कृपया दायें चलिए / अमृतलाल नागर / पृष्ठ 13

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तीतर, बटेर और बुलबुल लड़ाना

यह मुमकिन है कि शान्ति के कबूतर उड़ाते-उड़ाते हम एटम हाइड्रोडन मिज़ाइल किस्म के भयानक हथियारों और आस्मानी और दर आस्मानी करिश्मों के औजारों की लड़ाई बन्द कराने में सफल हो जाएं, मगर यह कि लड़ाई का चलन ही दुनिया से उठ जाएगा, हम न मानेंगे जनाब ! अर्जी, लड़ाई का मज़ा चार जवान नज़रों से पूछिए, नवोढ़ा प्रौढ़ा सुहागिनों के मानभरे मुंहफुलावन से पूछिए, सितार और मिज़राब से पूछिए, घुंघरुओं और इन्सान के पैरों से पूछिए, इल्मोहुनर की लागडांट करने वालों से पूछिए, एलेक्श्न लड़ाने वालों से, वकीलों-बैरिस्टरों की जबीनों से, पार्टी की तूतू-मैंमैं से पूछ देखिए- कोई भी न चाहेगा कि लड़ाई का चलन उठा दिया जाए। सच पूछिए तो लड़ाई का दूसरा नाम ही जीवन का विकास है; ग्रह-उपग्रहों के सांस्कृतिक आदान-प्रदान के बावजूद इन्सान लड़ने से बाज न आएगा। जब तक दाल-तरकारी में नमक की ज़रूरत रहेगी तब तक सभ्यता का हाज़्मा दुरुस्त रखने के लिए हम गालियों का इस्तेमाल भी करते रहेंगे, जब विटामिन की टिकियों से पेट भरने लगेगा तब भी ताने देने की बात तो मेरे ख्याल से न छूटेगी। मतलब यह है कि विश्वशान्ति, ब्रह्माण्ड शान्ति आदि ऊँ शान्ति: शान्ति: शान्ति: का साम्राज्य दसों दिशाओं में फैल जाए, फिर भी ज्ञान-विज्ञान की ऊंची-ऊंची चोटियों पर चढ़ने के लिए मनुष्य निरन्तर लड़ता ही रहेगा।

प्रकृति के बच्चों में सिर्फ आदमी ही लड़ता हो सो बात नहीं, छोटे-बड़े चेरिन्दे-परिन्दे भी कटाजुज्झ करते ही रहते हैं। इनकी लड़ाइयों में मानवी सभ्यता न सदियों तक लुत्फ हासिल किया है। पुराने ज़माने में ही नागर सभ्यता ने जानवरों की लड़ाइयों को कला और शास्त्रविद्या तक पहुंचा दिया था। वात्यस्यान के कामसूत्र में लिखा है कि जानवरों की लड़ाई देखना रसिया रईसों के लिए टॉनिक का काम करता है। इसलिए पुराने दिनों के सम्राट बादशाह जानवरों की लड़ाईयां बड़े शौक से देखा करते थे। हमारे नगर, लखनऊ, में भी नवाबी बादशाही जमाने से इसके संस्कार चले आते हैं। नसीरुद्दीन हैदर को पशु-पक्षी के युद्धों का बड़ा ताव था। चांदगंज में पशुशाला थी, हाथी, ऊंट, गैंडे, सांड, भैंसों से लेकर तीतर, बटेर, मुर्ग, बुलबुल आदि तक की लड़ाइयां उसका मनोरंजन करती थीं। एक जमाना था जब यहां बटेरों और तवायफों की बादशाही थी।

खैर, इस समय तो बुलबुल, बटेरों और तीतरों का तज़किरा छिड़ा है। इनकी लड़ाइयां भी खूब-खूब होती हैं, चोंचें चलती हैं, ये परिन्दे आपस में एक-दूसरे पर झपट-झपटकर वार करते हैं, चारों तरफ इंसान तमाशाइयों की भीड़ खड़ी होकर इनका हौसला बढ़ाती है,

‘‘और ले बेटे ! काट ले और काट ले ! हुमक के ! जियो बेटे, वाह वाह !’’ का समां बंध जाता है।

इनकी हारजीत पर सैकड़ों हजारों का सट्टा हो जाता है। गरज यह कि इन पंछियों की लड़ाइयों का भाव रुपये, आने, पाई से अब तक बंधा है। इसीलिए लड़ाकू परिन्दों की खूराक और देख-सम्भाल में उनके पालने वाले दिल खोलकर खर्च करते हैं। इनके उस्ताद और खलीफा होते हैं, दंगल उस्तादों के नाम से होते हैं; इनकी हारी-बीमारी, चोट-चपेट के लिए दवाएं हैं, शक्तिदाता जड़ी-बूटियां हैं, पालने और लड़ाने के नियम है, पोथियां हैं- यानी कि वह सब टीमटाम है जो मनुष्य के शौक और सट्टे के सिद्धान्तों का समन्वय करती है।

