.पी. इतना शातिर न होता तो निश्चित रूप से पुलिस के हाथों मारा जाता या चौधरी के लोग ही उसे जिंदा नहीं छोड़ते।
पी.पी. के ये दिन बहुत खराब गुजरे। खास तौर से इसलिए भी कि इधर वह एक समृद्ध और आराम के सारे साजो-सामान से लैस शहरी जिंदगी बसर कर रहा था। उसने शहर के एक समृद्ध इलाके में एक आलीशान कोठी बनवा ली थी, जहां उसके बीवी-बच्चे ऐश की जिंदगी बिता रहे थे। अगर वहां हर समय कुत्तों के साथ चार-पांच बंदूकची पहरा देते हुए नहीं दिखाई पड़ते तो शायद ही किसी राहगीर को कुछ अस्वाभाविक लगता। यह कोठी भी उस इलाके के किसी उद्योगपति की कोठी जैसी लगती थी और पी.पी. के बच्चों या बीवी को देखकर उनके अतीत का पता नहीं चलता था। उसने अपने बच्चों को शहर के सबसे अच्छे स्कूल में दाखिल कर रखा था और घर पर महंगे ट्यूटर उन्हें पढ़ाने आते थे। उसकी बीवी अच्छी साड़ियों और भारी-भरकम जेवरों से लदी रहती। गांव की मुश्किल और गाय-भैंस के मूत-गोबर से गंधाती जिंदगी उनके लिए किसी दुःस्वप्न की तरह थी और एक बार फिर से उस जिंदगी में प्रवेश की कल्पना भी उन्हें असह्य लगती थी।
चौधरी ने पी.पी. को तोड़ने के लिए उसके इसी मर्मस्थल पर प्रहार किया। पुलिस ने पी.पी. की फरारी को आधार बनाकर उसकी संपत्ति कुर्क करने का आदेश प्राप्त कर लिया। उसकी पूरी संपत्ति कुर्क कर ली गयी। कई ट्रकों पर उसका कीमती घरेलू सामान बेदर्दी से लादा गया और ले जाकर पुलिस लाइन में पटक दिया गया। मकान पर पुलिस का ताला लग गया। पी.पी. के जो समर्थक या वकील इस कार्यवाही के दौरान उसके घर पर इकट्ठे हुए उन्हें पुलिस ने लठियाकर खदेड़ दिया। पी.पी. के बीवी-बच्चे घर के सामने एक पार्क में खड़े होकर टुकुर-टुकुर पूरी कार्यवाही देखते रहे। जिस मोहल्ले में वे बादशाहों की तरह रहते थे, वहीं असहाय और अपमानित-से वे खड़े थे। छोटे बच्चे रो रहे थे और उनकी मां बीच-बीच में अपने आंसू पोंछती हुई पुलिस वालों को अपने गांव की भाषा में गालियां दे रही थी। पूरा मोहल्ला छतों या सड़कों पर खड़ा होकर यह दृश्य देख रहा था। किसी की न तो हिम्मत थी और न ही इस परिवार से इतनी सहानुभूति कि कोई मौके पर आता। पी.पी. के परिवार को पड़ोसियों की आंखों में छिपी नफरत और उपहास की भावना साफ दिखाई दे रही थी। ये वही लोग थे जो आम दिनों में इस परिवार की कृपा पाने के लिए बिछे पड़ते थे। आज वही लोग अपने अंदर छिपी भावनाओं को प्रकट करने में बहुत संकोच नहीं कर रहे थे।
पी.पी. ने इस मौके पर भी अपने सभी विरोधियों को हर बार की तरह हतप्रभ और निराश किया। सबसे पहले तो उसके वकील ने अदालत में एक ऐसा दस्तावेज प्रस्तुत किया जिससे साबित हुआ कि उसकी पत्नी के रूप में जानी जाने वाली औरत से तो उसका कई साल पहले तलाक हो चुका है और पुलिस द्वारा कुर्क की गयी सारी संपत्ति उसी औरत की है। इस तरह पुलिस की पूरी कार्यवाही अवैध है और उस औरत की संपत्ति उसे वापस मिलनी चाहिए। पी.पी. का वकील इतना तेज था और सब कुछ इतनी सुनियोजित फुर्ती से घटित हुआ कि शाम तक अदालत से सामान वापसी का आदेश भी हो गया। विरोधी भ्रष्टाचार का विलाप करते रहे और दूसरे दिन रात तक पी.पी. के घर का ताला खुल गया और उसकी तलाक-शुदा पत्नी पुलिस की हिरासत से मिले आधे सुरक्षित और आधे टूटे-फूटे सामान को घर में फिर से जमाने में लग गयी।
