कृपया दायें चलिए / अमृतलाल नागर / पृष्ठ 11
मिट्टी का तेल और नल क्रान्ति
आर्यसमाज और अखबारों की छत्र-छाया में बाल-विवाह भले ही न रुके हों अथवा विधवा-विवाह भले ही न हुए हों, परन्तु छोटी-मोटी क्रान्तियाँ अवश्य हुई। उनमें अंग्रेजी दवाओं, मिट्टी के तेल और पानी के नल का उपयोग बहुत ही मार्के की हैं। बंगाली डॉक्टर आने लगे। बाबू घरों में स्वाभाविक रूप से रोग केवल अंग्रेजी दवाइयों से ही अच्छे हो सकते थे, वैद्य-हकीम उनकी दृष्टि में दहकनी-दकियानूसी हो गए थे।
हिन्दू बाबू घरों में अंग्रेजी दवा का उपयोग बड़ी ही मुश्किलों से आरम्भ हो पाया क्योंकि यह धारणा फैली हुई थी कि कोई भी अंग्रेजी दवा बगैर ब्रांडी और बकरे-मुर्गों के सत के बन ही नहीं सकती। शुरू-शुरू में लोग इस धारणा के खिलाफ यह प्रचार करते थे कि यह बात गलत है, अंग्रेजी दवाइयां पाउडरों से तैयार होती हैं और पानी में गोली जाती हैं। लखनऊ के एक दवाफरोश ने, जिनकी दूकान शहर में सबसे पहले खुली, यहां तक प्रचार किया था कि उनकी दवाइयां नल के पानी में भी नहीं बनती हैं, बल्कि रोज़ उनके यहां ठेले पर लदकर कई कल से गोमती नदी का पानी आता था और कलसों-भरा ठोला विज्ञापन के रूप में सदा उनकी दूकान के सामने खड़ा रहता था। लोग-बाग ठाकुर जी को भोग लगाकर अंग्रेजी दवा ग्रहण करते थे।
न जाने किस तर्क के आधार पर मिट्टी का तेल जूठन की वस्तुओं में शामिल कर लिया गया था। लोग-बाग पहले उसे अपने घर की ड्योढ़ी में ही जलाते थे, मगर जर्मनी की डीजल लालटेनें मिट्टी के तेल को घरों के अंदर ले ही गईं। इसी तरह नल के पानी के संबंध में भी अनेक भ्रान्त धारणाएं फैली थीं। कहां जाता था कि अंग्रेज जिस पानी से नहाते और कुल्ला करते हैं उसी को नलों द्वारा घरों में प्रवाहित कर देते हैं; नल भारतीयों को धर्मच्युत करने की एक चाल है, उसमें चमड़े का वाशसल लगता है। हमारे नगर में पहले प्लम्बर एक बंगाली बाबू घर जाकर नल लगवाने के लिए अपील करते थे। उनके अनेक तर्कों में यह भी था कि जिन परम पावन नदियों में स्नान करने हिन्दू अपना परम धर्म समझते हैं, उन्हीं का उन्हें आठों याम सुलभ होगा। फिर भी आरम्भ में अनेक वर्षों तक नलों पानी केवल धोने-धाने के काम ही लाया गया। पीने और नहाने के लिए उसका व्यवहार न हो सका।