वैसे हमें न तो सट्टे का शौक है और न जानवर पालने का। सच पूछिए तो हमारी हैसियत ही नहीं। हम आमतौर पर उन्हीं जानवरों की लड़ाइयां देख पाते हैं जो हमारे-आपके घरों में बरबस बस जाते हैं, मसलन चींटी, चूहे, मक्खी, मच्छर, खटमल वगैरह। दाना ले जाती हुई एक चींटी से दूसरी चींटी की रस्साकशी, चूहों की चूं-चूं और उछल-कूद-मार, मच्छरों का भन्ना-भन्नाकर एक-दूसरे पर वार करना अपना एक अन्दाज़ तो रखता ही है; मगर इनकी चर्चा बेकार है क्योंकि इनकी लड़ाइयों पर सट्टा नहीं होता।

भगवान भला करे हमारे पुराने प्रालितेरियन पड़ोसी कादिर भाई का, जिनकी बदौलत तीतर, बटेर और बुलबुलों के दंगल हमें देखने को अक्सर मिल जाते हैं। उनकी दुकान के सामने फुटपाथ पर कोई मौसम नहीं जाता जबकि एक न एक दंगल न होता हो। खयालगोई के दंगल, तीतर बटेर, बुलबुल, मुर्ग और अगिन चिड़िया के दंगल, बारहमासियों के दंगल- कुछ न कुछ होता ही रहता है।चलती सड़क से जन-जनार्दन सिमटकर जब भी ‘वाह-वाह’ और ‘लपक के बेटे’ का आकाशफोड़ शोर मचाते हैं तो हम सारे ‘इज़्मों’ से पगहिया तुड़ाकर अपने छज्जे पर खड़े हो इनका तमाशा देखने से चूक नहीं सकते। अहिंसा के सिद्धान्त को मानते हुए भी इन लड़ाइयों के मजे से हम इनकार नहीं कर सकते।

तो आइए, पहले बटेरों पर ही बातचीत हो जाए। यह मैं निवेदन कर चुका हूं कि नवाबी लखनऊ में बटेरों की बादशाहत थी। पण्डित रतननाथ दर ‘सरशार’ अपनी ‘आज़ाद कथा’ में सफशिकन के बहाने लखनऊ के बटेर को अमर कर गए हैं।

वैसे इन पंछियों की लड़ाई का मौसम कातिक गंगानहान से लेकर फागुन तक होता है, मगर बटेर गर्मी और सर्दी दोनों ही ऋतुओं में लड़ते हैं। दोनों ऋतुओं में बटेरों की जातियां भी अलग-अलग होती हैं। गर्मी में ‘चिनख’ बटेर लड़ता है और जाड़ों में ‘घाघर’। चिनख घाघर से छोटा होता है और वज़न में छटांक-डेढ़ छटांक का होता है। चिनख की चार किस्में होती हैं; चिनख पोटिया, घाघट पोटिया, असल चिनख और चारों किस्म के बटेर गर्मी के मौसम में ही मस्ताते हैं।

सर्दी में घाघर लड़ाया जाता है। यह चिनख से बड़ा और तोल में आध पाव-ढाई छटांक का होता है। इसकी दो किस्में होती हैं, असल घाघर और चिनख घाघर की संकर जाति घाघर पोटिया।

लड़ाकू बटेरों की परवरिश में बड़ी लागत लगाई जाती है काकुन तो ये चुगते ही हैं, लड़ाने की तैयारी में इन्हें मेवे, केसर, मुश्क, और जड़ी-बूटियां भी खिलाई जाती है।

इनकी काबुकों में चूल्हें की राख या छनी हुई बारीक मिट्टी बिछा दी जाती है, जिसमें लोट-लोटकर ये अपनी मस्ती बढ़ाते हैं। इन्हें नहलाया जाता है, आवश्यकतानुसार धूप-छांह भी दी जाती है। चैत में इनके बच्चे पैदा होते हैं; वे चैतुवे कहलाते हैं। साल दो साल पुराने पोढ़े बटेर करीज कहलाते हैं, जो बाकी चालू फसल में लिए जाते हैं वे ‘नये’ कहलाते हैं। ये तीनों आपस में लड़ाए जाते हैं। घर में लड़-लड़कर पोढ़े होते है; जो बहादुर निकलते हैं वे दंगलों में भेजे जाते हैं। लड़वैये बटेरों की चोचें उस्तरे से बारीक बनाई जाती हैं ताकि उम्दा मार कर सकें।

