कुँइयाँजान / नासिरा शर्मा / पृष्ठ 2

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इसलिए कि तब आबादी कम थी और उसी के साथ थोड़े-बहुत कुएँ-तालाब बचे हुए थे। जब से नल और वाटर वर्क्स से हमारा रिश्ता जुड़ा है, पानी का राशन शुरू हो गया। पहले टाइम बाँधा, फिर तीन टाइम से दो टाइम हुआ और अब पानी बिजली पर निर्भर है। यह कोई बात हुई, बिजली का हाल यह है कि हर गाँव में खंभे खड़े हैं, तार खिंचे हैं, मगर कनेक्शन नहीं। जहाँ कनेक्शन हैं वहाँ पर बिजली शाम को छह बजे जाती है और रात को साढे दस बजे आती है। गाँव जाओ तो वहाँ भी पानी-बिजली रामभरोसे है। इस देश की व्यवस्था कुछ समझ में नहीं आती। हम तो अब, कुरैशी जाने वाले हैं, मगर इस नई पीढ़ी का क्या होगा जिसके सामने समस्याएँ-ही-समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं? कभी-कभी गाँव में सुना बचपन का एक गाना कान में बज उठता है, फिरंगी नल मत लगवाय दियो..., आज घर के अन्दर पानी की इस सुविधा ने हमको सामाजिक मेलजोल से भी काट दिया है। न पनघट पर औरतें जमा होती हैं, न घाट पर बैठ कपड़ा-बरतन धो अपना दुःख-दर्द कह पाती हैं। लाला ने लंबी श्वास-भर कहा और चाय का खाली गिलास लड़के को थमाया।

मुझे तो अँधेरा-ही-अँधेरा नजर आ रहा है। आज सुबह खबर सुन रहा था। उसमें तो बहुत बेचैन कर देने वाली खबरें सुनने को मिलीं। कुछ सूखे इलाकों में हैंडपाइप लगे, मगर उसमें से लाल रंग का पानी गिरता है, जो धोने-नहाने तक के लिए बेकार है। कुरैशी चिंता से बोला।

हमने धरती से पानी तो खूब लिया, मगर उसे जो देना था वह नहीं दिया। इस धरती पर हुए हमारे अत्याचार ही हमें आज इस दुर्दशा में डाले हुए हैं, फिर भी हम होश में नहीं आ रहे हैं। पहले धर्म को लेकर धर्म-युद्ध होते थे। फिर सीमा को लेकर तलवारें खिंचती थीं और देखना, कुरैशी भाई, जल को लेकर प्रान्तों के बीच युद्ध छिडेगा। ताज्जुब नहीं कि यह गृह-युद्ध एक दिन विश्व-महायुद्ध में बदल जाए! लाला ने चश्मा ठीक कर दूरदर्शिता-भरे स्वर में कहा।

आप तो लालाजी, हमसे कहीं ज्यादा पढ़े-लिखे हैं। दूर तक की सोच लेते हैं, मगर हम छठी पास जो भी समझ रहे हैं उससे बहुत डर लगता है। कुरैशी ने अपने कान पर उगे बालों को सहलाते हुए कहा। क्या पढ़ना-लिखना! बाप ने बी.ए. कराया था, इस विचार से कि सरकारी नौकरी करूँगा; मगर भाग्य में लिखा था नोन, तेल, लकड़ी बेचना, सो बाप की दुकान पर बैठा हूँ। इसी कारण मैंने बेटे को लेकर कोई सपना नहीं देखा है। जैसी स्थितियाँ बनेंगी वही उनका रूप गढ़ेंगी। फिलहाल तो भविष्य को लेकर जवान भी परेशान हैं। कभी सुना है, बच्चों और जवानों को शक्कर और ब्लड प्रेशर की बीमारी? मगर आज फूल-से बच्चे गंदी-से-गंदी, खतरनाक-से-खतरनाक बीमारी से जूझ रहे हैं।' लाला ने लंबी सांस खींची।

