कृपया दायें चलिए / अमृतलाल नागर / पृष्ठ 15
मेरे आदिगुरु
पुराने भारतीय गुरुओं के सम्बन्ध में बहुतों ने बहुत कुछ जो सुन रक्खा होगा उसका एक रूप बीसवीं सदी में रहते हुए भी हमने आंखों देखा है। बचपन में जो पण्डित जी हमको पढ़ाते थे, वे प्राचीन ऋषि गुरुओं की आत्मा और वेशभूषा न रखते हुए भी किसी हद तक उनसे मिलते-जुलते हुए अवश्य थे। मसलन मार्च के महीने में तीसरे पहर यदि आप कभी उनके यहां पहुंचे होते तो हममें से किन्हीं दो छात्रों को आप ज्योमेट्री का थ्योरम ज़ोर-ज़ोर से सुनाते हुए, पण्डित जी की दो गायों की सानी करते हुए पाते। कोई लड़का आप को बाबर के बाप हुमायूं का माहात्म्य बखानता हुआ पण्डित जी के आंगन के साथ-साथ इतिहास को बटोरता हुआ मिल जाता। तीन-चार बजे का समय दरसल पण्डित जी की भांग घोटने का समय हुआ करता था। वे अपने नबाबी ज़माने के बने हुए मकान की पौली में चबूतरे पर दत्तचित्त हो सिलौटी पर विजया सिद्ध किया करते थे। जब तक भांग पीसते-पीसते सिल न उठ आए तब तक पण्डित जी अपने आसन से उठते न थे। इस कार्यक्रम में लगभग डेढ़ घण्टा लगता था। उतने समय में पण्डित जी विद्यार्थियों से सानी-पानी, झाड़-बुहारू आदि काम करवाया करते थे। परन्तु इन कामों को करते हुए भी लड़कों को अपनी पढ़ाई जारी रखना नितान्त आवश्यक था।
पण्डित जी किसी की एक पाई भी मुफ्त में खाना हराम सनझते थे। पौला में बैठकर भांग घोटने के कारण चूंकि पण्डित जी और उनके विद्यार्थियों के बीच में दीवाल की आड़ होती है, इसलिए उनका आदेश था कि सब लोग ज़ोर-ज़ोर से अपना पाठ याद करे जिससे कि उन्हें सुनाई पड़ता रहे। नतीजा यह होता था कि सरस्वती की मानसमुक्ता चुनने वाले हंस मिलकर कौवा-शोर मचा देते थे। ज्योमेट्री की थ्योरी में, इतिहास की कथाएं, भूगोल की कर्क, मकर और विषुवत रेखाएं, हिन्दी में चरित्र गठन के महत्त्व के साथ लिपट-उलझकर सब्ज़ी-मण्डी के कबाड़ियों की तरह अद्भुत स्वर वैचित्र्य उपस्थित किया करती थीं। इस रटाई के कार्यक्रम में हमें खरा आनन्द आता था। अदब से बैठने की ज़रूरत न होती थी, क्योंकि पण्डितजी सामने न होते थे। उठ-उठकर एक-दूसरे की टीपें लगाना, मुंह चिढ़ाना, चोंच दिखाना आदि मनोरंजक कार्यक्रम करते हुए हम चौबीस घण्टों में केवल उतना ही समय अपना मानकर सुख से बिताया करते थे, क्योंकि मार्च का महीना होता था।
हमारी सुबह स्कूल की, और दिन के एक बजे से लेकर रात के नौ बजे तक का समय पण्डित जी का हुआ करता था। सलाना इम्तहान के चार महीने पहले से हमारे खेल-कूदों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लग जाता था, क्योंकि पण्डित जी अपने किसी विद्यार्थी का फेल होना बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। दीवाली बीती नहीं कि पण्डित जी की आज्ञानुसार हमें अपने-अपने घरों में सुबह चार बजे उठकर पढ़ने बैठ जाना पड़ता था। जो लड़का चार बजे उठकर पढ़ना न आरम्भ कर दे उसकी खैर नहीं, कड़कड़ाती हुई सरदी में भी कम्बल ओढ़कर लालटेन और दूसरे हाथ में लट्ठ लिए पण्डित जी विभिन्न गलियों में रहने वाले अपने सभी विद्यार्थियों के घरों पर जाकर आवाज लगाते थे- फलाने ! और फलाना अगर एक आवाज में न बोला तो उसकी खैर नहीं। इस बुरी तरह धुनते थे कि देखनेवालों को दर्द लगता था। लड़कों के माता-पिता मारपीट के संबंध में कुछ नहीं कह सकते थे। विद्यार्थियों को पढ़ाने से पहले उसे अभिभावकों से मारपीट की शर्त वे तय कर लेते थे। ‘‘छड़ी लागे छम-छम और विद्या आवे धम-धम’’ के सनातन सिद्धान्त में उनका अटूट विश्वास था।
