कृपया दायें चलिए / अमृतलाल नागर / पृष्ठ 14
अतिशय अहम् में
बात कुछ भी नहीं पर बात है अहम् की। आज से करीब पचास व साठ बरस पहले तक अहम् पर खुद्दारी दिखलाना बड़ी शान का काम समझा जाता था। रईस लोग आमतौर पर किसी के घर आया-जाया नहीं करते थे। बराबरी वालों के यहां भी बड़े नाज़ और नखरों से जाते थे। एक रईस महोदय का यह कायदा था कि अपनी बिरादरी में अगर कहीं मौत हो जाती तो स्वयं मुर्दनी में सम्मिलित होने के लिए न जाकर अपने खास नौकर के द्वारा अपने जूते भिजवा दिया करते थे। बिरादरी वालों को रईस महोदय का का यह अहंकार बहुत खलता था। खैर, उन्होंने बदला भी ले लिया। रईस महोदय की बुढ़िया मां मरी, बड़ी धूमधाम से उसका विमान निकालने की तैयारियां होने लगीं। सेठ जी के लगुए-भगुए तो सब पहुंच गए बिरादरी भर के फटे जूतों का गट्ठर उसके घर भिजवा दिया गया। व्यक्ति के अहम् पर समाज के अहम् का बोझ पड़ गया, सेर को सवा सेर मिल गया, घमंडी का सिर नीचा हो गया।
व्यक्तिगत रोब के सैकड़ों दृष्टान्त पुराने वक्त से निकालकर दिए जा सकते हैं। अंग्रेज हाकिम अपने सामने खड़ा ही रखता था। नवाबी ज़माने में एक ब्राह्मण देवता थे। पढ़े-लिखे तो थे नहीं, हां, गुंड़ों में सरनाम थे। लखनऊ के एक बड़े प्रसिद्ध महाजन साहजी साहब गंगाजमनी तामजाम पर बैठे चले जा रहे थे। चार बन्दूक धारी सिपाही आगे, चार पीछे और हटो-बचो की पुकार होती चल रही थी। बाज़ार में लोग झुक-झुककर साहजी साहब को सलाम कर रहे थे। संयोग की बात है कि साहजी साहब को अपनी मूंछों पर एकाएक हाथ फेरने की तबियत आ गई। उधर बांके महाराज की यह आन थी कि उनके सामने कोई मूंछों पर ताव नहीं दे सकता था। जो ऐसा करता वह गोली का निशाना बनता। बांके महाराज महाराज को साहजी की कोठी से अक्सर दान-दक्षिणा भी मिला करती थी। इसलिए साहजी साहब को गोली मारने के बजाय उन्होंने उनके तामजाम पर बने हुए शेर पर गोली दाग दी और बोले
‘‘अबकी छोड़ दिया साहजी ! मगर खबरदार, आगे से कभी मेरे सामने अपनी मूंछों पर ताव न देना।’’
मामला चूंकि साहजी का था इसलिए बादशाह तक खबर पहुंची और गुंडे ब्राह्मण देवता की मुश्कें कस गई और बादशाह की ओर उन्हें फांसी का हुक्म हो गया। लेकिन साहजी साहब आज के जमाने के अतिशय अहमवादी न थे। मौका-महल देखकर ही वे अपना रोब दिखलाते थे। इसलिए बादशाह के पास जाकर बोले, ‘‘जहांपनाह, मेरी बेबसी पर तरस खाइए। अगर हुज़ूर के हुक्म के खिलाफ कुछ कहता हूं तो मेरी गरदन जाती है और अगर चुप रहता हूं तो मेरी वजह से एक ब्राह्मण की जान जाती है और उसमें मेरा लोक-परलोक बिगड़ता है।’’ बादशाह ने साहजी साहब की बात मान ली और घमंडी बांके को छोड़ दिया।
अतिशय अहम् में ऐसे तमाशे अक्सर हुआ करते हैं। दरअस्ल, देखा जाए तो बात कुछ नहीं होती। महज़ एक-दूसरे के जोम में एक-दूसरे को पीसने की प्रवृत्ति ही जोम के खेल दिखलाया करती है। आपने उस मेढ़क का किस्सा अवश्य सुना होगा जिसके बच्चे ने पहली बार बैल देखा और अपने अतिशय अह्म में मेढ़क पेट फुलाकर मर गया, पर अपने बच्चे की नज़रों में बैल न बन पाया।
मेढ़कों की बात जब चल ही पडी है तब मुझे उनका टर्र-टर्र स्वर भी अतिशय अहम् के प्रतीक के रूप में याद आने लगा है। मेढ़कों की टर्र-टर्र पर तनिक ध्यान दीजिए।
मेढ़कों की यह टर्र-टर्र बाबा तुलसीदास जी को बड़ी सुहावनी लगी थी, लिहाजा लिख गए है कि-
‘‘दादुर धुनि चहुं दिसा सुहाई’’