चौधरी और पुलिस ने सिर पटक डाला लेकिन पी.पी. उनके हाथ नहीं लगा। दसियों ऐसी जगहों पर छापे मारे गये जहां हर बार यही पता लगता कि अभी थोड़ी देर पहले तक पी.पी. वहां था और छापे से थोड़ा पहले ही निकल गया। चौधरी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। उसे पता था कि अगर इस बार पी.पी. जिंदा बचा तो वह नहीं बचेगा। उसके आदमी मुख्य रूप से पी.पी. और ओमी की टीम से ही टूटे लोग थे। उन्हें उसके एक-एक अड्डे का पता था लेकिन वे बार-बार असफल हो रहे थे। पी.पी. की चालाकी उन सबके ऊपर भारी पड़ रही थी।
थक कर चौधरी ने कुछ दिनों के लिए ढील देने का फैसला किया। पुलिस ने अपनी कार्यवाही बंद कर दी। चौधरी के लोग भी पी.पी. के संभावित अड्डों पर कम दिखाई पड़ने लगे। उम्मीद थी कि पी.पी. लापरवाही बरतेगा और अपने खिलाफ मौका देगा। लेकिन कई महीने बीत गये, इसमें भी कोई सफलता नहीं मिली। पता नहीं पी.पी. दुनिया के किस कोने में छिपा था। इतना चौधरी को पता था कि पी.पी. के सभी काम चल रहे थे। उसके विश्वस्त लोग उसका सारा कारोबार संभाले हुए थे। उसके शराब या बालू के ठेकों में कहीं कोई मंदी नहीं दिखाई पड़ रही थी। मतलब साफ था कि पी.पी. कहीं न कहीं निकट से ही सब कुछ संचालित कर रहा था।
चौधरी के आदमी टेलीफोन एक्सचेंज में भी थे। उसने पी.पी. के घर और उसके सभी जानने वालों के टेलीफोन टेप करवाने शुरू कर दिये, पर इसमें भी उसे कोई कामयाबी नहीं मिली। यह एक ऐसा उपाय था जिसे उसने, ओमी और पी.पी. ने अपने कई विरोधियों पर आजमाया था। पी.पी. जानता था कि चौधरी उसका पता लगाने के लिए टेलीफोन एक्सचेंज का इस्तेमाल करेगा, इसलिए वह इस मामले में पहले से सतर्क था। करीब-करीब रोज उसकी बात अपने विश्वस्त आदमियों से होती थी लेकिन ऐसे टेलीफोन नंबरों का इस्तेमाल होता था जिनकी भनक चौधरी या उसके लोगों को नहीं होती थी।
दो-तीन महीनों की ढील से पी.पी. तो असावधान नहीं हुआ, लेकिन चौधरी ने जरूर कुछ लापरवाही बरतना शुरू कर दिया और यही उसके लिए महंगी साबित हुई।
चौधरी ऐसी जगह मारा गया जहां उसे सबसे कम उम्मीद थी। वह विधानसभा के अधिवेशन में भाग लेने के लिए हमेशा कार से जाता था। उसकी कार के साथ उसके अंगरक्षकों से लदी-फंदी एक जिप्सी चलती थी। पी.पी. से झगड़े के बाद उसने अपना कार्यक्रम निर्धारित ढर्रे से हटकर बनाना शुरू कर दिया था। कभी वह कार से जाता और कभी अचानक ऐन मौके पर अपनी यात्रा दिल्ली जाकर हवाई जहाज पकड़कर पूरी करता। उसके चलने का वक्त भी उसके ड्राइवर को छोड़कर किसी को नहीं पता होता। इस बीच उसे खबरें मिल रही थीं कि पी.पी. उस पर हमला करने की पूरी जुगत में है। इसलिए वह बेहद सतर्क था लेकिन पी.पी. की तरफ से एक बार भी प्रयास नहीं हुआ, बल्कि उसके दबाव के कारण पी.पी. ही भूमिगत हो गया था। धीरे-धीरे उसकी सतर्कता में ढील आने लगी और इस बार उसने ट्रेन से लखनऊ जाने का फैसला किया।