उस समय शहर में कुल जमा दो-तीन सिनेमा घर थे। उनमें भी हिन्दुस्तानी फिल्मों का सिनेमा केवल एक ‘रायल’ ही था, जो कि अमीनाबाद में था। मूक चित्रपटों की हीरोइन मिस पन्ना मिस लोबो, गौहर, जुबेदा, जेबुन्निसा, माधुरी, सुलोचना आदि हम लोगों के परम आकर्षण की जिन्स थीं। परन्तु दिसम्बर से लेकर मई के पहले हफ्ते तक हम उनकी झलक भी न देखा पाते थे। सिनेमा देखना तो दर किनार, चौक से अमीनाबाद तक जाने का आर्डर भी न था। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक लड़का अपनी मां के साथ किसी रिश्तेदार के घर अमीनाबाद गया था। संयोग की बात है कि पण्डित जी भी उस दिन अमीनाबाद गए हुए थे। वह लड़का अपने संबंधी के बेटे के साथ बाजार घूमने निकल आया। पण्डित जी ने उसे देख लिया। देखते ही उनके चेहरे पर ऐसी घबराहट आ गई मानो वह लड़का आत्महत्या करने के लिए निकल पड़ा हो। पचास कदम से दौड़ते हुए पण्डित जी उनके पास पहुंचे और हाथ पकड़कर हांफते हुए बोले,
‘‘मोए अमीनाबाद घूम रहा होगा।’’
फिर उसकी एक न सुन बाजार में ही धुन डाला। आसपास भीड़ जमा हो गई। लोगों ने समझा कि शायद यह लड़का पण्डित जी की जेब काटकर भागा है,
इसलिए वे उसे मार रहे हैं। बमुश्किल तमाम उन्होंने यह सुना कि वह अपनी मां के साथ एक संबंधी के घर आया है, सिनेमा देखने नहीं आया। पण्डित जी उसका हाथ पकड़कर संबंधी के घर गए, अन्दर से सूचना मंगवाई, और जब उन्हें विश्वास हो गया कि लड़के का कथन सत्य है, तब उन्होंने उसे छोड़ा।
गर्मी शुरू होते ही उनकी आज्ञा से हममें से हर एक को नित्य प्रति प्रात: काल ब्राह्मी बूटी पीनी पड़ती थी और वह भी एक खास दूकान से लाकर। जो ब्राह्मी बूटी न पिए उसे भी मार पड़ती थी। परीक्षा के दिनों में दो नियम हमें और भी पालन करने पड़ते थे। एक तो दिन-वार के अनुसार शकुन करके घर से निकलना और दूसरे पंडित जी के इष्टदेव एक खास मंदिर के गणेश जी, के दर्शन करना। इन कार्यक्रमों में चूक पड़ जाने पर भी करारी मार पड़ती थी। शकुन वाली कविता तो मुझे अब तक याद है-
‘‘रवि को पान सोम को दर्पण, मंगल को गुड़ कीजै अर्पण।
बधु को धनिया बीफै राई, सूक कहे मोहि दही सुहाई।
सनीचर कहे जो अदरक पाऊं, तीनों लोक जीत घर जाऊं।।’
इतना सब हमसे कराने के बाद पण्डित जी अपने कमजोर विद्यार्थियों को पास करवाने के लिए स्कूल मास्टरों की खुशामद भी किया करते थे। एक बार उनके मुहल्ले में रहने वाले एक मास्टर महोदय ने उनके एक विद्यार्थी को फेल कर दिया। पण्डित जी उनसे बेहद बिगड़े। उनके घर के सामने गली में खड़े होकर पण्डित जी ने उन्हें सैकड़ों गालियां सुना डालीं और यह धमकी दी कि
‘‘निकलना साले कभी, मारे जूतों के खोपड़ी गंजी कर दूंगा।’’
चार महीने तक वे मास्टर महोदय अपने एक पड़ोसी के पिछवाड़े से दूसरी गली में होकर आते-जाते थे, क्योंकि पण्डित जी ने अपने चबूतरे पर जूता लिए रोज़ उनकी प्रतीक्षा किया करते थे।