हाँ, जिन बीमारियों का कभी नाम नहीं सुना, वे अब देखने-सुनने में आ रही हैं।' कुरैशी ने गहरी सोच में डूबते हुए कहा।

एक तरफ सरकार पौधा-रोपण की बात करती है तो दूसरी तरफ जंगलों की अनैतिक रूप से कटाई की ओर से आँखें बन्द किए है। गन्ने और धान में पानी की आवश्यकता अधिक पड़ती है, मगर कम पानी वाली फसलों के किसान भी पानी-पानी की दुहाई दे रहे हैं। ये सारे किसान खुशहाल हैं। और अब शीघ्रता से चुटकी बजाते ही धनवान बनना चाहते हैं। एक वर्श में कई-कई फसल उगाकर तिजोरी भरना चाहते हैं। डालते हैं फर्टिलाइजर बिना सोचे-समझे। इश्तहार दिखा-दिखाकर इस तरह का बलात्कार करने की जो प्रेरणा हम किसानों को दे रहे हैं वह भूमि के लिए बहुत हानिकारक है। लालाजी का स्वर उत्तेजित था।

इसीलिए लालाजी! अब तरकारियों और फलों में पहलेवाला मजा नहीं मिलता। एक दिन की रखी सब्जी दूसरे दिन मुरझा जाती है। ऐसी पैदावार से लाभ क्या जो जबान का स्वाद ही खत्म कर दे! कुरैशी ने अपना अनुभव बयान किया। इस सबकी जड़ बाजार है। बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया। लालाजी इतना कहकर हँसे और दुकान पर आए ग्राहक की ओर मुखातिब हुए। कुरैशी अपनी दुकान की तरफ गया और बंधी चिक उसने खोल दी। उसके चेहरे पर चिंता उभर रही थी कि सुबह से अब तक कोई ग्राहक उसकी दुकान पर नहीं आया था। घड़ी पर नजर डाली। उसमें बारह बज रहे थे। उसने सुबह आया समाचार-पत्रखोला और अटक-अटककर पढ़ने लगा।

बदलू को इस बात का दुःख था कि आधी गिरी मसजिद के पीछे, नीम के वृक्षों की छांव में ठीक मौलवी साहब की कब्र के पास, मोहल्ले के आवारा लड़कों ने कुछ दिनों से अपना अड्डा बना लिया था। ताश खेलना, नशा करना और मार-पीट कर गाली-गलौज करना उनका रोज का शगल था। जब खुद मोहल्ले वालों को इस बात की चिंता न थी तो बेचारा बदलू क्या कर सकता था? टोकने पर या तो पिटता या फिर पेट में चाकू घोंपवाता। उसने मौलवी साहब की याद को दिल में बसाकर उधर जाना ही छोड़ दिया। उसका सारा समय घर में गुजरता था। जब खुरशीद आरा टी.वी. खोलतीं तो बुआ के साथ जाकर उनके कमरे में बैठ जाता और परदे पर भागती-बोलती तस्वीरें देख लेता। सुबह-शाम हौदे में पानी डाल देता। अब जानवर उसको पहचानने लगे थे। उसके आने पर भागते-उड़ते नहीं थे।

एक दिन बदलू जब पानी दे रहा था तो एक गाय ने प्यार से उसका मुँह चाटा, फिर हाथ। बदलू की आँखें भर आईर्ं। उसने गाय का मुँह चूमा और बड़ी देर तक उसका बदल प्यार से सहलाता रहा। उसके लिए यह पहला अनुभव था जब किसी जीव ने उससे प्यार का इजहार किया था। वह कई दिनों तक अपने गाल को अंगुलियों से सहलाता रहा था। उसको माँ ने जरूर बचपन में चूमा होगा, मगर बड़े होकर चुंबन का यह अनुभव उसे आज तक महसूस नहीं हुआ था। इस घर में जाकर उसे पहली बार रिश्तों का ताना-बाना समझ में आया था। औरतों को उसने दूर से आते-जाते जरूर देखा था, मगर उनकी छाया में कितनी ठंडक, कितनी सुरक्षा मिलती है, इसका सुख उसे अब जाकर मिला था। उसका मन करता कि कोई उसे सीने से चिपकाकर प्यार करे, जैसे दुलहिन बी अपनी बेटी समीना को करती हैं।