और यहीं तक नहीं, अपनी उदारता में स्पेस से लांघते-फलांगते हुए उन्होंने मेढ़कों के टर्राने में वेद पढ़ते हुए लड़कों की टोली तक देख ली। खैर साहब, गुसाई जी महाराज तो संत-महात्मा थे लेकिन अपने राम वैसे शरीफ नहीं हैं, हमने जब मेढ़कों का टर्राना देखा-सुना है तब हमारे मन की स्क्रीन पर दो चित्र नाच उठे हैं, एक तो चारों खाने चित्त हाथ-पैर बांधे टर्रे खां मेढ़कराज हमें मेडिकल कालेज के किसी छात्र या छात्रा के चाकू के नीचे आने लगते हैं और दूसरे कभी-कभी मेढ़कों के टर्र-टर्र में हमें हिन्दुस्तानी बाबुओं की अंग्रेजी की बोल वाली लड़ाई का दृश्य नज़र पड़ जाता है।
एक किस्सा सुनाऊं। रेल में कम्पार्टमेंट में नई सवारी के प्रवेश करने पर झों-झों तकरार, गाली-गुफ्ता और कभी-कभी तो हाथापाई के दृश्य भी उन सभी ने देखे होंगे जो थर्ड क्लास में यात्रा करते हैं। कभी-कभी भीड़ अधिक होने पर सेकेन्ड क्लास कम्पार्टमेंट के यात्री यही दृश्य उपस्थित करते हैं। खैर, तो हम एक बार थर्ड में यात्रा कर रहे थे। भीड़ खासी थी। अपनी दरी-चादर बिछाकर सीट ‘रिजर्व’ करने वाले छोकरे से एक बाबू साहब ने थर्ड क्लास कम्पार्टमेंट में ऊपर की सीट अपने लिए रुकवाई थी। छोटा-सा दरवाजा, भीड़-खासी, हम लोग भी दूसरों के बक्स-बिस्तरों पर किसी प्रकार टिके हुए थे। लगभग तीस पैंतीस बरस के एक दुबले-पतले चश्मा, चोटी, चन्दन, कमीज़-पतलूनधारी एक बाबू साहब भी हमारे पास ही किसी कनस्तर का सहारा लेकर कुछ-कुछ खड़ेनुमा बैठे थे। उन्होंने बराबर अंग्रेजी में ही हमसे बातें की और हम बराबर अपनी ही बोली बोलते रहे।...........तो वो बाबू साहब ने दरी बिछाकर लेटे हुए गैरकानूनी तौर से सीट रिज़र्वेशन करने वाले छोकरे को देखकर धीरे से मेरे कान के पास आकर कहा-
बाबू- यू सी मिस्टर, ही इज़ नाट ए रिएल ट्रेवलर। (देखिए, यह असली यात्री नहीं है।)
मैंने कहा- आपने ये कैसे जाना?
बाबू- आइ हैव सीन हिज़ फेस सम टाइम्स बिफोर आल्सो। यू सी ह्नाट ही डज़ ? ही बिलांग्स टु दैट गेंग आफ छोकराज हू रिजर्व दी अपर सीट्स फार यू लाइक दिस। (मैंने पहले भी इसे देखा है। जानते हैं, वह करता क्या है ? यह छोकरों के उस दल का सदस्य है जो इस प्रकार दूसरों के लिए सीटें रिजर्व करते हैं।)
मैंने कहा- जान पड़ता है कि आपने ने भी कभी इस छोकरे से अपने लिए इसी प्रकार सीट रिज़र्व करवाई थी।
बाबू- यस, यस, मेनी ए टाइम्स बिफोर। यू सी आई एम दी पी.ए. अक्स वाई जेड आप दी सेक्शन बी- फ्लोरबार्थ सेक्टर इन एनीमल हज़बैंड्री, सो आइ हैल टु ट्रेवल। बट दिस इज़ ए बैड प्रैक्टिस, दिस काइंड आफ सीट प्रीज़रवेशन। चीटिंग दी पब्लिक ऐंड गवर्नंमेंट बोथ। यू एग्री मिस्टर। (हां, पहले कई दफा कराई है। मैंने एनीमल हसबैंड्री के फ्लोरबार्थ सेक्टर में सेक्सन बी के के एक्स वाई जेड का पी.ए. हूं, इस लिए मुझे अक्सर सफर करना पड़ता है। लेकिन इस तरह सीट लेना बुरी बात है। यह जनता और सरकार दोनों को धोखा देना है।)
मैंने कहा- जी हां, गलत तो है, लेकिन ये कालाबाज़ारी नीचे से लेकर ऊपर तक फैली हुई है। क्या किया जाए। खुद आप ही इन्हें बढ़ावा देते हैं।
बाबू- नो, बट दिस टाइम आइ विल टीच हिम ए लेसन। इन दी मीनटाइम यू प्लीज टेक केयर आप माई होल्टआल। (लेकिन इस दफा मैं उसे सबक सिखाऊंगा। आप सिर्फ मेरे होल्ड-आल पर नजर रखिए।)
ये कहके साहब ने अपना टीन का संदूक उठाया और खड़े-बैठे लोगों की भीड़ चीरते हुए सीट के सिहारने तक पहुंच गए। संदूक ऊपर चढ़ाया। वह छोकरा बोला,
‘‘क्या करते हैं साहब, ये सीट रिजर्व है।’’
‘‘अबे, तेरे बाप ने निजर्व कराई है यह सीट?’’