बटेरों की लड़ाई देखने में बड़ी सनसनीखेज़ होती है। ये नन्हा बूटेदार कत्थई या काले रंग का पहाड़ी जानवर अपने प्रतिद्वन्द्वी को देख पर फुलाते और बड़ी शान से पैंतरे बदलते हुए अचानक उछलकर वार करता है, कभी खींच मारता है, कभी मुर्री लगाता है, कभी फाड़ता है तो कभी दुश्मन की आंखों में चोच मारता है या उसकी चोंच तोड़ता है। लड़ते-लड़ते बटेर लहूलुहान हो जाते हैं, जितना लड़ते हैं उतना गरमाते हैं। हरैला बटेर जीतने वाले से अपनी जान छुड़ाकर सीधे नोकदम पाली बाहर भागता है, वरना जीतने वाला उसकी जान न छोड़े।

अब तीतरों की बात सुनिए। टीले मैदानों में तीतर चुगते, खाली पिंजरा लिए ‘लियो बेटे हुई-हुई’ की हांक मारते तीतर-प्रेमीजन गली-मुहल्लों और गांव-खेड़ों में आपने अक्सर देखे होंगे। तीतर बड़ा मस्त और ताकतवर जानवर होता है। वह चैत में पैदा होता और सर्दी में मस्त होकर लड़ता है। लड़वैए तीतरों की खुराक भी बटेरों की तरह कीमती होती है। वैसे इसे मिट्टी, आटा और दीमक भी चुगाया जाता है। पालने वाले अपने घरों में इनके लिए एक नलचीसी बनाकर उसमें बारीक मिट्टी भर देते हैं ताकि ये खूब लोटें-पोटें। गर्मी में पानी से तर बालू भर देते हैं। इनकी चार जातियां होती है और चार किस्में। ये देसी, गंगापारी, दक्खिनी और दोगली जातियों के होते हैं। रंग-भेद के अनुसार ये भूरिया, मेहंदिया, करौंदिया और काले कहलाते हैं। इनकी लड़ाई के दांव-पेंच भी देखने के काबिल होते हैं। ये अपने दुश्मन की आंख काटते हैं, चोच में चोंच डालकर ज़बान काटते हैं, जिसे ‘कुफल मारना’ कहा जाता है, दुश्मन की खोपड़ी में चोंच मारने को ‘डंक मारना’ कहते हैं, एक ही स्थल पर बराबर किए जाने का टेक्निकल नाम ‘एक ठौर मारना’ और चंचल गति से दुश्मन के शरीर के हर भाग पर आघात करने को ‘फड़कमार’ कहते हैं।

अब दास्ताने बुलबुल सुनिए। सर्दी में पीतल के अड्डों पर बुलबुल लिए इनके शौकीन भी आपको अक्सर देखने को मिल जाएंगे। इनकी चार किस्में होती हैं, सफेद, काला, काला-सफेद, और तौखी। अमरूदों के बाग में अक्सर ये पाये जाते हैं। इनका भोजन अधिक कीमती नहीं होता। भुने हुए चने का बेसन इन्हें खिलाया जाता है। जब लड़ना होता है तो दस-बारह घंटे पहले से इन्हें भूखा रक्खा जाता है। प्रतिद्वन्द्वी को देखते ही ये भूखे बुलबुल एक-दूसरे पर झपट पड़ते हैं, एक पंजो से चोंच और दूसरे से पंजा पकड़कर ये गुंथ जाते हैं। जो ताकतवर होता है वह कमजोर को दबाकर पड़ जाता है और कमजोर उसके पंजे से छूटने के लिए जी-जान से प्रयत्न करता है।

इनकी परिचर्या भी बड़ी सावधानी से होती है। अड्डे पर लिये-लिये इन्हें बराबर घर-बाहर घुमाया और उड़ाया जाता है। इन्हें दंगलों में लड़ाने के लिए यह आवश्यक होता है कि एक ही जगह रखकर लड़ाने की प्रैक्टिस न की जाए, वरना ये दूसरी जगह न लड़ेंगे। हारा हुआ बुलबुल मुंह घुमाकर बैठ जाता है, विजयी से नज़रे नहीं मिलाता।

इस तरह तरह-तरह के शौक हैं, शौकों के पीछे आदमी तबाह है और तबाही में लड़ाई की बात तो आ ही जाती है।