कुछ दिनों से बदलू ने खाने के समय एक रोटी मोड़कर जेब में रखनी शुरू कर दी थी। एक दिन बुआ ने देख लिया, मगर कुछ बोली नहीं। जब यह रोज की बात हो गई तो एक दिन उन्होंने बदलू को रंगे हाथों पकड़ लिया और फटकारते हुए बोलीं, यह नदीदापन मुझे जरा भी नहीं भाता है। जब भूख लगे, मांगो, देंगे। मगर यूं जेब में छुपाना अच्छी आदत नहीं है।

वह...वह... चोरी पकड़े जाने पर बदलू एकाएक घबरा उठा था। कुछ जवाब न दे सका।

वह, वह क्या? फिर यह हरकत न दोहराना। लाओ, रोटी इधर दो। बुआ ने जेब में रखी रोटी निकलवा ली। बदलू का चेहरा उतर गया।

अब लू लगे आम की तरह यूं मुँह काहे लटकाए खड़े हो? बुआ ने उसकी उदासी देख, चिढ़कर पूछा।

बुआ, वह गाय है न, मुझे बड़ा प्यार करती है। यह रोटी मैं उसकी के लिए ले जाता हूँ। वह मेरी राह देखेगी। बदलू ने सिर झुकाए कहा।

ओ हो, तो चरबी चढ़ गई है। खुद खाओ, दूसरों को खिलाओ! खूब बेटा, खूब! अब तुम्हारे पर निकल आए, क्यों? बुआ ने कमर पर हाथ रखकर उलाहना-भरे स्वर में कहा।

अब कभी नहीं दूंगा, बुआ अम्मा। बदलू ने कान पकड़ते हुए कहा।

उसकी बात सुनकर बुआ ने सिर हिलाया और रोटी पिटारी में रखी।

उदास बदलू चुपचाप बरतन धोने लगा, फिर जमीन साफ कर वह अपने बिछावन पर जाकर लेट गया। बार-बार उसे ग्लानि हो रही थी कि उसको गाय को रोटी देनी ही थी तो अम्मा बुआ को बता देता। ठीक है, वह अपने हिस्से की रोटी देता था तो भी...तो भी...मेरी कोई गलती नहीं है। मैं भूखा रहकर अपना हिस्सा देता था। फिर बुआ अम्मा क्यों गुस्सा हुईं? वह अच्छे-बुरे, गलत-सही के सवालों में उलझा-उलझा सो गया।

शाम ढली। चाय पीकर जब वह हौदा भरने बाहर निकलने लगा तो बुआ ने उसे पुकारा। वह बालटी वहीं रख उनके पास गया। उनके बूढ़े चेहरे पर अजीब तरह की चमक थी। आँखों में नाचती शरारत और हाथ में रोटियाँ थीं। उसने ताज्जुब से बुआ अम्मा को, फिर उन रोटियों को ताका।

इतने दिन से हमारे पास है, लांडुरे! हमें जान नहीं पाया? अरे! हम पर मुए, यकीन करना सीख। ले ये रोटियाँ जी भरकर खिला। यहाँ न दिल तंग है, न हाथ। हमारे बहाने चौपाए कुछ खा लें, यह तो अच्छी बात है। यह कह बुआ ने उसे तीन-चार रोटियाँ थमा दीं।'