रेलवे स्टेशन जिस कदर भीड़-भाड़ भरा होता था और जिस तरह हर समय पुलिस वाले वहां दिखाई पड़ते थे, उसमें किसी तरह के खतरे की संभावना बहुत कम थी। इसीलिए चौधरी ने ट्रेन से लखनऊ जाने का कार्यक्रम बना लिया। ट्रेन में उसके साथ सफर करने के लिए पर्याप्त संख्या में पुलिस और निजी सुरक्षाकर्मी थे। इसलिए स्टेशन पर वह एक परिचित चाय की दुकान पर खड़ा ट्रेन का इंतजार कर रहा था। उसके साथ पांच-छह चमचे खड़े थे जो उसे छोड़ने आये थे। पी.पी. को फरार हुए कई महीने बीत चुके थे। चौघरी के साथ उसके बंदूकची भी लापरवाह हो गये थे।
चौधरी के सामने खड़े व्यक्ति ने देखा कि अचानक चौधरी का चेहरा सफेद पड़ गया है। बोलते-बोलते उसकी आवाज लड़खड़ायी और उसकी आंखों की पुतलियां अजीब तरह से हरकत करने लगीं। दहशत और घबराहट उसके चेहरे पर इतनी साफ अंकित हो गयी कि अगर वह चेहरा पारदर्शी होता तो सामने खड़ा खतरा इसमें स्पष्ट रूप से झलकने लगता। चौघरी के सामने खड़े लोग भी अपराध की दुनिया से ही आये थे इसलिए आसन्न खतरे के समय क्या करना चाहिए, यह उन्हें बताने की जरूरत नहीं थी। पहली गोली चलने के पहले ही वे इधर-उधर लपके। चौधरी ने भी भागकर चाय की दुकान के पीछे छिपने की कोशिश की, लेकिन उसके मुड़ते ही उसकी पीठ पर स्टेनगन की पूरी मैगजीन खाली हो गयी। उसका शरीर लहरदार ऐंठन के साथ हवा में उछला और जमीन पर गिरते ही ठंडा पड़ गया।
सब कुछ इतनी तेजी के साथ घटित हुआ कि चौधरी के साथ आये अंगरक्षक भौचक्के खड़े रह गये। हमलावरों ने इतनी सावधानी से अपनी योजना बनायी थी कि किसी को भी पता नहीं चला कि कब एक कुली आकर चाय की दुकान पर खड़ा हो गया और कब एक अजनबी ने चाय बनाने का आर्डर देकर निरुद्देश्य-सी हरकत करते हुए अपना ब्रीफकेस खोला। सबसे पहले ब्रीफकेस से उसे स्टेनगन निकालते हुए चौधरी ने देखा। खतरा भांपते हुए उसने जब चाय की दुकान के पीछे छिपने की कोशिश की, तब तक देर हो चुकी थी।
इसके पहले कि स्टेशन पर मौजूद लोग कुछ समझें, कुली ने चारों तरफ धुआंधार फायरिंग शुरू कर दी। पूरे प्लेटफार्म पर कोहराम मच गया। लोग सामान फेंकते हुए खोमचों और ठेलों से टकराते हुए भागे। चौधरी के साथ के लोगों ने भी फायरिंग की। लेकिन किसी को नहीं पता था कि कौन किसे मार रहा है। इस अफरातफरी का फायदा उठाते हुए मारने वाले दोनों न जाने कहाँ बिला गये।
चौधरी विधायक था इसलिए स्वाभाविक ही था कि पूरे सूबे में उसकी हत्या पर हाय-तौबा मचती। पुलिस की खूब छीछालेदर हुई। सभी जानते थे कि हत्या पी.पी. ने करायी होगी लेकिन उसके खिलाफ कुछ नहीं हो सकता था। चौधरी के लोगों ने उसे एफ.आई.आर. में नामजद करा दिया। पर उसके विरुद्ध कोई मुकदमा कैसे बन सकता था? जिस समय हत्या हुई ठीक उसी समय वहां से लगभग सौ किलोमीटर दूर एक छोटे-से स्टेशन पर वह बिना टिकट पकड़ा गया था। एफ.आई.आर. में लिखाये गये समय पर तो उसे एक मजिस्ट्रेट एक हफ्ते की सजा सुना रहा था।
चौधरी और ओमी के मरने के बाद पी.पी. के पास अनंत संभावनाओं वाला आकाश था जिसमें बिना किसी अधिक प्रयास के रूई के फाहों की तरह उसे उड़ते चला जाना था - आगे... आगे... और आगे।