‘‘देखिए, बाप-दादा तक न पहुंचिए, अच्छी बात न होगी।’’
अच्छा-अच्छा, टिकट निकालकर दिखाइए अपना, पीछे बात कीजिएगा।’’
छोकरा बोला- ‘‘आप टिकस पूछने वाले कौन होते हैं ? बुलाइए टिकट- बाबू को, अभी दिखा दूंगा।’’
छोकरा तैश में आकर उठ बैठा, बाबू साहब ने तुरन्त अपना संदूक सिरहाने पर रख दिया।
वैसे ही एक दूसरे बाबू साहब ने प्रवेश किया। छोकरा उन्हें देखते ही
‘‘इधर है साब, आपकी सीट पर दूसरा साब जमा जात है, साब’ करके नीचे उतरा। दूसरे बाबू साहब ने, जो देखाव में अधिक रोबीले थे, एक बार अपनी सीट पर नजर डाली और कुली को आवाज़ देने लगे। छोकरा बोला कि साब, पैसे दीजिए। बाबू साहब ने रुपया दिया और ज्योंही उसने अपनी दरी उठाई, त्योंही बाबू ने झपटकर अपना होल्डाल सीट पर फेंक दिया और आगे बढ़कर जल्दी-जल्दी उसे खोलने लगे। दूसरे बाबू तैश खा गए, बोले-
‘‘ये क्या करते हैं आप ? सीट मेरी हैं।’’
बाबू- ‘‘हूसोएवर अक्यूपाइज़ दी सीट फर्स्ट.....।’’ (जो भी पहले सीट घेर ले......)
नया बाबू-‘‘बट आई हैव पेड फार इट।’’ (मैंने सबके सामने रूपया दिया है।)
पहले बाबू ने पूछा कि क्या आपने सरकार से सीट रिज़र्व कराई है, और यह कहते हुए तेजी से अपने होल्डाल के तस्मे खोलते रहे। दूसरे बाबू साहब का सामान सर पर लादे हुए कुली खड़ा हुआ था जो और सामान रखवाने के लिए जल्दी मचा रहा था। बाबू साहब ने उसी सीट पर अपना सामान रखने के लिए कुली को आदेश दिया। पहले बाबू लपककर ऊपर चढ़ने लगे। दूसरे बाबू ने फिर लपककर बाबू की टांग पकड़ी और दोनों बाबू अंग्रेजी में लड़ने लगे।
‘‘यू कान्ट अक्यूपाई दैट सीट।’’ (आप यह सीट नहीं ले सकते।)
‘‘आई शैल श्योरली सिट हियर। आई हैव एव्री राइट।’’ (मैं तो यहीं बैठूंगा। मुझे पूरा हक है।)
‘‘डू यू नो हू आई एम ?’’ (आप जानते हैं, मैं कौन हूं ?)
‘‘ऐन्ड डू यू नो हू आई एम ?’’ (और आप जानते हैं मैं कौन हूं ?)
लीजिए ! ये जोम की तनातनी बढ़ चली। दूसरे बाबू ने पहले बाबू की टांग घसीटकर गिरा दिया और फिर हाथा पाई होने लगी। कम्पार्टमेंट में हंगामा मचा, पुलिस आई और दोनों को पकड़ ले गई। बात कुछ भी नहीं थी मगर अतिशय अहम् के जोम में दो बाबुओं की बात यों बिगड़ गई। टर्रे मेढक मानो मेडिकल विद्यार्थी की छुरी के नीचे आ गए।