जी, बुआ अम्मा! बदलू के चेहरे पर खून दौड़ गया। वह मुस्करा उठा और मगन हो रोटी पकड़, बालटी उठा बाहर निकला। उसे आज यह गरम शाम बड़ी सुहावनी लग रही थी। उसने बड़े मन से रोटियाँ गाय के अलावा अन्य चौपायों को भी टुकड़ा-टुकड़ा खिलाईं और हँस-हँसकर वह जो मन में आया उनसे बतियाने लगा। वह आज बहुत खुश था। उसे मैना की चों-चों आज बुरी नहीं लग रही थी, बल्कि उनकी आपसी लड़ाई को वह प्यार-भरी झपड़ समझ रहा था। कौओं का बिजली के तार पर लाइन में बैठना उसे बड़ा लुभावना लग रहा था। बकरियों के बच्चों को गोद में ले उन्हें सहलाता हुआ वह सोच रहा था कि यह दुनिया कितनी सुंदर है! अँधेरा बढ़ने लगा था। उसने बालटी उठाई और दौड़ता हुआ गली में दखिल हुआ। उसका दिल चाह रहा था कि वह दूर तक बस दौड़ता चला जाए, कहीं न रुके।

इतवार का दिन था। मास्टरजी नहा-धोकर बड़े मस्त, आइने के सामने कंघी करते गुनगुना रहे थे। वह खुश होते भी क्यों न, सारी रात बिजली आई। कूलर की फर-फर हवा में लेटे वह रात-भर स्वर्ग का आनन्द लेते रहे। भरपूर नींद लेकर जब वह भोर में उठे तो नल से पानी गिर रहा था। शिवमंदिर से आरती की आवाज आ रही थी। मन प्रसन्न हो उठा। श्रीमतीजी भी तरोताजा चेहरे से उन्हें गरम-गरम चाय की प्याली थमा गईं। घूंट भरते हुए वह गुनगुना उठे-

रहिमन पानी राखिए, बिना पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुश चून॥

स्नानघर में जब चंदिया पर नल की मोटी घार गिरी तो मन में आवाज आई, सबसे बड़ा सुख क्या है-गरमी की सुबह ठंडे-ठंडे पानी से जी भर नहाना। सारा दिन चित्त प्रफुल्लित रहता है। तन-मन में स्फूर्ति-सी दौड़ती रहती है। वाह रे तेरी माया! बहुमूल्य उपहार जल के रूप में देकर तूने हमें धन्य दिया है। जलपान कर वह कुछ देर अखबार देखते रहे।

संपादकीय पन्ने पर एक लेख था-जल ही जीवन है'। वह उसको पढ़ने में डूब गए। जैसे-जैसे वह पढ़ते जाते वैसे-वैसे उनकी आँखें खुलती जाती थीं। लेख में लिखा था : आज विश्व में आकड़ों द्वारा ज्ञात होता है कि लगभग एक अरब से ज्यादा लोगों को साफ पानी पीने के लिए उपलब्ध नहीं है। दो अरब लोगों को नहाने-धोने के लिए पानी नहीं मिल पाता, जिससे लोग अनेक तरह के रोगों का शिकार हो रहे हैं। मृत्यु-दर दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है। भारत में गाँव, कस्बों, शहरों में लोग कुआं, तालाबों और नदियों से पानी लेते हैं जो अधिकतर गंदा और कीटाणु-युक्त होता है। उसमें प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले संखिया की मिलावट होती है। सारे विश्व में २६१ प्रमुख नदियां एक से अधिक देशों से होकर गुजरती हैं। दुनिया के कुल नदी-जल-प्रवाह का ८० प्रतिशत इन्हीं में है और जिन देशों से होकर ये गुजरती है उनमें संसार की ४० प्रतिशत जनसंख्या रहती है। पानी के कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तनाव पनपते हैं; जैसे-भारत और पाकिस्तान, भारत और बंगलादेश, भारत और नेपाल, सीरिया और तुर्की के बीच और स्वयं भारत में कर्नाटक और तमिलनाडू के बीच कावेरी नदी को लेकर तनाव की स्थिति पनप चुकी है।

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