रिज़ल्ट के दिन के लिए भी उनका एक आदेश था- पास हो के आओ तो हाथ में तरबूज़ की फांक जरूर हो। परीक्षाफल निकलने के दिन पण्डितजी घनघोर पूजा-पाठ कर बड़े आकुल-व्याकुल भाव से अपने घर के सामने वाले चबूतरे पर बैठकर हम लोगों की प्रतीक्षा किया करते थे। दूर से ही हम लोगों को देखकर उन्हें फिर इतनी भी ताव न रह जाती थी कि लड़के पास आकर उन्हें अपना परीक्षाफल सुनाएं। इसीलिए तरबूज की फांक देखकर मेरे नये जूते ने मेरे पैरों को छालेदार बना दिया था। इसलिए लंगड़ाता हुआ चला आ रहा था। रास्ते में तरबूज़ वाले के यहां मुझे फांक भी न मिल सकी, क्योंकि लड़कों ने खरीद ली थी। मैं खाली हाथ पास हुए लड़कों से दस कदम पीछे पैर के छालों से परेशान लंगड़ाता हुआ चला आ रहा था। मेरे हाथ में तरबूज़ की फांक न देखकर पण्डित जी ने समझा कि मैं फेल हो गया। तैश में आकर पण्डित जी चबूतरे से लपककर उठे और लड़कों की भीड़ चीर कर मेरे पास पहुंचे उन्होंने धमा-धम घूंसे और चांटें लगाने शुरू कर दिए।
‘‘मुर्दे, तुझे इत्ता-इत्ता पढ़ाया फिर भी तू फेल हो गया।’’
मेरे मित्रगण चिल्लाए, ‘‘पास हो गया है पण्डित जी, पास हो गया है।’’
पण्डित जी ने मारना छोड़कर एक सेकिण्ड के लिए प्रश्न और प्रसन्नता से भरी हुई दृष्टि से मुझे देखा और फिर दूसरी धुन में मारना शुरू कर दिया,
‘‘अबें तो तरबूज़ की फांक क्यों नहीं लाया ? पचास बार कह चुका हूं कि मुझे दिल की बीमारी हैं, फिर भी मेरा दिल दहला देते हैं, ऐसे हैं आजकल के कम्बख्त चेले!’’
मारने में मेरे आदिगुरु तन्मय हो जाया करते थे, यह सच है, परन्तु उनको अपने बच्चों के समान फल खिलाना भी उन्हें सुहाता था। लड़कों की पढ़ाई को लेकर इतना अधिक सतर्क रहने वाले प्राइवेट ट्यूटर अब कहां मिलेंगे ? पण्डित जी अब नहीं रहे, परन्तु उनकी करालता की वह स्मृति आज बड़ी मधुर होकर मेरे ध्यान में आ रहा है। मैंने उनकी बहुत मार खाई है, क्योंकि हिसाब से कच्चा था। नशे में वे अक्सर मुझे बेतों ही बेतों धुना करते थे। ऊपर से पण्डितजी की मां, बहन, भावज उस मार को देखकर चिल्लातीं,
‘‘अरे लड़के को मार डालेगा क्या ?’’
पर पण्डित जी एक बार बेंत उठाकर तब तक नहीं छोड़ते जब तक उनकी सांस न फूलने लगे।
मैंने उन्हें अपनी हर किताब छपने पर अवश्य ही भेंट करने जाता। जब पहली किताब छपी तो उसमें मैंने लिखा था कि ‘‘जिनकी बेतों की मार की कृपा से आज इस योग्य हुआ।’’ जब दूसरी किताब लेकर पहुंचा तो उसमें यह सब न लिखकर कुछ और लिखा था।
पण्डित जी बोले,
‘‘यब सब कुछ नहीं, वहीं बेंतो की मारवाला मजमून लिखो बेटा।’’
उसके बाद से मैं बार-बार यही करने लगा। पण्डित जिससे मिलते, जहां जाते वहां बात चलाकर वह पुस्तक अवश्य दिखलाते, कहते,
‘‘यह मेरा शिष्य है। देखिए, इसने लिखा है कि बेतों की मार के बदौलत यह इस योग्य बना। यही इसकी योग्यता है।’’
यदि कोई उनसे किताब पढ़ने के लिए मांगता तो वे उसको न देते थे, कह देते,
‘‘ यह पुस्तक बड़ी योग्यता से लिखी गई है। इसको तुम न समझ पाओगे।’’
पण्डित जी न स्वयं किताब पढ़ते थे और न किसी को पढ़ने देते थे। किताब उनके हाथ में तब तक अवश्य रहती थी कि जब तक कि उसका एक-एक पन्ना ढीला होकर उड़ न जाए।